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पानी की अत्यधिक बर्बादी से उसकी आपूर्ति का संकट बढ़ रहा है, जिससे ‘ग्लोबल साउथ’ (वैश्विक दक्षिण) के शहर महंगे और अस्थायी समाधान अपनाने को मजबूर हो रहे हैं.
Image Source: Getty Images
यह लेख ‘विश्व जल सप्ताह 2025’ निबंध श्रृंखला का हिस्सा है.
माना जाता है कि साल 2047 तक, भारत की 1.4 अरब आबादी में से आधे से अधिक लोग शहरों में रहने लगेंगे. इससे साफ़ पानी उपलब्ध कराने को लेकर आशंकाएं बढ़ने लगी हैं और पहले से ही दबावों से जूझ रही शहरी जलापूर्ति प्रणाली पर और भी ज़्यादा दबाव बढ़ने की चिंता गहराने लगी है. हालांकि, आज के हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं. दुनिया के सबसे अधिक जल संकट से जूझने वाले 20 शहरों में से पांच भारत में हैं. इसमें दिल्ली का स्थान दूसरा है, जबकि पहले स्थान पर टोक्यो है. इसके बाद के स्थानों पर क्रमशः मेक्सिको सिटी, शंघाई, बीजिंग और कोलकाता को रखा गया है. अध्ययनों में अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक शहरी भारत में साफ़ पानी की आपूर्ति और मांग का अंतर बढ़कर 500 अरब लीटर रोज़ाना तक पहुंच सकता है, जिस कारण भूजल का अधिक दोहन होगा. इतना ही नहीं, शहरी भारत में बढ़ते जल संकट से 2050 तक 6 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का नुक़सान हो सकता है. यह स्थिति सिर्फ़ हमारी नहीं है, उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अधिकतर शहरों का भविष्य कुछ इसी तरह बदहाल रहने की आशंका है.
शहरी भारत में बढ़ते जल संकट से 2050 तक 6 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का नुक़सान हो सकता है. यह स्थिति सिर्फ़ हमारी नहीं है, उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अधिकतर शहरों का भविष्य कुछ इसी तरह बदहाल रहने की आशंका है.
ऐसी हालत में, शहरों को अपने उपलब्ध जल संसाधनों का अधिक से अधिक न्यायसंगत उपयोग करना सीखना होगा और उससे भी महत्वपूर्ण बात यह सुनिश्चित करने की है कि वे बढ़ते गैर-राजस्व जल (NRW) को घटाने में तेजी लाएं. गैर-राजस्व जल उस पानी को कहते हैं, जो उपभोक्ताओं तक पहुंचने से पहले रिसाव या चोरी से बर्बाद हो जाता है और जिसका राजस्व संबंधित विभाग को नहीं मिल पाता. अध्ययनों से पता चला है कि दक्षिण एशियाई शहरों में NRW का लगभग 75 प्रतिशत पानी कमज़ोर बुनियादी ढांचे के कारण बर्बाद हो जाता है. शहरी भारत के संबंधित विभाग कुल जलापूर्ति का औसतन 38 प्रतिशत हिस्सा NRW के रूप में गंवाते हैं, जो वैश्विक स्वीकार्य मानक, यानी 15-20 प्रतिशत का लगभग दोगुना है.
लगभग 58 प्रतिशत NRW के साथ दिल्ली भारत की ‘NRW राजधानी’ भी है. दिल्ली जल बोर्ड कुल 4,207 मेगा लीटर प्रतिदिन (MLD) पानी की आपूर्ति करता है, जिनमें से 2,400 मेगा लीटर प्रतिदिन से अधिक पानी का हिसाब नहीं मिल पाता. इसमें वह पानी भी शामिल है, जो झुग्गी-झोपड़ियों, कलस्टरों और अनधिकृत कॉलोनियों में बिना बिल के उपलब्ध कराई जाती है. मुंबई में भी, जहां रोज़ाना 3,950 MLD पानी की आपूर्ति की जाती है, 1,155 MLD पानी बर्बाद हो जाता है, जो उसकी कुल आपूर्ति का करीब 30 प्रतिशत हिस्सा है. जानकारी के लिए बता दूं कि 30 प्रतिशत NRW का मतलब है कि मुंबई में 2014-15 में 30 अरब रुपये की लागत से बने मध्य वैतरणा बांध से रोज़ाना प्राप्त होने वाले 455 MLD पानी का लगभग तीन गुना से अधिक जल यहां बर्बाद हो जाता है. इसी तरह, भारी-भरकम लागत से तैयार विलवणीकरण संयंत्र से पानी साफ़ करने वाला चेन्नई शहर मांग के हिसाब से हर दिन 1,200 MLD पानी की आपूर्ति नहीं कर पा रहा. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, यहां NRW 30 प्रतिशत तक है.
बेंगलुरु, कोलकाता और हैदराबाद सहित अन्य महानगरीय शहरों की भी यही स्थिति है, जबकि यहां के स्थानीय प्रशासनों के पास तुलनात्मक रूप से अधिक संसाधन हैं. आंकड़े बताते हैं कि देश भर में, सैकड़ों टियर-1 और टियर- 2 शहरों में, जहां नागरिक बुनियादी ढांचा बहुत कमज़ोर है, अरबों लीटर पानी NRW के रूप में बर्बाद हो जाता है.
अध्ययनों के अनुसार, दुनिया भर में NRW की मात्रा रोज़ाना 346 ट्रिलियन लीटर है. इसका करीब एक-तिहाई हिस्सा विकासशील देशों के संबंधित विभागों अथवा संस्थाओं द्वारा बर्बाद किया जाता है, जिसे यदि बचा लिया जाए, तो 80 करोड़ लोगों की जरूरतें 150 लीटर प्रति व्यक्ति रोज़ाना के हिसाब से पूरी हो सकती हैं.
उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले ज़्यादातर शहरों में भी NRW की असमानताएं बहुत ज़्यादा हैं, फिर चाहे यह शहरों के भीतर हो या उनके उप-नगरीय जिलों में. उदाहरण के लिए, किगाली के कई वितरण क्षेत्रों में NRW 55 प्रतिशत से ज़्यादा दर्ज़ किया गया है, जो शहर के औसत 39 प्रतिशत से काफ़ी ज़्यादा है. अदीस अबाबा में पानी की कुल आपूर्ति का करीब 42 प्रतिशत हिस्सा NRW के रूप में बर्बाद होता है, जिससे उसका असल घाटा बढ़कर 64 प्रतिशत हो जाता है. शहर में पानी के 6,20,000 कनेक्शन हैं, जिनमें प्रति कनेक्शन रोज़ाना औसतन 300 लीटर पानी बिना बिल वाला दर्ज़ किया गया है.
विश्व बैंक का मानना है कि कराची में मांग व आपूर्ति का अंतर 700 MLD है और NRW 60 प्रतिशत. अगर NRW के स्तर को अंतरराष्ट्रीय मानक तक कम कर दिया जाए, तो लगभग 1,200 MLD पानी बचाया जा सकता है.
एशिया के विकासशील देशों में भी यही रुझान देखने को मिल रहा है. विश्व बैंक का मानना है कि कराची में मांग व आपूर्ति का अंतर 700 MLD है और NRW 60 प्रतिशत. अगर NRW के स्तर को अंतरराष्ट्रीय मानक तक कम कर दिया जाए, तो लगभग 1,200 MLD पानी बचाया जा सकता है. इससे न केवल आज की ज़रूरत पूरी हो सकती है, बल्कि कराची में पानी मांग से ज़्यादा उपलब्ध हो जाएगा. यही स्थिति जकार्ता की है, जहां 66.7 प्रतिशत घरों तक पानी पहुंचाया जा सका है, लेकिन यहां NRW 45.6 प्रतिशत है, जबकि 45 प्रतिशत जलापूर्ति कवरेज वाले यंगून में लगभग 50 प्रतिशत NRW दर्ज़ किया गया है. कई तरह की एजेंसियों के आकलनों से यही पता चलता है कि कई पश्चिम एशियाई देशों में NRW काफ़ी ज़्यादा है, जैसे लेबनान में 60 प्रतिशत, जॉर्डन में 50 प्रतिशत और इराक में 60 प्रतिशत.
इसी तरह, लातीन अमेरिकी व कैरेबियाई देशों में ब्राजील में सबसे अधिक NRW है और यहां के जलापूर्ति विभागों को साल 2022 में 37.8 प्रतिशत पानी का नुक़सान झेलना पड़ा था. हालांकि, ब्राजील की 27 संघीय इकाइयों में NRW के स्तर में भारी असमानताएं हैं, जिनमें गोइयास में सबसे कम 28.5 प्रतिशत और अमापा में सबसे अधिक 74.6 प्रतिशत है.
भारत के ज़्यादातर शहरों में जलापूर्ति ढांचा आधी सदी से भी अधिक पुराना हो चुका है और अब वह चरमराने लगा है. उदाहरण के लिए, हैदराबाद के पुराने इलाके, जैसे गांडीपेट, मंजीरा और सिंगूर में 90 MLD पानी बर्बाद होता है. दक्षिण मुंबई के पुराने इलाकों में भी कुछ इसी तरह की चुनौतियां हैं.
पुराने बुनियादी ढांचे, ख़राब रखरखाव और गड़बड़ियों को जल्द ठीक न कर पाने की कमियों के कारण ‘ग्लोबल साउथ’ के कई शहरों में जलापूर्ति विभाग दक्ष नहीं दिखते और वहां NRW का स्तर भी अधिक बना रहता है. 2019 के एक अध्ययन के मुताबिक, 46 देशों के 2,115 विभागों ने पानी के उपयोग व रिसाव को मापने व नियंत्रित करने और NRW में ज़रूरी कमी लाने का लक्ष्य बनाकर सार्वभौमिक जल मीटरों के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया है. हालांकि, भारत के केवल 50 प्रतिशत शहरी घरों में ऐसे मीटर लगे हैं, जिस कारण कुल खपत का पता लगाना या गड़बड़ियों को ढूंढ़ निकालना करीब-करीब असंभव हो जाता है. इस कारण, अवैध कनेक्शन और पानी की चोरी शायद ही पकड़ में आ पाती है या उन पर जुर्माना भी नहीं लग पाता है.
जल प्राधिकरण, नगर निकाय और राज्य विभाग आमतौर पर NRW कम करने की कोई साझा रणनीति अपनाए बिना अलग-अलग काम करना पसंद करते हैं. कुशल कर्मियों और आधुनिक उपकरणों की कमी इस समस्या को और बढ़ा देती है, क्योंकि बहुत कम विभागों के पास संस्थागत मदद के बिना प्रभावी उपाय अपनाने के लिए ज़रूरी आर्थिक या मानव संसाधन उपलब्ध होते हैं.
पर्यावरण की बेहतरी के लिए भी NRW को कम करना ज़रूरी है. ऊर्जा का अधिक इस्तेमाल करने वाली इकाइयों द्वारा उत्पादन, उपचार और आपूर्ति व्यवस्था को देखते हुए रिसाव से होने वाली एक लीटर पानी की बर्बादी भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बड़ा योगदान करती है. यह ख़तरा ख़ासतौर से उन शहरों में अधिक होता है, जो थर्मल पावर, यानी कोयले से पैदा होने वाली बिजली पर निर्भर हैं.
इसके अलावा, NRW के बने रहने का एक अर्थ यह भी है कि जल की आपूर्ति करने वाले मुख्य पाइप जर्जर हो चुके हैं. रिसाव होने वाले स्थान भूमिगत सीवेज सिस्टम से आसानी से दूषित हो जाते हैं, विशेषकर उन शहरों में, जहां अलग-अलग वितरण क्षेत्रों में दिन के अलग-अलग समय पर रुक-रुककर पानी की आपूर्ति की जाती है. आपूर्ति बंद होने से पाइपों पर दबाव कम हो जाता है, जिससे दूषित भूजल उसमें रिसने लगता है.
पानी की बर्बादी मांग और आपूर्ति के अंतर को भी बढ़ाती है, जिसका नतीजा होता है, पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने वाले और कार्बन का उत्सर्जन करने वाले उपायों का इस्तेमाल. उदाहरण के लिए, जल संकट दूर करने के लिए जलाशय व बांध बनाए जाते हैं, जिससे विस्थापन की समस्या पैदा होती है और वनों की कटाई की जाती है. इसी कारण, लंबी दूरी की पंपिंग भी की जाती है और उन उपचारों पर ज़ोर दिया जाता है, जिनमें ऊर्जा का अधिक उपयोग होता है. भूजल का अत्यधिक दोहन और ख़ासतौर पर निम्न-आय वर्ग वाले लोगों की पानी के टैंकरों पर अत्यधिक निर्भरता भी इसी का नतीजा है. ये सभी प्रभाव सामाजिक-पारिस्थितिकी चुनौतियों को जन्म देते हैं.
हालांकि, कुछ उभरती अर्थव्यवस्थाएं वैश्विक स्तर पर कुछ सर्वोत्तम व्यवस्थाएं भी अपनाती हैं. 2,900 MLD पानी की आपूर्ति करने वाले ढाका में NRW में उल्लेखनीय कमी की गई है और यह 40 प्रतिशत से घटकर अब 5 प्रतिशत रह गया है. दो दशकों की मेहनत और सभी तक मीटर पहुंचाकर यहां अब 98 फीसदी राजस्व जमा किया जाने लगा है, जिससे ढाका के जलापूर्ति विभाग कम आय वाले समुदायों तक भी पानी पहुंचाने लगे हैं. इसके साथ ही, उसका परिचालन अनुपात, यानी संचालन में दक्षता भी सुधरकर 0.66 हो गया है. इसी तरह, मनीला वाटर ने भी अपने NRW में उल्लेखनीय कमी की है, जो 1997 में 63 प्रतिशत था और 2022 में घटकर 12.69 प्रतिशत रह गया. इससे यह दुनिया का सबसे अधिक जल-कुशल शहरी केंद्रों में शामिल हो गया है. इसी तरह, भारत में जमशेदपुर यूटिलिटीज ऐंड सर्विसेज कंपनी लिमिटेड (JUSCO) ने NRW में काफ़ी ज़्यादा कमी करते हुए इसे 36 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर लिया है.
NRW संकट से निपटने के लिए नगर निकायों और राज्य सरकारों के बीच गहरा तालमेल बनाने की ज़रूरत है, जो मज़बूत सुधारों पर टिका होना चाहिए. जिला मीटर्ड क्षेत्र (DMA) बनाना एक बुनियादी कदम हो सकता है, जिसमें जलापूर्ति व्यवस्था को अलग-अलग प्रबंधन-क्षेत्रों में बांटा जाता है, ताकि पानी की आमद और आपूर्ति, दोनों की समय पर निगरानी हो सके. रिसाव का पता लगाकर और दबावों को दूर करके, तुर्की के मालट्या जैसे शहरों में DMA ने NRW को 80 प्रतिशत से घटाकर औसतन 30 प्रतिशत कर दिया है. यहां वितरण प्रणाली को 31 हिस्सों में बांटा गया है. साल 2014 में, तुर्की के नियामक ढांचे ने NRW को 25 प्रतिशत तक कम करने के देशव्यापी प्रयासों को प्राथमिकता दी थी. कुशल जल प्रबंधन के लिए 75 DMA की स्थापना करके जमशेदपुर को भी NRW में कमी लाने में विशेष सफलता मिली है.
अगर भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) मानचित्रण और पर्यवेक्षी नियंत्रण एवं डेटा अधिग्रहण (SCADA) प्रणालियों के साथ जोड़ दिया जाए, तो निगरानी में निरंतरता, विश्लेषण और त्वरित प्रतिक्रिया संभव हो सकता है.
हालांकि, स्मार्ट जल मीटर लगाना भी उतना ही महत्वपूर्ण काम है, क्योंकि यह वास्तविक समय का आंकड़ा हमारे सामने लाता है. इसे अगर भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) मानचित्रण और पर्यवेक्षी नियंत्रण एवं डेटा अधिग्रहण (SCADA) प्रणालियों के साथ जोड़ दिया जाए, तो निगरानी में निरंतरता, विश्लेषण और त्वरित प्रतिक्रिया संभव हो सकता है.
जलापूर्ति विभागों को NRW प्रकोष्ठ भी बनाने चाहिए, जिसे नगर निकाय अधिनियमों में विशेष संशोधन करके अधिकारों से संपन्न बनाना चाहिए. ये मोबाइल टीमों, रिसाव का पता लगाने वाले उपकरणों और प्रदर्शन-आधारित लक्ष्यों के साथ काम कर सकते हैं.
इसके साथ ही, सरकारों को NRW में कमी लाने के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को बढ़ावा देना चाहिए. मनीला, नोम पेन्ह, नागपुर और जमशेदपुर जैसे शहर बताते हैं कि कैसे निजी क्षेत्र की भागीदारी से ज़रूरी विशेषज्ञता, नवाचार और ज़वाबदेही को बढ़ावा मिलता है.
स्थानीय प्रशासन को NRW कम करने की रणनीति अपनानी ही चाहिए और उसमें शहर-स्तरीय जलवायु कार्य योजनाओं को शामिल करना चाहिए, ताकि हरित जलवायु कोष और अनुकूलन कोष से जलवायु में बेहतरी के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दी जाने वाली मदद मिल सके.
नगर निकायों की ज़िम्मेदारी बढ़ाने और नागरिक जागरूकता व विश्वास बनाने के लिए डिजिटल दुनिया में NRW डेटा और उसकी प्रगति के बारे में सूचनाएं प्रकाशित करनी चाहिए. यह लंबे समय के शासकीय सुधार के लिए भी महत्वपूर्ण उपाय है.
जैसे-जैसे समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, बारिश अनियमित होती जा रही है और जलाशय सिकुड़ने लगे हैं. ऐसे में, ‘ग्लोबल साउथ’ के शहरों में NRW का ऊंचा स्तर अस्वीकार्य होना चाहिए. उनको जलवायु कार्रवाई के क्रम में NRW में कमी को प्राथमिकता देनी चाहिए, और पानी की उपलब्धता का तत्काल फ़ायदा उठाने, उत्सर्जन कम करने और जल व वायु की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए स्पष्ट लक्ष्य बनाना चाहिए. इसके साथ ही, जलापूर्ति विभागों को आर्थिक रूप से मज़बूत करना भी ज़रूरी है. विश्व जल सप्ताह 2025 शहरों से यह आह्वान करता है कि वे जलवायु कार्रवाई के लिए वायदों से व्यवहार की ओर बढ़ें, साथ ही यह दिवस जल को केंद्र में रखने की मांग भी करता है. जलवायु अनुकूल शहर बनाने के लिए NRW के छिद्रों को बंद करने से बेहतर कोई दूसरी शुरुआत नहीं हो सकती.
(धवल देसाई ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में वरिष्ठ फेलो और वाइस प्रेसिडेंट हैं)
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Dhaval is Senior Fellow and Vice President at Observer Research Foundation, Mumbai. His spectrum of work covers diverse topics ranging from urban renewal to international ...
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