Expert Speak Terra Nova
Published on Feb 07, 2024 Updated 0 Hours ago
COP28: क्या कुछ लोगों द्वारा COP के मंच को अपने हितों के लिए अगवा कर लिया गया?

अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति एवं वर्ष 2007 के नोबेल शांति पुरस्कार के सह-विजेता (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज [IPCC] के साथ) अल गोर ने कॉप 28 के अध्यक्ष पर सख़्त टिप्पणी की है. अल गोर ने कहा है कि कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज यानी पार्टियों के सम्मेलन (कॉप 28) की 28वीं बैठक के अध्यक्ष के रूप में प्रदूषण फैलाने वाली सबसे बड़ी कंपनियों में से एक के प्रमुख को और उनके शब्दों में "सबसे कम ज़िम्मेदार कंपनियों" में से एक के प्रमुख की नियुक्ति करना जनता के भरोसे का मज़ाक उड़ाने और लोगों को धोखा देने की तरह है. ज़ाहिर है कि कॉप 28 के अध्यक्ष सुल्तान अल-जबर अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी (ADNOC) के प्रमुख भी हैं और उन्होंने ऐलान किया है कि संयुक्त अरब अमीरात (UAE) इस दशक में तेल और गैस का उत्पादन दोगुना कर देगा. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो सौ से ज़्यादा अमेरिकी सांसदों एवं यूरोपियन यूनियन संसद के सदस्यों ने अल-जबर को हटाने की मांग की थी. गार्जियन के मुताबिक़ कॉप 28 में जीवाश्म ईंधन के उपयोग की हिमायत करने वालों और जलवायु परिवर्तन के लिए मानवीय गतिविधियों को ज़िम्मेदार नहीं मानने वालों का जमावड़ा लगा था. बताया जाता है कि इस बैठक में दुनियाभर से कम से कम 166 ऐसे लोगों ने हिस्सा लिया था, जो जलवायु परिवर्तन के लिए मानवीय गतिविधियों के ज़िम्मेदार नहीं मानते हैं. ऐसी ख़बरें भी सामने आई थीं कि यूएई ने कॉप 28 बैठक के दौरान पर्दे के पीछे गुपचुप तरीक़े से तेल एवं गैस सौदों को अंज़ाम देने की योजना बनाई थी. ऐसी ख़बरों पर प्रतिक्रिया देते हुए संयुक्त राष्ट्र (UN) की पूर्व जलवायु प्रमुख क्रिस्टियाना फिगुएरेस ने कहा कि कॉप 28 के अध्यक्ष को "रंगे हाथों पकड़ा गया" है और "कॉप28 के अध्यक्ष इस बार जिस प्रकार से सरेआम सवालों के घेरे में आए हैं, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ". इन सभी घटनाक्रमों से सवाल उठता है कि क्या कॉप 28 पर तेल एवं गैस उद्योग और उनका समर्थन करने वाली लॉबी ने अपना कब्ज़ा कर लिया था और अपने हितों की पूर्ति के लिए काम किया था?

 क्या कॉप 28 पर तेल एवं गैस उद्योग और उनका समर्थन करने वाली लॉबी ने अपना कब्ज़ा कर लिया था और अपने हितों की पूर्ति के लिए काम किया था?

कॉप 28 के नतीज़ों की समीक्षा

कॉप 28 सम्मेलन के पहले दिन लॉस एंड डैमेज फंड यानी हानि एवं क्षति निधि और वित्त पोषण व्यवस्था को लेकर पहला फैसला लिया गया. इस निर्णय के अंतर्गत 700 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की वित्त पोषण प्रतिबद्धताओं की बात कही गई, जिसका ज़्यादातर हितधारकों को खुले दिल से स्वागत किया. हालांकि, जिन्हें लगता था कि जिस राशि का वादा किया गया है, अगर वो प्राप्त नहीं होती है, तो फिर बैंक खाता खोलने का कोई मतलब नहीं है, उन्होंने इस फैसले पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. ज़ाहिर है कि इस फैसले में जिस राशि का वादा किया गया है, वो आवश्यक धनराशि यानी 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर का केवल लगभग 0.1 प्रतिशत ही है. इसके अतिरिक्त, चिंता का एक और मुद्दा यह भी है कि विश्व बैंक फंड को संभालने के लिए 24 प्रतिशत का शुल्क लेगा, जिसका तात्पर्य है कि जिस राशि का वादा किया गया है उसका एक चौथाई हिस्सा ज़रूरतमंद देशों को कभी नहीं मिल पाएगा. बैठक के दौरान छह देशों ने ग्रीन क्लाइमेट फंड (GCF) को नई फंडिंग देने का वादा किया, यानी अब 31 देशों का कुल जीसीएफ वित्त पोषण संकल्प 12.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है. हालांकि, बैठक में ये जितनी भी वित्तीय प्रतिज्ञाएं और वित्त पोषण के वादे किए गए हैं, वो विकासशील देशों की वित्तीय ज़रूरतों की तुलना में बेहद कम हैं. ज़ाहिर है कि विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन के लिए और अपनी राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं एवं अनुकूलन प्रयासों को धरातल पर लागू करने के लिए खरबों अमेरिकी डालर की आवश्यकता है. ग्लोबल स्टॉकटेक (GST) अर्थात वैश्विक स्तर पर जलवायु कार्रवाई को लेकर हुई प्रगति का मूल्यांकन करने की प्रक्रिया ने अतिरिक्त वित्तपोषण प्रदान करने के लिए बहुपक्षीय वित्तीय संरचना में सुधार एवं वित्त पोषण के लिए नए-नए स्रोतों की स्थापना को तेज़ करने के महत्व को समझा भी है और स्वीकारा भी है. देखा जाए तो ग्लोबल स्टॉकटेक को कॉप 28 का सबसे प्रमुख नतीज़ा माना जाता है, क्योंकि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में वैश्विक स्तर पर देश कैसी प्रगति कर रहे हैं, जीएसटी उस पर नज़र रखता है और इसमें वो हर मुद्दा शामिल होता है, जिस पर COP सम्मेलनों में बातचीत की जा रही है. यही वजह है कि दुनिया के देश जीएसटी का उपयोग वर्ष 2025 तक सशक्त जलवायु कार्य योजना बनाने के लिए कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि कॉप 28 के दौरान जिन मुद्दों पर विचार-विमर्श किया गया, वो कहीं कहीं विकासशील देशों की आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं से प्रेरित थे, साथ ही वर्ष 2024 में 'जलवायु वित्त पर एक नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य' बनाने पर केंद्रित थे. ज़ाहिर है कि क्लाइमेट फाइनेंस का यह नया लक्ष्य प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बेस लाइन से शुरू होगा. इससे विभिन्न देशों को राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं की रूपरेखा तैयार करने और फिर उन योजनाओं को ज़मीनी स्तर पर लागू करने के लिए मज़बूत आधारशिला तैयार होने की उम्मीद है. सम्मेलन के दौरान विकासशील देशों द्वारा वित्तीय सहायता के मुद्दे पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने की तारीफ़ की गई, लेकिन वास्तविकता यह भी है कि इन विकासशील देशों को इस बारे में मालूम है कि जो भी लक्ष्य निर्धारित किया गया है, वो बेहद महत्वाकांक्षी हैं. इतना ही नहीं ये देश यह भी जानते हैं कि उन्हें निर्धारित जलवायु वित्त राशि के आसानी से मिलने की संभावना भी बहुत कम है.

 भारत और चीन दोनों ही देशों में सबसे अधिक कोयला आधारित पावर प्लांट्स का निर्माण किया जाता है. दुनिया भर में कोयले से 204 गीगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता हासिल करने वाले संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं, जिनमें से लगभग 67 प्रतिशत संयंत्र अकेले चीन में बनाए जा रहे हैं.

इसके अतिरिक्त कॉप 28 में नवीकरणीय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता के मुद्दे पर भी चर्चा हुई, साथ ही यूरोपीय संघ की अगुवाई में की गई वैश्विक प्रतिज्ञा में नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना बढ़ाकर यानी 11,000 गीगावाट (GW) से अधिक करने की बात कही गई. इतना ही नहीं वर्ष 2030 तक ऊर्जा दक्षता लाभ की दर को 4 प्रतिशत प्रति वर्ष तक बढ़ाने की बात भी कही गई. नवीकरणीय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता से संबंधित इन लक्ष्यों का 130 देशों ने पूरे जोश और उत्साह के साथ स्वागत किया, ज़ाहिर है कि ये देश कार्बन उत्सर्जन रहित दुनिया बनाने में नवीकरणीय ऊर्जा के महत्व को बखूबी समझते हैं और इसमें अपनी भूमिका सुनिश्चित करना चाहते हैं. हालांकि, दुनिया की चोटी के तीन कार्बन उत्सर्जन देशों में शामिल चीन और भारत ने इस विषय से संबंधित दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर नहीं किए. इसकी वजह यह थी कि भारत और चीन, कोयला आधारित बिजली संयंत्रों में धीरे-धीरे निवेश समाप्त करने की बात से सहमत नहीं थे. ज़ाहिर है कि भारत और चीन दोनों ही देशों में सबसे अधिक कोयला आधारित पावर प्लांट्स का निर्माण किया जाता है. दुनिया भर में कोयले से 204 गीगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता हासिल करने वाले संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं, जिनमें से लगभग 67 प्रतिशत संयंत्र अकेले चीन में बनाए जा रहे हैं. इसके अलावा, कोयला प्लांट्स से 353 गीगावॉट बिजली उत्पादन की क्षमता हासिल करने की योजना पर काम चल रहा है, जिनमें से 72 प्रतिशत योजनाएं चीन में हैं. इतना ही नहीं कोयले से बिजली बनाने के बाक़ी जो संयंत्र बनाए जा रहे हैं या योजना के चरण में हैं, उनमें से अधिकांश भारत में हैं. एक और बात यह है कि वर्ष 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता को तीन गुना करने का लक्ष्य हासिल करने के लिए सालाना औसतन 13 प्रतिशत की वृद्धि हासिल करना ज़रूरी है और इस लक्ष्य को हासिल करना एक बड़ी चुनौती होगा. इसकी वजह यह है कि पिछले 5 वर्षों में नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता वृद्धि की जो विकास दर है, यह लक्ष्य उससे दोगुना है. इस दशक में प्रति वर्ष औसतन 4 प्रतिशत की दर से ऊर्जा दक्षता में सुधार होने से वैश्विक स्तर पर ऊर्जा उपभोग एवं कार्बन उत्सर्जन में एक तिहाई की कमी लाई जा सकती है, लेकिन इसके लिए पिछले पांच वर्षों में जो भी ऊर्जा दक्षता लाभ दर हासिल की गई है, उसे तीन गुना से अधिक किए जाने की ज़रूरत होगी.

 

सम्मेलन के दौरान परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर विचार-विमर्श किया गया और वर्ष 2050 तक परमाणु ऊर्जा उत्पादन की क्षमता में तीन गुना बढ़ोतरी करने पर सहमति जताई गई. इस सहमति से परमाणु उद्योग की तो बांछे खिल गईं, लेकिन इसने प्राकृतिक वातावरण के संरक्षण की वक़ालत करने वाले पर्यावरणविदों को हैरत में डाल दिया. कॉप 28 के दौरान ग्लोबल स्टॉकटेक में जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने का आह्वान किया गया, जिसे जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) की क़रीब 200 पार्टियों द्वारा मंजूर किया गया. संयुक्त राष्ट्र ने भी इस आह्वान की जमकर प्रशंसा की और इसे जीवाश्म ईंधन के युग के "समाप्ति की शुरुआत" बताया. लेकिन जीवाश्म ईंधन के उपयोग को धीरे-धीरे समाप्त करने से जुड़े इस दस्तावेज़ को तैयार करने में बेहद चालाकी बरती गई, क्योंकि इसमें साफ तौर पर कुछ भी नहीं लिखा है और ही यह बताया गया है कि कब तक इस लक्ष्य को हासिल किया जाएगा. यानी इस दस्तावेज़ के मुताबिक़ जीवाश्म ईंधन का उत्पादन एवं उपयोग फिलहाल ऐसे ही चलता रहेगा. ज़ाहिर है कि ऐसा कहीं कहीं तेल उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं की सहूलियत के लिए किया गया है, क्योंकि इसमें दुनिया के ज़्यादातर देश शामिल हैं.

 कॉप 28 सम्मेलन में वैश्विक स्तर पर औसत तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए और वैश्विक स्तर पर नेट ज़ीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए वर्ष 2050 तक सभी सेक्टरों में कूलिंग से संबंधित कार्बन उत्सर्जन को कम करने का संकल्प लिया गया था. 

कुल वैश्विक तेल और गैस उत्पादन में लगभग 40 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाली दुनिया भर की 50 से अधिक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय तेल कंपनियों ने कॉप 28 के दौरान ऑयल एंड गैस डीकार्बोनाइजेशन चार्टर पर हस्ताक्षर किए हैं. इस चार्टर का उद्देश्य वर्ष 2050 तक या उससे पहले प्रत्येक कंपनी की प्रत्यक्ष संचालन गतिविधियों में (उनके उत्पादों के उपयोग के उलट) नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना है. इसके साथ ही इस चार्टर का लक्ष्य वर्ष 2030 तक तेल एवं गैस के उत्पादन के दौरान लगभग ज़ीरो मीथेन लीकेज हासिल करना है, साथ ही वर्ष 2030 तक ज़ीरो रूटीन फ्लेरिंग (अतिरिक्त गैस जलाना) को हासिल करना है. इस चार्टर की आख़िरी दो प्रतिज्ञाएं ख़ास तौर पर अहम हैं, क्योंकि मीथेन बेहद प्रभावशाली, असर डालने वाली ग्रीनहाउस गैस है और मानवीय गतिविधियों की वजह से जितनी भी मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है, उसका एक चौथाई हिस्सा तेल और गैस के उत्पादन से उत्सर्जित होता है.

 

सम्मेलन के दौरान जलवायु और स्वास्थ्य के विषय पर कॉप 28 घोषणा पत्र भी जारी किया गया, लेकिन भारत ने इस घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए. दरअसल, घोषणा पत्र में स्वास्थ्य क्षेत्र में कूलिंग यानी ठंडा करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उपयोग पर अंकुश लगाने का प्रावधान किया गया है और इसी वजह से भारत ने इसमें हस्ताक्षर नहीं किए. भारत का तर्क था कि यह प्रावधान व्यावहारिक नहीं है. हालांकि चीन द्वारा कई और देशों की तरह इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए गए. इसके अलावा भारत ने कॉप 28 के दौरान एक और संकल्प से भी अपनी दूरी बनाकर रखी. दरअसल, कॉप 28 सम्मेलन में वैश्विक स्तर पर औसत तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए और वैश्विक स्तर पर नेट ज़ीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए वर्ष 2050 तक सभी सेक्टरों में कूलिंग से संबंधित कार्बन उत्सर्जन को कम करने का संकल्प लिया गया था. इस संकल्प के अंतर्गत वर्ष 2030 तक महत्वपूर्ण प्रगति और टिकाऊ कूलिंग के लक्ष्य के करीब पहुंचने के उद्देश्य से वर्ष 2022 के उत्सर्जन लेवल के सापेक्ष वैश्विक स्तर पर सभी क्षेत्रों में कम से कम 68 प्रतिशत उत्सर्जन कम करने की प्रतिज्ञा की गई थी, लेकिन इससे भारत के साथ चीन ने भी अपनी दूरी बनाई. ज़ाहिर है कि भारत द्वारा वर्ष 2019 में अपने कूलिंग एक्शन प्लान का ऐलान किया गया था, जिसके अंतर्गत वर्ष 2038 तक सभी सेक्टरों में कूलिंग के लिए बिजली की मांग को 20 से 25 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. जबकि चीन ने इस प्रतिज्ञा पर इसलिए हस्ताक्षर नहीं किए, क्योंकि उसे लगता है कि पूर्व में किए गए इसी प्रकार के समझौतों को जवाबदेही नहीं थी. उल्लेखनीय है कि भारत और चीन द्वारा जिस प्रकार से इन महत्वपूर्ण संकल्पों को लेकर अलग नज़रिया दिखाया गया है, उसे किसी भी लिहाज़ से कॉप 28 में प्रस्तुत किए गए विचारों की अवहेलना नहीं माना जाना चाहिए. दरअसल, भारत और चीन द्वारा उठाए गए क़दम पेरिस समझौते के मुताबिक़ हैं, जिसमें कहा गया है कि देश अपनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार जलवायु कार्रवाई से संबंधित राष्ट्रीय योजना तैयार कर सकते हैं.

 

कॉप 28 के दौरान तमाम वैश्विक मसलों पर ऐसे कई संकल्प और प्रतिज्ञाएं प्रस्तुत की गईं, जिनसे सम्मेलन में शामिल कुछ हितधारक तो ख़ुश हो गए, लेकिन कई ऐसे हितधारक भी थे, जिन्होंने उनमें खामियां निकालते हुए अपनी नाराज़गी जताई. COPs पर लंबे समय से अपनी नज़र रखने वाले पर्यवेक्षकों के मुताबिक़ कॉप 28 में बहुत ज़्यादा उथल-पुथल देखने को नहीं मिली और किसी भी देश ने विचार प्रक्रिया या फिर नतीज़ों को अपने हिसाब से प्रभावित करने की कोशिश नहीं की, बल्कि यह कहीं कहीं पूर्व के सम्मेलनों द्वारा निर्धारित मार्गों पर ही आगे बढ़ता हुआ दिखाई दिया. इतना ही नहीं पूर्व के कई COPs की भांति कॉप 28 में भी हर हितधारक और समूह के फायदे के लिए कुछ कुछ था. यह अलग बात है कि वैश्विक लक्ष्यों को पाने के लिहाज़ से देखा जाए तो इसके परिमाण उत्साहजनक नहीं रहे. जब से COPs की बैठकों का सिलसिला शुरू हुआ है, उससे पहले के दो दशकों के दौरान हुए वार्षिक कार्बन उत्सर्जन के आंकड़ों पर नज़र डालें तो, COPs सम्मेलनों के आयोजन के दो दशकों के दौरान पहले की तुलना में कार्बन उत्सर्जन में कम से कम 4 बिलियन टन की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. इस दौरान, केवल वैश्विक वित्तीय संकट के वर्ष 2007-08 और कोरोना महामारी वाले दो वर्षों 2020-22 में आई आर्थिक मंदी के चलते ही अस्थाई तौर पर दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन में कमी देखी गई थी. ऐसे में यह कहना उचित होगा कि भविष्य में कार्बन उत्सर्जन में स्थाई कमी लाने में COPs की कोशिशों से कोई ख़ास फायदा नहीं होने वाला है, बल्कि इस लक्ष्य को वैश्विक स्तर पर आबादी में कमी लाकर और तकनीक़ी विकास के माध्यम से हासिल किया जा सकता है.

 

COPs और अपने-अपने हित

कॉप 28 में जिन देशों और लोगों ने शिरकत की है उन्हें व्यापक रूप से तीन श्रेणियों या वर्गों में बांटा जा सकता है: () पहले वर्ग में शामिल लोग वो हैं, जो मानते हैं कि ऊर्जा के उपभोग से जो आर्थिक प्रगति हासिल की गई है, जिसमें जीवाश्म ईंधनों से प्राप्त ऊर्जा भी शामिल है, वह लोगों के कौशल एवं जानकारी के मद्देनज़र सिर्फ़ इच्छित और संभावित है, बल्कि टिकाऊ भी है. (यह सामान्य रूप सेजो जैसा है वैसा चलने दिया जाएके नज़रिए पर आधारित है) (बी) दूसरे वर्ग में वे लोग शामिल हैं, जो दृढ़ता के साथ यह मानते हैं कि ऊर्जा के अंधाधुंध उपभोग की मौज़ूदा प्रवृत्ति टिकाऊ नहीं है. साथ ही इनका यह भी मानना है कि अगर नीति में बदलाव लाकर नई-नई प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा दिया जाता है, तो अधिक टिकाऊ भविष्य के लिए व्यवस्थित ढंग से ऊर्जा परिवर्तन किया जाना संभव है. (सी) तीसरी श्रेणी में वो लोग शामिल हैं, जिनका मानना है कि ऊर्जा के उपयोग एवं ऊर्जा परिवर्तन की दिशा में वर्तमान में जो कुछ भी किया जा रहा है, वो स्थाई नहीं है. इनके मुताबिक़ राजनीतिक एवं सामाजिक स्तर पर आमूल-चूल बदलाव लाकर ही टिकाऊ और सुरक्षित ऊर्जा भविष्य सुनिश्चित किया जा सकता है.

 ऊर्जा के उपयोग एवं ऊर्जा परिवर्तन की दिशा में वर्तमान में जो कुछ भी किया जा रहा है, वो स्थाई नहीं है. इनके मुताबिक़ राजनीतिक एवं सामाजिक स्तर पर आमूल-चूल बदलाव लाकर ही टिकाऊ और सुरक्षित ऊर्जा भविष्य सुनिश्चित किया जा सकता है.

कॉप 28 में जिन मुद्दों पर चर्चा की गई, वे उपरोक्त में से दूसरी श्रेणी में शामिल लोगों की विचारधारा से प्रेरित थे. इसमें वो कल्पनाएं एवं विचार शामिल नहीं थे, जो पहले वर्ग यानी श्रेणी केसबसे ख़राब स्थितिवाले विचारों की तरह थे. कॉप 28 में शामिल तीनों वर्गों में से दूसरे वर्ग या बी श्रेणी में शामिल लोग या देशों के प्रतिनिधि अपने विचारों के लेकर एकदम स्पष्ट थे और उन्हीं की बातों को सबसे अधिक सुना भी गया. ज़ाहिर है कि इस वर्ग में शामिल जलवायु नेताओं एवं वक्ताओं को हमेशा ऐसी साफगोई से बातों को कहते देखा और सुना जाता है. सम्मेलन के दौरान इसी बी श्रेणी के सदस्यों ने स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने एवं कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए ज़ोरदार तरीक़े से सार्वजनिक वित्त और संसाधनों की मांग उठाई. बी श्रेणी के सदस्यों में सरकारी और गैर-सरकारी दोनों तरह के लोग शामिल थे और उनका स्पष्ट रूप से मानना था कि कार्बन उत्सर्जन के लिहाज़ से एक टिकाऊ भविष्य की ओर बढ़ने के दौरान, अगर कोई फैसला लिया जाता है तो विभिन्न तंत्रों और समाजों पर उनके कार्बन फुटप्रिंट्स के आधार पर कम या ज़्यादा सीमाएं लागू की जानी चाहिए. बी वर्ग के लोगों ने कार्बन फुटप्रिंट्स से जुड़ी सूची में शामिल समूहों के लिए उन्हीं परिस्थितियों में कार्बन पाई बढ़ाने की बात कही, जब तक कि उनका कार्बन फुटप्रिंट सूची में उनके ऊपर मौज़ूद समूहों से अधिक नहीं हो जाए. बी श्रेणी के लोगों के मुताबिक़ प्रकृति बहुत उदार है और संसाधानों के लिहाज़ से बहुत व्यापक भी है, लेकिन इसकी भी एक सीमा है. जहां तक इस प्रकृति की इस सीमा की बात है, तो यह अलग-अलग है, यानी की सूची में शामिल विभिन्न समाजों के लिए प्रकृति की अलग-अलग सीमाएं हैं. ज़ाहिर है कि इन अलग-अलग सीमाओं को सुनिश्चित करने के लिए कार्बन उत्सर्जन की मात्रा और प्रवाह को नियंत्रित करने की ज़रूरत है. और ऐसा करना ही श्रेणी बी के लोगों के विचारों का सही अनुपालन है.

 

अगर कॉप 28 में शिरकत करने वाले श्रेणी के लोगों की बात करें, तो इममें ज़्यादातर व्यवसायी और उद्योगपति शामिल थे और इन्हें अर्थव्यवस्था और ऊर्जा दोनों के ही असीमित विकास की संभावनाएं दिखाई देती हैं. इनका मानना है कि प्रकृति असीम और प्रचुर संसाधनों से भरी हुई है. इनके मुताबिक़ कौशल और हुनर के बल पर प्रकृति को नियंत्रित किया जा सकता है, उसका दोहन किया जा सकता है. श्रेणी में शामिल इन लोगों को क्लाइमेट डिनायर्स करार दिया गया, यानी ऐसा व्यक्ति करार दिया गया, जो इस बात से सहमत नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के लिए मानवीय गतिविधियां ज़िम्मेदार हैं. इतना ही नहीं बी और सी श्रेणी के लोगों का मानना है कि अगर जलवायु संकट से निजात पानी है और उसका समाधान तलाशना है तो COP में शीर्ष एवं महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठे श्रेणी के लोगों को यानी व्यवसायी एवं उद्योगपतियों को हटाना होगा. ज़ाहिर है कि श्रेणी के लोगों द्वारा COP के शीर्ष स्थानों पर कब्ज़ा जमा लेने की वजह से ही इस तरह की धारणा बनी है कि COPs को कुछ लोगों द्वारा अपने हितों के लिए अगवा कर लिया गया. हालांकि, सच्चाई यह है कि कॉप 28 सम्मेलन में तीनों श्रेणी के लोगों की सशक्त मौज़ूदगी दिखाई दी और इस वजह से वहां जलवायु कार्रवाई कहीं कहीं अधिक लोकतांत्रिक रही. यह अलग बात है कि सभी पक्षों द्वारा अपनी-अपनी बात कहने की वजह से बी श्रेणी के देशों या लोगों को कॉप 28 से मनमुताबिक़ नतीज़े हासिल नहीं हुए. वास्तविकता यह है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में एक समूह को फायदा होता है, तो दूसरे समूह को नुक़सान झेलना पड़ता है.

https://www.orfonline.org/public/uploads/editor/20240129152731.jpgस्रोत : विश्व ऊर्जा की सांख्यिकीय समीक्षा 2023

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

Read More +
Akhilesh Sati

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

Read More +
Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

Read More +