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हाल ही में संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन यानी COP29 में कई नाटकीय घटनाएं देखने को मिलीं. जैसे कि अर्जेंटीना सरकार ने COP29 में शामिल होने गए अपने प्रतिनिधिमंडल वापस बुला लिया. विकासशील देशों के दो प्रमुख समूहों यानी सबसे कम विकसित देशों (LDCs) के समूह और छोटे द्वीपीय राष्ट्रों के गठबंधन (AOSIS) ने आयोजनकर्ताओं पर अपनी मनमानी एवं अहम प्रस्तावों की चर्चाओं में उनकी बातों को तवज्जो नहीं देने का आरोप लगाते हुए सम्मेलन से वॉकआउट कर दिया. इतना ही नहीं, भारत और नाइजीरिया ने वर्ष 2035 तक विकासशील देशों के लिए प्रति वर्ष 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर के प्रस्तावित जलवायु वित्त मसौदे की खुलकर आलोचना की. ज़ाहिर है कि विकासशील देशों द्वारा प्रतिवर्ष 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के जलवायु वित्त सहयोग की मांग गई थी और COP29 में जिस धनराशि पर सहमति जताई गई है, वो वास्तविक ज़रूरत की तुलना में बेहद कम है. इसके अलावा, जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के मुद्दे पर भी विवाद देखने को मिला. इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर न तो जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में और न ही G20 में कोई सहमति बन पाई. एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि COP29 में यह सारे विवाद डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति का कार्यभार संभालने की छाया में हुए. ज़ाहिर है कि वैश्विक जलवायु कार्रवाई के बारे में ट्रंप के विचारों को सभी जानते हैं कि वे किस प्रकार इस महत्वपूर्ण मुद्दे की अनदेखी करते रहे हैं.
कॉप 28 में जिस प्रकार से लॉस एंड डैमेज फंड पर ऐतिहासिक समझौता हुआ था, उसी प्रकार से COP29 में तमाम उतार-चढ़ावों के बावज़ूद पेरिस समझौते के आर्टिकल 6 को अपनाने से जुड़ा अभूतपूर्व समझौता हुआ है. ज़ाहिर है कि आर्टिकल 6 अंतर्राष्ट्रीय कार्बन व्यापार को नियंत्रित करता है. गौरतलब है कि पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 को लेकर एक दशक से अधिक समय से चर्चा-परिचर्चाओं का दौर चल रहा था, लेकिन इसको लेकर कोई सहमति नहीं बन पा रही थी. इस लिहाज़ से देखा जाए तो COP29 के दौरान वैश्विक कार्बन ट्रेडिंग और वैश्विक कार्बन बाज़ार के संचालन से जुड़े प्रावधानों पर समझौता, इसके समर्थकों के लिए किसी ऐतिहासिक उपलब्धि से कम नहीं है.
कार्बन ट्रेडिंग को आसान बनाना
अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वित्त और उभरती प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण के लिहाज़ से देखा जाए तो पेरिस समझौते के आर्टिकल 6 का कार्यान्वयन बेहद महत्वपूर्ण है. ज़ाहिर है कि विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त एवं जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने से जुड़ी नई तकनीक़ों तक पहुंच बहुत मुश्किल है और इन देशों को जलवायु शमन व अनुकूलन परियोजनाओं में निवेश करने के लिए घरेलू स्तर पर संसाधन जुटाने में दिक़्क़तों से जूझना पड़ता है.
COP29 में जिस आर्टिकल 6 को अपनाने के लिए समझौता हुआ है, उसके तमाम अहम पहलुओं को अंतिम रूप दिया जाना बाक़ी है. कहने का मतलब है कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) सचिवालय को इससे संबंधित लंबंति मसलों का समाधान करना है और आने वाले महीनों में इसके मसौदे को फाइनल करना है.
आर्टिकल 6.2 (सहयोगी नज़रिया)
पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6.2 की बात की जाए, तो यह अलग-अलग देशों के बीच द्विपक्षीय व बहुपक्षीय सहयोग के साथ ही दूसरी इकाइयों, जिनमें कंपनियां भी शामिल हैं, के बीच सहयोग की सुविधा प्रदान करता है. इससे इंटरनेशनली ट्रांसफर्ड मिटिगेशन आउटकम्स (ITMOs) यानी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हस्तांतरित जलवायु शमन परिणामों का व्यापार करके नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन्स (NDCs) यानी राष्ट्रीय स्तर पर आधारित योगदानों को लागू किया जा सकता है. ITMOs एक प्रकार का कार्बन क्रेडिट है, जो देशों को अन्य देशों में उत्सर्जन को कम करने वाली परियोजनाओं में निवेश करके अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की सुविधा प्रदान करता है. यानी यह एक ऐसा कार्बन क्रेडिट है, जिसे एक देश अपनी NDC ज़रूरतों को पूरा करने के लिए दूसरे देश को बेच सकता है. इसके साथ ही पहले देश को समान उत्सर्जन कटौती की दोहरी गणना से बचने के लिए अपनी राष्ट्रीय उत्सर्जन सूची में उसके मुताबिक़ समायोजित करना होगा.
ITMOs एक प्रकार का कार्बन क्रेडिट है, जो देशों को अन्य देशों में उत्सर्जन को कम करने वाली परियोजनाओं में निवेश करके अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की सुविधा प्रदान करता है. यानी यह एक ऐसा कार्बन क्रेडिट है, जिसे एक देश अपनी NDC ज़रूरतों को पूरा करने के लिए दूसरे देश को बेच सकता है.
UNFCCC सचिवालय ने इस समझौते में शामिल देशों के लिए कार्बन क्रेडिट व्यापार की मंजूरी देने और उनके लिए रिपोर्टिंग की व्यवस्था के लिए एक समुचित फ्रेमवर्क और दिशानिर्देश बनाने की बात कही है. COP29 सम्मेलन का अंतिम मसौदा इंटरनेशनल रजिस्ट्री को लेकर आर्टिकल 6.4 मैकेनिज़्म के साथ ITMOs की कार्यक्षमता और पारस्परिक संचालन पर चर्चा को भी आगे बढ़ाने का काम करता है.
आर्टिकल 6.4 (केंद्रीकृत मैकेनिज़्म)
पेरिस समझौता के आर्टिकल 6.4 को पेरिस एग्रीमेंट क्रेडिटिंग मैकेनिज्म (PACM) के रूप में भी जाना जाता है और यह कहीं न कहीं क्योटो प्रोटोकॉल के क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज़्म (CDM) यानी स्वच्छ विकास तंत्र का ही उन्नत रूप है, साथ ही उसके उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का काम करता है. अनुच्छेद 6.4 एक ऐसी प्रणाली विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करता है, जिससे देशों और कंपनियों के बीच कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए क्रेडिट सृजित करने और उसके व्यापार के लिए एक मानकीकृत व्यवस्था एवं एक केंद्रीकृत प्लेटफॉर्म स्थापित हो सके. कुल मिलाकर इसका उद्देश्य जलवायु से संबंधित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए और जलवायु संकट को हल करने के लिए वैश्विक स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना है.
पेरिस एग्रीमेंट के अनुच्छेद 6.2 के अंतर्गत जहां कार्बन क्रेडिट के व्यापार के लिए देश द्विपक्षीय समझौते करते हैं, वहीं आर्टिकल 6.4 में देशों के बीच जो भी समझौता होता है, उसे एक संस्था या फ्रेमवर्क की निगरानी में पूरा किया जाता है. यानी अनुच्छेद 6.4 में देशों के बीच जो कार्बन क्रेडिट व्यापार का समझौता होता है, उसकी देखरेख के लिए एक केंद्रीकृत व्यवस्था होती है, जो परियोजना पंजीकरण से लेकर कार्बन उत्सर्जन में कमी के बारे में पूरी जानकारी प्रदान करती है, साथ ही निर्धारित दिशा-निर्देशों आदि का किस प्रकार से पालन किया जा रहा है, उस पर भी पूरी नज़र रखती है.
इस केंद्रीकृत तंत्र को संचालित करने के लिए एक पर्यवेक्षी बोर्ड होता है, जिसकी ज़िम्मेदारी नियमों एवं मानकों को बनाने की होगी, साथ ही इसके लिए ज़रूरी प्रक्रियाओं को विकसित करने की ज़िम्मेदारी भी इसी की होगी. जैसे कि बेसलाइन, एडिशनलिटी, सप्रैस्ड डिमांड यानी इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी या दूसरी वजहों से लोगों की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी नहीं होना, लीकेज, ख़तरों को उलटने के उपायों के साथ ही कार्बन क्रेडिटिंग के पश्चात निगरानी रखने आदि को लेकर भी तौर-तरीक़े विकसित करने की ज़िम्मेदारी इसी पर्यवेक्षी बोर्ड की होगी. COP29 में आर्टिकल 6 के समझौता मसौदे में कार्बन क्रेडिट व्यापार की मंजूरी देने से पहले सामने आने वाले मसलों और स्वच्छ विकास तंत्र समाप्त करने के दौरान सामने आने वाले मुद्दों पर भी चर्चा की गई है. इसके अलावा, इस समझौता मसौदे में CDM परियोजनाओं को पेरिस समझौते के आर्टिकल 6.4 के फ्रेमवर्क में परिवर्तित करने की भी बात कही गई है.
आर्टिकल 6.8 (गैर-बाज़ार नज़रिया)
पेरिस एग्रीमेंट का अनुच्छेद 6.8 जलवायु कार्रवाई के लिए बाज़ार तंत्र के बगैर सहयोग वाले तरीक़े के बारे में बताता है. इसके अंतर्गत एक ऐसे फ्रेमवर्क की परिकल्पना की गई है, जो जलवायु शमन और जलवायु अनुकूलन से जुड़े कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए, साथ ही सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए गैर-बाज़ार तरीक़ों को मान्यता देता है. यानी इसमें क्षमता निर्माण या रियायती/अनुदान फंडिंग के ज़रिए गैर-बाज़ार दृष्टिकोण (NMAs) अपनाने की बात कही गई है.
COP29 का प्रस्ताव पेरिस एग्रीमेंट के आर्टिकल 6 से जुड़े समझौते में शामिल देशों, इकाइयों और कंपनियों को राष्ट्रीय स्तर पर आधारित योगदानों (NDC) के कार्यान्वयन में सहयोग करने के लिए गैर-बाज़ार दृष्टिकोण (NMA) वाले प्लेटफार्मों का इस्तेमाल करने और उनसे जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है.
सामने खड़ी चुनौतियां: पारदर्शिता, जवाबदेही और अतिरिक्तता
जहां तक पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 के प्रावधानों को कार्यान्वित करने के लिए ज़रूरी मापदंडों और तौर-तरीक़ों की बात है, तो इन्हें अगले साल तक अंतिम रूप दिया जाना ज़रूरी है, ताकि वर्ष 2025 तक इन्हें कार्यान्वित किया जा सके. लेकिन COP29 में इसको लेकर किए गए समझौते और चर्चाओं में तमाम सवाल ऐसे हैं, जिनका उत्तर मिलना बाक़ी है. इनमें सबसे बड़ा सवाल तो कार्बन क्रेडिट व्यापार में पारदर्शिता एवं जवाबदेही से जुड़ा हुआ है. ज़ाहिर है कि पारदर्शिता एवं जवाबदेही का मुद्दा लंबे अर्से से कार्बन ट्रेडिंग इकोसिस्टम के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है. इस मुद्दे की वजह से कहीं न कहीं व्यापक स्तर पर प्रतिष्ठा से जुड़े जोख़िम और आर्थिक चुनौतियां सामने आई हैं. नेचर स्टडी के मुताबिक़ आज तक जारी किए गए क्रेडिट वॉल्यूम का लगभग पांचवां हिस्सा, जो कि 1 बिलियन टन CO2 उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है, वो अब तक जारी किए गए कार्बन क्रेडिट के 16 प्रतिशत से भी कम वास्तविक कार्बन उत्सर्जन में कमी का कारण बना है.
सबसे पहला मुद्दा, देशों को कार्बन क्रेडिट के बारे में अपनी जानकारी सार्वजनिक करना अनिवार्य नहीं है. उदाहरण के तौर पर आर्टिकल 6.2 में हिस्सा लेने वाले देशों के लिए यह बताना ज़रूरी नहीं है कि वे कार्बन क्रेडिट की दोहरी गणना से किस प्रकार बचाव करते हैं. ज़ाहिर है कि कार्बन क्रेडिट की दोहरी गिनती तब होती है जब एक कार्बन क्रेडिट का दावा एक से अधिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है. वास्तविकता में यह अपेक्षा की जाती है कि इस समझौते में शामिल सभी देश UNFCCC को आवश्यक जानकारी के साथ अपनी वार्षिक रिपोर्ट सौंपे. हालांकि, यह रिपोर्ट कब तक प्रस्तुत की जानी है और अगर रिपोर्ट नहीं सौंपी जाती है, तो क्या जुर्माना लगाया जा सकता है, इसके बारे में कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं बताया गया है.
दूसरा प्रमुख मुद्दा यह है कि प्रमाणीकरण यानी कार्बन क्रेडिट सर्टिफिकेट जारी करने की प्रक्रिया, समय और उसके प्रारूप को लेकर भी कुछ भी स्पष्ट नहीं है. प्रमाणीकरण का मतलब है कि देश पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय उपयोग के लिए निश्चित जलवायु शमन नतीज़ों यानी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए की जाने वाली कार्रवाइयों से हासिल होने वाले परिणामों को अधिकृत या मंजूर करते हैं. फिर चाहे इन परिणामों का इस्तेमाल द्विपक्षीय समझौतों, अनुपालन तंत्र या स्वैच्छिक कार्बन मार्केट्स में किया जाए.
तीसरा मुद्दा है कि कार्बन प्रमाणीकरण को जारी करने बाद उसे वापस ले लेना. हालांकि, समझौता मसौदे के मुताबिक़ पहले हस्तांतरण (जलवायु शमन परिणाम पहली बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी अन्य देश या कंपनी को हस्तांतरित किया जाता है) के पश्चात कार्बन क्रेडिट की दोहरी गणना से बचने के लिए अधिकार-पत्र में किसी भी तरह का बदलाव सिर्फ़ असाधारण परिस्थितियों में ही किया जा सकेगा. यानी इस महत्वपूर्ण मसले पर साफ शब्दों में कुछ भी नहीं कहा गया है, इसके कारण कहीं न कहीं इस प्रावधान का अपने हितों में दुरुपयोग किए जाने की संभावना बनी हुई है.
चौथा मुद्दा यह है कि कार्बन क्रेडिट व्यापार की निगरानी रखना यानी विभिन्न देशों और तंत्रों के बीच कार्बन क्रेडिट पर नज़र रखना भी एक बड़ी चुनौती साबित होगी. ऐसा इसलिए है, क्योंकि कार्बन क्रेडिट बाज़ार में कई समानांतर रजिस्ट्रियां जैसे कि राष्ट्रीय रजिस्ट्री, अंतर्राष्ट्रीय रजिस्ट्री और मैकेनिज़्म रजिस्ट्री एक साथ संचालित होंगी, ऐसे में इनकी निगरानी काफ़ी जटिल साबित होगी.
पांचवा मुद्दा यह है कि अभी स्वच्छ विकास तंत्र यानी CDM परियोजनाओं को अनुच्छेद 6.4 तंत्र में परिवर्तित करने पर फिलहाल चर्चाओं का दौर चल रहा है. यानी अभी यह तय नहीं हो पाया कि आर्टिकल 6.4 मैकेनिज़्म के तहत पर्यवेक्षी बोर्ड को निर्णय लेने से पहले सीडीएम परियोजनाओं की गंभीरता के साथ समीक्षा करनी चाहिए या नहीं.
विकासशील देशों की सशक्त भागीदारी सुनिश्चित करना
अगर यह सुनिश्चित करना है कि दुनिया के तमाम देश अंतर्राष्ट्रीय कार्बन बाज़ारों द्वारा उपलब्ध कराए गए नए-नए वित्तीय साधनों का सही अर्थों में फायदा उठा पाएं, तो इसके लिए इस पूरी मूल्य श्रृंखला में पारदर्शिता और जवाबदेही पर विशेष ज़ोर दिया जाना चाहिए. कार्बन क्रेडिट व्यापार में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए यदि देशों के साथ-साथ विभिन्न तंत्रों के बीच अगर एक अंतर-संचालन अंतर्राष्ट्रीय रजिस्ट्री की ओर क़दम बढ़ाए जाते हैं (आर्टिकल 6.2, 6.4 और VCM), तो यह काफ़ी कारगर सिद्ध हो सकता है. इस प्रकार की प्रणाली विकसित करने से न केवल कार्बन क्रेडिट को ट्रैक करने में सहूलियत होगी, बल्कि एक से अधिक संस्थाओं द्वारा कार्बन क्रेडिट का दावा करने यानी कार्बन क्रेडिट की दोहरी गिनती की समस्या से भी निजात मिलेगी, साथ ही इससे मानकों एवं पूरी कार्यप्रणाली में भी एकरूपता व सुगमता आएगी. ज़ाहिर है कि ऐसा करने से आर्टिकल 6 की क़ामयाबी के लिए ज़रूरी भरोसे का वातावरण बनेगा और संदेह की कोई गुंजाइश भी नहीं रहेगी.
इसके साथ ही COP29 में आर्टिकल 6 से जुड़े समझौते के मसौदे में UNFCCC सचिवालय को सुझाव दिया गया है कि वह उन देशों के लिए वैकल्पिक एवं अतिरिक्त रजिस्ट्री सेवाएं व सहायता उपलब्ध कराए, जिनके पास औपचारिक राष्ट्रीय प्रणालियों और राष्ट्रीय रजिस्ट्रियों का अभाव है. ऐसा करने से उन देशों की अनुच्छेद 6 समझौते में भागीदारी को न सिर्फ आसान बनाया जा सकता है, बल्कि कार्बन क्रेडिट (ITMOs) जारी करना और अंतर्राष्ट्रीय रजिस्ट्री में स्थानांतरण यानी ज़रूरत के मुताबिक समायोजन को भी सुगम किया जा सकता है.
इस पूरी व्यवस्था के लिए कई नियम बनाए जा रहे हैं और सऊदी अरब व भारत जैसे विकासशील देशों ने इसको लेकर अपनी चिंता जताई है. इन देशों का कहना है कि ज़्यादा नियमों और आंकड़ों को साझा करने से राष्ट्रीय संप्रभुता को ख़तरा पैदा हो सकता है, इसलिए इनसे बचना होगा. ज़ाहिर है कि इन देशों के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वे रणनीतिक रूप से ऐसे प्रावधानों का अपने लाभ के लिए उपयोग करें और अपने हितों को सुनिश्चित करने एवं वैश्विक सहयोग से लाभ उठाने के बीच संतुलन बनाएं.
एक और मुद्दा जिस पर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए, वो है अंतर्राष्ट्रीय कार्बन बाज़ारों में आधिकारिक मंजूरी के लिए क्षेत्रों के चयन का. मेजबान देशों को क्षेत्र चयन में सावधानी बरतनी चाहिए और अपने स्वयं के राष्ट्रीय स्तर पर आधारित योगदानों (NDCs) को पूरा करने के लिए आसान क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वित्त के लिए परियोजनाओं और सेक्टरों को फंड देने में मुश्किल विकल्प चुनना चाहिए. उदाहरण के तौर पर घाना की बात की जाए, तो उसका इरादा नवीकरणीय ऊर्जा और खाना पकाने के ईंधन के लिए ITMOs जारी करना है. घाना का लक्ष्य लाइट बल्बों को बदलने या छोटे बागानों में पेड़ लगाने का नहीं है, ज़ाहिर है कि ये सस्ते विकल्प हैं और इन कामों को वह अपने दम पर पूरा कर सकता है.
भारत के लिए सोलर एवं विंड एनर्जी आज ऊर्जा के कम लागत वाले विकल्प हैं. भारत ने ऊर्जा के अधिक ख़र्चे वाले विकल्पों की एक सूची नोटिफाई की है, जिसमें 13 गतिविधियां शामिल हैं. इन ऊर्जा विकल्पों पर पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6.2 के तहत कार्बन क्रेडिट व्यापार के लिए विचार किया जा सकता है.
इसी प्रकार से भारत की बात की जाए, तो भारत के लिए सोलर एवं विंड एनर्जी आज ऊर्जा के कम लागत वाले विकल्प हैं. भारत ने ऊर्जा के अधिक ख़र्चे वाले विकल्पों की एक सूची नोटिफाई की है, जिसमें 13 गतिविधियां शामिल हैं. इन ऊर्जा विकल्पों पर पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6.2 के तहत कार्बन क्रेडिट व्यापार के लिए विचार किया जा सकता है. ऊर्जा दक्षता ब्यूरो ने अक्टूबर 2024 में केंद्र सरकार के कार्बन कैप्चर एवं ट्रेडिंग सिस्टम (CCTS) के अंतर्गत स्वीकृत सेक्टरों की एक सूची भी जारी की है. इन क्षेत्रों को ऑफसेट मैकेनिज़्म यानी ग्रीनहाउस गैस कटौती के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है.
मैकेनिज़्म
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गतिविधियां, सेक्टर और प्रौद्योगिकियां
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आर्टिकल 6.2
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GHG शमन गतिविधियां: स्टोरेज के साथ नवीकरणीय ऊर्जा (सिर्फ़ संग्रहित घटक); सोलर थर्मल पावर; ऑफ-शोर विंड; ग्रीन हाइड्रोजन; कंप्रैस्ड बायोगैस; फ्यूल सेल जैसे मोबिलिटी के उभरते समाधान; ऊर्जा दक्षता के लिए अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी; टिकाऊ विमानन ईंधन; कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिहाज़ से बेहद चुनौतीपूर्ण सेक्टरों में प्रक्रिया सुधार के लिए उपलब्ध सर्वोत्तम प्रौद्योगिकियां; टाइडल एनर्जी, ओसीन थर्मल एनर्जी, ओसीन सॉल्ट ग्रेडिएंट एनर्जी, ओसीन वेव एनर्जी और ओसीन करंट एनर्जी; रिन्युएबल एनर्जी प्रोजेक्ट्स के साथ सहयोग करते हुए हाई वोल्टेज डायरेक्ट करंट ट्रांसमिशन; ग्रीन अमोनिया; कार्बन कैप्चर उपयोग और भंडारण
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ऑफसेट मैकेनिज्म CCTS
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फेज-1
1. ऊर्जा- ग्रीन हाइड्रोजन (इलेक्ट्रोलिसिस के माध्यम से); स्टोरेज के साथ नवीकरणीय ऊर्जा; ऑफ-शोर विंड; बायोमास के ज़रिए ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन; कंप्रेस्ड बायोगैस; ऊर्जा दक्षता में सुधार
2. उद्योग- ग्रीन अमोनिया का उपयोग, रासायनिक उद्योगों में फीडस्टॉक में परिवर्तन.
3. कृषि- सिस्टेमेटिक राइस इंटेंसिफिकेशन यानी कम संसाधनों का उपयोग करके एवं पर्यावरणीय प्रभावों को कम करते हुए चावल की पैदावार बढ़ाना; बायोचार; कृषि वानिकी
4. अपशिष्ट प्रबंधन और निपटान- बायोचार, लैंडफिल गैस कैप्चर
5. वानिकी- वनीकरण; संस्थागत वानिकी
6. परिवहन – ट्रांसपोर्ट माध्यमों में बदलाव; इलेक्ट्रिक वाहन/बस फेज 2
7. फ्यूजिटिव इमिशन- CF4 उत्सर्जन में कमी; तेल क्षेत्रों से गैस की रिकवरी एवं उपयोग
8. निर्माण- लाइमस्टोन केल्सीनेड क्ले सीमेंट (LC3:
9. सॉल्वेंट का उपयोग- इंडस्ट्रियल सॉल्वेंट में कमी
10. कार्बन कैप्चर एवं CO2 का भंडारण और अन्य गैसों का निराकरण – पोस्ट कंबस्टन कार्बन कैप्चर तकनीक़ें
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अनुपालन तंत्र CCTS
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आयरन एवं स्टील; सीमेंट; पल्प एवं पेपर; पेट्रोकेमिकल; कपड़ा; एल्युमीनियम; रिफाइनरी; उर्वरक; क्लोर एल्कली
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तालिका 1: अनुच्छेद 6.2 और इसके आधिकारिक ऑफसेट के तहत भारत सरकार द्वारा पहचानी गई गतिविधियों, क्षेत्रों और प्रौद्योगिकियों की सूची और कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना का अनुपालन तंत्र.
स्वैच्छिक कार्बन मार्केट (VCM) और पेरिस एग्रीमेंट के अनुच्छेद 6 के बीच पारस्पिक संबंध है और बेहतर परिणाम के लिए इसे अच्छी तरह से व्यवस्थित किया जाना चाहिए, ताकि इसका अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके. ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि VCM स्वतंत्र रूप से संचालित होता है और राष्ट्रीय स्तर पर आधारित योगदान (NDC) की प्रगति पर सीधे तौर पर असर नहीं डालता है.
कहा जाता है कि किसी भी योजना की क़ामयाबी उसके सफल क्रियान्वयन पर निर्भर करती है, यानी किसी भी अच्छी योजना की सफलता उसे गंभीरता से लागू करने पर निर्भर होती है. इसी प्रकार से कार्बन क्रेडिट व्यापार के लिए बनाए गए नए नियम और मानक कितने प्रभावशाली हैं, यह आने वाले दिनों में ही पता चल पाएगा, जब वे समय की कसौटी पर खरे उतरेंगे और भरोसेमंद साबित होंगे. इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि कार्बन क्रेडिट मार्केट की दशा और दिशा समय के साथ बदलती रहती है, ऐसे में जब भी आवश्यक हो तो इससे जुड़े नियमों और मानकों में बदलाव करते रहना चाहिए. इतना ही नहीं, अगर कार्बन बाज़ारों को मज़बूती के साथ बने रहना है और अपनी क्षमता सिद्ध करना है, तो हर हाल में पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी, साथ ही पर्यावरण अखंडता यानी पारिस्थितिकी तंत्र को उसकी मूल स्थिति में बनाए रखना होगा. इसके अतिरिक्त, इस मुद्दे पर की जाने वाली चर्चाओं में एवं इसके लिए नीतिगत उपाय करते समय भी कार्बन बाज़ारों की पारदर्शिता और पर्यावरण अखंडता को बरक़रार रखने को प्रमुखता दी जानी चाहिए.
मन्नत जसपाल ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन मिडिल ईस्ट में जलवायु एवं ऊर्जा की निदेशक और फेलो हैं.
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