हाल ही में सामने आए आईपीसीसी के मूल्यांकन से यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि वर्तमान और नियोजित जीवाश्म ईंधन इन्फ्रास्ट्रक्चर से होने वाला कार्बन उत्सर्जन, इसमें भी ख़ासकर पावर सेक्टर से होने वाला कार्बन उत्सर्जन, तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री से नीचे सीमित करने के लिए उपलब्ध कार्बन बजट से 66 प्रतिशत अधिक होगा. इसके अलावा, इन कार्बन उत्सर्जन द्वारा पहले से ही तापमान वृद्धि महत्वपूर्ण 2-डिग्री के नीचे सीमित रखने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए, कार्बन बजट का 95 प्रतिशत हिस्सा ले लेने की उम्मीद है.[1] इसलिए, पेरिस क्लाइमेट गोल्स को पूरा करने की कोई भी उम्मीद जीवाश्म ईंधनों से अलग, एक अभूतपूर्व एवं परिवर्तनकारी बदलाव पर निर्भर है.
इस विषय के महत्त्व को देखते हुए, यह आश्चर्यजनक है कि COP26 कॉन्फ्रेंस में यह पहली बार था, जब UNFCC के सभी हस्ताक्षरकर्ता देश जीवाश्म ईंधन की खपत को कम करने के उद्देश्य से किसी समझौते तक पहुंचने में सफल रहे. हालांकि, यह समझौता जिस प्रकार से सफल महसूस हो रहा था, वास्तविकता में वैसा नहीं था. COP26 कॉन्फ्रेंस में जो अंतिम समझौता सामने आया था, वो काफ़ी विवादास्पद था. इस समझौते ने इसलिए निराश किया, क्योंकि कोयले के उपयोग को लेकर इसमें बेहद लचर रुख़ जताया गया था. जबकि समझौते के शुरुआती मसौदे में कहा गया था कि सभी हस्ताक्षरकर्ता देश कोयले को क्रमबद्ध तरीक़े से फेज-आउट करने यानी कोयले का उपयोग खत्म करने पर सहमत हैं। लेकिन आख़िरी समय में कुछ देशों द्वारा ऐसी दख़लंदाज़ी की गई कि इस तथ्य को ही बदल दिया गया और यह कहा गया कि देश धीरे-धीरे फेज-डाउन यानी कोयले का उपयोग कम करने पर सहमत हैं. शब्दों के इस छोटे से बदलाव ने समझौते के मर्म को ही पूरी तरह से बदल दिया और एक लिहाज़ से यह कई देशों के लिए एक बड़े झटके के रूप में भी था. कई विकसित देशों ने इसके लिए भारत को दोषी ठहराने में देरी नहीं की, क्योंकि चीन के साथ-साथ भारत भी उन देशों में से एक था, जो अंतिम समय में इस बदलाव की वक़ालत करने में सबसे आगे थे.
यूरोपीय संघ कोयले के उपयोग के फेज-डाउन का सबसे मज़बूती से समर्थन करने वालों में से था, लेकिन वर्ष 2022 के पहले छह महीनों में कोयले की खपत में उसने 10 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज़ की है.
एक वर्ष में बहुत कुछ बदल गया है. वर्ष 2022 में वैश्विक स्तर पर कोयले की ख़पत बढ़कर 8 बिलियन टन होने की उम्मीद है, जो वर्ष 2013 में हुई अब तक की सर्वोच्च ख़पत के बराबर है. यूरोपीय संघ कोयले के उपयोग के फेज-डाउन का सबसे मज़बूती से समर्थन करने वालों में से था, लेकिन वर्ष 2022 के पहले छह महीनों में कोयले की खपत में उसने 10 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज़ की है. यह आगे और बढ़ने की उम्मीद है क्योंकि आगे सर्दियों का मौसम है और यूक्रेन में युद्ध के कारण आपूर्ति में कमी की वजह से प्राकृतिक गैस की कीमतें अधिक बनी हुई हैं. देखा जाए तो यूरोप भी तेज़ी से उसी समस्या का सामना कर रहा है, जिसका सामना कई विकासशील देश कोयले पर निर्भरता से निजात पाने में कर रहे हैं. वह समस्या है कोयले के विकल्पों की कमी के साथ-साथ तेज़ी से बढ़ती मांग. यदि पेरिस गोल्स यानी पेरिस लक्ष्यों को प्राप्त करना है, तो ग्लोबल नॉर्थ को वर्तमान ऊर्जा संकट के सबक को लेकर अपनी ज़िम्मेदार दिखानी होगी और COP27 के दौरान सभी तरह के जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को कम करने की अपनी प्रतिबद्धता को और मज़बूत करना होगा.
यहां एक बड़ा सवाल यह है कि पूरा एजेंडा सिर्फ़ कोयले पर ही क्यों केंद्रित है. ज़ाहिर है कि आईपीसीसी के स्पष्ट पूर्वानुमानों के मद्देनज़र निश्चित तौर पर किसी भी समझौते को केवल कोयले पर ही फोकस नहीं करना चाहिए, बल्कि सभी तरह के जीवाश्म ईंधनों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. यह ग्लोबल नॉर्थ के कई देशों, विशेष रूप से अमेरिका और यूरोप के लिए एक बहुत ही बड़ा और महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि उनके बिजली उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा तेल और प्राकृतिक गैस पर निर्भर है. उदाहरण के लिए, वर्ष 2005 और 2019 के बीच अमेरिका में बिजली उत्पादन में कोयले की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से घटकर 23 प्रतिशत हो गई. इस गिरावट की भरपाई करने के लिए इसी अवधि में प्राकृतिक गैस की हिस्सेदारी को दोगुना करके 38 प्रतिशत कर दिया गया. ज़्यादातर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं, जो कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने पर ज़ोर दे रही हैं, उनमें इसी तरह की स्थिति देखी जा सकती है. एक हिसाब से इनमें से अधिकांश देश बिजली उत्पादन के लिए कोयले पर बहुत कम निर्भर हैं.
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के मुताबिक़ वर्ष 2050 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन प्राप्त करने के लिए वर्तमान स्तरों की तुलना में प्राकृतिक गैस की खपत में 55 प्रतिशत की कमी लाने की आवश्यकता होगी.
IEA यानी इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के मुताबिक़ वर्ष 2050 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन प्राप्त करने के लिए वर्तमान स्तरों की तुलना में प्राकृतिक गैस की खपत में 55 प्रतिशत की कमी लाने की आवश्यकता होगी. यह ‘सामान्य रूप से व्यापार’ अनुमानों के एकदम उलट है, जिनके अनुसार वास्तविकता में वर्ष 2030 तक गैस की खपत 38 प्रतिशत बढ़ जाएगी. ऐसे में यह स्पष्ट है कि थोड़े कम उत्सर्जन की वजह से प्राकृतिक गैस को वैकल्पिक ईंधन के रूप में उपयोग करने के तर्क में कोई दम नहीं है और यह तर्क सवालों के घेरे में है. फिर भी अगर कोई वैकल्पिक ईंधन के तर्क पर विचार करता है, तो प्राकृतिक गैस का उपयोग अभी भी विकासशील देशों के लिए सबसे अधिक प्रासंगिक होगा, जहां बिजली की मांग तीव्र गति से बढ़ने की उम्मीद है और सिर्फ़ नवीकरणीय ऊर्जा के भरोसे बढ़ती आबादी की बुनियादी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करना असंभव सा है. दूसरी तरफ देखा जाए तो इस मामले में विकसित दुनिया के लिए प्राकृतिक गैस पर अपनी निर्भरता पर फिर से विचार करने के लिए एक मज़बूत तर्क है. इसके अतिरिक्त, प्राकृतिक गैस के भंडार कुछ ही देशों तक सीमित हैं. दुनिया में प्राकृतिक गैस के जितने भी भंडार है, उनमें से शीर्ष पांच देशों में 50 प्रतिशत गैस भंडार मौजूद हैं, उनमें से भी अकेले रूस के पास इसका 25 प्रतिशत हिस्सा है. वर्तमान ऊर्जा संकट ने स्पष्ट रूप से दिखा दिया है कि प्राकृतिक गैस की आपूर्ति में किसी भी तरह का अवरोध पैदा होने पर विकसित दुनिया के अधिकांश देशों को कोयले की ओर रुख करने की आवश्यकता होगी. हालांकि, वर्तमान में युद्ध की जो स्थिति है उसके दोहराने की संभावना तो नहीं है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि मौजूदा भू-राजनीतिक तनावों से यह स्पष्ट है कि भविष्य में इस प्रकार के संकटों से इंकार भी नहीं किया जा सकता है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हर बार प्राकृतिक गैस बाज़ारों में बाधा उत्पन्न होने पर विकसित दुनिया कोयले की ओर रुख करती रहेगी?
अगर शर्म-अल-शेख में होने वाले COP27 में खात्मे की दहलीज़ पर पहुंच चुके जीवाश्म ईंधन को लेकर चर्चा आगे बढ़ रही है, तो विकसित दुनिया को सिर्फ़ कोयले तक सीमित समझौतों के माध्यम से आगे बढ़ने की कोशिश करने के बजाए, सभी तरह के जीवाश्म ईंधनों पर अपनी निर्भरता के बारे में नए तरीक़े से विचार करना चाहिए. जीवाश्म ईंधन के उपयोग को समाप्त करने के लिए एक वैश्विक रोडमैप के लिए प्रतिबद्धता इसका एक आदर्श नतीज़ा होगा. इससे विकासशील देशों को अपने विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक कार्बन स्पेस की अनुमति देने हेतु विकासशील दुनिया की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता तेज़ी से ख़त्म होती जाएगी. यह क्लाइमेट जस्टिस की अनिवार्यता और ‘सामान्य लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियों’ को ध्यान में रखते हुए होगा. हालांकि, वर्तमान भू-राजनीतिक तनाव और ग्लोबल नॉर्थ एवं साउथ के बीच परस्पर विश्वास की कमी को देखते हुए, इस तरह के किसी भी व्यापक समझौते की संभावना नहीं है. इसके बजाए होना यह चाहिए कि विकसित दुनिया को अपने स्वयं के एनडीसी और दूसरी घरेलू प्रतिबद्धताओं के अंतर्गत प्राकृतिक गैस पर निर्भरता को कम करने के लिए सख़्त समय-सीमा निर्धारित करने का लक्ष्य रखना चाहिए. उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ में ‘फिट फॉर 55’ पैकेज और अमेरिका में इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट. यह अतिरिक्त गैस टर्मिनलों की ड्रिलिंग और निर्माण पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने की तुलना में रूस पर निर्भरता कम करने के साधन के तौर पर रूसी युद्ध के विरुद्ध एक बेहतर प्रतिक्रिया होगी. साथ ही यह अमेरिकी तेल और गैस उद्योग के लिए विशेष रूप से काफ़ी सहज और आकर्षक होगा.
विकसित दुनिया को सिर्फ़ कोयले तक सीमित समझौतों के माध्यम से आगे बढ़ने की कोशिश करने के बजाए, सभी तरह के जीवाश्म ईंधनों पर अपनी निर्भरता के बारे में नए तरीक़े से विचार करना चाहिए.
आगे की राह
अगर इस प्रतिबद्धता का कड़ाई से पालन होता है, तो परिणामस्वरूप रिन्यूएबल टेक्नोलॉजी को लेकर ख़र्च काफ़ी बढ़ जाएगा, विशेषकर पवन और सौर ऊर्जा को व्यवहार्य बनाने एवं हरित हाइड्रोजन बनाने के लिए आवश्यक बैटरी भंडारण प्रणालियों पर होने वाला ख़र्च. ज़ाहिर है कि ऐसे में इन नई प्रौद्योगिकियों में होने वाले नवाचारों में बढ़ोतरी होगी। लेकिन विकासशील दुनिया के ऐसे देश, जिनके पास इन प्रौद्योगिकियों में समान स्तर पर निवेश करने के लिए संसाधनों की कमी होगी, उन्हें इन बदलावों का पूरा फ़ायदा नहीं मिल पाएगा.
अगर ग्लोबल नॉर्थ जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को समाप्त करने की इस लड़ाई में वर्तमान ऊर्जा संकट का उपयोग एक नया और अधिक सहानुभूतिपूर्ण नेतृत्व दिखाने में कर पाया, तो फिर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि वह इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर विश्वास के माहौल को बढ़ाने और इस पूरे क्लाईमेट डिप्लोमेसी परिदृश्य में कठोर कार्रवाई की मिसाल पेश करने को लेकर एक लंबा रास्ता तय कर सकेगा.
[1] Estimated carbon emissions from existing and planned fossil fuel infrastructure is 850 GtCO2 (600-1100), whereas the carbon budget for limiting temperature rise to 1.5 degrees is 510 GtCo2 (330-710) with 50 percent probability and the carbon budget for 2 degrees is 890 GtCO2 (640-1160) with a 67 percent probability.
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