अपनी राष्ट्रीय नीतियों में जलवायु परिवर्तन से निपटने के महत्वाकांक्षी उपायों को प्राथमिकता देने के साथ अगर भारत इस मामले में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है, तो वो एक विश्व नेता के तौर पर उभर सकता है.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय (International Community), दुनिया के तीसरे सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करने वाले देश के तौर पर अक्सर भारत की आलोचना करता है. हालांकि, भारत (India) ये कहकर अपने उत्सर्जन को वाजिब ठहराता है कि अगर प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को पैमाना बनाया जाए तो भी और ऐतिहासिक रूप से भी वो, विकसित देशों की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों (Greenhouse Gas) का बहुत कम उत्सर्जन करता है. इस विश्लेषण में इस बात को समझने की कोशिश की गई है कि क्या भारत, दुनिया की सबसे अहम चुनौती से निपटने में अपनी भूमिका सही तरीक़े से निभा रहा है.
भारत के लिए जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करना क्यों आवश्यक है?
विश्व मौसम संगठन (WMO) द्वारा 2020 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम की बेहद भयंकर चुनौतियों जैसे कि हीट वेव, चक्रवाती तूफ़ानों, बाढ़ और अन्य आपदाओं के चलते भारत को हर साल औसतन लगभग 87 अरब डॉलर (6 लाख करोड़ रुपयों से भी ज़्यादा) का नुक़सान होता है. जलवायु परिवर्तन के चलते भारत में भयंकर गर्मी के क़हर ढाने की आशंका तीस गुना अधिक बढ़ा दी है. HSBC की रैंकिंग में भारत, जलवायु परिवर्तन के आगे सबसे नाज़ुक देश बताया गया है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन से जो नुक़सान भारत को हो रहा है, उससे भारत की GDP को तो तगड़ा झटका लग ही रहा है. इसके अलावा लाखों लोग अपने घरों से बेघर हो रहे हैं. खाने और पानी की क़िल्लत खड़ी हो रही है. सेहत के जोखिम और पर्यावरण को नुक़सान भी बढ़ रहे हैं.
जलवायु परिवर्तन से जो नुक़सान भारत को हो रहा है, उससे भारत की GDP को तो तगड़ा झटका लग ही रहा है. इसके अलावा लाखों लोग अपने घरों से बेघर हो रहे हैं. खाने और पानी की क़िल्लत खड़ी हो रही है.
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत द्वारा ख़ुद घोषित किए गए क़दम (NDCs)
2015 में भारत ने अपने नेशनली डेटरमाइन्ड कॉन्ट्रीब्यूशंस (NDCs) को जारी किया था. उस समय भारत ने जिन लक्ष्यों को सबसे अहम बताया था, उनमें जीवाश्म ईंधन के अलावा दूसरे संसाधनों से बिजली बनाने की सामूहिक क्षमता को बढ़ाकर 40 प्रतिशत करना और 2005 में कार्बन उत्सर्जन की दर को, 2030 तकघटाकर GDP के 33 से 35 फ़ीसद तक लाना था.
भारत ने इस लक्ष्य से कहीं ज़्यादा उपलब्धियां हासिल कर लीं. मिसाल के तौर पर 2016 में भारत का कार्बन उत्सर्जन 2005 की तुलना में पहले ही 24 फ़ीसद तक कम हो चुका था. इसी वजह से भारत ने 2022 में अपने राष्ट्रीय स्तर पर घोषित लक्ष्यों (NDCs) में बदलाव कियाऔर अपने लिए नए लक्ष्य निर्धारित किए.
भारत के संशोधित NDC की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं:
2030 तक भारत में उत्सर्जन की सघनता को GDP के 45 प्रतिशत तक कम करना.
गैर जीवाश्म ईंधन से बिजली बनाने वाली भारत की सामूहिक बिजली उत्पादन क्षमता की हिस्सेदारी को देश के कुल बिजली निर्माण का 50 प्रतिशत तक पहुंचाना; और
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की वैश्विक पहल- लाइफस्टाइल फॉर द एनवायरमेंट (LiFE) आंदोलन.
यानी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लक्ष्यों को काफ़ी ऊंचे स्तर पर ले जाया गया है और इनमें प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ग्लासगो सम्मेलन (COP26) में घोषित ‘पंचामृत’ लक्ष्यों को भी शामिल किया गया है. जिसके मुताबिक़, 2030 तक भारत ने गैर जीवाश्म ईंधन से बिजली उत्पादन को 500 गीगावाट तक ले जाने का फ़ैसला किया है; इसके अलावा कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन को अब से 2030 के दौरान एक अरब टन तक घटाने; और 2070 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है. नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत के ये NDC नेट अपने तरह के अनूठे क़दम हैं, जो उसे नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने की राह पर लेकर चलेंगे. इसका ज़ोर, ऊर्जा क्षेत्र में नवीनीकरण योग्य संसाधनों की भागीदारी बढ़ाने पर है. भारत द्वारा तय किए गए NDC में मदद के लिए घरेलू स्तर पर चलाई जा रही कई सरकारी योजनाओं जैसे कि पीएम-उज्जवला, पीएम-कुसुम और पीएम- उजाला योजनाएं शामिल हैं. इनके अलावा वन सन, वन वर्ल्ड वन ग्रिड जैसी पहलें भी इसका हिस्सा बनाई गई हैं.
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ग्लासगो सम्मेलन (COP26) में घोषित ‘पंचामृत’ लक्ष्यों को भी शामिल किया गया है. जिसके मुताबिक़, 2030 तक भारत ने गैर जीवाश्म ईंधन से बिजली उत्पादन को 500 गीगावाट तक ले जाने का फ़ैसला किया है
शर्म अल-शेख़ सम्मेलन में एक क़दम और आगे बढ़ाते हु भारत ने कम उत्सर्जन वाले विकास की दूरगामी रणनीति (LT-LEDS) को भी संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन से जुड़ी संधि (UNFCCC) को सौंपा. इसमें ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन को तेज़ी से विस्तार देना, 2032 तक परमाणु ऊर्जा से बिजली उत्पादन को मौजूदा स्तर से तीन गुना अधिक भड़ाना, 2025 तक पेट्रोल में एथेनॉल मिलाना और अन्य उपाय शामिल हैं. इसके साथ भारत अब 60 से कम देशों वाली उस फ़ेरहिस्त का हिस्सा बन गया जिन्होंने अपनी दूरगामी रणनीति (LT-LEDS)को तैयार कर लिया है. इससे पता चलता है कि भारत जलवायु परिवर्तन से जुड़े अपने सभी वादे पूरे करने को तैयार है. ये सारे क़दम, भारत की तरफ़ से जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए साहसिक नेतृत्व पेश करने की तस्वीर दिखाते हैं. लेकिन, कुछ मसले अभी भी हैं, जिन पर ध्यान नहीं दिया गया है.
सुधार के क्षेत्र
ऊर्जा परिवर्तन
कोयले से चलने वाले बिजलीघरों में कोयले के इस्तेमाल की दर गिर रही है. भारत की कोयले की खदानें अपनी क्षमता के महज दो तिहाई हिस्से का उपयोग करती हैं. ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर के एक विश्लेषण के मुताबिक़, भारत की कई बड़ी खदानें तो ऐसी भी हैं जो अपनी कुल क्षमता का महज़ एक प्रतिशत ही इस्तेमाल करती हैं. इन स्थितियों के बाद भी भारत ने कुछ हफ़्तों पहले ही (141 नईखदानों के लिए) कोयले के खनन की सबसे बड़ी नीलामी आयोजित की थी. इसके साथ भारत ने जैविक रूप से बेहद समृद्ध और नाज़ुक जंगलों और आदिवासी समुदायों से आबाद ग्रामीण इलाक़ों में कोयला खोदने की इजाज़त दी है.
राख की तादाद ज़्यादा होने के कारण भारत का कोयला प्रदूषण फैलाने और जलाने में दिक़्क़तें करने के लिए बदनाम है. आयातित कोयले की तुलना में भारतीय कोयले से बिजली बनाने के लिए दोगुनी मात्रा इस्तेमाल करनी पड़ती है. आज जब नवीनीकरण योग्य स्रोतों की क़ीमतें घट रही हैं, तो कोयले की ये नई खदानें प्रदूषण में बड़ा योगदान देने के साथ साथ, आने वाले समय में अटक सकती हैं. ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की राह पर चलने के लिए भारत को अब से लेकर 2070 तक के लिए सटीक योजनाएं बनानी होंगी, ताकि वो पुराने और कम कुशल बिजलीघरों को बंद कर दे और कोयले के उत्पादन की क्षमता को या तो कम करे या पूरी तरह से उस पर रोक लगा दे.
भारत को इस बात का भी विस्तार से आकलन करना चाहिए कि कोयले से नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की ओर क़दम बढ़ाने के लिए कितनी पूंजी की ज़रूरत होगी और इसके लिए भारत को एक स्पष्ट योजना भी बनानी होगी.
भारत जीवाश्म ईंधन और नवीनीकरण योग्य ऊर्जा, दोनों को सब्सिडी देता है. इनमें सीधी सब्सिडी, वित्तीय प्रोत्साहन, दाम का नियमन और अन्य तरह के सरकारी सहयोग शामिल हैं. इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवेलपमेंट और काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट ऐंड वाटर द्वारा 2022 में तैयार की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले वित्तीय वर्षों की तुलना में जीवाश्म ईंधन को सरकार की मदद में इज़ाफ़ा हो गया. कोयले, तेल और गैस से जुड़ी सब्सिडी, नवीनीकरण योग्य ऊर्जा से चलने वाली इलेक्ट्रिक गाड़ियों को मिलने वाली सब्सिडी से कहीं ज़्यादा है. जीवाश्म ईंधन को दी जाने वाली सब्सिडी को तुरंत ही कच्चे माल के आयात में रियायतों के तौर पर मुहैया कराने की ज़रूरत है. इसके अलावा, बिजली बनाने में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों की भागीदारी बढ़ाने के लिए भी सरकार से आर्थिक मदद बढ़ाने की अपेक्षा है. भारत ने इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बिक्री बढ़ाने के लिए FAME और ई-अमृत पोर्टल जैसी शानदार योजनाएं शुरू की हैं. पिछले साल के अक्टूबर महीने की तुलना में इस साल इलेक्ट्रिक गाड़ियों की फ़रोख़्त 185 फ़ीसद बढ़ गई. हालांकि, अगर भारत के कार्बन उत्सर्जन को घटाने में इलेक्ट्रिक गाड़ियां वाक़ई योगदान देना चाहती हैं, तो भारत के बिजली उत्पादन में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों से बिजली उत्पादन भी बढ़ना चाहिए. भारत के जलवायु परिवर्तन से निपटने में योगदान, स्थापित क्षमता पर आधारित हैं, वास्तविक बिजली उत्पादन पर नहीं. वास्तविक बिजली निर्माण के क्षेत्र में, कोयले का दबदबा है, जबकि नवीनीकरण योग्य ऊर्जा क्षेत्र की हिस्सेदारी 26 प्रतिशत ही है. भारत को इस बात का भी विस्तार से आकलन करना चाहिए कि कोयले से नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की ओर क़दम बढ़ाने के लिए कितनी पूंजी की ज़रूरत होगी और इसके लिए भारत को एक स्पष्ट योजना भी बनानी होगी. इससे भारत को, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सहयोग हासिल करने के लिए बेहतर स्थिति में वार्ता कर पाने में आसानी होगी. इसके अलावा, भारत G7-भारत और जस्ट एनर्जी ट्रांज़िशन पार्टनरशिप जैसी भागीदारियां भी काफ़ी अहम होंगी.
मिस्र के जलवायु सम्मेलन के आख़िरी दिनों में भारत ने (सिर्फ़ कोयला ही नहीं) सभी जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल, धीरे-धीरे पूरी तरह ख़त्म करने का प्रस्ताव रखा था. लेकिन वो प्रस्ताव इस बार कामयाब नहीं हो सका. पूरी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन घटाने को बढ़ावा देने के लिए आने वाली वार्ताओं में इस बात पर ज़ोर बनाए रखा जा सकता है.
कार्बन सिंक
2015 के बाद से भारत अपने वनों और पेड़ों का दायरा बढ़ाने की योजना बना रहा है. इसके लिए उसने ग्रीन इंडिया मिशन, ग्रीन हाइवेज़ नीति, वनों को वित्तीय प्रोत्साहन, नदियों के किनारे पेड़ लगाने जैसे कई क़दम उठाए हैं. हालांकि, 2015 में भारत का कुल वनीकरण क्षेत्रजहां24.16 प्रतिशत था, वहीं 2021 में इसमें मामूली रूप से इज़ाफ़ा हुआ और भारत की कुल ज़मीन पर वनों की तादाद 24.62 फ़ीसद ही पहुंच सकी. भारत ने वनों से महरूम कर दी गई 2.6 अरब हेक्टेयर ज़मीन पर दोबारा पेड़ लगाने का बीड़ा (बॉन चुनौती) उठाया है.इसके अलावा भारत ने 2030 तक 2.5 से तीन टन अतिरिक्त कार्बन को सोखने का इंतज़ाम करने का भी वादा किया है. लेकिन, ये लक्ष्य हासिल करने के लिए वन संरक्षण और दोबारा जंगल लगाने को उचित फंड देकर आगे बढ़ाया जाना चाहिए. ये विडंबना ही है कि 2020-21 में जहां ग्रीन इंडिया मिशन का बजट 246 करोड़ था. वहीं, 2021-22 में ये बजट घटकर 235 करोड़ रह गया है.
जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ख़ुद को ढालने के उपाय
2015-16 के दौरान भारत ने 5.56 करोड़ डॉलर के शुरुआती योगदान से एक नेशनल एडैप्टेशन फंड बनाया है, ताकि अहम क्षेत्रों में परिवर्तन लाने की ज़रूरतों से निपटा जा सके और ढालने के राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय प्रयासों को उनमें लगी पूंजी से जोड़कर देखा जा सके. हालांकि परियोजनाओं की निगरानी और उनके असर को लेकर ठोस जवाबदेही किसी की भी नहीं बनती. इसके अलावा किसी परियोजना की प्रगति रिपोर्ट और वित्त के बारे में सार्वजनिक रूप से जानकारी का बहुत अभाव होता है. इसके अलावा, राज्य स्तर पर जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढालने की जो योजनाएं हैं, उन्हें ज़िला स्तर तक ले जाकर, ज़िला स्तर की व्यापक योजनाएं तैयार करने की ज़रूरत है. स्थानीय लोगों की अगुवाई में ये बदलाव लाने के लिए स्थानीय प्रशासन के संस्थानों, नागरिक संगठनों और आदिवासियों, युवाओं और महिलाओं जैसे अन्य भागीदारों को भी बदलाव में ढालने से जुड़े उपायों के फ़ैसले लेने तक सीधी पहुंच और पूंजी मुहैया कराई जानी चाहिए और फिर उन्हें नौकरियां देकर, सलाहकारों परिषदों में जगह देकर और सलाह मशविरे देने जैसे अवसर देकर भी उन्हें इस अभियान से जोड़े रखा जाना चाहिए.
भारत, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो उपाय कर रहा है, उसकी कोई मिसाल नहीं मौजूद है. लेकिन, हमारे सामने जितनी बड़ी चुनौती खड़ी है, उसे देखते हुए और अधिक क़दम उठाने की ज़रूरत है.
इसके अलावा कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के हिसाब से बदलाव लाने की तुरंत ज़रूरत है. भारत के 60 फ़ीसद नागरिक अपनी रोज़ी-रोटी के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं और जलवायु परिवर्तन उनकी उपज और भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए सीधे अस्तित्व का ख़तरा है. खेतों में पानी के प्रबंधन और सॉइल हेल्थ कार्ड को आसान बनाने जैसे मौजूदा योजनाओं का विस्तार करके, उनमें बदलाव लाकर, भारत को किसानों के कौशल विकास का भी एक ठोस कार्यक्रम विकसित करना चाहिए और वित्तीय सुरक्षा के उपाय लागू करने चाहिए ताकि किसानों को जलवायु के लिए मुफ़ीद खेती के उपायों जैसे कि एग्रोइकोलॉजी, फ़सलों के विविधताकरण और ऑर्गेनिक खाद के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जा सके और पौधों पर आधारित खेती, वैकल्पिक प्रोटीन और अन्य काम के लिए हौसला दिया जा सके. इससे कार्बन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र की बड़ी हिस्सेदारी कम की जा सकेगी. भारत के कुल उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगभग 14 फ़ीसद है.
जलवायु क्षेत्र में निवेश
2022-23 के केंद्रीय बजट में भारत ने सरकार द्वारा बाज़ार से क़र्ज़ लेने के लिए ग्रीन बॉन्ड लाने का एलान किया था. इनका इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन के लिए उचित मूलभूत ढांचे के विकास में होना था. भारत में हरित परियोजनाओं के लिए पूंजी जुटाने का ये एक शानदार विकल्प थे. हालांकि, जब हम कई विकसित और यहां तक कि कुछ विकासशील देशों से भी तुलना करते हैं, तो भारत का ग्रीन बॉन्ड लाने का फ़ैसला काफ़ी देर से आया है. भारत के लिए इन ग्रीन बॉन्ड्स का आकार लगातार बढ़ाना उपयोगी हो सकता है क्योंकि आने वाले वर्षों में ही ग्रीन बॉन्ड के असर का सटीक आकलन किया जा सकेगा. इसके अलावा समुद्री इकोसिस्टम में निवेश बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन से निपटने के ठोस उपाय अपनाने के लिए भारत को ब्लू बॉन्ड के विकल्प पर भी विचार करना चाहिए. इसके अलावा तमाम सेक्टरों में भारत के बजट में जलवायु परिवर्तन को भी मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए.
शर्म अल-शेख़ सम्मेलन और उसके आगे
वैसे तो भारत में दुनिया की महज़ 2.4 प्रतिशत ज़मीन है और वो दुनिया की प्राथमिक ऊर्जा का महज़ 6.1 प्रतिशत ही इस्तेमाल करता है. लेकिन भारत, दुनिया की 18 प्रतिशत इंसानी आबादी और दुनिया में सबसे अधिक पालतू जानवरों की ज़िम्मेदारी उठाता है. आज जब भारत में 22.89 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं, तो भी भारत, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो उपाय कर रहा है, उसकी कोई मिसाल नहीं मौजूद है. लेकिन, हमारे सामने जितनी बड़ी चुनौती खड़ी है, उसे देखते हुए और अधिक क़दम उठाने की ज़रूरत है. अधिक प्रयास करने के लिए, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय पूंजी (मदद और रियायती क़र्ज़)भी बेहद अहम भूमिका निभा सकती है. शर्म अल-शेख़ सम्मेलन में भारत ने जलवायु पूंजी (जिसमें विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को 100 अरब डॉलर की मदद का वादा पूरा करने की मांग भी शामिल है) के विषय को आगे बढ़ाने की कोशिश ज़रूर की. लेकिन, इस मामले में प्रगति बहुत धीमी है. भारत को चाहिए कि वो संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन से जुड़ी रूप-रेखा वाली संधि (UNFCCC) की पूंजी और समीक्षा की व्यवस्थाओं को लागू करने में अग्रणी भूमिका निभाए. इसके अलावा COP27 में पारित ऐतिहासिक लॉस ऐंड डैमेज फंड को आगे बढ़ाने में भी भारत अगुवा बने.
अपनी राष्ट्रीय नीतियों में जलवायु परिवर्तन से निपटने के महत्वाकांक्षी उपायों को प्राथमिकता देने के साथ अगर भारत इस मामले में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है, तो वो जलवायु संकट से उबर सकता है महत्वाकांक्षी तरीक़े से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों के मामले में दुनिया का अगुवा बनकर हमारी धरती के भविष्य को सुरक्षित बना सकता है.
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