यह लेख, ‘समान’ लेकिन ‘विभिन्न’ उत्तरदायित्व निभाने का लक्ष्य: COP27 ने दिखाई दिशा!नामक श्रंखला का हिस्सा है
एक तरफ़ आर्थिक वृद्धि और विकास का परंपरागत दृष्टिकोण और दूसरी तरफ़ जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के बीच एक मज़बूत सकारात्मक पारस्परिक संबंध मौजूद है. इस बात का प्रमाण इस तथ्य से भी मिलता है कि आज चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ (EU) और भारत वैश्विक स्तर पर सबसे ज़्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं. दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैस (Greenhouse Gas) के उत्सर्जन में 20 देशों के समूह (G20) का योगदान लगभग 75–80 प्रतिशत है. सबसे ज़्यादा उत्सर्जन करने वाले 10 बड़े देशों में से नौ विकसित और उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं जो इस G20 संगठन में मौजूद हैं. इनमें ऊपर बताए गए चार सबसे ज़्यादा उत्सर्जन करने वाले देश शामिल हैं. उन चार देशों के अलावा रूस, जापान, ब्राज़ील, इंडोनेशिया और कनाडा (Russia, Japan, Brazil, Indonesia, and Canada)शामिल हैं.
दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 20 देशों के समूह (G20) का योगदान लगभग 75–80 प्रतिशत है. सबसे ज़्यादा उत्सर्जन करने वाले 10 बड़े देशों में से नौ विकसित और उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं जो इस G20 संगठन में मौजूद हैं.
वैसे तो कार्बन का सबसे ज़्यादा उत्सर्जन करने वाले देशों में भारत तीसरे नंबर पर है लेकिन जलवायु परिवर्तन का समाधान करने में अलग-अलग क्षमताओं और अलग-अलग ज़िम्मेदारी को मानने वाली संयुक्त राष्ट्र की रूप-रेखा (Common But Differentiated Responsibilities यानी CBDR) के दृष्टिकोण से देखें तो भारत के प्रदर्शन का मूल्यांकन पूरी तरह एक अलग तस्वीर पेश करता है. जलवायु के क्षेत्र में काम की ज़िम्मेदारी CBDR के सिद्धांतों के तहत मूल्यांकन के आधार पर बेहतर ढंग से आवंटित की जाती है क्योंकि इस तरह के मूल्यांकन में ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन में हिस्सा; जनसांख्यिकी से जुड़ी चिंताएं जैसे कि आबादी, आर्थिक वृद्धि का स्तर एवं मानवीय विकास और हरित परिवर्तन को अपनाने में वित्तीय, तकनीकी एवं वैज्ञानिक क्षमता का ध्यान रखा जाता है.
विकास के रास्ते और जलवायु प्रदर्शन: जलवायु न्याय की कल्पना
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की एक आने वाली रिपोर्ट CBDR के सिद्धांत के सहारे G20 देशों के जलवायु प्रदर्शन का मूल्यांकन करना चाहती है. रिपोर्ट में निम्नलिखित सूचकों का समन्वय करके जलवायु प्रदर्शन के इंडेक्स को विकसित किया गया है: जीवाश्म ईंधन के जलने से प्रति व्यक्ति CO2 उत्सर्जन, प्रति व्यक्ति ग़ैर-कार्बन ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, वैश्विक कुल जनसंख्या के हिस्से के सापेक्ष वैश्विक कुल कार्बन उत्सर्जन का हिस्सा, उत्पादन की ऊर्जा दक्षता, कुल ऊर्जा ख़पत के हिस्से के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा की ख़पत, जलवायु नीति की कवरेज, विकास की कार्बन लागत, कार्बन असमानता की थील इंडेक्स, 2000 वॉट के सापेक्ष प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपयोग की दर, जलवायु की वजह से ज़मीन के क्षेत्र में प्रतिशत बदलाव और जलवायु नियामक ज़मीन के क्षेत्र में प्रतिशत बदलाव.
वैसे तो जीवाश्म ईंधन और औद्योगिक प्रक्रिया के कारण CO2 के उत्सर्जन का ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में दबदबा है लेकिन ज़मीन के इस्तेमाल जैसे क्षेत्रों से ग़ैर-कार्बन ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन की ग्लोबल वॉर्मिंग क्षमता बड़े प्राथमिक क्षेत्र वाले देश के लिए महत्वपूर्ण रूप से ज़्यादा और अत्यंत ज़रूरी है. इसलिए इस बात की आवश्यकता है कि इन दोनों तरह के उत्सर्जन से जुड़ी सूचना को जलवायु प्रदर्शन के मूल्यांकन में शामिल किया जाए. जलवायु न्याय का सिद्धांत ये मांग करता है कि अलग-अलग देशों की तुलना कुल उत्सर्जन के मुक़ाबले प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के स्तर पर की जाए. वैश्विक कुल जनसंख्या के हिस्से के सापेक्ष वैश्विक कुल कार्बन उत्सर्जन का हिस्सा किसी देश के द्वारा आबादी के अनुसार ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन के बारे में जानकारी प्रदान करता है जिसकी आवश्यकताओं को उन उत्सर्जन के माध्यम से पूरा किया गया था. इस तरह ये सूचक किसी देश के द्वारा ग्लोबल वॉर्मिंग में दीर्घकालीन योगदान की माप करता है. उत्पादन की ऊर्जा दक्षता और कुल ख़पत के हिस्से के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा की ख़पत के मामले में की गई प्रगति हरित बदलाव की गति को उत्प्रेरित करती है. वास्तव में इस तरह का परिवर्तन ऊर्जा उपयोग को बेहतर करने और नवीकरणीय ऊर्जा के ज़्यादा इस्तेमाल को अपनाने का काम है.
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की एक आने वाली रिपोर्ट CBDR के सिद्धांत के सहारे G20 देशों के जलवायु प्रदर्शन का मूल्यांकन करना चाहती है. रिपोर्ट में निम्नलिखित सूचकों का समन्वय करके जलवायु प्रदर्शन के इंडेक्स को विकसित किया गया है.
जलवायु नीति की कवरेज इस बात का आकलन करती है कि छह प्रमुख क्षेत्रों में कोई निश्चित नीतियों की सूची मौजूद है या नहीं. ये छह क्षेत्र हैं कृषि एवं वानिकी, ज़मीन परिवहन, इमारत, उद्योग, बिजली एवं गर्मी और पांच सेक्टर- ऊर्जा की मांग एवं संसाधनों के इस्तेमाल की दक्षता में परिवर्तन; ऊर्जा दक्षता; नवीकरणीय; अन्य कम कार्बन वाली तकनीकें और ग़ैर-ऊर्जा से जुड़े उत्सर्जन में ईंधन बदलाव- में जलवायु कार्रवाई के सामान्य उपाय.
विकास की कार्बन लागत कार्बन उत्सर्जन के मामले में आर्थिक वृद्धि की लागत को मापती है. कार्बन उत्सर्जन से आर्थिक वृद्धि को अलग करना ग्लोबल वॉर्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने और अलग-अलग देशों के द्वारा वादा किए गए नेट ज़ीरो टारगेट को हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण बन गया है. आर्थिक वृद्धि की नकारात्मक कार्बन लागत का मतलब है कार्बन उत्सर्जन से आर्थिक वृद्धि को पूरी तरह अलग करना. आर्थिक विकास की सकारात्मक लागत, जो कुल से कम है, का मतलब है सापेक्षिक तौर पर अलग करना. वहीं कुल से ज़्यादा आर्थिक विकास की सकारात्मक लागत का मतलब है अलग नहीं होना.
कार्बन असमानता को लेकर थील का इंडेक्स ख़पत आधारित उत्सर्जन के मामले में एक देश के भीतर असमानता का मापक है. ये इंडेक्स ऊर्जा तक पहुंच के मामले में असमानता पर प्रकाश डालता है यानी आमदनी की असमानता को दिखाना. दूसरी तरफ़ 2000 वॉट के सापेक्ष प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपयोग की दर 2000 वॉट की सीमा के आगे ऊर्जा की ज़्यादा ख़पत को मापती है जो कि वैश्विक औसत के काफ़ी नज़दीक है. ये सूचक ऊर्जा तक पहुंच के मामले में देशों के बीच असमानता के बारे में बताता है.
जलवायु नियामक ज़मीन के क्षेत्र में प्रतिशत बदलाव ज़मीन के क्षेत्र में परिवर्तन को मापता है जो कि वैश्विक ग्रीन हाउस गैस की एकाग्रता और ग्रीन हाउस गैस के असर को नियंत्रित करने के लिए ज़िम्मेदार है. जलवायु में बदलाव करने वाले ज़मीन के क्षेत्र में प्रतिशत परिवर्तन ज़मीन के क्षेत्र में बदलाव को मापता है जिसका वैश्विक ग्रीन हाउस गैस की एकाग्रता और इस तरह ग्लोबल वॉर्मिंग में शामिल जैव-रासायनिक प्रक्रिया पर नकारात्मक असर पड़ता है.
भारत की बात: मुख्य बातें और COP27 के लिए प्राथमिकताएं
जलवायु प्रदर्शन इंडेक्स, जो ऊपर बताए गए सूचकों के बारे में बताता है, के मामले में भारत G20 सदस्य देशों में सबसे आगे हैं. भारत निम्नलिखित सूचकों के मामले में G20 सदस्य देशों में पहले पायदान पर है: जीवाश्म ईंधन के जलने से होने वाला प्रति व्यक्ति CO2 उत्सर्जन, वैश्विक कुल जनसंख्या के हिस्से के सापेक्ष वैश्विक कुल कार्बन उत्सर्जन का हिस्सा, 2000 वॉट के सापेक्ष प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपयोग की दर और और जलवायु नियामक ज़मीन के क्षेत्र में प्रतिशत बदलाव. भारत G20 सदस्य देशों में कुल अंतिम ऊर्जा ख़पत के हिस्से के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा की खपत के संबंध में अपने प्रदर्शन के मामले में दूसरे पायदान पर है. भारत जलवायु नीति की कवरेज और जलवायु की वजह से ज़मीन के क्षेत्र में बदलाव के संबंध में प्रदर्शन के मामले में G20 देशों में तीसरे स्थान पर है. हालांकि अर्थव्यवस्था के विकास की कार्बन लागत के मामले में भारत ने पूरी तरह से अलग होने में सफलता हासिल नहीं की और इस मामले में G20 के दूसरे देशों ने भारत को पीछे छोड़ दिया जिन्होंने पूरी तरह सफलता हासिल की है. उत्पादन की ऊर्जा दक्षता के मामले में भी भारत के प्रदर्शन में काफ़ी सुधार की गुंजाइश है.
भारत G20 सदस्य देशों में कुल अंतिम ऊर्जा ख़पत के हिस्से के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा की खपत के संबंध में अपने प्रदर्शन के मामले में दूसरे पायदान पर है. भारत जलवायु नीति की कवरेज और जलवायु की वजह से ज़मीन के क्षेत्र में बदलाव के संबंध में प्रदर्शन के मामले में G20 देशों में तीसरे स्थान पर है.
ऊपर बताए गए सूचक जलवायु प्रदर्शन के अलग-अलग पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकि ये CBDR के सिद्धांत से जुड़े हैं. इन अलग-अलग पहलुओं पर भारत का प्रदर्शन निर्धारित करता है कि कॉप27 शिखर सम्मेलन के दौरान भारत का रवैया क्या होना चाहिए. स्पष्ट तौर पर भारत CBDR सिद्धांत के उन अलग-अलग पहलुओं का अनुसरण करने पर विचार कर सकता है जिन्हें अभी तक जलवायु संवाद में शामिल नहीं किया गया है. पहली बात ये है कि विकसित दुनिया ने न सिर्फ़ ऐतिहासिक तौर पर कार्बन बजट का दोहन किया है बल्कि कार्बन बजट का वर्तमान खर्च भी विकसित देशों के पक्ष में है. जलवायु न्याय के दृष्टिकोण से ये ठीक है कि बाक़ी कार्बन बजट का एक बड़ा हिस्सा विकासशील देशों को आवंटित किया जाए क्योंकि ऊर्जा तक पहुंच विकास के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. भारत कॉप27 शिखर सम्मेलन में इस प्रस्ताव को रख सकता है. विकासशील देशों को कार्बन बजट का एक उचित हिस्सा आवंटित करने में राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (NDC) को समायोजित करना शामिल है ताकि ये आवंटन दिख सके.
दूसरा, भारत और अमेरिका ने हाल में साझा रूप से मिशन लाइफ (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरमेंट) शुरू किया है जो एसडीजी 12 यानी सतत खपत और उत्पादन के सहारे है. ये सामग्रियों और ऊर्जा को सीमित करने और कुल मिलाकर ख़पत से ज़्यादा के साथ जुड़ा हुआ है. भारत कॉप27 शिखर सम्मेलन के दौरान मिशन लाइफ के लिए ज़्यादा समर्थन और उसे अपनाने की वक़ालत कर सकता है. इस बात में कोई शक नहीं है कि मिशन लाइफ खपत आधारित अर्थव्यवस्थाओं जैसे कि भारत और कई अन्य विकासशील देशों में विकास की संभावनाओं और जलवायु प्रदर्शन के बीच एक स्वाभाविक “द्विभाजन” प्रस्तुत करता है. इसलिए भारत को सावधानीपूर्वक अपनी प्राथमिकताओं पर चलना होगा ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि लंबे समय में ये पहल सफल और टिकाऊ हो. भारतीय पहल इस उदाहरण के रूप में भी काम कर सकती है कि किस तरह व्यावहारिक रूप से समझाने पर जलवायु कार्रवाई ज़्यादा समावेशी और असरदार हो सकती है. भारत इस बात को लेकर बातचीत की शुरुआत कर सकता है कि मिशन लाइफ को लागू करने के लिए कैसे अंतर्राष्ट्रीय जलवायु शासन व्यवस्था को संस्थागत, वित्तीय, नियामक और तकनीकी पारिस्थितिकी तंत्र के विकास का समर्थन करने पर विचार करने की आवश्यकता है.
तीसरा, जलवायु नीतियों को इस बात का ध्यान रखने की ज़रूरत है कि कार्बन असमानता के द्वारा नकारात्मक रूप से प्रभावित लोगों पर उसका क्या असर है. वास्तव में जो नीतियां ऐसा करने में नाकाम हैं वो आबादी के ग़रीब हिस्से पर विकास की कमी का बोझ बढ़ा सकती हैं. जलवायु कार्रवाई ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रमों से अलग-थलग करके नहीं बनानी चाहिए. जलवायु नीति के इस पहलू को कॉप27 शिखर सम्मेलन में रखा जा सकता है.
अंत में, विकासशील देशों को जलवायु वित्त, तकनीक के ट्रांसफर, जानकारी साझा करने और हरित विकास की नीतियों को बनाने के लिए सर्वश्रेष्ठ पद्धतियों के आदान-प्रदान के मामले में समर्थन की आवश्यकता है. इस तरह वो विकास की कार्बन लागत को कम कर सकते हैं. कॉप27 शिखर सम्मेलन के दौरान भारत विकासशील देशों को इस तरह के समर्थन का विस्तार करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाल सकता है.
कॉप27 शिखर सम्मेलन उस वक़्त आयोजित किया गया जब भारत को G20 की अध्यक्षता मिली है. निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि भारत कॉप27 शिखर सम्मेलन का इस्तेमाल अपने जलवायु एजेंडे की शुरुआत करने और G20 की अपनी अध्यक्षता के दौरान इस एजेंडे को और बढ़ाने में कर सकता है.
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