संसार में मानवीय गतिविधियों के चलते जलवायु परिवर्तन की समस्या गंभीर होती जा रही है. जंगलों में लगने वाली आग, तूफ़ान, सैलाब और दूसरी प्राकृतिक आपदाएं इसी बात के भौतिक और वैज्ञानिक प्रमाण हैं. दुनिया में कार्बन उत्सर्जन का स्तर बढ़ता ही जा रहा है. इसके बावजूद इस समस्या से निपटने के लिए अब भी ज़रूरत के मुताबिक नीतिगत क़दम नहीं उठाए जा रहे हैं. कुछ देशों ने जलवायु के मोर्चे पर अपनी कार्रवाइयों के स्तर को ऊंचा उठाया है. इसी तरह कुछ अन्य देशों ने महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का एलान भी किया है. हालांकि अब भी दुनिया के कई देश अंतहीन बहसों के फेर में फंसे हुए हैं. ऑस्ट्रेलिया इसी श्रेणी में आता है और जलवायु के मोर्चे पर दुनिया के सामने खड़ी चुनौतियों की झलक दे रहा है.
ऐसे माहौल में COP26 से आशा की एक नई किरण जगी है. हालांकि अतीत में हुई ऐसी बैठकों से हाथ लगी मायूसियों के चलते इस बार उम्मीदों का स्तर नपा-तुला और संयमित है. दुनिया अब भी कोविड-19 महामारी से दो-दो हाथ कर रही है. ऐसे में विश्व के नेताओं से साझा हितों पर ज़रूरी कार्रवाई के लिए एक साथ खड़े होने के तरीक़े ढूंढ लेने की उम्मीद की जा रही है.
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में तत्काल, तेज़ गति से और बड़े पैमाने पर कटौती किए बिना धरती के तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस (या 2 डिग्री सेल्सियस तक भी) सीमित कर पाना हमारे बूते के बाहर होगा.
अंतरराष्ट्रीय बिरादरी पहले भी इन परिस्थितियों से रुबरु हो चुकी है. “जलवायु परिवर्तन का पृथ्वी के हरेक हिस्से पर कई रूपों में कुप्रभाव पड़ रहा है.” ये बात बार-बार उठाई जाती रही है. इसे मज़बूती से साबित करती ढेरों वैज्ञानिक रिपोर्ट हम सबके सामने हैं. ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में तत्काल, तेज़ गति से और बड़े पैमाने पर कटौती किए बिना धरती के तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस (या 2 डिग्री सेल्सियस तक भी) सीमित कर पाना हमारे बूते के बाहर होगा. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 2050 तक (तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए) वैश्विक उत्सर्जन के स्तर को कम करके नेट ज़ीरो तक लाना होगा. तापमान में बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने पर ये समय सीमा 2070 तक की है. हालांकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं को इस लक्ष्य की प्राप्ति में तेज़ी दिखानी होगी.
2015 पेरिस जलवायु समझौता
हाल के वर्षों में दुनिया भर में जलवायु परिवर्तनों से जुड़ी चर्चाओं में ‘नेट ज़ीरो’ सबकी ज़ुबान पर चढ़ गया है. हर ओर से इसे हासिल करने की ज़रूरतों को लेकर दुहाई दी जा रही है. 2015 में पेरिस में हुए जलवायु समझौते में औपचारिक तौर पर तत्काल कदम उठाए जाने की ज़रूरतों को स्वीकार किया गया था. समझौते के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों को सीमित करने के लिए उत्सर्जन के स्तरों और वातावरण से अंदर-बाहर होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के हटाव से जुड़ी क़वायदों के बीच संतुलन बिठाना होगा. साफ़ तौर से इसका मतलब है शुद्ध उत्सर्जन के स्तर को शून्य पर बनाए रखना. इसी को ‘नेट ज़ीरो’ का नाम दिया गया है. पेरिस समझौते में 2050 के बाद के कालखंड में ये लक्ष्य हासिल किए जाने की बात कही गई है. हालांकि अगर ये लक्ष्य जल्दी हासिल कर लिया जाता है तो ग्लोबल वॉर्मिंग में बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस के स्तर से नीचे रखने की संभावना बढ़ जाएगी.
बहरहाल इस संसार के लिए आदर्श स्थिति तो यही होगी कि तमाम उत्सर्जनों को रोक दिया जाए. ऐसे में संतुलन बिठाने की कोई ज़रूरत ही नहीं रहेगी और मानवीय गतिविधियों के चलते तापमान में होने वाली वृद्धि मंद पड़ते-पड़ते आख़िरकार रुक जाएगी. ज़ाहिर है कि हक़ीक़त की दुनिया का हिसाब-क़िताब इतना सटीक नहीं है. वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था के सभी प्रमुख सेक्टरों के आंकड़ों से ये बात ज़ाहिर भी होती है. ये तमाम सेक्टर हर साल उत्सर्जन में 50 अरब टन का योगदान करते हैं.
अनेक कॉरपोरेशंस और औद्योगिक सेक्टरों ने भी नेट-ज़ीरो लक्ष्य के किसी न किसी प्रारूप के प्रति अपनी वचनबद्धता दिखाई है. इसके बावजूद इनमें से ज़्यादातर के पास इन लक्ष्यों की प्राप्ति को लेकर कोई स्पष्ट योजना नहीं हैं.
दुनिया के 50 से भी ज़्यादा देशों ने 2050, 2060 या उससे पहले ही नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का स्तर हासिल करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई है. कुछ देशों ने तो इस मसले पर क़ानून भी बना डाले हैं. विश्व में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का 70 फ़ीसदी हिस्सा अब नेट-ज़ीरो से जुड़ी प्रतिबद्धताओं के दायरे में आ गया है. अनेक कॉरपोरेशंस और औद्योगिक सेक्टरों ने भी नेट-ज़ीरो लक्ष्य के किसी न किसी प्रारूप के प्रति अपनी वचनबद्धता दिखाई है. इसके बावजूद इनमें से ज़्यादातर के पास इन लक्ष्यों की प्राप्ति को लेकर कोई स्पष्ट योजना नहीं हैं. और तो और कइयों को तो ‘नेट ज़ीरो’ की साफ़ समझ भी नहीं है. जलवायु परिवर्तन के मोर्च पर तय किए गए लक्ष्य के प्रति वास्तविक प्रतिबद्धता के लिए इस मसले की पूरी समझ निहायत ज़रूरी है.
नेट ज़ीरो की ओर
वैश्विक स्तर पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के 25 प्रतिशत हिस्से के लिए बिजली और ताप ज़िम्मेदार हैं. तक़रीबन 25 फ़ीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों (पनबिजली, पवन, सौर और भू-तापीय) से प्राप्त होती है. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का मानना है कि नेट-ज़ीरो के स्तर वाले संसार में क़रीब-क़रीब 90 प्रतिशत बिजली नवीकरणीय संसाधनों (ज़्यादातर सौर और पवन) से मिला करेगी. बाक़ी बच्चे ज़्यादातर हिस्से की भरपाई परमाणु ऊर्जा के ज़रिए होगी. इसके साथ ही मौजूदा परिवहन व्यवस्था का ज़्यादातर हिस्सा और स्थिर रूप से ऊर्जा का उपभोग करने वाले साधन जीवाश्म ईंधनों की जगह बिजली से संचालित होने लगेंगे.
बहरहाल ऑस्ट्रेलिया जैसे देश के परमाणु ऊर्जा का सहारा लेने की संभावना न के बराबर है. लिहाज़ा 90 फ़ीसदी सौर और पवन ऊर्जा वाली व्यवस्था को आज के मुक़ाबले कहीं मज़बूत ट्रांसमिशन के सहारा की ज़रूरत होगी. ऊर्जा के अल्पकालिक भंडारों के लिए बैटरियों का इस्तेमाल करना होगा. ग़ौरतलब है कि सौर और पवन जैसे नवीकरणीय संसाधनों की समय-समय पर और मौसमी बदलावों के चलते किल्लत हो जाती है. अगर लंबे समय तक ऐसे हालात रहे तो इनसे निपटने के लिए प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल से जुड़ी व्यवस्था को भी चौकस रखने की ज़रूरत पड़ेगी. बहरहाल इन तमाम क़वायदों के बावजूद अगर कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का उत्सर्जन होता है तो उन्हें वातावरण से CO2 को अलग करने के उपायों के ज़रिए संतुलित करना होगा.
संभावित समाधान और ग्रीन हाइड्रोजन पैदा करने की तकनीक
औद्योगिक क्षेत्र से होने वाला उत्सर्जन दुनिया में कुल उत्सर्जन का 21 प्रतिशत है. वहीं संसार के कुल उत्सर्जन में परिवहन क्षेत्र का योगदान 14 फ़ीसदी है. परिवहन क्षेत्र में ईंधन के तौर पर गैस की बजाए बिजली के इस्तेमाल की ओर बढ़ने का सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है. इसके साथ ही निजी और हल्के व्यावसायिक वाहनों को आंतरिक दहन इंजनों की बजाए बैटरी द्वारा चालित इलेक्ट्रिक गाड़ियों के रूप में बदलने का काम भी चालू है. 2050 तक नेट-ज़ीरो के लक्ष्य की प्राप्ति में मदद पहुंचाने के लिए इन तमाम प्रयासों को और तेज़ करना होगा. हालांकि इसके बावजूद इन दोनों सेक्टरों में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तकनीकी समाधान बेहद कठिन, बहुत महंगे जान पड़ते हैं. कुछ क्षेत्रों में तो ये कठिन और महंगे दोनों हैं. इनमें स्टील और सीमेंट उत्पादन, सड़कों के ज़रिए लंबी दूरी की माल ढुलाई और हवाई परिवहन शामिल हैं. इस सिलसिले में कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के साथ-साथ ग्रीन हाइड्रोजन पैदा करने वाली तकनीक को संभावित समाधानों के तौर पर देखा जाता है.
2050 तक अगर नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल हो जाता हो तो भी उसके बाद तापमान में बढ़ोतरी को सीमित करने के लिए हमें नकारात्मक उत्सर्जन का स्तर प्राप्त करना ही होगा.
जलवायु परिवर्तनों का सबसे सीधा ख़तरा कृषि क्षेत्र को है. वैश्विक उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का हिस्सा क़रीब 24 प्रतिशत है. कृषि क्षेत्र के कुल उत्सर्जन में ज़्यादातर हिस्सा मिथेन गैस का है. ये गाय-बैल और भेड़ से बाहर आता है. ये उन देशों में बड़ा मुद्दा है जहां चरने वाले मवेशियों की भरमार है. इनमें ऑस्ट्रेलिया प्रमुख है. दूसरी ओर जिन देशों में पॉल्ट्री और सुअरों से मांस की आपूर्ति होती है, वहां ये उत्सर्जन कम होता है. वैसे तो कई देशों के कृषि क्षेत्रों में इन उत्सर्जनों को कम करने के उपाय तलाशे जा रहे हैं, लेकिन अगले 30 वर्षों में इन उत्सर्जनों को ख़ात्मे के नज़दीक पहुंचाने के आसार काफ़ी कम हैं.
समाधानों का त्रिस्तरीय स्वरूप
इस सिलसिले में समाधानों का त्रिस्तरीय स्वरूप नज़र आता है. पहला, हमें फ़िलहाल जिन समाधानों की जानकारी है, उनकी तैनाती में तेज़ी लानी होगी. तैनाती से जुड़ी नीतियां आदर्श रूप से न्यूनतम लागत वाले परिणाम हासिल करने के लिए बाज़ार पर आधारित कार्बन की क़ीमतें होती हैं. इनमें अलग-अलग राजनीतिक ज़रूरतों और सरकारी ढांचों से नियामक ज़िम्मेदारियों (मिसाल के तौर पर वाहनों के लिए उत्सर्जन मानक) या सरकार द्वारा निम्न-उत्सर्जन तकनीकों के लिए सीधी वित्तीय सहायता (जैसे, नवीकरणीय ऊर्जा के लिए रिवर्स ऑक्शन या औद्योगिक उत्सर्जन कम करने के लिए परियोजनाएं) शामिल हैं. विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों को वित्तीय सहायता पहुंचाने से जुड़े वादे निश्चित तौर पर पूरे होने चाहिए.
दूसरे, हमें सभी सेक्टरों में निम्न और शून्य कार्बन उत्सर्जन वाली टेक्नोलॉजी के लिए ज़रूरी निवेश का जुगाड़ करना चाहिए. इसके अलावा इन क्षेत्रों में शोध और विकास कार्य को भी आगे बढ़ाना आवश्यक है. ढांचागत ठेकों या बोली प्रक्रिया के ज़रिए अनुदान वित्त की प्रणाली भी इस सिलसिले में सरकारों के लिए प्राथमिकता वाली क़वायद हो सकती है. निम्न-उत्सर्जन वाली तकनीक के विकास के शुरुआती स्तर पर सरकारें इस उपाय के ज़रिए भी वित्त इकट्ठा कर सकती हैं. सरकारों और बहुपक्षीय विकास बैंकों को इसमें अहम भूमिका निभानी चाहिए.
बहरहाल इन उपायों से हासिल कामयाबियों के बावजूद 2050 तक अरबों टन कार्बन का उत्सर्जन जारी रहने की आशंका है. लिहाज़ा हमें इसे संतुलित करने से जुड़े उपाय भी साथ-साथ करते रहने होंगे. वातावरण से कार्बन को हटाने के उपायों के साथ संतुलन बिठाते हुए नेट ज़ीरो के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना होगा. 2050 तक अगर नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल हो जाता हो तो भी उसके बाद तापमान में बढ़ोतरी को सीमित करने के लिए हमें नकारात्मक उत्सर्जन का स्तर प्राप्त करना ही होगा.
उत्सर्जन को कम करने के मकसद से तैयार बाज़ार-आधारित नीतियों के ज़रिए ही कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण से हटाया भी जा सकता है. उनके अभाव में कार्बन डाइऑक्साइड के हटाव के काम के लिए सरकारें भुगतान कर सकती हैं. मिसाल के तौर पर ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने ऑफ़सेटिंग क्रेडिट (ऑस्ट्रेलियन कार्बन क्रेडिट यूनिट्स) का सीधे तौर पर भुगतान करने के लिए एक कोष का गठन किया है. इस कोष को उत्सर्जन में कटौतियों और कार्बन डाइऑक्साइड को हटाने के उपायों के ज़रिए तैयार किया गया है. इस फ़ंड में 2.55 अरब ऑस्ट्रेलियाई डॉलर (1.92 अरब अमेरिकी डॉलर) का बजट रखा गया है. ये कोष साल 2021 में उत्सर्जन के स्तर में क़रीब 1.1 करोड़ टन की कटौती करने के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है. इसकी औसत ठेका लागत 20 ऑस्ट्रेलियाई डॉलर (14.95 अमेरिकी डॉलर) प्रति टन से नीचे है.
कार्बन की क़ीमतें या सरकारी भुगतान ही कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण से हटाने के इकलौते उपाय नहीं हैं. कंपनियां अपने नेट-ज़ीरो लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्वैच्छिक तौर पर भी गतिविधियां शुरू कर सकती हैं. स्वैच्छिक रूप से कार्बन के असर को कम करने या क्षतिपूर्ति की लागत दुनियाभर में अलग-अलग है. कंपनियां 1.30 अमेरिकी डॉलर प्रति टन की मामूली दर पर भी क्षतिपूर्ति हासिल कर सकती हैं. वहीं ऑस्ट्रेलियाई सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त इकाइयों का चुनाव करने वाले 20 अमेरिकी डॉलर प्रति टन से भी ज़्यादा की स्पॉट क़ीमतों पर इसकी ख़रीद-बिक्री कर रहे हैं.
तकनीक और उनकी मापतौल और जांच पड़ताल से जुड़ी प्रक्रिया अपेक्षाकृत अपरिपक्व है. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन की वजह से पेड़ों और मिट्टियों में भंडारित किए गए कार्बन के स्थायित्व को भी ख़तरा पैदा हो जाता है.
भविष्य में इन क़ीमतों में भारी बढ़ोतरी होने का अनुमान है. दरअसल ज़्यादा से ज़्यादा कंपनियां कार्बन को लेकर अपनी प्रतिबद्धताएं ज़ाहिर कर रही हैं. अगर स्वैच्छिक या अन्य प्रकार की अंतरराष्ट्रीय कार्रवाइयां ऑफ़सेटिंग क्रेडिट्स को प्रामाणिकता के साथ उचित रूप से तैयार दस्तावेज़ों के सहारे आकर्षक विकल्प बनाने में कामयाब हो जाती हैं, तो ये मांग और भी तेज़ी से बढ़ सकती है. आज की दुनिया समान लक्ष्यों के चलते बड़ी तेज़ी से एक-दूसरे से जुड़ती जा रही है. आज संसार में कार्बन की सीमा को समायोजित करने वाला तंत्र इससे जुड़े हर किरदार के लिए समान अवसर मुहैया करा रहा है. इन हालातों में ऑफ़सेटिंग क्रेडिट्स में वैश्विक कारोबार बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ सकता है.
दुनिया में विभिन्न सेक्टरों में उत्सर्जन के कई अलग-अलग स्रोत हैं, लेकिन इनको वातावरण से हटाने वाली गतिविधियां बहुत थोड़ी हैं. इन गतिविधियों में प्रमुख हैं- पेड़ लगाना, कार्बन को वापस मिट्टी में पहुंचा देना और कार्बन डाइऑक्साइड को सीधे तौर पर वातावरण से निकालकर उसे मिट्टी में दफ़नाना. कार्बन को हटाने की इन तकनीकों की क्षमता और “वास्तविक” निकास के तौर पर उनकी प्रामाणिकता बहस का विषय है. इसकी एक वजह ये है कि तकनीक और उनकी मापतौल और जांच पड़ताल से जुड़ी प्रक्रिया अपेक्षाकृत अपरिपक्व है. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन की वजह से पेड़ों और मिट्टियों में भंडारित किए गए कार्बन के स्थायित्व को भी ख़तरा पैदा हो जाता है. कार्बन उत्सर्जन में कटौती और हटाव की तकनीकों से जुड़े कई क्षेत्रों में और ज़्यादा शोध और विकास कार्यों की ज़रूरत है.
निष्कर्ष
मौजूदा आंकड़ों से साफ़ होता है कि नेट-ज़ीरो से जुड़े ढांचे की आख़िर हमें दरकार क्यों पड़ रही है. हालांकि इससे ये भी साफ़ होता है कि सरकारों से सीधे वित्त मिलने और कंपनियों से स्वैच्छिक आधार पर रक़म मिलने भर से ही उत्सर्जन में कटौती और हटाव को लेकर पर्याप्त नतीजे नहीं मिल सकेंगे. कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य पर संतुलित करने के लिए ये क़वायद काफ़ी नहीं है. आवश्यक बदलावों की रफ़्तार और पैमाना बहुत चुनौतीपूर्ण है, लेकिन ये निहायत ज़रूरी है. अगर स्पष्ट नीतियों से काम हो, तकनीकी विकास का सहारा मिले और इसके लिए बड़ी तादाद में ज़रूरी वित्तीय संसाधनों का जुगाड़ हो जाए तो अगले तीन दशकों में नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल हो सकता है.
वैश्विक बिरादरी मौजूदा सदी के मध्य तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य को लेकर एकजुट हो रही है. इस लक्ष्य की प्राप्ति और मानव समाज के अस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरे को कुंद करने में कामयाबी कई बातों पर निर्भर करेगी. इसके लिए मौजूदा वक़्त में ही उत्सर्जन में कटौती सुनिश्चित करने वाली कम लागत वाली टेक्नोलॉजी, निम्न और शून्य उत्सर्जन वाली तकनीकों और ग्रीन हाउस गैसों को हटाने से जुड़ी क़वायद को सहारा देने वाले प्रयास करने होंगे.
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