Published on Oct 23, 2021 Updated 0 Hours ago

ऊर्जा संसाधनों का एक विस्तृत विश्व बाजार है – यह विशाल होने के साथ साथ पेचीदा भी है जहां विभिन्न ऊर्जा स्रोत आपसी प्रतिस्पर्धा से एक दूसरे की कीमतों और उपलब्धता, दोनों को प्रभावित करते हैं

COP26: कोयला, कोरोना और कशमकश की ग्लासगो पर फैलती कालिख़

कोविड के बाद तमाम देशों  की अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने की कोशिश जारी है. अंततः यह रिकवरी V-आकार की न होकार पिंग-पोंग सरीके, कुछ उछलते, फिर कुछ लुड़कते हुए ही शनै-शने: स्थिरता पाएगी. देखते हैं की अभी उभरती अर्थ व्यवस्था के सामने ऊर्जा का यकायक बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया है. चाहे चीन हो, चाहे यूरोपीय संघ, या ब्रिटेन- सभी देश इससे जूझ रहे हैं. चीन की जीडीपी गिरकर बढ़ोत्तरी दर 4.9 फीसदी पर आ गई है. यूरोपियन यूनियन के देश भी अब मांग कर रहे हैं कि EU इसपर कोई साझा कदम उठाये. प्रश्न है की इस संकट का आगे होने वाले ग्लासगो की ग्रीन डील पर क्या असर पड़ेगा?

कोविड के बाद तमाम देशों  की अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने की कोशिश जारी है. अंततः यह रिकवरी V-आकार की न होकार पिंग-पोंग सरीके, कुछ उछलते, फिर कुछ लुड़कते हुए ही शनै-शने: स्थिरता पाएगी. 

याद करें गत वर्ष, जब कोविड ने दुनिया की इकोनॉमी पर ऐसा कुठाराघात किया की उसका इंजन ही जाम हो गया. लोगों को एहसास हुआ की इंजन के रुकते ही पर्यावरण साफ़ गया है, चिमनियों से गंदा धुआँ निकलना बंद हो गया. आज परिस्थिति ने फिर करवट बदली है. कोविड से बाहर निकलती अर्थ व्यवस्थाओं में – मांग का अप्रत्याशित भारी उछाल तो आया, लेकिन कोविड की मार से टूट चुकी उत्पादन श्रृंखलाएँ इस मांग की आपूर्ति करें तो आखिर कैसे? उत्पादन लौटा तो कोयला या गैस, या फिर तेल, सब की यकायक किल्लत हो गई – श्रृंखला के प्रारम्भ में उत्पादन नहीं है, तो बीच में भंडारण नदारद, और अगर उत्पादन हो भी जाए तो माल उठाने के लिए न पर्याप्त संख्या में माल गाड़ी है न माल वाहक जहाज़. नतीजन हर चीज़ की कीमत में ज़बरदस्त उछाल आ गया और अर्थव्यवस्था बन गयी पिंग-पोंग का खेल.

भारत में भी हमने तेज़ी से सुधरती अर्थव्यवस्था में बढ़ती मांग के बीच सितंबर माह आते-आते वाहनों की उपलब्धता में कमी देखी. उत्पादन 40% लुड़क गया. भारत की सुदृढ़ ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री सेमीकंडक्टर की कमी के कारण पछाड़ खाती नज़र आयी. सेमीकंडक्टर की सप्लाई चेन ट्रेड वॉर और कोविड के लॉकडाउन से उभरती मांग से ऐसी हिली की सेमीकंडक्टर उपयोग करने वाला हर उद्योग लड़खड़ा रहा है. सच तो यह है की नेतागण कितनी भी आर्थिक राष्ट्रवाद की दुहाई दें, आज चाहे ऊर्जा हो या सेमीकंडक्टर, कच्चा माल हो या उत्पादन, संपूर्ण विश्व व्यवस्था एक-दूसरे से गुंथी हुई है. इसीलिए ऊर्जा को ही देखिये – आज सब तरह की अर्थ व्यवस्था, चाहे वो यूरोप सरीकी बाज़ारू व्यवस्था हो या फिर चीन या भारत की तरह राज-निर्देशित व्यवस्था सब प्रभावित हैं.

सच तो यह है की नेतागण कितनी भी आर्थिक राष्ट्रवाद की दुहाई दें, आज चाहे ऊर्जा हो या सेमीकंडक्टर, कच्चा माल हो या उत्पादन, संपूर्ण विश्व व्यवस्था एक-दूसरे से गुंथी हुई है. 

अमेरिका अपनी अलग समस्या से जूझ रहा है. कोविड से निबटने के लिए उसने बेतहाशा डॉलर छाप बड़े भारी स्टिमुलस पैकेज बांटे. बेतहाशा पैसा बहाया गया. नतीजन वहाँ एक तरफ़ तो बेरोज़गारी है दूसरी ओर फैक्ट्री और भंडार घरों में काम करने को मज़दूर नहीं मिल रहे. कोविड ने ऐसा कहर बरपा है कि लॉकडाउन के कारण पलायन करते मज़दूर आज भी इस अनिश्चितता भरे माहौल में काम पर वापस आने को तत्पर नहीं है. और ये हालात हर जगह है, चाहे चीन हो या भारत, कपड़ा उद्योग हो या छोटे और मझोले उद्योग, काम करने वाले पर्याप्त हाथ नहीं मिल रहे. अमेरिका में लोगों को वापस काम पर लौटाने के लिए मज़दूरी भी बढ़ाई गयी है. पर जितनी मज़दूरी बढ़ी उससे कहीं अधिक महंगाई बढ़ गई. तो आख़िर लोग किस तरह से काम पर लौंटे.

यूरोप में उभरा ऊर्जा संकट

वास्तव में यूरोप पर आए संकट के कारणों में जाएँ तो पाएंगे की पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन रोकने की होड़ में यूरोप में कोयला, तेल और गैस से उत्पन्न ऊर्जा के बनिस्पत सौर और वायु जनित ऊर्जा पर ज्य़ादा निवेश किया गया है. निवेश किया सो अच्छा किया, पर वास्तव में ऐसे करने के लिए जिस प्रकार के एनर्जी-ट्रांसिशन की आवश्यकता है उसकी सही रूप-रेखा नहीं बनाई.  सौर और वायु जैसे प्रकृतिक स्रोत प्रकृति के नियम अनुसार उपलब्ध होते हैं मनुष्य जाति के आदेशानुसार नहीं. दिन में 24 घंटे न सूर्य चमकेगा न हवा चलेगी. ऐसे अनिरंतर स्रोत पर यदि 24 घंटे भरपूर अवस्था में बिजली का प्रबंध करना है तो बिजली सप्लाई करने वाली समस्त सरंचना को कई गुना और सुदृढ़ कर उसके अंदर पर्याप्त मात्रा में या तो बिजली के भंडारण की व्यवस्था निंर्मित करनी होगी या फिर अन्य स्रोतों का सहारा लेना होगा जो मांग के अनुरूप मांग के अनुसार ग्रिड में दौड़ रही बिजली की मात्रा घटा या बढ़ा सकें. सही रूप में यदि गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोत पर निर्भरता बढ़ानी हो तो आवश्यक है कि बिजली कि संचार प्रणाली में अधिकाधिक निवेश कर उसको अनिरंतर स्रोतों का भरपूर उपयोग कर पाने लायक लचीला बनाया जाए.

इस प्रकार बिना पर्याप्त निवेश के, घोषणाओं के आधार पर एनर्जी ट्रांसिशन ऊर्जा सुरक्षा और जल-वायु परिवर्तन – दोनों के लिए ही घातक है.

गौर करें 2019 कि मई में जर्मनी में प्रकृति कि ऐसी कृपा हुई कि यकायक इतनी बिजली बनी की बिजली कंपनियों को बिजली खर्च करने के लिए लोगों को पैसे देने पड़े – बिजली कि कीमत निगेटिव हो गईं. यानी लोगों को उर्जा जलाने के लिये, बिजली इस्तेमाल करने के लिये पैसे दिये जाने लगे. इस वर्ष उसका ठीक उल्टा हुआ. प्रकृति का कोप ऐसा हुआ कि हवा चलनी बंद हो गई. अब जिन देशों ने अपनी बिजली व्यवस्था का भार हवा पर डाल रखा था वे क्या करते? हवा के भरोसे उन्होनें गैस के लॉन्ग टर्म कांट्रैक्ट (long-term contract) कम करके स्पॉट गैस पर अपनी निर्भरता बढ़ा ली. नतीजन स्पॉट बाज़ार में उपलब्ध सीमित गैस की कीमतों में पांच गुना उछाल आ गया. बिजली कि कीमतें अपने आप कूदी. कोयला भी दुगूने-तिगुने दाम पर पहुँच गया और लगे वही देश फिर से कोयला जलाने. और तो और ऐसी त्राहि-त्राहि मची है की यूरोप, जो निरंतर भारत समान विकासशील देशों से  बिजली, तेल और गैस पर दी जाने वाली सब्सिडी हटाने की रट लगाए रखता था, आज स्वयं इन्हीं पदार्थों पर अपने नगरिकों को सब्सिडी देने की बात कर रहा है. इस प्रकार बिना पर्याप्त निवेश के, घोषणाओं के आधार पर एनर्जी ट्रांसिशन ऊर्जा सुरक्षा और जल-वायु परिवर्तन – दोनों के लिए ही घातक है.

ऊर्जा संसाधनों का एक विस्तृत विश्व बाजार है – यह विशाल होने के साथ साथ पेचीदा भी है जहां विभिन्न ऊर्जा स्रोत आपसी प्रतिस्पर्धा से एक दूसरे की कीमतों और उपलब्धता, दोनों को प्रभावित करते हैं. ऐसे में इस बाज़ार में क्षणिक उबाल आना या पछाड़ खाना कोई नयी बात नहीं. पर ऐसे विश्व व्यापी उठा-पटक मचाने वाले बाज़ार के बीच यदि किसी देश को अपनी ऊर्जा-सुरक्षा नीति निर्धारित करनी है, तो आवश्यक है किसी भी एक स्रोत पर निर्भर नहीं रहा जाए. देश की ऊर्जा पद्धति में ना सिर्फ़ तमाम उर्जा संसाधनों का मिश्रण हो, बल्कि इनके आपूर्ति के स्रोत भी उतने ही विविध हों. संसाधनों का अनुकूल मिश्रण और उस मिश्रण की आपूर्ति के लिए स्रोतों में भरपूर विविधता ताकि किसी एक देश या क्षेत्र पर निर्भरता नहीं बढ़े – यदि ऐसा नहीं किया जाएगा तो बाजार जनित उतार-चढ़ाव मुद्रास्फीति के ज़रिये किसी भी अर्थ व्यवस्था की धज्जियां उड़ा सकते हैं.

यूरोप का मानना है कि गैस किल्लत कि आड़ में रूस इस पाइपलाइन को जल्दी चालू करवाने के लिए दबाव कि राजनीति कर रहा है. याद रहे कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने नयी नोर्ड-स्ट्रीम पाइपलाइन पर काम बंद करवाने के लिए एड़ी-छोटी का ज़ोर लगा दिया था.

यूरोप में जब भी ऊर्जा की समस्या पैदा होती है यूरोप आदतन सारा दोष रूस के मत्थे मढ़ना चाहता है. गैस आपूर्ति के लिए रूस पर उसकी निर्भरता कायम है. जर्मनी तक गैस पहुंचाने के लिए रूस कि नयी नोर्ड-स्ट्रीम पाइपलाइन तैयार खड़ी है. यूरोप का मानना है कि गैस किल्लत कि आड़ में रूस इस पाइपलाइन को जल्दी चालू करवाने के लिए दबाव कि राजनीति कर रहा है. याद रहे कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने नयी नोर्ड-स्ट्रीम पाइपलाइन पर काम बंद करवाने के लिए एड़ी-छोटी का ज़ोर लगा दिया था. वो चाहते थे की जर्मनी और यूरोप, रूस से पाइपलाइन के ज़रिये गैस न लेकर अमेरिकी एलएनजी (LNG) खरीदे. किन्तु जर्मनी नहीं माना क्योंकि ऊर्जा सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि किसी भी देश में विविध स्रोतों से विभिन्न प्रकार के ऊर्जा संसाधनों की आपूर्ति हो सके. इस दृष्टि से यूरोप के लिए अच्छा है की नोर्ड-स्ट्रीम पाइपलाइन बन गई. ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति विविध प्रकार से  होनी है तो गैस के लिए ज़रूरी है की इनमें शॉर्ट-टर्म LNG सोर्स भी होने चाहिये और लॉन्ग टर्म पाइप गैस के कॉन्ट्रैक्ट भी शामिल हों – क्योंकि इनकी कीमतों में निरंतर बदलाव आता रहता है.

अब यदि इस स्थिति को समझते हुए जल-वायु परिवर्तन रोकने की बात करनी है तो सब से पहले समझना आवश्यक है कि अभी तक इस विषय पर चल रही बातों में कभी भी ऊर्जा पद्धति में लाये जाने वाले बदलाव कि रूप-रेखा के बारे में या उसमें आने वाली कठिनाइयों के विषय में चर्चा नहीं होती देखी गयी है.

ग्लासगो में होने वाले COP26 से क्या कुछ आशा लगाई जा सकती है?

वर्तमान ऊर्जा संकट वास्तव में ग्लासगो के लिए चेतावनी होना चाहिए . पर्यावरण कि समस्या दुनिया के सामने मुंह बाये खड़ी है, हम देख रहे हैं किस तरह से बाढ़ें आयी हैं, जंगलों में आग लग रही है, बड़े-बड़े तूफ़ान आ रहे हैं. क्लाईमेट से जुड़ी इमरजेंसी बढ़ती जा रही है. घोषणाएं होती हैं, राजनीति होती है लेकिन उससे सही ढंग से कैसे निपटा जाये इस पर बातचीत नहीं हो रही है.

जल-वायु परिवर्तन रोकना परंपरागत और गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के बीच आर-पार का युद्ध नहीं है. परंपरागत ऊर्जा स्रोत रातों रात बंद नहीं हो सकते है. बल्कि इनको नियोजित ढंग से क्रमवार बाहर का रास्ता दिखाना है ताकि जिस स्थिति की हम ऊपर चर्चा करते आ रहे हैं वह पैदा ना हो. यह एक बड़ा परिवर्तन है और इस परिवर्तन में हर देश कि अपनी संभावनाएँ हैं और अपनी-अपनी परेशानियाँ भी हैं. इसलिए यह एक सुनियोजित कार्यवाही है जो सम्मिलित रूप से ही सम्पन्न हो सकती है.

लेकिन ग्लासगो के लिए आज एक दूसरी बड़ी समस्या है. समस्या यह की अब चलने वाली Climate Talks अमेरिका और चीन के बीच छिड़ चुके व्यापार युद्ध की बंधक बन गयी हैं.

इस ट्रांज़िशन के दौरान किस देश को कहां तकलीफ़ होगी, उस तकलीफ़ का क्या हल होगा, निवेश कहां से किस तरफ़ कैसे जाएंगे? निवेश विकसित देशों से विकासशील देशों की ओर ही बढ़ सकते हैं क्योंकि विकासशील देशों ने पर्यावरण में मौजूद कार्बन की सीमित टंकी पर भरपूर कब्ज़ा जमा रखा है. इन सभी तथ्यों के मद्देनजर सभी देश, चाहे वे विकसित हों या विकासशील, के बीच एक-दूसरे और विश्व के प्रति, ज़िम्मेदारियों का सही-सही बंटवारा करना होगा. जब तक ऐसा नहीं होगा तब-तक क्लाईमेट एक्शन वास्तव में गति नहीं पकड़ेगा.

लेकिन ग्लासगो के लिए आज एक दूसरी बड़ी समस्या है. समस्या यह की अब चलने वाली Climate Talks अमेरिका और चीन के बीच छिड़ चुके व्यापार युद्ध की बंधक बन गयी हैं. Trade War आर्थिक राष्ट्रवाद का रूप लेकर ज़ोर मार रहा है. जॉन केरी की चीन में अपने समकक्ष से हुई बातचीत में चीन ने स्पष्ट तौर पर कहा कि क्लाइमेट ऐक्शन दूसरी अन्य चीज़ों (अर्थात व्यापार) से अलग नहीं है और कोई भी देश समग्र रूप से ही विचार कर इसके संबंध में चर्चा करेगा. चीन का स्पष्ट तौर पर कहना है कि वो जो भी समझौते करेगा वो विस्तृत और व्यापक होगा. उसके मुताबिक पर्यावरण संबंधी समझौता भी, ट्रेड नेगोशिएशंस का ही हिस्सा है.

चीन की आर्थिक स्थिति का ग्लासगो के प्रति रुख़ पर प्रभाव

जहां तक चीन का सवाल है, राजा चाहें कुछ, पर नियति पर उनकी भी नहीं चलती. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने डुअल सर्कुलेशन इकोनॉमी की बात की. आशा की कि चीन ऐसी स्थिती पाये जहां वह दुनिया भर के लिए निर्माण तो करे पर उसकी अपनी अर्थ व्यवस्था की रीढ़ अपनी ही व्यवस्था रहे – उसे दुनिया पर निर्भर न होना पड़े. उनकी आशा थी की चीन का विकास निर्यात पर कम और घरेलू खपत पर अधिक टिके.

लेकिन हुआ उल्टा. यह सही है की कोविड काल में चीन ऐसी अकेली अर्थ-व्यवस्था रही जिसने रुकने का नाम नहीं लिया. पर जब इस विकास की तह में जाएं तो पाएंगे की शी जिनपिंग के डुअल सर्कुलेशन इंजिन का उनका चहेता दूसरा इंजिन गति नहीं पा पाया. चीन की अर्थव्यवस्था को जो बढ़त मिली वो सब एक्सपोर्ट के बलबूते मिली. जहां-जहां डिमांड उठी वहां चीन अकेला देश था जो सप्लाई कर रहा था. इसके चलते चीन अकेला देश रहा जिसका ट्रेड सरप्लस कोविड काल में घटने के बजाये बढ़ा. इसलिये सभी देशों की तुलना में चीन का ट्रेड सरप्लस बढ़ता गया और दूसरे देशों का नुकसान होता गया.

जब-तक आने वाले भविष्य की चुनौतियों के विषय में रूपरेखा नहीं बनायी जाती, तब तक वास्तव में जिस प्रकार से पेरिस के बाद ज़्यादा प्रगति नहीं हुई है – ग्लासगो की भी यही स्थिति होगी.

लेकिन यदि चीन आत्म निर्भर बनने के स्वप्न देख रहा था तो वहाँ संकट के चिन्ह साफ हैं. पहले उर्जा संकट, फिर रियल-स्टेट और प्रॉपर्टी के बाज़ार में गिरावट. लगातार गिरती घरेलू मांग के चलते चीन के सामने सबसे बड़ी समस्या ये है कि वो इस गिरावट का सामना कैसे करे. आज चीन अपनी इकोनॉमी में गति लाने के लिये कुछ भी करने को तत्पर है. चाहे कोयला जलाकर चाहे गैस. या फिर इंफ्रास्ट्रक्चर में ज़्यादा पैसे लगा- यही उसकी प्राथमिकता है जिसे वह किसी भी हाल में पूरा करेगा. संभव है की इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करने से महंगाई बढ़ जाये और चीन को मुद्रास्फीति का सामना करना पड़े, जो फिलहाल नियंत्रण में है.

जहां तक ग्लासगो का सवाल है वहां सभी देशों की प्राथमिकताएं आज कुछ बदली बदली नज़र आ रही हैं – कारण  कोविड से लेकर ट्रेड वॉर. ऐसे में मौका है कि क्लाइमेट नेगोशिएशंस को पटरी पर लाने के लिए इस बार कविता कम, ठोस अर्थव्यवस्था, कमोडिटीज़, एनर्जी की कीमतें, उर्जा की ज़रूरतों, देशों में ग़रीबी उन्मूलन की आवश्यकता, उन सभी को ध्यान में रख – ग्रीन ट्रांसिशन के लिये कितने निवेश की ज़रूरत है और वो निवेश कहां से आयेगा, उसके बारे में ठोस चर्चा प्रारम्भ की जाए. जब-तक आने वाले भविष्य की चुनौतियों के विषय में रूपरेखा नहीं बनायी जाती, तब तक वास्तव में जिस प्रकार से पेरिस के बाद ज़्यादा प्रगति नहीं हुई है – ग्लासगो की भी यही स्थिति होगी.

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