Published on Aug 09, 2024 Updated 0 Hours ago

तकनीकी निगरानी में प्रगति के बावजूद प्रमुख जासूसी के अड्डे भू-राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय जासूसी की दुनिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना जारी रखे हुए हैं. 

जासूसी के नए मोर्चे: नई विश्व व्यवस्था में शक्ति परिवर्तन का सामना

मास्को में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ सफल शिखर सम्मेलन के बाद जुलाई में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वियना पहुंचे तो 80 के दशक के बाद ऑस्ट्रिया की राजधानी का दौरा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बन गए. प्रधानमंत्री मोदी और ऑस्ट्रिया के चांसलर कार्ल नेहमर के बीच संयुक्त रूप से हस्ताक्षरित और निर्धारित असंख्य समझौता ज्ञापनों (MoU) और संकल्पों के बीच शायद दशकों से वैश्विक जासूसी के ठिकाने के रूप में ऑस्ट्रिया के महत्व और इस दिशा में भारत के वैश्विक रवैये को तय करने में उसकी खुफिया और कूटनीतिक प्राथमिकताओं में ऑस्ट्रिया की अहमियत पर नज़र नहीं पड़ी. 

वास्तव में तटस्थ देश ऑस्ट्रिया की सरकार ने अपनी राजधानी को शीत युद्ध के दौरान जासूसी के लिए एक पर्याय बनने की अनुमति दी और 1955 के अपने संविधान में अपनी ज़मीन पर इंटेलिजेंस गतिविधि को कानूनी बना दिया जब तक कि ऐसी गतिविधि सीधे रूप से ऑस्ट्रिया पर निशाना न साधे.

अंतरराष्ट्रीय संबंधों और वैश्विक जासूसी को आकार देने वाले तकनीकी प्रगति के पैमाने के बावजूद प्रमुख शहरी परिदृश्य अंतर्राष्ट्रीय जासूसी से अटूट रूप से जुड़े हुए हैं- विशेष रूप से ऑस्ट्रिया की राजधानी. इसलिए इन तीसरे देशों और उनकी राजधानियों को जोड़ने के लक्ष्य से रणनीति तैयार करना किसी देश के लिए विदेशी खुफिया के प्रयासों और व्यापक विदेश नीति के उद्देश्यों की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है. 

ऐतिहासिक संदर्भ

शीत युद्ध के समय के द्विध्रुवीय (बाइपोलर) रणनीतिक मुकाबले ने वियना से लेकर बेरूत तक और बर्लिन से लेकर दिल्ली तक दुनिया भर के जासूसी के अड्डों की रूप-रेखा का विस्तार किया. आम तौर पर ‘तटस्थ’ तीसरे देशों में स्थित इन शहरों ने अंतर्राष्ट्रीय जासूसी में प्रमुख केंद्र के रूप में काम किया जहां जासूस खुफिया जानकारी के महत्वपूर्ण स्रोतों का पता लगा सकते थे, एक-दूसरे को कमज़ोर करने के लिए कम कूटनीतिक नतीजों के साथ काम कर सकते थे या तनाव कम करने के लिए खामोशी से बातचीत भी कर सकते थे. वास्तव में तटस्थ देश ऑस्ट्रिया की सरकार ने अपनी राजधानी को शीत युद्ध के दौरान जासूसी के लिए एक पर्याय बनने की अनुमति दी और 1955 के अपने संविधान में अपनी ज़मीन पर इंटेलिजेंस गतिविधि को कानूनी बना दिया जब तक कि ऐसी गतिविधि सीधे रूप से ऑस्ट्रिया पर निशाना न साधे. अपने पश्चिमी और सोवियत क्षेत्रों में बंटा बर्लिन भी चेकप्वाइंट चार्ली और ग्लीनिक ब्रिज के संकरे रास्तों के माध्यम से आयरन कर्टन (राजनीतिक रूपक जिसका उपयोग शीत युद्ध के दौरान यूरोप में बंटवारे का वर्णन करने के लिए किया जाता था) को पार करने वाले जासूसों और भगोड़ों के लिए एक केंद्र के रूप में काम करने लगा. मध्य पूर्व में पश्चिमी देशों की क्षमता को लेकर खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के प्रयासों में सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी KGB की तरफ से काम करने वाली पोलैंड की खुफिया एजेंसी के लिए बेरूत एक प्रमुख ठिकाना था. लेकिन ये वो शहर भी था जहां से सोवियत संघ के मशहूर डबल एजेंट और कैंब्रिज फाइव (यूनाइटेड किंगडम में जासूसों का एक समूह जो सोवियत संघ को खुफिया जानकारी देता था) के सदस्य किम फिल्बी 1965 में सोवियत संघ चले गए थे. यहां तक कि दिल्ली ने भी 50 से लेकर 80 के दशक तक शीत युद्ध की जासूसी के केंद्र के रूप में भूमिका निभाई और दोनों पक्षों ने भारत को दुष्प्रचार के अभियानों, भर्ती और दूसरी साजिशों के लिए एक प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल किया. MI6 अधिकारी और सोवियत जासूस जॉर्ज ब्लेक ने दिल्ली को “सोवियत नागरिकों के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए सबसे अच्छी परिस्थिति” प्रदान करने वाले शहर के रूप में परिभाषित किया. अंतर्राष्ट्रीय ‘जासूसी के अड्डे’ के रूप में इन शहरों ने जो प्रतिष्ठा हासिल की वो शीत युद्ध की लोकप्रिय कल्पना के साथ जुड़ गई. कैरॉल रीड की 1949 की फिल्म ‘द थर्ड मैन’ ने शीत युद्ध के शुरुआती वर्षों के दौरान के छाया युद्धों को दिखाया था. ये जॉन ले कैर के उपन्यास ‘द स्पाई हू केम इन फ्रॉम द कोल्ड’ और ‘स्माइलीज़ पीपुल’ में भी दिखाया गया जिन्होंने शीत युद्ध के जासूसी के केंद्र के रूप में बर्लिन की छवि को लोकप्रिय बनाया जबकि इनके दो सबसे मशहूर पात्रों- जॉर्ज स्माइली और कार्ला- के बारे में बताया गया कि इनका आमना-सामना पहली बार 50 के दशक में दिल्ली की एक जेल में स्थानीय पुलिस और इंटेलिजेंस ब्यूरो के द्वारा कराई गई बैठक के दौरान हुआ था. 

इस उद्देश्य के लिए दुनिया को अभी भी उन अंतर्राष्ट्रीय जगहों की आवश्यकता है जहां इंटेलिजेंस अधिकारी मिल सकते हैं, एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश कर सकते हैं या आपसी मेल-जोल या दुश्मनी के विषयों पर चर्चा कर सकते हैं.

हालांकि शीत युद्ध के ख़त्म होने और तकनीक में प्रगति के साथ, ख़ास तौर पर निगरानी और पकड़ रखने के संबंध में, भौतिक ‘जासूसी के अड्डे’ का विचार बेमानी लग सकता है. फिर भी, जैसा कि पिछले दशक का भू-राजनीतिक रिकॉर्ड हमें याद दिलाता है, किसी भी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के प्रभावी होने के लिए ह्यूमन इंटेलिजेंस (मानवीय खुफिया जानकारी) उसकी विदेशी और राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के केंद्र में ज़रूर होनी चाहिए. इस उद्देश्य के लिए दुनिया को अभी भी उन अंतर्राष्ट्रीय जगहों की आवश्यकता है जहां इंटेलिजेंस अधिकारी मिल सकते हैं, एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश कर सकते हैं या आपसी मेल-जोल या दुश्मनी के विषयों पर चर्चा कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, रूस-यूक्रेन युद्ध के चरम के दौरान नवंबर 2022 में CIA के प्रमुख बिल बर्न्स और उनके रूसी समकक्ष सर्जेइ नैरिश्किन के बीच गुप्त बातचीत के लिए जगह के रूप में अंकारा के द्वारा निभाई गई भूमिका से इसका सबूत मिलता है. तो फिर आधुनिक इंटेलिजेंस का अड्डा कैसा दिखता है और ये आज की अंतरराष्ट्रीय राजनीति की स्थिति के बारे में क्या कहता है? 

समकालीन परिदृश्य 

वियना और बर्लिन ने एक तरफ ऐसे शहरी माहौल के रूप में अपनी छवि बरकरार रखी है जहां जासूस आपस में बातचीत करते हैं और अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते हैं, वहीं दूसरी तरफ बदलती भू-राजनीतिक गतिशीलता की वजह से दुनिया भर में जासूसी के अड्डे बनते जा रहे हैं. 

आख़िरकार जासूस उन जगहों की तरफ आकर्षित होते हैं जहां काफी अधिक मात्रा में महत्वपूर्ण सूचनाएं होती हैं जिनका इस्तेमाल किसी देश की विदेश नीति के लिए रणनीतिक अर्थ प्रदान करने में किया जा सकता है. इस मक़सद के लिए महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग और समुद्री फाइबर ऑप्टिक केबल वाले बाब अल-मंडेब स्ट्रेट की सीमा से लगा छोटा सा उत्तर-पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती ‘न्यू बर्लिन’ के तौर पर जाना जाता है. ये एक और प्रवेश द्वार बन गया है जहां अमेरिका, चीन, जापान, इटली और फ्रांस ने अपने सैन्य अड्डे बना रखे हैं और एक-दूसरे की जासूसी कर सकते हैं. इससे कुछ ही सैकड़ों मील दूर अरब प्रायद्वीप में संयुक्त अरब अमीरात (UAE) स्थित है जिसने वैश्विक वित्तीय केंद्र के रूप में अपनी प्रतिष्ठा और हल्के कानून के साथ न केवल अलग-अलग देशों बल्कि किनाहन कार्टल से लेकर डी-कंपनी जैसे गैर-सरकारी किरदारों को भी अमीरात में अपना अड्डा स्थापित करने के लिए आकर्षित किया है. इसकी वजह से इंटेलिजेंस सर्विस भी आकर्षित हुई हैं जो रणनीतिक हित के किरदारों को लेकर सूचना इकट्ठा करने के लिए आती हैं. वहीं यूरोप में ब्रसेल्स और जेनेवा जैसे शहरों ने बड़ी संख्या में अंतर-सरकारी वैश्विक और यूरोपीय संगठनों के होने और ढीले सुरक्षा कानून एवं अपने देश में काउंटर इंटेलिजेंस की ख़राब स्थिति की वजह से जासूसी की दुनिया में नया महत्व हासिल किया है. इन शहरों में क़तर से लेकर चीन और अमेरिका से लेकर रूस तक के जासूसों ने एजेंट की भर्ती करने और अपने रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए गुप्त रूप से EU में लॉबिंग करने की कोशिश की है. भारत के नज़दीक देखें तो भारतीय खुफिया अधिकारी लंबे समय से नेपाल के साथ खुली सीमा और नेपाल में आंतरिक सुरक्षा तंत्र की ख़राब स्थिति को देखते हुए  खुफिया गतिविधियों के लिए काठमांडू के एक मंच के रूप में विकसित होने को लेकर चिंतित हैं. ध्यान देने की बात है कि काठमांडू ने भारत में जाली करेंसी नोट भेजने और 2004 में R&AW अधिकारी एवं CIA के डबल एजेंट रबिंदर सिंह के अमेरिका की तरफ पाला बदलने- दोनों ही मामलों में एक ट्रांजिट प्वाइंट के तौर पर काम किया है.   

इसके अलावा, बहुध्रुवीय दुनिया के नतीजतन ताकत में अंतर कम होने से क्षेत्रीय संघर्षों में बीच की ताकतों की भागीदारी में भी बढ़ोतरी देखी गई है. ये इन बीच की ताकतों के द्वारा राष्ट्रीय हित को पूरा करने और दुनिया के मामलों में एक बड़ी भूमिका निभाने की बढ़ती महत्वाकांक्षा का संकेत देता है. ये व्यवहार आधुनिक जासूसी के अड्डों के निर्माण के पीछे ज़िम्मेदार रहा है और इसका प्रमाण इज़रायल के द्वारा ईरान और उसके परमाणु कार्यक्रम की जासूसी के अड्डे के रूप में अज़रबैजान, विशेष रूप से उसकी राजधानी बाकू, का इस्तेमाल है. लगता है कि इज़रायल और अज़रबैजान ने एक-दूसरे को फायदा पहुंचाया है और आर्मीनिया के ख़िलाफ़ युद्ध में इज़रायल ने अज़रबैजान की सैन्य सहायता की है. इज़रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने 2018 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े दस्तावेज़ों को चुराने के लिए बाकू का इस्तेमाल ट्रांज़िट प्वाइंट के रूप में किया. अज़रबैजान के अधिकारियों की जवाबी दलील के बावजूद ये बात इशारा करती है कि इज़रायल के साथ उसके सहयोग की बात में सच्चाई है. इसके नतीजतन बाकू कॉकेशस में जासूसी के अड्डे के रूप में विकसित होने लगा है और इज़रायल ने अपनी विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति का उपयोग कर इस क्षेत्र में ख़ुद को एक रणनीतिक किरदार के रूप में स्थापित किया है जो बाकू में ‘जासूसी’ के आरोप में गिरफ्तार फ्रांस के नागरिकों की रिहाई के लिए अज़रबैजान के अधिकारियों के साथ उसकी बातचीत की कोशिशों में दिखा है. इसलिए बाकू का मामला वैश्विक भू-राजनीतिक गतिशीलता और इंटेलिजेंस की समान प्रधानता को दिखाता है और क्षेत्रीय जासूसी के अड्डे के रूप में बाकू का उदय बहुध्रुवीय, शीत युद्ध के बाद के युग में इस रुझान के जारी रहने को दर्शाता है. 

अज़रबैजान के अधिकारियों की जवाबी दलील के बावजूद ये बात इशारा करती है कि इज़रायल के साथ उसके सहयोग की बात में सच्चाई है.

ऊपर के उदाहरणों से ये दलील दी जा सकती है कि आधुनिक जासूसी के अड्डे में निम्नलिखित में से एक या अधिक विशेषताएं ज़रूर होनी चाहिए: 

  1. एक कमज़ोर काउंटर इंटेलिजेंस या आंतरिक सुरक्षा का तंत्र ताकि सूचनाओं तक आसान पहुंच उपलब्ध हो सके (जैसा कि ब्रसेल्स, जेनेवा, काठमांडू या फिर शीत युद्ध के समय की दिल्ली के मामले में था)

  2. जासूसी को लेकर कमज़ोर कानून होना या फिर कानून होना ही नहीं (जैसा कि ऑस्ट्रिया और स्विट्ज़रलैंड के मामले में है)

  3. विशेष रूप से क्षेत्रीय या वैश्विक अंतर-सरकारी संगठनों का बड़ा संख्या में होना जिसकी वजह से दूसरों को प्रभावित करने के लिए बड़ी संख्या में विदेशी कूटनीतिक वहां आते हैं (जैसा कि वियना, जेनेवा और ब्रसेल्स के मामले में है) 

  4. वैश्विक व्यापार या सूचना के प्रवाह से नज़दीकी (जैसा कि दुबई, अबु धाबी और जिबूती के मामले में है) 

सिफारिशें 

सबसे पहली सिफारिश ये है कि भारत जैसे देश काठमांडू जैसे शहर के क्षेत्रीय जासूसी के अड्डे में तब्दील होने से रोकने के लिए जवाबी कदम के रूप में पड़ोसी देशों की आंतरिक सुरक्षा मशीनरी को मज़बूत करने और उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए कदम उठा सकते हैं. स्थानीय पुलिस बलों और काउंटर इंटेलिजेंस को समर्थन देने से न केवल भारत और उसके पड़ोसियों के बीच कूटनीतिक संबंध मज़बूत होंगे बल्कि ये उपाय भारत को इन शहरों से काम करने वाली दूसरी सरकारों और उनकी एजेंसियों की खुफिया चुनौतियों से भी बचाएंगे. इस तरह की कार्रवाई को अंत में पूरी दुनिया में फैलाया जा सकता है. 

ये रुख काउंटर इंटेलिजेंस के क्षेत्र में विशेष रूप से है ताकि अपने सुरक्षा तंत्र को और अधिक संकट में जाने से रोका जा सके. 

दूसरी सिफारिश ये है कि दुनिया में जासूसी के प्रमुख अड्डों की पहचान करने और उनके साथ कूटनीतिक संबंध मज़बूत करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए चाहे वो आर्थिक संबंध हों, सैन्य या कोई और. इस दिशा में बनाई गई रणनीतियां हर सरकार के संबंध में और द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय- दोनों स्तरों पर व्यक्तिगत रूप से विकसित की जानी चाहिए.

तीसरी सिफारिश, बदलती भू-राजनीतिक गतिशीलता और अलग-अलग देशों के द्वारा जासूसी को बर्दाश्त करने के परिणामों को ज़रूर पहचाना जाना चाहिए और बदलावों को ध्यान में रखते हुए रणनीतियों को तैयार और नियमित रूप से अपडेट किया जाना चाहिए. ऑस्ट्रिया के मामले में न केवल देश के 'तटस्थ' घरेलू खुफिया समुदाय ने कभी-कभी एक सक्रिय और पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया है, जैसा कि 2015 में फ्रांस से सीरिया के इंटेलिजेंस अधिकारी ख़ालिद अल-हलाबी की घुसपैठ में देखा गया था, बल्कि इस देश ने अपनी ज़मीन पर जासूसी के ख़िलाफ़ कठोर रुख लेना भी शुरू कर दिया है. ये रुख काउंटर इंटेलिजेंस के क्षेत्र में विशेष रूप से है ताकि अपने सुरक्षा तंत्र को और अधिक संकट में जाने से रोका जा सके. 

शायद कहीं भी जासूसी और भू-राजनीति का घालमेल उतना ज़्यादा नहीं दिखाई देता है जितना जासूसी के अड्डे के शहरी परिदृश्य में. तकनीकी निगरानी जहां एक बात है, वहीं जासूसी ह्यूमन इंटेलिजेंस पर निर्भर होकर तय होती रही है और आगे भी रहेगी. शहरी परिदृश्य उन लोगों के लिए मिलने-जुलने की जगह बने रहने का काम करता रहेगा जो बहुध्रुवीय भू-राजनीतिक अपराध की दुनिया का सामना करते हैं. 

अर्चिष्मान गोस्वामी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशंस प्रोग्राम में MPhil की पढ़ाई कर रहे पोस्टग्रेजुएट छात्र हैं. 

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