Published on Nov 30, 2023 Updated 0 Hours ago

अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस युद्धरत क्षेत्रों में तमाम परेशानियों से गुज़रने वाली महिलाओं से जुड़े व्यापक मुद्दों का तत्परता से समाधान तलाशने की याद दिलाता है. 

युद्धग्रस्त क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी: महिलाओं की दिक़्क़तों का विश्लेषण

युद्ध का किसी भी देश की आबादी पर और सामाजिक ताने-बाने पर बहुत गहरा प्रभाव पडता है. युद्ध कहीं न कहीं लोगों की सेहत पर, शिक्षा पर और सर्वांगीण विकास को भी व्यापक स्तर पर प्रभावित करता है. यूरोप, पश्चिम एशिया और अफीक्रा के एक बड़े हिस्से में जिस प्रकार से भीषण युद्ध छिड़ रहे हैं, उनसे ये स्पष्ट हो गया है कि इनके नतीज़े बहुत घातक होते हैं और ये सिर्फ़ लड़ाई के मोर्चों पर ही नहीं दिखाई देते हैं, बल्कि इसके परिणाम दूरगामी होते हैं और दूर-दूर तक दिखाई देते हैं. इन युद्धों के नतीज़ों की बात करें तो ये प्रभावित इलाक़ों में व्यापक स्तर पर विनाश के साथ ही सामुदायिक ताने-बाने को तहस-नहस कर देते हैं. युद्ध का यह असर न केवल छोटी अवधि में नज़र आता है, बल्कि समाज के स्तर पर छाई यह उथल-पुथल दीर्घावधि में शांति व सौहार्द की स्थापना के प्रयासों को भी प्रभावित करती है. ऐसे युद्धग्रस्त क्षेत्रों में महिलाओं के रूप में एक अत्यधिक संवेदनशील समूह है. युद्ध से प्रभावित इलाक़ों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो हर तीन में एक महिला ने अपनी जीवन में कभी न कभी हिंसा का सामना किया है. युद्ध की परिस्थितियों में महिलाओं की हालत बेहद नाज़ुक हो जाती है और इससे उन्हें विभिन्न प्रकार से स्वास्थ्य ख़तरों से भी रूबरू होना पड़ता है, जो बेहद ख़तरनाक हैं. संयुक्त राष्ट्र (UN) के अनुमान के मुताबिक पूरी दुनिया में लगभग 600 मिलियन महिलाएं और लड़कियां युद्ध जैसे हालातों के बीच में रहती हैं. अगर इस आंकड़े की तुलना वर्ष 2017 से की जाए तो, यह 50 प्रतिशत अधिक है. अनुमानों के मुताबिक़ पिछले वर्ष सैन्य संघर्ष में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है और इसके चलते महिलाओं को लिंग आधारित हिंसा का सामना करना पड़ा है. अगर सूडान का ही उदाहरण लें तो वहां 4.2 मिलियन से अधिक महिलाएं और लड़कियां ख़तरनाक परिस्थितियों में रह रही हैं. युद्धग्रस्त इलाक़ों में महिलाओं को जिन मुश्किल हालातों का सामना करना पड़ता है, उनके मद्देनज़र 25 नवंबर को मनाए जाने वाला अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस (International Day for the Elimination of Violence against Women) एक ऐसा अवसर पर है, जो वैश्विक स्तर पर महिला हिंसा से जुड़े व्यापक मुद्दों का बेहद ईमानदारी और तत्परता के साथ समाधान तलाशने की ज़रूरत को रेखांकित करता है.

 संयुक्त राष्ट्र (UN) के अनुमान के मुताबिक पूरी दुनिया में लगभग 600 मिलियन महिलाएं और लड़कियां युद्ध जैसे हालातों के बीच में रहती हैं. अगर इस आंकड़े की तुलना वर्ष 2017 से की जाए तो, यह 50 प्रतिशत अधिक है. 

 

अगर बुनियादी मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात करें, तो महिलाओं एवं लड़कियों के खिलाफ हिंसा (VAWG) ऐसा मुद्दा है, जो सबसे प्रचलित और विनाशकारी उल्लंघनों में से एक है, साथ ही हर तरफ दिखाई देता है. उदाहरण के तौर पर वियतनाम में महिलाओं एवं लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा का व्यापक रूप से वित्तीय दुष्प्रभाव पड़ा है और कहा जाता है कि यह वहां की कुल GDP के 1.4 प्रतिशत के बराबर था. इसी प्रकार से माना जाता है कि मोरक्को में महिलाओं के विरुद्ध शारीरिक एवं यौन हिंसा की वजह से हर साल लगभग 308 मिलियन अमेरिकी डॉलर का नुक़सान होता है. युद्ध वाले इलाक़ों में महिलाओं और लड़कियों को तमाम तरह की दिक़्क़तों से जूझना पड़ता है और यह सारी परिस्थितियां कहीं न कहीं उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को संकट में डालने का काम करती हैं. लगातार युद्ध के हालातों की वजह से न सिर्फ़ महिलाओं का रोज़मर्रा का जीवन प्रभावित होता है, बल्कि इससे चिकित्सा देखभाल जैसी महत्वपूर्ण ज़रूरतों तक उनकी पहुंच भी कम हो जाती है. युद्ध की वजह से उपजे अनिश्चितिता के हालात, जहां महिलाओं की आर्थिक प्रगति की उम्मीदों को धूमिल करने का काम करते हैं, वहीं उन्हें ग़रीबी के दुष्चक्र में भी धकेल रहे हैं. इतना ही नहीं हिंसा की घटनाओं का सबसे अधिक सामना महिलाओं को ही करना पड़ता है, जिनमें यौन शोषण, घरेलू हिंसा और उन्हें ज़बरदस्ती बेचा जाना तक शामिल है. उदाहरण के लिए डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ दि कांगो, हैती और सूडान में देखा गया है कि सेना व हथियारबंद समूहों द्वारा यौन शोषण के लिए महिलाओं का अपहरण किया जा रहा है, जबकि यमन, सोमालिया और सीरिया में महिलाओं को बंदी बनाकर उन्हें यौन कार्यों में धकेलने और लड़ाकों के साथ उनकी जबरन शादी किए जाने के मामले सामने आए हैं.

 

चित्र 1: महिलाओं एवं लड़कियों को निशाना बनाने वाले ऐसे हमले, जिनसे उनके विरुद्ध हिंसा को अंज़ाम दिया जाता है

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स्रोत: दि आर्म्ड कन्फ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा प्रोजेक्ट (ACLED)

 

इस सभी परेशानियों के चलते महिलाओं एवं लड़कियों पर शारीरिक और मानसिक तौर पर बेहद गंभीर प्रभाव पड़ता है. इसकी वजह से उन्हें कुपोषण, मानसिक आघात, यौन संबंधों के ज़रिए होने वाले संक्रामक रोगों, अनैच्छिक गर्भधारण और उत्पीड़न से होने वाले तनाव एवं अवसाद जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है. युद्ध की परिस्थितियों में ज़ाहिर तौर पर चिकित्सा व्यवस्थाएं चरमरा जाती हैं और इसके चलते महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान एवं प्रसव से पहले और प्रसव के बाद आवश्यक चिकित्सा देखभाल मिलना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है. इन चुनौतियों में गर्भावस्था के दौरान स्वास्थ्य की देखभाल के साथ ही पहले से चल रही बीमारियों का इलाज नहीं मिलना भी शामिल है. कई बार तो ऐसा भी देखा गया है कि युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में गर्भवती महिलाओं को दर्द निवारक दवाओं के बिना ही डिलीवरी करने पर मज़बूर होना पड़ा है, साथ ही सैनिटेशन से जुड़े साधनों की उपलब्धता नहीं होने की वजह से मासिक धर्म में देरी लाने वाली दवाओं का उपयोग करना पड़ा है. ज़ाहिर है कि ऐसी ज़रूरी स्वास्थ्य सेवाओं की गैरमौज़ूदगी के चलते महिलाओं एवं लड़कियों के मौत के मामलों में बढ़ोतरी की संभावना है, जबकि ऐसी मौतों को टाला जा सकता है. मेडिकल सुविधाओं की यह कमी महिलाओं से संबंधित हाइजीन, गर्भधारण और प्रसव से जुड़े ख़तरों में वृद्धि कर सकती है, साथ ही दूसरी गंभीर बीमारियों से जूझ रही महिलाओं की हालत को बिगाड़ सकती है.

 हिंसा की घटनाओं का सबसे अधिक सामना महिलाओं को ही करना पड़ता है, जिनमें यौन शोषण, घरेलू हिंसा और उन्हें ज़बरदस्ती बेचा जाना तक शामिल है.

 

ऐसा नहीं है कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं एवं लड़कियों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए क़ानूनी प्रावधान मौज़ूद नहीं है. युद्धरत क्षेत्रों में VAWG को रोकने के लिए विशेष क़ानूनी ढांचा उपलब्ध है. CEDAW, रिजोल्यूशन 1325, रोम अधिनियम (the Rome Statute), जिनेवा कन्वेंशन्स एवं बेलेम डो पारा कन्वेंशन (Belem do Pará Convention ) जैसे तमाम वैश्विक क़ानूनी प्रावधानों में VAWG को रोकने के लिए उपाय किए गए हैं, साथ ही इनमें महिलाओं एवं लड़कियों के विरुद्ध हिंसा पर लगाम लगाने के लिए रणनीतिक सुझाव दिए गए हैं. इतना सब होने के बावज़ूद यह क़ानूनी उपाय ज़मीनी स्तर पर महिलाओं एवं लड़कियों के विरुद्ध हिंसा की घटनाओं को रोकने में कारगर साबित नहीं हो रहे हैं. इन क़ानूनी प्रावधानों की विफलता के पीछे कई वजहें हैं. युद्धग्रस्त इलाक़ों में महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी दिक़्क़तों को दूर करने और उनके स्वास्थ्य अधिकारों की सुरक्षा सुनश्चित करने के लिए विभिन्न क़ानूनी प्रावधानों को अमल में लाने के दौरान पैदा होने वाली ख़ामियों को प्रभावी तरीक़े से दूर करने के लिए एक बहुआयामी रणनीति बनाने की ज़रूरत है.

 

चित्र 2: युद्ध के दौरान होने वाली यौन हिंसा पर महासचिव के विशेष प्रतिनिधि के कार्यालय द्वारा चिन्हित किए गए नीतिगत दख़ल वाले क्षेत्र (OSRSG-SVC)

 

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स्रोत: OSRSG-SVC  

 

नीतिगत सिफ़ारिशें

 

अक्सर देखने में आता है कि युद्धरत इलाक़ों में हेल्थकेयर से संबंधित नीतियों को निर्धारित करने वाले विषयों में महिलाओं से जुड़े मसलों की अनदेखी कर दी जाती है. उल्लेखनीय है कि जब ऐसी संस्थाओं या मंचों पर जहां महिलाओं के कल्याण से जुड़े मुद्दों पर अहम फैसले लिए जाते हैं, वहां महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं होता है, तो वहां महिलाओं से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया नहीं जाता है और अगर उठाया भी जाता है, तो उन पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता है, बल्कि रुकावटें पैदा की जाती हैं. इसके लिए ज़रूरी है कि महिला हिंसा पर लगाम लगाने वाले क़ानूनी प्रावधानों को प्रभावी तरीक़े से अमल में लाने के लिए और महिलाओं की आवश्यकताओं को समझने से लेकर उनसे संबंधित कार्यक्रम की प्रभावशीलता का विश्लेषण करने तक, नीतियां निर्धारित करने की पूरी प्रक्रिया में सामाज से जुड़े समूहों एवं महिला समूहों की व्यापक भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. इतना ही नहीं महिलाओं से जुड़े मसलों का समाधान तलाशने की नीतिगत प्रक्रिया में समस्याग्रस्त देश की महिलाओं को प्रतिनिधित्व देना भी बेहद महत्वपूर्ण है. इसके साथ ही महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा के लिए उचित वातावरण का निर्माण करना एवं उनसे जुड़ी ज़रूरतों पर केंद्रित रणनीतियों को सुनिश्चित किया जाना भी विषयागत ख़ामियों को दूर करने एवं नीतियों के बेहतर तरीक़े से कार्यान्वयन के लिए आवश्यक है. ऐसी परिस्थितियां आसपास के किरदारों, सरकारी विभागों और वैश्विक संस्थाओं के बीच मिलजुलकर कार्य करने की भावना को पैदा करती हैं, जैसे कि अपने नज़रियों एवं विचारों, अपनी क्षमताओं और सहयोगी नेटवर्क का आदान-प्रदान करना.

 

ज़ाहिर है कि युद्धरत क्षेत्रों में महिलाओं पर पड़ने वाले युद्ध के प्रभावों को दूर करने एवं उनके स्वास्थ्य से जुड़े अधिकारों का समाधान करने के लिए प्रभावशाली नीतियों के कार्यान्वयन में अक्सर सबसे बड़ी बाधा अपर्याप्त फंडिंग और संसाधन होते हैं. ऐसे में संघर्ष के हालातों को काबू करने पर फोकस के साथ ही, महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त धन और संसाधनों को उपलब्ध कराना भी बेहद ज़रूरी है. महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध होने वाली हिंसा की घटनाओं को समाप्त करने पर ध्यान देना सबसे अहम है और इसलिए महिलाओं की सुरक्षा और उनकी स्वास्थ्य से संबंधित ज़रूरतों तक पहुंच के लिए वित्तीय कोशिशों का आकलन किया जाना चाहिए. इसके साथ ही इस कार्य के लिए संसाधनों के आवंटन की ख़ामियों को पहचाना जाना चाहिए और इसके बारे में सभी को बताना चाहिए. ज़रूरी यह भी है कि इस तरह की कोशिशें दृढ़ इरादों के साथ आगे बढ़ाई जानी चाहिए, साथ ही इनके कार्यान्वयन में लचीला रुख अपनाना चाहिए, ताकि इच्छित नतीज़े हासिल हों. इस परेशानी को दूर करने के लिए ऐसे क्षेत्रों में जहां महिलाओं के स्वास्थ्य से संबंधित समग्र देखभाल की तत्काल आवश्यकता है, वहां ख़ास तौर पर तैयार की गई नीतियों में निवेश को आमंत्रित करके, साथ ही फंड के उपयोग पर पैनी नज़र रखते हुए अस्थाई समाधान की जगह पर बेहतर एवं टिकाऊ समाधान पेश किया जाना संभव है.

 महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध होने वाली हिंसा की घटनाओं को समाप्त करने पर ध्यान देना सबसे अहम है और इसलिए महिलाओं की सुरक्षा और उनकी स्वास्थ्य से संबंधित ज़रूरतों तक पहुंच के लिए वित्तीय कोशिशों का आकलन किया जाना चाहिए.

सरकारें और अंतर्राष्ट्रीय संगठन द्वारा टकराव वाले इलाक़ों में महिलाओं के स्वास्थ्य की सुरक्षा के मकसद से बनाए गए नियमों व क़ानूनों का प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन किया जा रहा है, या नहीं, यह सुनिश्चित करने के लिए अक्सर जवाबदेही और निगरानी तंत्र की कमी होती है. निगारीन के स्तर पर यह कमी कहीं न कहीं क़ानूनों के लचर कार्यान्वयन की वजह बनती है, साथ ही ख़ामियों की पहचान करने एवं उनके समाधान को चुनौतीपूर्ण बना देती है. ऐसे में यह अनिवार्य हो जाता है कि महिलाओं के यौन स्वास्थ्य एवं गर्भावस्था के दौरान उनके स्वास्थ्य से जुड़े वैश्विक दिशा-निर्देशों से संबंधित क़ानूनों की निगरानी के लिए मुकम्मल निगरानी रणनीतियां तैयार की जाएं. इसके लिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) समेत विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को समय-समय पर इस दिशा में होने वाली प्रगति की समीक्षा करना चाहिए, साथ ही इस प्रगति को बढ़ाने पर फोकस करना चाहिए. ऐसा करना निश्चित तौर पर शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य के अधिकार तक, विभिन्न मानवाधिकारों को हासिल करने में सहायता कर सकता है. इसके साथ ही ये संस्थाएं नीतियों को बनाने की प्रक्रिया और फंड एवं संसाधनों के वितरण को फिर से व्यवस्थित करने के लिए इस तरह की निगरानी के ज़रिए जुटाई गई जानकारियों और तथ्यों का फायदा उठा सकती हैं. इसके अतिरिक्त, ऐसी व्यवस्था को भी स्थापित करने की आवश्यकता है, जो न सिर्फ़ वास्तविक स्थिति को स्पष्ट तौर पर बताने वाली हो, बल्कि पारदर्शिता व ज़िम्मेदारी को प्रोत्साहित करने के लिए निगरानी के नतीज़ों को सार्वजनिक तौर पर प्रसारित करे. 

 

देखने में यह सब बातें सहज लगती हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इन क़ानूनी क़दमों को फाइलों से ज़मीनी स्तर पर लाना बेहद मुश्किल सिद्ध हुआ है. ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि महिलाओं के मुद्दों को उभारने के लिए, मज़बूती के साथ उनके अधिकारों की रक्षा हेतु और उनके ख़िलाफ़ हिंसक वारदातों को अंज़ाम देने वालों को दंडित करने के लिए एकजुट होकर प्रयास किए जाएं. युद्ध के दौरान महिलाओं एवं लड़कियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के खात्मे और हेल्थकेयर सुविधाओं तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षा उपायों, ज़िम्मेदारी पूर्ण व्यवहार और निरंतर विकास को लेकर प्रतिबद्धता समेत विभिन्न रणनीतियों की ज़रूरत होती है. क़ानूनी ढांचे को मज़बूत करना, सामुदायिक सशक्तिकरण को प्रोत्साहित करना, ज़रूरतों को संबोधित करना, लैंगिक लिहाज़ से ज़रूरी आवश्यकताओं को ध्यान में रखने वाले बजटीय नज़रिए के लिए प्रतिबद्धता, यह सब ऐसे वातावरण का निर्माण करने में सहायता करते हैं, जहां महिलाओं के स्वास्थ्य अधिकारों को प्रमुखता दी जाती है और उनकी रक्षा भी की जाती है. निसंदेह तौर पर राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बेहद कारगर सिद्ध हुआ है, ऐसे में महिलाओं के स्वास्थ्य से संबंधित नीतियों को बनाने में भी महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने कहा था कि महिलाओं का सशक्तिकरण विकास का एक प्रभावी साधन है. ज़ाहिर तौर पर भारत की G20 अध्यक्षता के दौरान भी महिलाओं के नेतृत्व में विकास को अहमियत देना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, जिसमें नेशनल जेंडर स्ट्रैटेजी (National Gender Strategies) की पैरोकारी की गई थी. कुल मिलाकर "महिलाओं के नेतृत्व में विकास" (women-led development) की इस पहल को आगे बढ़ाना एक ऐसे विश्व का निर्माण करने के लिए आवश्यक है, जहां महिलाओं का नज़रिया और उनसे जुड़े मुद्दे न सिर्फ़ ध्यान आकर्षित करें, बल्कि महिलाओं की समग्र ख़ुशहाली एवं समृद्धि सबसे बड़ी प्रथामिकताओं में शामिल हो.


बी. पूर्णिमा, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन, भारत के डिपार्टमेंट ऑफ जियोपॉलिटिक्स एंड इंटरनेशनल रिलेशन्स में जूनियर रिसर्च फेलो और डॉक्टरेट कैंडिडेट हैं.

किरण भट्ट, सेंटर फॉर हेल्थ डिप्लोमेसी, डिपार्टमेंट ऑफ ग्लोबल हेल्थ गवर्नेंस, प्रसन्ना स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन में रिसर्च फेलो हैं.

प्रो. डॉ. संजय पट्टनशेट्टी, प्रसन्ना स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन में डिपार्टमेंट ऑफ ग्लोबल हेल्थ गवर्नेंस में प्रोफेसर व हेड हैं, साथ ही सेंटर फॉर हेल्थ डिप्लोमेसी के कॉर्डिनेटर हैं.

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