Published on Oct 27, 2023 Updated 0 Hours ago
‘भारतीय ख़ुफ़िया संस्कृति की जटिलता और मज़बूती का विस्तृत विश्लेषण’

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने 18 सितंबर को आरोप लगाया था कि कनाडा के नागरिक और खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के पीछे भारत का हाथ था. ट्रूडो के इन आरोपों को दो सप्ताह बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक यह प्रमाणित नहीं हो पाया है. लेकिन इन आरोपों के बाद जो भी घटनाक्रम हुआ है, उसने भारत की इंटेलीजेंस सर्विसेज, ख़ास तौर पर रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (R&AW) की कार्यप्रणाली को लेकर दुनिया के तामाम देशों की उत्सुकता जगा दी है.

पूरी दुनिया की कोशिश भारत की मौज़ूदा सरकार को कटघरे में खड़ा करने पर और रॉ को गुप्त किलिंग मशीन ठहराने पर केंद्रित है. इतना ही नहीं, बग़ैर किसी आधार के भारत के ख़ुफ़िया ऑपरेशन्स की रूस और अरब के ख़ुफ़िया अभियानों के साथ तुलना की जा रही है.

विशेषज्ञों द्वारा लगातार खलिस्तानी अलगाववादी नेता निज्जर की हत्या को गिरोहों के बीच वर्चस्व की लड़ाई का नतीज़ा बताया रहा है, लेकिन दुनिया इस पर यकीन नहीं कर रही है. साथ ही कनाडा द्वारा अलगाववाद को उकसाने से संबंधित भारत की वाजिब चिंताओं पर भी वैश्विक जगत ध्यान नहीं दे रहा है. इसके बजाए पूरी दुनिया की कोशिश भारत की मौज़ूदा सरकार को कटघरे में खड़ा करने पर और रॉ को गुप्त किलिंग मशीन ठहराने पर केंद्रित है. इतना ही नहीं, बग़ैर किसी आधार के भारत के ख़ुफ़िया ऑपरेशन्स की रूस और अरब के ख़ुफ़िया अभियानों के साथ तुलना की जा रही है. ज़ाहिर है कि इस तरह के विश्लेषण बेबुनियाद हैं, क्योंकि भारत का इंटेलीजेंस कल्चर न तो ऐसा है, जैसा कि बताया जा रहा है और न ही इसमें टार्गेटेड हत्याओं की कोई जगह है.

ख़ुफ़िया संस्कृतियां, आतंकवाद का विरोध और लक्षित हत्याएं

हर देश के इंटेलीजेंस का अपना तौर-तरीक़ा होता है, जो उनकी ज़रूरत एवं मकसद से तय होता है. साथ ही किसी देश की इंटेलीजेंस उसके संगठनात्मक विकल्पों, कार्यप्रणालियों और नीतियों से भी प्रभावित होती है. उदाहरण के तौर पर अमेरिका शीर्ष से नीचे के नज़रिए (top-down approach) का पालन करता है, इसकी मुख्य वजह यह है कि अमेरिका का ज़ोर “सिद्धांत यानी नियम-क़ानून से संचालित राजनीतिक” है. इसी सिद्धांत के अंतर्गत शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने लोकतांत्रिक दृष्टिकोण, तकनीक़ी महारत एवं भलमनसाहत के साथ ख़ुफ़िया गतिविधियों के ज़रिए अपने इंटेलीजेंस कल्चर को आगे बढ़ाया. हालांकि कई मौक़ों पर अमेरिका ने अपने इस कल्चर के अलग हटकर भी जासूसी कृत्यों को अंज़ाम दिया है. 9/11 के हमलों के बाद रणनीतिक वातावरण में जो व्यापक बदलाव आया, उसके चलते अमेरिका की ख़ुफ़िया कार्रवाइयों का तरीक़ा एकदम से बदल गया. इस आतंकी घटना के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ने पूरी दुनिया को ‘हम’ और ‘वे’ (आतंकवादियों) के बीच बांटने के निर्देश दिए और फिर उसका इंटलिजेंस कल्चर पूरी तरह से परिवर्तित हो गया. इसके पश्चात अमेरिकी ख़ुफ़िया संस्कृति का एक हिसाब से सैन्यीकरण हो गया और अमेरिकी इंटेलीजेंस में “अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ मित्रता” की जगह “ट्रैकिंग और टारगेटिंग” प्रभावी हो गई, यानी उसका पूरा फोकस अपने विरोधियों को ट्रैक करना और उन्हें लक्ष्य बनाकर निशाना बनाने पर हो गया. इंटेलीजेंस संस्कृति में आए इस व्यापक बदलाव की वजह से टार्गेटेड किलिंग, अर्थात लक्षित हत्याएं करना एक क़ानूनी हथियार के तौर पर स्वीकारा जाने लगा. कुछ विशेषज्ञ अमेरिकी इंटेलीजेंस कार्यप्रणाली में आए इस बदलाव का ‘आदर्श परिवर्तन’ के रूप में बखान करते हैं, जो कि अमेरिकी ख़ुफ़िया संस्कृति की ऊपर से नीचे की संरचना को प्रकट करता है.

भारत की ख़ुफ़िया संस्क़ति को समझने के लिए देश को आज़ादी मिलने के बाद, शुरुआती वर्षों में इसकी कार्यविधि को समझना ज़रूरी है. यह वो वक़्त था, जब राजनीतिक आदर्शवाद का बोलबाला था और जिसके चलते इंटेलीजेंस ब्यूरो (IB) को राष्ट्रीय सुरक्षा से मुद्दों का समाधान करने के लिए अपने ख़ुफ़िया अभियानों के संचालन में तमाम दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता था.

दूसरी ओर, इजरायली ख़ुफ़िया तंत्र ‘व्यावहारिकता के दर्शन‘ (philosophy of pragmatism’) अर्थात का अनुभव से मिली सीख पर आधारित है. यह नीचे से ऊपर के दृष्टिकोण (bottom-up approach) का अनुसरण करता है. कहने का तात्पर्य यह है कि इजरायली ख़ुफ़िया तंत्र में दुनिया की वास्तविक समस्याओं के उपयोगी समाधान विकसित करने के लिए नीचले पदों पर नियुक्त कर्मचारियों को अपनी ओर से पहल करने और नए-नए विचारों पर काम करने की पूरी आज़ादी होती है. इजरायल के इंटेलीजेंस कल्चर में टार्गेटेट किलिंग का मसला कोई नियम-क़ानून के अंतर्गत आने वाला मुद्दा नहीं है, बल्कि इसे प्रक्रियागत ज़रूरत के रूप में स्वीकार किया जाता है. इसलिए, इज़राइल में लक्षित हत्या पर शायद ही कभी क़ानूनी या वैधानिक नज़रिए से चर्चा होती है, दरअसल वहां टार्गेटेड किलिंग को अक्सर ऑपरेशनल आवश्यकता समझा जाता है और उसके लिए अंतिम परिणाम ज़्यादा मायने रखता है. देखा जाए तो इजरायल में ख़ुफ़िया तंत्र पूर्ण रूप से वहां के अधिनायकवादी शासन के अधीन काम करता है. शासन के स्तर पर कई मतभेदों के बावज़ूद इजराइल में लक्षित हत्याओं का ज़्यादातर इस्तेमाल विरोधियों (उनके मुताबिक़ देशद्रोहियों) के बीच डर पैदा करने के लिए किया जाता है.

जहां तक ख़ुफ़िया नेतृत्व के स्तर पर भारत के इंटेलीजेंस कल्चर की बात है, तो यह कहीं न कहीं अमेरिका एवं इजराइल के मध्य में दिखाई देती है. भारत की ख़ुफ़िया संस्क़ति को समझने के लिए देश को आज़ादी मिलने के बाद, शुरुआती वर्षों में इसकी कार्यविधि को समझना ज़रूरी है. यह वो वक़्त था, जब राजनीतिक आदर्शवाद का बोलबाला था और जिसके चलते इंटेलीजेंस ब्यूरो (IB) को राष्ट्रीय सुरक्षा से मुद्दों का समाधान करने के लिए अपने ख़ुफ़िया अभियानों के संचालन में तमाम दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता था. इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए आईबी के पहले चीफ टीजी संजीवी ने कहा कि “उन्हें उस दौरान अक्सर सरकार को जानकारी दिए बग़ैर अपने स्तर पर स्वतंत्र कार्रवाई करनी पड़ती थी.” इसलिए, उनके बाद आईबी प्रमुख की ज़िम्मेदारी संभालने वाले अफ़सरों ने भी अपने मुताबिक़ जासूसी से जुड़े सिद्धांतों को निर्धारित किया और ख़ुफ़िया गतिविधियों को अंज़ाम देने के लिए नए-नए तरीक़ों को ईज़ाद किया. हालांकि उन्होंने राजनीतिक नेतृत्व द्वारा निर्धारित की गई सीमाओं का हमेशा ख़्याल रखा और उसके भीतर रहकर कार्य किया. दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो भारत का ख़ुफ़िया तंत्र कुछ हद तक अमेरिकी ख़ुफ़िया सिस्टम की तरह काम करता है. यानी भारतीय इंटेलीजेंस सर्विसेज राजनीतिक नेतृत्व द्वारा तैयार किए गए फ्रेमवर्क के तहत कार्य करती हैं, लेकिन जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा की आती है, तो विभिन्न ख़तरों का मुक़ाबला करने के लिए इंटेलीजेंस एजेंसी के प्रमुख के पास समुचित निर्णय लेने की पूरी आज़ादी होती है.

भारत की ख़ुफ़िया रणनीती की प्राथमिकता: लोगों के साथ भावनात्मक संपर्क

पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का यह कहना था कि जो भी विद्रोही हैं, वे ‘हमारे ही लोग’ हैं, जिनमें सुधार लाने के साथ ही उन्हें मुख्यधारा की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में शामिल करने की ज़रूरत है. नेहरू के इन्हीं विचारों ने एक हिसाब से उग्रवाद विरोधी कार्रवाई से संबंधित भारतीय ख़ुफ़िया सिद्धांत की आधारशिला बनाने का काम किया. भविष्य में यही सिद्धांत उग्रवाद एवं आतंकवाद के विरुद्ध कार्य करने वाले इंटेलीजेंस से जुड़े तमाम नौकरशाहों द्वारा संचालित किए जाने वाले ख़ुफ़िया अभियानों का आधार बन गया. इस ख़ुफ़िया सिद्धांत में विरोधियों के साथ भावनात्मक संपर्क बनाने या उनके दिल और दिमाग को जीतने (नरम दृष्टिकोण) और विरोधियों को समाप्त करने (सख़्त दृष्टिकोण) के बीच एक स्पष्ट अंतर कर दिया गया था. इसमें विरोधियों के साथ नरम दृष्टिकोण अपनाने पर सबसे अधिक महत्व दिया गया और इसे अमली जामा पहनाने के लिए इंटेलीजेंस ब्यूरो को नोडल एजेंसी बनाया गया. पूर्व रॉ चीफ और पूर्व आईबी अधिकारी के. सी. वर्मा के मुताबिक़ इंटेलीजेंस ब्यूरो का सबसे बड़ा योगदान यह रहा है कि उसके अधिकारियों के विद्रोही गुटों के नेताओं के साथ “अत्यधिक भरोसे वाले संबंध” रहे हैं. ज़ाहिर है कि विद्रोही नेताओं के साथ इस तरह के नज़दीकी संबंध कहीं न कहीं आईबी अधिकारियों के पेशेवर रवैये और उनके द्वारा हमदर्दी जताने या विद्रोहियों की भावनाओं को समझने का ही नतीज़ा है. ख़ुफ़िया गतिविधियों में लागू किए जाने वाले इस मॉडल का मकसद विरोध का मुक़ाबला करना या उसे संभालने के बजाए, विरोधियों की समस्याओं का समाधान करना था और इसके लिए उचित रणनीतिक नज़रिए को अपनाना था. इसमें कोई हैरानी नहीं है कि देश में ऐसे कई विद्रोही आंदोलन हैं, जो कभी समस्या थे, लेकिन आज उन आंदोलनों के नेता भारत की राजनीतिक प्रक्रिया में अपनी सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं. इसी नीति का नतीज़ा है कि भारत में आज तक कोई भी अलगाववादी आंदोलन सफल नहीं हो पाया है.

आईबी ने अपने अभियानों के दौरान किसी भी विद्रोह पर काबू पाने के लिए कौटिल्य की युक्ति का पालन किया है. इसके मुताबिक़ समझाना-बुझाना, आर्थिक लाभ पहुंचाना और दांवपेंच का इस्तेमाल करना, यानी कि फूट डालो और राज करो का अनुसरण करते हुए अपने अभियानों को कुशलतापूर्वक अंज़ाम देना है.

आईबी ने अपने अभियानों के दौरान किसी भी विद्रोह पर काबू पाने के लिए कौटिल्य की युक्ति का पालन किया है. इसके मुताबिक़ समझाना-बुझाना, आर्थिक लाभ पहुंचाना और दांवपेंच का इस्तेमाल करना, यानी कि फूट डालो और राज करो का अनुसरण करते हुए अपने अभियानों को कुशलतापूर्वक अंज़ाम देना है. देखा जाए तो विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए सबसे अधिक ज़ोर फूट डालने की रणनीति पर रहा है. विद्रोह वाले इलाक़ों में कार्यरत दूसरे सुरक्षा बलों के अफ़सरों ने भी इसी रणनीति का पालन किया है. वर्ष 1968 में जब R&AW का गठन किया गया था, तब इस एजेंसी द्वारा भी अपने ऑपरेशन में इसी सिद्धांत को अपनाया गया था. इसके पीछे यह विचार था कि भारत के पड़ोसी देशों में भी कुछ ऐसे समूह है, जिन्हें भारत के इरादों को लेकर न केवल ‘गुमराह’ किया गया था, बल्कि उन्हें भारत की सुरक्षा चिंताओं के बारे में सही-सही जानकारी भी नहीं थी. ऐसी परिस्थितियों में इन भटके हुए लोगों को समझाने और साथ लाने की ज़रूरत थी. यही वजह है कि R&AW की प्रमुख ज़िम्मेदारियों में पड़ोसी मुल्क़ों में रणनीतिक इंटेलीजेंस को सशक्त करना तो शामिल है ही, इसके साथ ही भारतीय हित से जुड़ी विभिन्न नीतियों के फायदे के लिए पड़ोसी देशों के राजनीति हलकों एवं सिविल सोसाइटी के प्रमुख वर्गों में अपना प्रभाव स्थापित करना भी शामिल है.

R&AW अपने अभियानों में पड़ोसी देशों में विरोधी गुटों के लोगों के साथ नज़दीकी एवं भावनात्मक संपर्क स्थापित करके में जुटा है और इसीलिए रॉ का मनोवैज्ञानिक युद्ध (PSYWAR) डिवीजन इसका सबसे सक्रिय विभाग बना हुआ है. रॉ द्वारा इस प्रकार का सबसे पहला अभियान 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान चलाया गया था. उस समय इस एजेंसी ने बंगाल की दिक़्क़तों एवं वहां के दर्द को यूरोपीय एवं उत्तर अमेरिकी देशों के समक्ष प्रकट करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी. इसके पीछे उद्देश्य यह था कि वैश्विक स्तर पर लोगों की बदली हुई सोच, संबंधित देशों की विदेश नीति को भारत के पक्ष में बदलने का काम करेगी. इसके बाद जब पंजाब और कश्मीर में संकट का दौर शुरू हुआ, तब रॉ के PSYWAR डिवीजन ने दुनियाभर में अपना अभियान शुरू किया और विभिन्न देशों में मौज़ूद भारतीय उपमहाद्वीप के प्रवासियों की बीच भारत के पक्ष को पहुंचाकर उनका समर्थन हासिल किया और इस प्रकार से वैश्विक स्तर पर पाकिस्तानी दुष्प्रचार का सामना किया. तभी से R&AW की उपस्थिति पश्चिमी देशों की राजधानियों में बनी हुई है और यह एजेंसी भारत के दो मकसदों को पूरा कर रही है. पहला, उद्देश्य है संबंधित देश में रहने वाले भारतीय प्रवासियों के साथ दीर्घकालिक संबंध स्थापित करना और ऐसा करके उस देश के साथ द्विपक्षीय संबंधों को सशक्त करना. दूसरा, उद्देश्य है विदेश की धरती पर भारत के ख़िलाफ़ अलगाववादी आंदोलनों को बढ़ावा देने वालों पर पैनी नज़र रखना और प्रवासी भारतीयों के बीच ऐसे तत्वों की निगरानी करना. इसके साथ ही अलगाववादियों के बीच अपनी पहुंच बनाकर, उनके आंदोलन को बेअसर करने की कोशिश करना. कनाडा में पिछले वर्ष जिस प्रकार से सिख नेता रिपुदमन सिंह मलिक की हत्या हुई, वो रॉ द्वारा भारतीय हितों के पक्ष में सफलापूर्वक कार्य करने का एक बेहतरीन उदाहरण है.

बहुत ज़रूरी होने पर ही लक्षित हत्याओं का विकल्प 

ऐसे परिस्थितियों में जब आतंकवाद किसी देश द्वारा प्रायोजित होता है, तब ऐसे लोगों के बीच जगह बनाकर और जोड़-तोड़ करने की रणनीति को अमल में लाना बेहद मुश्किल हो जाता है. इन हालातों के बावज़ूद जब ख़ुफ़िया ऐजेंसियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे किसी भी संभावित आतंकवादी ख़तरे के बारे में पहले से जानकारी दें और उसे रोकें, वो भी राजनीतिक उथल-पुथल मचाए बिना. ऐसे में एजेंसियों को अपनी ओर से कुछ नया करना पड़ता है. तभी कोई भी महसूस कर सकता है कि भारत की ख़ुफ़िया एजेंसियां बड़े और महत्वपूर्ण लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपनी फूट डालो और राज करो की रणनीति का विस्तार करती दिखाई दे रही हैं. ख़ुफ़िया एजेंसियों के इस रणनीतिक विस्तार का एक उदाहरण कश्मीर में 90 के दशक के शुरुआती दौर में आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए कुक्का पार्रे के नेतृत्व में पूर्व आतंकवादियों को नियुक्त करना शामिल है. इसका एक और सटीक उदाहरण भारतीय इंटेलीजेंस द्वारा नॉर्थ ईस्ट के इलाक़ों में विभिन्न उग्रवादी समूहों के बीच आपसी लड़ाई की वजह से होने वाली हत्याओं को जानबूझकर नज़रंदाज़ करना है. इन सबके बावज़ूद, अगर भारत के आतंकवाद विरोधी अभियानों को समग्रता में देखें, तो ख़ून-ख़राबे की छिटपुट घटनाएं ही मिलेंगी, अर्थात ज़्यादातर मामलों में ख़ुफ़िया ऑपरेशन फूट डालो और राज करो की नीति पर ही आधारित रहे हैं. पूर्व रॉ अधिकारी बी रमन के मुताबिक़ आतंकवाद का सामना करने के लिए भारत का नज़रिया है, कि ज़मीनी स्तर पर बड़े और मज़बूत अभियान साबित करते हैं कि आतंकवाद समाज से अलग हुए समूहों की समस्याओं को हल करने में कतई कारगर नहीं है और न ही कभी होगा.

भारत में सरकार किसी की भी रही हो और शासन में किसी भी विचारधारा का प्रभुत्व रहा हो, लेकिन भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों ने कभी भी राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता नहीं किया है और हमेशा सतर्क रही हैं.

इस क़वायद के केंद्र में राज्य-प्रयोजित आतंकवाद को सबके सामने लाना है और प्रभावशाली लोगों को भारत के हित में कार्य करने के लिए तैयार करना है, जो कि फिलहाल भारतीय जासूसों का सबसे प्रमुख काम बना हुआ है. ज़ाहिर है कि भारत के पड़ोसी देशों में जब कभी भी जिहादियों या अपराधियों के मारे जाने की घटनाएं हुई हैं, तो वे अशांति फैलाने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में वहां की सरकारों की नाक़ामी की वजह से घटी हैं और इनके पीछे कहीं न कहीं भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों की हताशा रही है. हालांकि, इस प्रकार के अभियानों को भारत के पड़ोसी देशों के अलावा अन्य कहीं भी अंज़ाम नहीं दिया गया है. कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के बेबुनियाद आरोपों और कार्वाइयों से पैदा हुई राजनीतिक गर्मा-गर्मी में फंसी भारत सरकार ने अपने तर्कों को मज़बूत करने के लिए कनाडा में निवास करने वाले भारत के वांछित अपराधियों और अलगाववादियों के डोज़ियर का सहारा लिया है. भारत द्वारा उठाया गया यह क़दम, उसकी पारंपरिक रणनीति का हिस्सा है, जिसे वह पूर्व में भी राज्य-प्रायोजित आतंकवाद के विरुद्ध इस्तेमाल करता आया है, अर्थात आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले देश का वैश्विक स्तर पर पर्दाफ़ाश करना.

कुल मिलाकर भारत के इंटेलीजेंस कल्चर की सबसे प्रमुख विशेषता विवादों और विद्रोहों का समाधान तलाशना रही है. इसके अंतर्गत विद्रोहियों को समझा-बुझाकर, आर्थिक लाभ पहुंचाकर और दांवपेंच का इस्तेमाल करके, उन्हें भारत के हित में मोड़ना मुख्य मकसद रहा है. ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा भारत के भीतर और विदेशी धरती पर, दोनों ही जगहों पर इस रणनीति को लगातार अपनाया गया है. ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा कठिन लक्ष्यों को निशाना बनाने के लिए यदा-कदा हिंसक विकल्पों का भी इस्तेमाल किया गया है, लेकिन ऐसा सिर्फ पड़ोसी मुल्क़ों में ही किया गया है. भारत में सरकार किसी की भी रही हो और शासन में किसी भी विचारधारा का प्रभुत्व रहा हो, लेकिन भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों ने कभी भी राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता नहीं किया है और हमेशा सतर्क रही हैं. इतना ही नहीं ख़ुफ़िया एजेंसियों को कुछ सरकारों को दौरान तो काम करने की अभूतपूर्व आज़ादी मिली है, जिनमें मौज़ूदा सरकार भी शामिल है. हालांकि, काम करने की इतनी अधिक आज़ादी के बावज़ूद भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों की कार्य संस्कृति में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. सबसे अहम बात यह है कि कुछ विशेषज्ञों के सुझावों के बावज़ूद, इंटेलीजेंस सर्विसेज ने कभी भी आतंकवादियों और विरोधियों के बीच के अंतर को समाप्त नहीं किया है. उल्लेखनीय है कि ऐसा करने के लिए पुख़्ता प्रमाणों की आवश्यकता होती है, सिर्फ़ पक्षपातपूर्ण सुझाव एवं परिस्थितियों के आकलन के आधार पर ऐसा नहीं किया सकता है. कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि भारत की ख़ुफ़िया संस्कृति अत्यधिक पेचीदा है और ज़्यादा स्थिर है. इसके साथ ही इसकी सबसे बड़ी प्राथमिकता भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा आवश्यकताएं हैं, न कि सत्ता में बैठे लोगों की विचारधाराएं.


धीरज परमेशा छाया, University of Hull, United Kingdom के क्रिमिनोलॉजी विभाग में इंटेलीजेंस एवं सिक्योरिटी के लेक्चरर हैं.

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