Published on Jun 13, 2022 Updated 0 Hours ago

दो हिस्सों की इस सीरीज़ में कम्यूनिटी पुलिसिंग के महत्व की पड़ताल की गई है और किस तरह ये भारत में आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से निपटने में उपयोगी हो सकती है.

आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन के लिए कम्यूनिटी (सामुदायिक) पुलिसिंग के साधन का इस्तेमाल — भाग-1

भारत में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति जटिल और सक्रिय होने के अलावा बाहर के बदलते हालात को लेकर अतिसंवेदनशील है. बाहर के इन बदलते हालात में सीमा पर लड़ाई, दुष्प्रचार और देश विरोधी तत्वों के द्वारा अपने काम-काज के तरीक़ों में बदलाव के साथ-साथ इनके द्वारा अपने मक़सद को पूरा करने के लिए ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्म का ज़्यादा इस्तेमाल शामिल हैं. सामाजिक-क्षेत्रीय असंतुलन, राजनीतिक उत्तेजना पैदा करना और सुरक्षा की भावना में कमी ने कई बड़ी चुनौतियों को बढ़ाया है- वामपंथी चरमपंथ, पूर्वोत्तर में स्थानीय राष्ट्रवाद, जम्मू और कश्मीर में विद्रोह, और इस हद तक आतंकवाद कि जिन इलाक़ों में नाराज़गी नहीं है वो भी इसकी चपेट में आ रहे हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार 2017-2020 के बीच ‘देश विरोधी तत्वों के द्वारा’ हिंसा की 2,243 घटनाओं को अंजाम दिया गया जिनमें पूर्वोत्तर में विद्रोह, जिहादी आतंकवाद, वामपंथी चरमपंथ, और दूसरे आतंकवाद की वारदात शामिल हैं. उम्मीद कमी आने की हो रही थी लेकिन हर साल के लिए आंकड़े अलग-अलग हैं. 

आंतरिक सुरक्षा में अशांति की ये अनिश्चितता ख़त्म करने के लिए व्यक्तिगत और सामुदायिक- दोनों स्तर पर असुरक्षा की भावना का समाधान करने की ज़रूरत है. ये परंपरागत सुरक्षा की पद्धति से हटकर है जो न सिर्फ़ पूरे समुदाय के लिए फ़ायदेमंद है बल्कि सक्रिय रूप से समुदाय की भागीदारी को भी प्रोत्साहन देती है.

आंतरिक सुरक्षा में अशांति की ये अनिश्चितता ख़त्म करने के लिए व्यक्तिगत और सामुदायिक- दोनों स्तर पर असुरक्षा की भावना का समाधान करने की ज़रूरत है. ये परंपरागत सुरक्षा की पद्धति से हटकर है जो न सिर्फ़ पूरे समुदाय के लिए फ़ायदेमंद है बल्कि सक्रिय रूप से समुदाय की भागीदारी को भी प्रोत्साहन देती है. समुदाय की ओर केंद्रित पुलिस व्यवस्था स्थानीय स्रोतों की कमज़ोरी पर नियंत्रण के मूल कारणों पर ध्यान देती है और इसके साथ-साथ बाहरी बलों के द्वारा तोड़फोड़ की तरफ़ विरोध को बढ़ावा देती है. एक नीति के तौर पर कम्यूनिटी या सामुदायिक पुलिसिंग दीर्घकालीन नतीजे देने का भरोसा देती है. अशांत क्षेत्र में जो अलग-अलग तरह की पहल की गई है, उनके नतीजे दिखाते हैं कि आंतरिक सुरक्षा के प्रबंधन के लिए उन्हें भारत के अलग-अलग राज्यों में आदर्श के तौर पर आगे अपनाया जा सकता है. 

कम्यूनिटी(सामुदायिक) पुलिसिंग क्या है? 

कम्यूनिटी केंद्रित पुलिसिंग पुलिस और कम्यूनिटी के बीच एक अप्रत्यक्ष करार है जो उन्हें मिलजुल कर सक्रिय रूप से काम करने की इजाज़त देता है. साथ ही ये करार रचनात्मक ढंग से स्थानीय स्तर के अपराध और अव्यवस्था को रोकने, उनका पता लगाने और हल करने की अनुमति भी देता है ताकि आस-पड़ोस के इलाक़ों को अपराध मुक्त रखा जा सके. एक कार्यक्रम से ज़्यादा कम्यूनिटी पुलिसिंग एक सिद्धांत हैं जो अपराध पर नियंत्रण करने की तलाश में पुलिस और लोगों के बीच एक सकारात्मक साझेदारी का रूप ले लेता है. साथ ही लोगों की ज़रूरी चिंताओं का समाधान करने के लिए कम्यूनिटी पुलिसिंग अपने संसाधनों को और इकट्ठा करती है.  

 

कम्यूनिटी पुलिसिंग की व्यापक धारणा में तीन घटक है: सामुदायिक साझेदारी, सांगठनिक संरचना और समस्याओं को सुलझाना जो कई तरीक़ों से इसकी समझ और क्रियान्वयन को आकार देता है. इन तीनों घटकों के सर्वश्रेष्ठ मेल को हासिल करने के लिए ऊर्जा, विश्वास और संयम आवश्यक है जिससे कि कम्यूनिटी को आंतरिक-बाहरी रूप से जमा किया जा सके और उन्हें शामिल किया जा सके. पुलिसकर्मियों और उनकी टीम के लिए धीरे-धीरे संबंध का निर्माण महत्वपूर्ण है ताकि लोगों के विश्वास को जीता जा सके क्योंकि इस काम के लिए सामाजिक संस्थान अहम भूमिका निभाते हैं. जब लोग अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी को स्वीकार करते हैं तो इससे कम्यूनिटी पुलिसिंग की प्रक्रिया और तेज़ होती है. 

कम्यूनिटी पुलिसिंग की व्यापक धारणा में तीन घटक है: सामुदायिक साझेदारी, सांगठनिक संरचना और समस्याओं को सुलझाना जो कई तरीक़ों से इसकी समझ और क्रियान्वयन को आकार देता है. इन तीनों घटकों के सर्वश्रेष्ठ मेल को हासिल करने के लिए ऊर्जा, विश्वास और संयम आवश्यक है जिससे कि कम्यूनिटी को आंतरिक-बाहरी रूप से जमा किया जा सके और उन्हें शामिल किया जा सके.

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ और इंडियन पुलिस फाउंडेशन के द्वारा आयोजित सर्वे में पाया गया कि क़ानून और व्यवस्था की तरफ़ संतोषजनक कर्तव्य के निर्वाह के बावजूद पुलिस के साथ मेलजोल रखना थकाऊ और मुश्किल हो सकता है. इसका श्रेय काफ़ी हद तक अंग्रेज़ों  द्वारा बनाये गए पुलिस अधिनियम, 1861 को जाता है. ऊपर बताये गए दोनों अध्ययन बताते हैं कि जिन क्षेत्रों ने कम्यूनिटी पुलिसिंग के मॉडल को अपना लिया है, उनमें नागरिकों के बीच सहयोग काफ़ी ज़्यादा है. राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1977) और पद्मनाभैया समिति (2000) ने पुलिस के कामकाज में एक महत्वपूर्ण हिस्से के तौर पर कम्यूनिटी पुलिसिंग की सिफ़ारिश भी की है. कम्यूनिटी पुलिसिंग की कई पहल जैसे कि महाराष्ट्र में मोहल्ला समिति, केरल में जनमैत्री, तमिलनाडु एवं गुजरात में फ्रेंड्स ऑफ पुलिस, और आंध्र प्रदेश में मैत्री ने कुल मिलाकर उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे दिए हैं. 

भारत में कम्यूनिटी पुलिसिंग के तौर-तरीक़ों का अनुभव न सिर्फ़ आतंकवाद बल्कि आतंकी विचारधारा से लड़ाई में भी विकेंद्रीकरण और सक्रिय रूप से समस्या के समाधान की कोशिश का पालन करते हैं. भारत में कट्टरपंथ एक मिथक नहीं है बल्कि ये इस्लामिक चरमपंथ के इर्द-गिर्द केंद्रित है. कम्यूनिटी पुलिसिंग की कोशिशें आम लोगों और हिंसक चरमपंथ की तरफ़ ले जाने वाली सोची-समझी प्रक्रिया के बीच एक दीवार खड़ी करती हैं. 

कट्टरपंथ से मुक़ाबला 

जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध और केरल में खाड़ी देशों के आईएसआईएस समर्थक असर के बाद उत्तर प्रदेश को भी आतंकवाद-कट्टरपंथ के संवेदनशील स्थान के रूप में गिना जाता है. अल-क़ायदा के लिए काम करने वालों की हाल के दिनों में गिरफ़्तारी के मामलों और ISIS के द्वारा दिल्ली, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना में “ख़िलाफ़त” में शामिल होने की बार-बार की अपील के बाद ख़बरों के मुताबिक़ एनआईए ने हथियार, विस्फोटक सामग्री ज़ब्त किए हैं, साथ ही जासूसी करने वाले लोगों को भी पकड़ा है. कट्टरपंथ और आतंकवाद की इस उभरती समस्या में भारत को अपनी विचारधारा के प्रचार के हिसाब से एक संभावित आधार के तौर पर देखा जाता है जिससे कि ध्रुवीकरण और सुरक्षा बलों के बारे में ख़राब सोच को बढ़ावा दिया जा सके. नौजवानों के मोहभंग की चुनौतियों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता- आतंकवादी एक व्यक्ति या कम्यूनिटी की असुरक्षा और कमी का फ़ायदा उठाते हैं. इसके बाद कट्टरपंथ के हिंसक गतिविधियों में बदलने में ज़्यादा समय नहीं लगता. 

कश्मीर घाटी में “हाइब्रिड आतंकवाद” की एक नई श्रेणी का उदय- जहां स्थानीय लोग मुख्य तौर पर ऑनलाइन आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होते हैं और उनका आतंकवाद से जुड़ा कोई पुराना रिकॉर्ड पुलिस के पास नहीं होता- नौजवानों के अलगाव और उग्रवाद के लिए स्थानीय समर्थन के बारे में बताता है. कट्टरपंथ और नौजवानों के अलगाव की समस्या के समाधान में कम्यूनिटी की भागीदारी से इनकी तरफ़ झुकाव कम होता है और इनके विरोध के लिए मज़बूत आधार मिलता है. साथ ही तलाशी और दूसरे ज़रूरी सैन्य एवं आर्थिक अभियानों में भी मदद मिलती है. इस तरह अपने क़रीबियों की चिंता के बाद भी लोग उग्रवाद की रोकथाम और कट्टरपंथ से अलग होने की प्रक्रिया में सहयोगी हो सकते हैं. ऐसा ही एक उदाहरण ऑपरेशन सद्भावना और दूसरे अभियान हैं जहां “दिल और दिमाग जीते जाते हैं”. सेना ने इन अभियानों की शुरुआत जम्मू और कश्मीर में विश्वास की कमी दूर करने और उग्रवाद से जुड़े ओवर ग्राउंड कार्यकर्ताओं की पहचान के लिए की थी और ये निश्चित रूप से सफल कोशिशें रही हैं. जम्मू और कश्मीर पुलिस बल ने भी अपनी नीतियों की प्रभावशीलता के लिए लोगों के समर्थन को आवश्यक मानना शुरू कर दिया है. शेर-ए-कश्मीर पुलिस अकादमी पुलिसकर्मियों के लिए कम्यूनिटी पुलिसिंग और पुलिस एवं आम लोगों के बीच साझेदारी समूहों के निर्माण पर कोर्स में आगे है. 

आतंकवाद का विरोध 

ग्लोबल टेररिज़्म इंडेक्स, 2017 में भारतीय सेना के केंद्रीय कमान के लेफ्टिनेंट जनरल वीके अहलूवालिया ने बताया कि सिविल सोसायटी के सहयोग के साथ एक संगठित दृष्टिकोण आतंकवाद और विद्रोह से लड़ाई के दौरान राज्य के तत्वों के समन्वय में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. 2008 की बटला हाउस की घटना और 26/11 का मुंबई हमला ऐसे दो उदाहरण हैं जहां अपराध की रोकथाम में लोगों की भागीदारी में कमी से न सिर्फ़ आम अविश्वास उत्पन्न होता है बल्कि हिंसक गतिविधियों में छानबीन और डाटा इकट्ठा करने में भी रुकावट आती है. अगर ऐसा नहीं होता तो आतंकवादी गतिविधियों की कड़ियों को जोड़ने में मदद मिलती. कम्यूनिटी आधारित पुलिसिंग आतंकवाद विरोधी नीतियों को बनाने, उनके क्रियान्वयन और मूल्यांकन में लोगों की भागीदारी, समर्थन और उनके विश्वास पर निर्भर करती है ताकि उनकी प्रभावशीलता में सुधार किया जा सके. स्थानीय निवासी सोशल मीडिया, ‘पड़ोस पर नज़र’ और संस्थाओं के ज़रिए सूचना और खुफ़िया जानकारी के बड़े स्रोत होते हैंहमेशा पहला जवाब देने के तौर पर स्थानीय लोग कड़ी नज़र रखते हैं और अपने क्षेत्र में कुछ निश्चित ख़तरों एवं कमज़ोरियों की पहचान में मदद करते हैं. यहां तक अधिकारी शायद नहीं पहुंच सकते हैं. ये दृष्टिकोण अंतर-सरकारी और अंतर-एजेंसी सहयोग को और भी मज़बूत करता है यानी संपूर्ण समाधान के साथ हाज़िर होने में मदद. 

दिल्ली पुलिस आतंकवाद के ख़िलाफ़ तैयारी के लिए लोगों को हिस्सेदार बनाने की पहल जैसे निगहबान, आइज़ एंड ईयर्स और युवा चला रही है. पिछले साल त्योहारों के समय के दौरान आतंकवादी हमले की रिपोर्ट मिलने के बाद दिल्ली पुलिस ने रेज़िडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए), अमन कमेटी और ‘आइज़ एंड ईयर्स स्कीम’ के हिस्सेदारों के साथ बैठक की. इसी तरह केरल पुलिस ने कम्यूनिटी पुलिसिंग की अपनी प्रमुख योजना जनमैत्री सुरक्षा परियोजना के ज़रिए आतंकवाद और कट्टरपंथ को रोकने का काम किया है. केरल पुलिस की विज़न 2030 योजना भविष्य के लिए एक रोड मैप सामने रखती है जिसमें पुलिस और कम्यूनिटी के बीच संबंधों को बढ़ावा देने के लिए तकनीक के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया गया है, ख़ास तौर पर तटीय क्षेत्रों में. दूसरी तरफ़ ओडिशा 18 से ज़्यादा समुद्री पुलिस थानों में मछुआरा समुदाय के समर्थन से तटीय सुरक्षा सुनिश्चित करता है. 

आतंकवाद के ख़िलाफ़ कम्यूनिटी पुलिसिंग साफ़ तौर पर किसी हिंसक हमले के बाद उसके असर को कम करने में उपयोगी रही है. कम्यूनिटी पुलिसिंग की तर्ज पर स्थापित मुंबई की मोहल्ला कम्यूनिटी अलग-अलग समुदायों और पुलिस के बीच खुली बातचीत के केंद्र के रूप में काम करती है, ख़ास तौर पर सांप्रदायिक सद्भावना के लिए जिसमें नियमित बातचीत होती है, त्योहारों को साथ मनाया जाता है और बच्चों एवं युवाओं के लिए सुविधाओं का इंतज़ाम किया जाता है. इसी तरह पंजाब पुलिस ने पठानकोट हमले के बाद कम्यूनिटी पुलिसिंग की स्थापना करने के लिए ठोस क़दम उठाए. पंजाब पुलिस ने भी अपनी परियोजना ‘सांझ’ का विस्तार आतंकवाद के बाद स्थिरता के लिए किया है. 

भारत में, जो कि एक ‘क्रियाशील लोकतंत्र’ है, कम्यूनिटी पुलिसिंग कट्टरपंथ और आतंकवाद के ख़िलाफ़ मुक़ाबला करने में काफ़ी हद तक राज्य और ज़िला स्तर तक सीमित है. आम लोगों को खुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने और सहयोगपूर्ण कोशिशों में लगाया गया है ताकि आतंकवाद के ख़िलाफ़ वो अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी के मुताबिक़ काम कर सकें.

सारांश ये है कि कम्यूनिटी केंद्रित पुलिसिंग एक वैकल्पिक पुलिसिंग है जो कि पारदर्शी होने के साथ-साथ इसमें शामिल समुदायों के लिए समावेशी है. कम्यूनिटी पुलिसिंग सुरक्षा बलों पर बिना कोई अतिरिक्त बोझ डाले अपराध नियंत्रण का काम करती है. भारत में, जो कि एक ‘क्रियाशील लोकतंत्र’ है, कम्यूनिटी पुलिसिंग कट्टरपंथ और आतंकवाद के ख़िलाफ़ मुक़ाबला करने में काफ़ी हद तक राज्य और ज़िला स्तर तक सीमित है. आम लोगों को खुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने और सहयोगपूर्ण कोशिशों में लगाया गया है ताकि आतंकवाद के ख़िलाफ़ वो अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी के मुताबिक़ काम कर सकें. कम्यूनिटी पुलिसिंग को कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ लड़ाई में सबसे पहले कम्यूनिटी में मौजूदा असुरक्षा की भावना का समाधान करना होगा. ये काफ़ी हद तक एक मददगार प्रणाली के तौर पर काम करती है. जम्मू और कश्मीर में ‘दिल और दिमाग़ जीतने’ के अभियान ने घाव भरने का काम तो किया है लेकिन अवसरों की कमी और लगातार सैन्य अभियानों की वजह से इस तरह की पहल का असर जल्द ही ख़त्म हो जाता है. साथ ही दूसरे राज्यों में कम्यूनिटी पुलिसिंग के कार्यक्रम की शुरुआत आम लोगों के साथ संबंधों को विकसित करने के उद्देश्य के साथ की गई थी और ये संबंध आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक हथियार के तौर पर आगे बढ़ रहा है. आंतरिक सुरक्षा परिस्थितियों से निपटने में पुलिस एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और आतंकवाद विरोधी दस्तों को परंपरागत तौर-तरीक़ों के अनुरूप कम्यूनिटी की हिस्सेदारी वाले मॉडल में प्रशिक्षण की ज़रूरत है. 

इस तरह व्यापक स्तर पर आतंकवाद की विचारधारा का मुक़ाबला करने के लिए सुरक्षा बलों और आम लोगों के बीच सहजीवी संबंध बनाने में भारत की महत्वपूर्ण कोशिशें एक असरदार औज़ार साबित होने जा रहा है. 

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