2014 में जब सरकार बिजली संशोधन विधेयक लेकर आई तो लोगों में इसे लेकर गज़ब का जोश था. लोगों को लगा कि अब उनके पास भी बिजली खरीदने के लिए अलग-अलग विकल्प होंगे. हालांकि ये विधेयक अब तक कानून नहीं बन सका है लेकिन उपभोक्ताओं ने सोचा कि जिस तरह वो अपना पुराना फोन नंबर बरकरार रखते हुए मोबाइल कंपनियां बदल लेते हैं, वैसा ही बिजली को लेकर भी होगा. वो भी सरकारी बिजली कंपनियों की जगह उन निजी कंपनियों को चुन सकेंगे, जो सस्ती बिजली देंगे. इस विधेयक को लाने के पीछे सरकार और विद्युत नियामक संस्थाओं का मकसद भी ये था कि इससे बिजली कंपनियों के बीच प्रतियोगिता बढ़ेगी. बिजली सस्ती होगी और ये कंपनियां अपने उपभोक्ताओं को बिजली के साथ-साथ इससे जुड़ी कुछ और सुविधाएं भी देंगी. लेकिन हकीकत ये है कि बिजली कंपनियों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाना उतना आसान नहीं है, जितना दूरसंचार कंपनियों के लिए था क्योंकि बिजली वितरण का क्षेत्र दूरसंचार उद्योग से काफी अलग है. बिजली के मामले में आपको मांग और पूर्ति के बीच तुरंत (रियल टाइम) संतुलन बैठाना होता है. इतना ही नहीं बिजली कंपनियां को बिजली खरीद का फैसला दीर्घकालिक मांग और आपूर्ति को ध्यान में रखकर करना होता है, ना कि किसी क्षेत्र विशेष या फिर उपभोक्ताओं की रुचि के हिसाब से. अगर बिजली उपभोक्ताओं के व्यवहार में इस तरह से परिवर्तन नहीं आता, जैसा बिजली कंपनियों ने अनुमान लगाया था. अगर उपभोक्ता अपनी बिजली कंपनियों को नहीं बदलता तो फिर इस क्षेत्र का निजीकरण और प्रतियोगी बनाने के वैसे नतीजे नहीं आएंगे, जैसी उम्मीद बिजली संशोधन विधेयक बनाते समय की गई थी.
प्रतिस्पर्धात्मक बिजली वाला क्षेत्र
जिस देश में बिजली खरीद और वितरण के बाज़ार में बिजली कंपनियों के बीच पूरी प्रतिस्पर्धा होती है, वहां ये माना जाता है कि बिजली वितरण कंपनियां उपभोक्ताओं की बिजली के उपभोग के हिसाब से उस दर पर बिजली खरीद सकती हैं. लेकिन दिक्कत ये है कि अगर बिजली उपभोक्ता अपने सामने मौजूद विकल्पों का इस्तेमाल नहीं करता तो फिर उसे इनका फायदा नहीं मिलेगा. अगर लोगों को विकल्पों का चुनाव करने की आदत ना हो तो फिर वो उस कंपनी को भी नहीं चुनते जो कम कीमत पर बिजली दे रही हो. कई परिवार इसलिए भी नई कंपनी नहीं चुनते क्योंकि उनका पुरानी बिजली कंपनी के साथ, उस ब्रांड के साथ भावनात्मक लगाव हो जाता है. फिर भले ही वो कंपनी महंगी बिजली दे रही हो. इन सब वजहों से भी ग्राहकों को इसका फायदा नहीं मिलता.
अगर उपभोक्ता अपनी बिजली कंपनियों को नहीं बदलता तो फिर इस क्षेत्र का निजीकरण और प्रतियोगी बनाने के वैसे नतीजे नहीं आएंगे, जैसी उम्मीद बिजली संशोधन विधेयक बनाते समय की गई थी.
पश्चिमी देशों में भी इस तरह के कई उदाहरण हैं, जहां उपभोक्ताओं के उदासीन रवैये की वजह से उन्हें बिजली खरीद के मामले में फायदा नहीं मिला. न्यूज़ीलैंड, अमेरिका, ब्रिटेन, नॉर्वे, स्वीडन और ऑस्ट्रेलिया ने बिजली के क्षेत्र में 1980 के दशक में ही सुधारों की शुरुआत कर दी थी. इन सुधारों का मकसद ये था कि बिजली के क्षेत्र में एकाधिकार खत्म हो, प्रतियोगिता बढ़े. ग्राहकों को लाभ पहुंचे लेकिन इसे सीमित सफलता ही मिली क्योंकि ज्यादातर बिजली उपभोक्ता अपनी कंपनी बदलने को तैयार नहीं थे
नॉर्वे और ब्रिटेन में बिजली सुधारों की शुरुआत सबसे पहले हुई. इसलिए यहां इस बात का अध्ययन किया गया कि फायदा मिलने की संभावना होने के बावजूद उपभोक्ता बिजली कंपनी क्यों नहीं बदलते. ज्यादातर अध्ययनों में ये पाया गया कि अगर बिजली क्षेत्र में किए गए सुधारों में उपभोक्ता शामिल नहीं होते तो फिर इससे समस्याएं खड़ी होती हैं. ब्रिटेन के बिजली मार्केट को दुनिया में सबसे परिपक्व और पारदर्शी माना जाता है लेकिन यहां भी ये देखा गया कि कई उपभोक्ताओं ने सबसे बेहतर कंपनी की बजाए उन कंपनियों को चुना जो महंगी बिजली दे रही हैं. ब्रिटेन की विद्युत नियामक संस्था ऑफजेम ने 2011 में ये पाया कि बिजली के बाज़ार में प्रतियोगिता में कमी आई है. उपभोक्ताओं द्वारा बिजली कंपनियों में कम अदला-बदली की गई है. इसकी एक वजह विद्युत नियामक संस्था द्वारा बार-बार दखल देने को माना गया.
नॉर्वे में तो देखा गया कि यहां कुछ बिजली कंपनियों के बीच कड़ी प्रतियोगिता है तो कुछ कंपनियों का इस हद तक एकाधिकार है कि वो ग्राहकों का शोषण कर सकती हैं. फिर भी कई उपभोक्ता इन कंपनियों को झेल रहे हैं. हैरानी की बात ये थी कि प्रतियोगिता वाले मार्केट और एकाधिकार वाले बाज़ार दोनों जगह टॉप-3 कंपनियों की बाज़ार हिस्सेदारी 70 फीसदी तक थी. हालांकि इस दौरान कुछ कंपनियों ने इस क्षेत्र में नए प्रयोग किए. कुछ अतिरिक्त सुविधाएं दी लेकिन पूरे अध्ययन के बाद ये पाया गया कि एक प्रतियोगी बिजली बाज़ार तभी सफलता से काम कर सकता है जब बिजली उपभोक्ताओं को इनके बारे में जानकारी हो. वो लगातार इस बात की जांच करते रहें कि कौन सी कंपनी उनकी जरूरत के हिसाब से फिट बैठ रही है और फिर इसके बाद लोग इन कंपनियों से जुड़ने के लिए तैयार हों.
ज्यादातर अध्ययनों में ये पाया गया कि अगर बिजली क्षेत्र में किए गए सुधारों में उपभोक्ता शामिल नहीं होते तो फिर इससे समस्याएं खड़ी होती हैं.
न्यूज़ीलैंड ने बिजली के क्षेत्र में प्रतियोगिता की शुरुआत 1998 में की. इसका मकसद ग्राहकों के सामने ज्यादा विकल्प पेश करना, बिजली कंपनियों में नए प्रयोगों को बढ़ाना और बिजली दरों को कम करना था. लेकिन 2009 में जब एक मंत्री स्तरीय समिति ने इस बिजली मार्केट का अध्ययन किया तो ये पाया कि ग्राहकों में बिजली कंपनियां बदलने को लेकर खास उत्साह नहीं है. इसका नतीजा ये हुआ कि बिजली कंपनियों ने अपनी सेवाओं में ज्यादा सुधार नहीं किया और उपभोक्ताओं को बिजली कंपनियों के बीच प्रतिद्वंद्विता का फायदा नहीं मिला, खासकर घरेलू उपभोक्ताओं को. इस अध्ययन में ये भी पाया गया कि ज्यादातर उपभोक्ता अपनी पुरानी बिजली कंपनियों के साथ ही बने रहे जबकि दूसरी कंपनियां सस्ती दरों पर बिजली दे रहीं थीं. सरकार की तरफ से बिजली कंपनियां बदलने को बढ़ावा देने के लिए खास वेबसाइट डिजाइन की गई, जहां जाकर लोग आसानी से अपनी बिजली कंपनियां बदल सकते थे. जो कंपनी सस्ती बिजली दे रही है, उसकी सेवा ले सकते थे. सरकार ने इस वेबसाइट का काफी प्रचार भी किया लेकिन फिर भी ज्यादातर लोगों ने अपनी पुरानी बिजली कंपनी नहीं बदली. खास बात ये है कि इस दौरान कुछ कंपनियों ने अपनी बिजली दर बढ़ाई, उनकी तुलना में सस्ती बिजली देने वाली कंपनियां मौजूद थीं. फिर भी लोगों ने बिजली कंपनी नहीं बदली. 1985 से 2010 के बीच आवासीय बिजली की दरों में काफी बढ़ोतरी हुई लेकिन फिर भी ग्राहकों ने नई बिजली कंपनियों को नहीं चुना जबकि वो काफी कम कीमत में बिजली दे रहीं थी. उपभोक्ताओं ने कंपनी नहीं बदली तो महंगी बिजली दे रही कंपनियों पर कोई दबाव नहीं पड़ा. उन्होंने अपनी सेवाओं में सुधार नहीं किया.
2002 में टेक्सास के लोगों को अपनी पसंद की बिजली कंपनियों को चुनने का विकल्प दिया गया. शुरू में सभी घरों को पुरानी कंपनी से ही कनेक्शन दिया गया. इसके बाद हर महीने इन परिवारों को बिजली मार्केट में आ रही नई कंपनियों को चुनने का विकल्प दिया गया. पुरानी कंपनी की बिजली महंगी थी, नई कंपनियों की बिजली सस्ती थी. फिर भी ज्यादातर लोगों ने नई कंपनियों को नहीं चुना. अगर ये लोग नई कंपनियों को चुनते तो उनके बिल में 8 प्रतिशत बचत होती लेकिन लोगों ने ऐसा नहीं किया. इस योजना के लागू होने के 4 साल बाद भी महंगी बिजली दे रही पुरानी कंपनी की बाज़ार हिस्सेदारी 60 फीसदी की रही
भारत के लिए चुनौतियां
भारत के ज्यादातर घरों में पुराने बिजली मीटर लगे हैं. महीने या 2 महीने में एक बार इन मीटरों की जांच कर ये नोट किया जाता है कि उपभोक्ता ने कितना बिजली खर्च की है. उपभोग की गई बिजली यूनिट के अलावा हर किलोवाट का अलग से बिल बनता है. ज्यादातर इलाकों में बिजली वितरण कंपनी का एकाधिकार होता है और उनके बिजली खरीद समझौते बहुत लंबे वक्त के लिए होते हैं. ज्यादातर वितरण कंपनियां बिजली खरीद का हिसाब उपभोक्ता के व्यक्तिगत उपभोग के हिसाब से नहीं बल्कि उस पूरे इलाके के लोगों के उपभोग से लगाती हैं. इसी अनुमान या सूचना के आधार पर वितरण कंपनियां बिजली खरीदने का फैसला करती है. चूंकि ज्यादातर घरों में पारम्परिक बिजली मीटर लगे होते हैं और बिजली का बिल हर महीने या 2 महीने के हिसाब से आता है, इसलिए उपभोक्ता में इस चीज को लेकर कोई खास उत्साह नहीं होता कि वो उच्चतम और निम्नतम बिजली उपभोग वाले समय पर मीटर रीडिंग ले. ऐसे में ना तो वितरण कंपनी और ना ही उपभोक्ता, बिजली खरीद का फैसला अलग-अलग वक्त पर उपभोग की गई बिजली के हिसाब से लेते हैं. चूंकि बिजली का बिल बनाने का आधार उच्चतम और निम्नतम उपभोग वाला समय नहीं होता, ऐसे में उपभोक्ता उसी वक्त सबसे ज्यादा बिजली खर्च करता है, जिस वक्त इसकी सबसे ज्यादा मांग होती है, जैसे कि आपने देखा होगा लोग देर रात की बजाए देर शाम को ज्यादा बिजली इस्तेमाल करते हैं. अगर बिजली का बिल उच्चतम और निम्नतम मांग के वक्त के मुताबिक बने यानी जिस वक्त बिजली की मांग ज्यादा होती है, उस दौरान बिजली उपभोग की दर महंगी हो और जब बिजली की मांग कम हो तब इसके उपभोग की दर सस्ती हो तो हो सकता है कुछ उपभोक्ता अपने बिजली उपभोग करने के वक्त में बदलाव करें. इससे बिजली वितरण कंपनियों की लागत भी कम होगी और बिजली उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा, लेकिन अगर भारत में बिना किसी तैयारी के वितरण कंपनियों के बीच प्रतियोगिता शुरू की जाएगी तो इससे शायद उपभोक्ताओं को फायदा नहीं होगा. बिजली कंपनी बदलने में होने वाले खर्च और इस पूरी कार्रवाई में लगने वाले समय को देखते हुए लोग कंपनी बदलने से परहेज करेंगे. फिलहाल भारत में जो स्थिति है, उसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि अगर भारत में बिजली के क्षेत्र में प्रतिद्वंदिता शुरू की जाती है तो मुकाबला बिजली की खरीद-फरोख्त करने वाली कंपनियों के बीच होगा ना कि लोगों को बिजली देने वाली कंपनियों के बीच, जबकि पश्चिमी देशों में इसका उल्टा होता है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.