Published on Jan 25, 2021 Updated 0 Hours ago

भारतीय सेंसेक्स के 50000 पर पहुंचने के तीन प्रमुख आयाम हैं – कंपनियों के बेहतर प्रदर्शन का अर्थ भारतीय अर्थव्यवस्था की मज़बूती, निवेश के बेहतर वातावरण में  इक्विटी (प्रतिभूतियों) को परखा जाना और लंबे समय में भारत की आर्थिक क़ामयाबी की कहानी का बाहर निकल कर आना.

50 हज़ार के पार सेंसेक्स; तीन ट्रेंड की ओर इशारा

21 जनवरी 9 बजकर 16 मिनट पर भारतीय सेंसेक्स ने पहली बार 50 हज़ार के स्तर को पार किया. यह ऐतिहासिक लम्हा था जब बाज़ार ने पिछले 12 महीने में 21.6 फ़ीसदी या 8,887 प्वाइंट की छलांग दर्ज़ की थी. हालांकि पिछले 12 महीने अर्थव्यवस्था के लिए तमाम दुश्वारियों से भरे थे – अर्थव्यवस्था के हर सेक्टर में इससे पहले कभी ना देखी जाने वाली अनिश्चितताएं थी, कोई भी सेक्टर इससे अछूता नहीं था, जीडीपी में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज़ की गई थी और तो और पूरी दुनिया मंदी की चपेट में दिख रही थी. उत्पादों के विक्रय में ज़बरदस्त कमी आने से लेकर नौकरियों के ख़त्म होने और सैलरी में ताबड़तोड़ कटौती तक अर्थव्यवस्था में हर वो ग़लत चीज़ें हो रही थीं जो हो सकती थीं.

बावज़ूद अर्थव्यवस्था के ऐसे ख़तरनाक वक़्त में भी सेंसेक्स लगातार एक के बाद एक ऊंचाई दर्ज़ करता गया. यह सही है कि दो महीने यानी 24 जनवरी 2020 से लेकर 24 मार्च 2020 के बीच बाज़ार के कुल वैल्यू में ज़बरदस्त कमी आई जब सेंसेक्स एक तिहाई या 35.9 प्वाइंट से औंधे मुंह गिरा. यह कोरोना महामारी के दुष्परिणामों के पहले आने के संकेत की ओर इशारा कर रहा था. लेकिन इसके बाद तमाम उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच सेंसेक्स में लगातार तेज़ी देखी गई. 24 मार्च के बाद से सेंसेक्स में 87.4 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी देखी गई, और अगर सेंसेक्स अब 6.7 फ़ीसदी या फिर 3,348 प्वाइंट से आगे बढ़ता है तो इसका मतलब यह होगा कि एक साल के अंदर ही सेंसेक्स दोगुनी तेज़ी दर्ज़ कर लेगा.

सर्वाधिक प्रदर्शन केवल स्थिरांक है. इस लिहाज़ से सेंसेक्स के सूचकांक को निर्धारित करने वाली 30 कंपनियां और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज एनएससी के सूचकांक का निर्माण करने वाली 50 कंपनियां भारत की वो कंपनियां हैं जिसका प्रदर्शन बेहतर है. 

और बाज़ार में ऐसी तेज़ी सभी तर्कों को आधारहीन साबित कर देगा.

क्या ऐसा हुआ है?

इस आंकड़े को देखने के तीन तरीके हैं.

पहला, यह बताता है कि सेंसेक्स के अंतर्निहित जो संपत्तियां हैं उनमें कैसे बदलाव आता है. वर्ष 1985 से 2021 के बीच सेंसेक्स की संरचना में 35 बार बदलाव दर्ज़ किया गया है. मतलब यह हुआ कि सेंसेक्स के सूचकांक में जो कंपनियां शामिल हैं वो कभी इसमें शामिल रहीं तो कभी इससे बाहर निकल गई जिसकी कई वज़ह हैं, जिसमें कभी कंपनी का प्रदर्शन तो कभी किसी विशेष सेक्टर के प्रति कंपनी का आकर्षण शामिल है. हालत ये है कि वर्ष 1985 में सेंसेक्स के सूचकांक में जितनी कंपनियां शामिल थीं उनमें से महज़ छह कंपनियां ही आज बची हुई हैं – हिंदुस्तान यूनिलीवर, आईटीसी, एल एंड टी, महिन्द्रा एंड महिन्द्रा, नेस्ले और रिलायंस इंडस्ट्रीज़. कल तक बाज़ार में जिन कंपनियों का बोलबाला था जैसे एसीसी, बॉम्बे डायिंग या सेंचुरी स्पिनिंग अब बाज़ार में उनकी कोई अहमियत नहीं बची है. वैसे क्षेत्र जिनका कल भविष्य है उससे जुड़ी कंपनियां जैसे टीसीएस, सन फॉर्मास्युटिकल्स और एचडीएफसी अब बाज़ार में नए सिरे से क़ामयाबी की कहानियां लिख रही हैं.

हालांकि, जो कंपनियां सेंसेक्स के सूचकांक का पहले निर्माण करती थीं उनके बाहर जाने का अर्थ ये कतई नहीं हुआ कि ये कंपनियां खराब हैं. इसका बस इतना अभिप्राय है कि निवेशकों को अब लगता है कि ये कंपनियां उन्हें उनके निवेश से उतना फ़ायदा नहीं दे पाएंगी जितना कि दूसरी कंपनियां दे सकेंगी. दरअसल, कंपनियों के कुल वैल्यूएशन का मतलब निवेशकों की सामूहिक अपेक्षाओं की सक्रियता होती है. सर्वाधिक प्रदर्शन केवल स्थिरांक है. इस लिहाज़ से सेंसेक्स के सूचकांक को निर्धारित करने वाली 30 कंपनियां और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज एनएससी के सूचकांक का निर्माण करने वाली 50 कंपनियां भारत की वो कंपनियां हैं जिसका प्रदर्शन बेहतर है. हालांकि, हो सकता है कि एक छोटी कंपनी व्यक्तिगत स्तर पर बेहतर रिटर्न मुहैया कराए लेकिन मुमकिन है कि इसी कंपनी के पास घरेलू और वैश्विक निवेशकों की ताकत को समाहित करने की क्षमता नहीं हो.

पिछले 12 महीनों में भारतीय कंपनियों के मार्केट कैपिटलाइजेशन में जीडीपी से ज़्यादा की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. ऐसे में भविष्य में जीडीपी में बढ़ोतरी दर्ज़ होती है या फिर कंपनियों की वैल्यू में कमी होती है ये देखने वाली बात होगी. 

दूसरा, यह बताता है कि कैसे निवेश काम करता है. जब निवेश में उसके वैल्यू की एक तिहाई की कमी दर्ज़ की जाती है तो ज़्यादातर निवेशक यह सोचकर अपने शेयरों की बिकवाली करने लगते हैं कि आगे भी ऐसी ही गिरावट दर्ज़ की जा सकती है और बाज़ार में ऐसी गिरावट दहला देने वाली हो सकती है. लेकिन मेड इन चाइना वायरस के चलते बाज़ार में जो गिरावट दर्ज़ की गई वह साल 2007 के अंत में बाज़ार में जो हुआ था उसके मुक़ाबले कुछ भी नहीं था. 2007 दिसंबर और मार्च 2009 के बीच 27 महीनों में सेंसेक्स के वैल्यू में 59.9 फ़ीसदी की लगातार गिरावट दर्ज़ की गई. ट्रांस-अटलांटिक वित्तीय संकट के दौरान यह आंकड़ा 20,287 से घटकर 8,198 पर पहुंच गया. हालांकि, अगले 19 महीनों में सेंसेक्स 2.5 गुना तेज़ी से बढ़ा और 20000 प्वाइंट पर पहुंच गया. लेकिन आप अगर शेयर बाज़ार की ऐसी परिवर्तनशीलता के लिए तैयार नहीं हैं तो बेहतर यही होगा कि आप बाज़ार से दूरी बनाए रखें. अगर आपकी नींद उड़ जाए तो कोई भी रिटर्न बेहतर नहीं कहा जा सकता है.

सेंसेक्स का जादू इस बात में समाहित है कि निवेशक इसे दीर्घकालिक संपत्ति के तौर पर देखें. 3 अप्रैल 1979 में इसकी शुरुआत होने के बाद से पिछले चार दशकों की अवधि के दौरान पांच साल की ऐसी कोई अवधि नहीं रही है जिसमें सेंसेक्स के वैल्यू में रिकवरी नहीं हुई हो. आप इस समय सीमा को बढ़ाकर देखेंगे तो पाएंगे कि सेंसेक्स ने अपने प्रदर्शन की बदौलत हर बार नई बुलंदी छुई है. अगर हम पिछले 10 साल की अवधि की ओर देखें तो सेंसेक्स में सबसे कम वार्षिक संयोजित विकास दर 9.6 फ़ीसदी दर्ज़ की गई है जो फ़िक्स्ड डिपॉज़िट के मुक़ाबले कई गुना ज़्यादा है. पिछले 12 महीने में 21.6 फ़ीसदी की तेज़ी के अलावा (शेयरों में तेज़ी का आकलन करने के लिए 12 महीने का वक्त मुफ़ीद नहीं माना जाता है) सेंसेक्स ने सबसे ज़्यादा छलांग दूसरे, चौथे और पांचवें साल में दर्ज़ किए हैं. हैरान करने वाली बात तो ये है कि पिछले 9 सालों में सेंसेक्स बाज़ार में 1 लाख निवेश ने करीब करीब 3 गुना 2,98,720 रिटर्न दिया है.

सेंसेक्स रिटर्न्स
समय अवधि सेंसेक्स में तेजी* 100रु. की वैल्यू
1 वर्ष 21.6% 121.61
2 वर्ष 16.9% 136.70
3 वर्ष 11.8% 139.68
4 वर्ष 16.6% 184.96
5 वर्ष 15.8% 208.67
6 वर्ष 9.6% 173.08
7 वर्ष 13.4% 241.55
8 वर्ष 12.1% 248.74
9 वर्ष 12.9% 298.72
10 वर्ष 10.2% 263.06
* सीएजीआर

और तीसरी बात यह है कि सेंसेक्स बाज़ार भारतीय अर्थव्यवस्था के कद को भी दर्शाता है. हो सकता है कि बाज़ार का मूल्य निवेशकों की अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं हो. पुराने आंकड़ों पर आधारित यह उच्च और निम्न भी हो सकता है लेकिन कुल मिलाकर सेंसेक्स के सूचकांक को निर्धारित करने वाली 30 कंपनियों का बाज़ार मूल्य भारत के सकल घरेलू उत्पाद के संदर्भ में लगातार बढ़ता ही जा रहा है. भारत की जीडीपी 1.82 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी जबकि बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध सभी कंपनियों के मार्केट कैपिटलाइजेशन का आंकड़ा 1.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था. जबकि 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की जीडीपी में मार्केट कैपिलाइटेजेशन 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था. ऐसे में कहा जा सकता है कि शेयर बाज़ार ज़्यादातर भारत की सकल घरेलू उत्पाद के अनुकूल है.

पिछले 12 महीनों में भारतीय कंपनियों के मार्केट कैपिटलाइजेशन में जीडीपी से ज़्यादा की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. ऐसे में भविष्य में जीडीपी में बढ़ोतरी दर्ज़ होती है या फिर कंपनियों की वैल्यू में कमी होती है ये देखने वाली बात होगी. अगर ऐतिहासिक ट्रेंड का विश्लेषण किया जाए तो 34.4 गुना सेंसेक्स के मौज़ूदा करेंट प्राइस टू अर्निंग्स पिछले दशक में औसत प्राइस टू अर्निंग्स से 10 प्वाइंट ज़्यादा है. यह 2013 में 17.1, 2015 में 18.7, 2017 में 20.6, और 2019 में 23.7 थी. प्राइस टू अर्निंग्स के 34.4 गुना ज़्यादा रहने का अर्थ है कि 30 कंपनियों की कमाई में एक तिहाई की बढ़ोतरी होनी चाहिए. अर्थव्यवस्था में पिछले 12 महीनों में आई सुस्ती और वैक्सीन के बाद अर्थव्यवस्था में कम स्तर की आने वाली तेज़ी से मुमकिन है कि भविष्य में कंपनियों की कमाई में बढ़ोत्तरी हो लेकिन यह निश्चित भी नहीं है.

ऐसे में सेंसेक्स के 50000 प्वाइंट छूने के तीन आयाम प्रमुख हैं– कंपनियों के बेहतर प्रदर्शन का अर्थ भारतीय अर्थव्यवस्था की मज़बूती, निवेश के बेहतर वातावरण में इक्विटी (प्रतिभूतियों) को परखा जाना और लंबे समय में भारत की आर्थिक क़ामयाबी की कहानी का बाहर निकल कर आना. इसके साथ ही वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में तरलता आने के बाद निवेश के नए विकल्पों की तलाश, सिस्टमेटिक इनवेस्टमेंट प्लान के ज़रिए घर घर तक बाज़ार के रिटर्न का पहुंचना और वैक्सीन से नई उम्मीद और आशा का पैदा होने के आलोक में सेंसेक्स के 50000 प्वाइंट पहुंचने की कहानी अचानक समझ से परे नहीं लगती है.

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