Published on Dec 01, 2023 Updated 0 Hours ago

जो उपलब्ध है, उसके साथ आगे बढ़ना सर्वश्रेष्ठ विकल्प के लिए अनंत काल तक इंतज़ार करने से बेहतर है. इस तरह, ब्लू हाइड्रोजन के साथ शुरुआत करना भारत के ऊर्जा परिवर्तन की रफ्तार बढ़ाने के लिए आदर्श स्थिति होगी.

कोयले से बिजली उत्पादन में परिवर्तन का रियलिटी चेक

कोयला खनन और कोयला आधारित बिजली उत्पादन को चरणबद्ध ढंग से कम करने के मामले में ऊर्जा परिवर्तन के अनुमान अनिश्चित बने हुए हैं. हैरानी की बात नहीं है कि ये भारत के लिए परिवर्तन का सबसे कठिन हिस्सा है क्योंकि कोयला भंडार ही इकलौता जीवाश्म ईंधन का स्रोत है जो भारत में भरपूर मात्रा में है. दुनिया के कुल कोयला उत्पादन में 10 कोयला उत्पादकों का हिस्सा 90 प्रतिशत है- चीन- 50 प्रतिशत, भारत- 10 प्रतिशत, इंडोनेशिया- 7 प्रतिशत, अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया- 6 प्रतिशत, रूस- 5 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका- 3 प्रतिशत. जर्मनी, पोलैंड और कज़ाखस्तान छोटे उत्पादक हैं. इन देशों में केवल चीन और भारत में घरेलू ऊर्जा स्रोत के तौर पर कोयले का दबदबा है.

यूक्रेन युद्ध के बाद ऊर्जा के स्रोतों कोमज़बूतकरने का रुझान औद्योगिक क्षेत्र में कोयले के लगातार इस्तेमाल को प्राथमिकता देने और कोयला आधारित बिजली के द्वारा भविष्य में 2050 तक रिन्यूएबल (नवीकरणीय) इलेक्ट्रिसिटी हेवी ग्रिड को स्थिर करने की तरफ इशारा करेंगे. सौर और पवन ऊर्जा के लिए भारत की क्षमता महत्वपूर्ण है. समस्या उनकी सप्लाई की बुनियादी परिवर्तनशील संरचना है. सप्लाई में अंतर को नाकामी से सुरक्षित और उम्मीद के मुताबिक बिजली सप्लाई से पूरा करने एवं ग्रिड को मज़बूत करने की आवश्यकता है. इन दोनों ही काम में महत्वपूर्ण रूप से नया निवेश चाहिए.

CCUS एक सिद्ध की जा चुकी लेकिन बड़े पैमाने पर इस्तेमाल नहीं की गई तकनीक है जो कि कोयला खनन और कोयले से बिजली उत्पादन को जलवायु कार्रवाई का पालन करने वाला बना सकती है.

बाधाएं

तेज़ी से गैस आधारित बिजली उत्पादन को बढ़ाना सप्लाई में कमी को पूरा करने का एक आदर्श समाधान होता. लेकिन भारत में घरेलू गैस भंडार कम है और इसका आयात करना आत्मनिर्भरता के मामले में मज़बूती के नियम का उल्लंघन करता है. पंप्ड हाइड्रो स्टोरेज बाद के समय में सप्लाई में मदद कर सकती है. इसका ये मतलब है कि सरप्लस बिजली को ज़्यादा मांग के समय (पीक आवर) के लिए बचाना. ये अपेक्षाकृत सस्ती भी है लेकिन इसकी घरेलू क्षमता सीमित है. इसलिए ग्रिड-स्केल बैटरी स्टोरेज के लिए तलाश जारी है. ये व्यावसायिक रूप से उपलब्ध है लेकिन महंगी है. हालांकि उत्पादन में बढ़ोतरी होने के साथ लागत में काफी कमी सकती है और ये 2020 में 14 से 27 रुपये kWh से घटकर 2045 तक 7 से 14 रुपये kWh के बीच हो सकती है. कुल क्षमता दोगुनी होने से लागत लगभग 19 प्रतिशत कम हो जाती है. एक ज़्यादा बड़ी समस्या ये है कि बैटरी को लेकर मौजूदा केमिस्ट्री के रुझान दुर्लभ खनिजों के उपयोग को बढ़ावा देते हैं जो कि भारत में उपलब्ध नहीं हैं. ये आत्मनिर्भरता के नियम का भी उल्लंघन करता है. इस तथ्य से स्थिति और ख़राब होती है कि चीन अपनी सप्लाई चेन और रिफाइनिंग की क्षमता में दबदबे के ज़रिए दुर्लभ खनिजों तक उपलब्धता के मामले में प्रमुख स्थान रखता है. चीन-भारत संबंध के भविष्य पर दांव लगाना ऊर्जा परिवर्तन के रुझानों का अनुमान लगाने से भी ज़्यादा अनिश्चितताओं से भरी कवायद है.

CCUS के साथ कोयला- गैर-परंपरागत नीतिगत विकल्प

पर्याप्त ऊर्जा भंडारण की क्षमता के बिना नवीकरणीय ऊर्जा में बढ़ोतरी को कम करने की ज़रूरत होगी. कार्बन कैप्चर यूज़ या स्टोरेज (CCUS) के साथ कोयला आधारित बिजली बैटरी स्टोरेज का एक विकल्प पेश करती है. कोयले से उत्पन्न बिजली ग्रिड मैनेजमेंट में पहले से ही एक स्थिर करने वाली भूमिका निभाती है. इसके साथ एकमात्र समस्या कार्बन उत्सर्जन की है.

अगस्त 2020 में बिजली मंत्रालय ने 2030 तक कोयले से 100 मिलियन टन सिंथेटिक गैस उत्पादन के लक्ष्य का एलान किया. व्यावसायिक पैमाने का इकलौता CCUS प्लांट ओडिशा के अनुगुल में जिंदल स्टील वर्क्स है. कोयला मंत्रालय के अनुसार कोल इंडिया लिमिटेड के द्वारा चार परियोजनाओं की शुरुआत की जानी है जिनमें से दो परियोजनाएं BHEL के साथ ज्वाइंट वेंचर के ज़रिए अमोनियम नाइट्रेट के उत्पादन के लिए; एक परियोजना IOC के साथ डाइमिथाइल ईथर (DME) के उत्पादन के लिए और एक परियोजना GAIL के साथ सिनगैस (सिंथेटिक गैस) के उत्पादन के लिए है. इसके अलावा, नेवेली लिग्नाइट कॉरपोरेशन भी लिग्नाइट से मेथेनॉल CCUS प्रोजेक्ट शुरू करने की योजना बना रही है. प्राइवेट खदान मालिक अगर कोयले से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) हटाने या कम करने (कोल डिकार्बनाइज़ेशन) को लागू करते हैं तो उन्हें कोयला उत्पादन में सरकार केराजस्व हिस्सेमें 50 प्रतिशत की छूट की पेशकश की जा रही है.

वैश्विक स्तर पर CCUS की पड़ताल

अमेरिकी सरकार ने 1972 से अनुदान (ग्रांट) के ज़रिए CCUS तकनीकों का समर्थन किया है. इस तरह वो तेल के भंडारों में CO2 भर कर तेल निकालने की क्षमता में बढ़ोतरी कर रही है. अमेरिका में हर साल लगभग 20 मिलियन टन CO2 का इस्तेमाल या भंडारण किया जाता है. चीन भी CCUS के छोटे पायलट प्रोजेक्ट का समर्थन कर रहा है और हर साल लगभग 2 मिलियन टन CO2 का इस्तेमाल या भंडारण किया जाता है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जुलाई 2023 में एलान किया कि चीन ऊर्जा गहनता (एनर्जी इंटेंसिटी) को रेगुलेट करने के बदले खपत की कार्बन इंटेंसिटी को नियंत्रित करेगा. इस तरह संभवत: कोयले से उत्पन्न बिजली और शून्य उत्सर्जन के हिसाब से मुश्किल औद्योगिक क्षेत्रों में CCUS के लिए मांग पैदा होगी. मई 2023 में भारत सरकार के बिजली मंत्रालय ने CO2 उत्सर्जन को लक्ष्य बनाकर बाज़ार आधारित प्रोत्साहन के तौर पर कार्बन सर्टिफिकेट के लिए योजना की घोषणा की. भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख बिजली उत्पादन करने वाली कंपनी नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन (NTPC) कैप्चर्ड CO2 को मेथेनॉल में बदलने के लिए विंध्याचल (मध्य प्रदेश) में एक पायलट CCUS प्रोजेक्ट को लागू कर रही है. तेल की खोजबीन करने वाली भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख कंपनी ONGC गुजरात में एक CCUS प्रोजेक्ट की योजना बना रही है.

नवंबर 2022 में प्रकाशित नीति आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि CCUS एक सिद्ध की जा चुकी लेकिन बड़े पैमाने पर इस्तेमाल नहीं की गई तकनीक है जो कि कोयला खनन और कोयले से बिजली उत्पादन को जलवायु कार्रवाई का पालन करने वाला बना सकती है. इसमें ये भी कहा गया है किभारत की 144 मिलियन टन प्रतिवर्ष  कच्चे इस्पात की क्षमता और 210 GW कोयला आधारित बिजली क्षमता में से दो-तिहाई की उम्र 15 साल से कम है और इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है”.

ग्रीन हाइड्रोजन से पहले ब्लू हाइड्रोजन

ये CCUS के एक और उपयोग की तरफ इशारा करती है. इसके ज़रिए ब्लू हाइड्रोजन- जो कि CCUS के द्वारा CO2 उत्सर्जन के कैप्चर के ज़रिए कोयले से प्राप्त हाइड्रोजन (H2) है- को ऊर्जा के ज़्यादा इस्तेमाल वाले उद्योगों में ग्रीन हाइड्रोजन- नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके पानी के इलेक्ट्रोलिसिस से हासिल H2- से काफी पहले कोयले की जगह शामिल करके हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था को तेज़ गति से आगे बढ़ाया जा सकता है और ये 2040 के आसपास व्यावहारिक बन सकता है. मौजूदा समय में ब्लू हाइड्रोजन की लागत ग्रीन हाइड्रोजन की तुलना में एक-तिहाई है. ब्लू हाइड्रोजन से शुरुआत करके सीखा जा सकता है, पाइपलाइन जैसे सप्लाई इंफ्रास्ट्रक्चर को व्यवस्थित किया जा सकता है और ऊर्जा के ज़्यादा इस्तेमाल वाले उद्योगों, जो शून्य उत्सर्जन के हिसाब से मुश्किल हैं, में H2 के लिए मांग को बढ़ाकर ग्रीन हाइड्रोजन की ओर परिवर्तन की दिशा में बढ़ाया  जा सकता है. हालांकि इसके लिए ग्रीन हाइड्रोजन के किफायती बनने का इंतज़ार करना होगा.

अंतहीन समय तक इतज़ार क्यों?

नीति आयोग की रिपोर्ट के प्रमुख लेखक डॉ. वी. के. सारस्वत, जो कि नीति आयोग के सदस्य हैं और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) के महानिदेशक रह चुके हैं, की एक दलील है. उनके मुताबिक सर्वश्रेष्ठ विकल्प के लिए अंतहीन समय तक इंतज़ार करने के बदले उपलब्ध संसाधन के साथ आगे बढ़ना बेहतर है. रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक 750 मिलियन टन प्रतिवर्ष  की CCUS क्षमता के लिए सब्सिडी 2.1 ट्रिलियन रुपये होगी. ये भी साफ नहीं है कि बैटरी स्टोरेज या ग्रीन हाइड्रोजन के मुकाबले 2050 तक CCUS पर सब्सिडी देने में लागत के हिसाब से फायदा है या नहीं. सरकार के सामने सब्सिडी के समर्थन की लंबी सूची है. इनमें डिस्कॉम (बिजली वितरण करने वाली कंपनियां) के द्वारा बिजली ख़रीद के भुगतान में डिफॉल्ट से रिन्यूएबल बिजली में निजी निवेश को जोखिम से हटाना; यात्री परिवहन के विद्युतीकरण का समर्थन करना; सेमीकंडक्टर असेंबली की मदद करना; इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड को मज़बूत करना और बैटरी स्टोरेज के उत्पादन का समर्थन करना शामिल हैं. वित्तीय घाटा GDP के मानक 4 प्रतिशत की तुलना में 50 प्रतिशत ज़्यादा होने के साथ फिलहाल प्रमुख वित्तीय प्राथमिकता खर्च को कम करना है ताकि वित्तीय घाटे और महंगाई को कम किया जा सके. ऐसे में वित्तीय मदद के लिए सिर्फ सबसे बेहतरीन विकल्प को चुना जाना चाहिए ताकि कम-से-कम लागत में ऊर्जा परिवर्तन को सुनिश्चित किया जा सके.

नीतिगत कदम को चलते-चलते निर्धारित करने की आवश्यकता है जो अलग-अलग तकनीकों और मांग के क्षेत्रों में प्रमाणित तकनीकी-आर्थिक लेन-देन पर आधारित हो ताकि कम-से-कम लागत में ऊर्जा परिवर्तन को सुनिश्चित किया जा सके..

वित्तीय मजबूरियां कम जोखिम वाले ऊर्जा परिवर्तन की तकनीकों के चयन का अनुरोध करती हैं

अफसोस की बात है कि नीति आयोग की रिपोर्ट सरकार की वित्तीय परेशानियों को स्वीकार नहीं करती है. इसके बदले ये कोयले से उत्पन्न CO2 को कम करने के लिए कोयला सेस लगाने की बात करती है. ये तकनीकी तौर पर अच्छा सुझाव है लेकिन इससे वित्त मंत्रालय में असहज हालात बनना तय है जो कि अपूरणीय कर प्राप्तियों (नॉन-फंजिबल टैक्स रिसिप्ट) को पसंद नहीं करता है और जो सही भी है. CCUS के लिए वित्तीय प्राथमिकता पर दावे का एक मज़बूत आधार तकनीकी परिपक्वता होगी. अगर कोयले से पैदा CO2 के उत्सर्जन को हटाना 2035 तक संभव है तो बेहद ज़्यादा ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले ग्रीन हाइड्रोजन (1 kg GH2 के लिए 45 kWh की नवीकरणीय बिजली की आवश्यकता होती है) के लिए तेज़ी से बढ़ना आम लोगों की भलाई के हिसाब से समय से पहले हो सकता है. हम इलेक्ट्रोलाइज़र की दक्षता में सुधार होने और और कीमत कम होने तक का इंतज़ार कर सकते हैं क्योंकि हमारे अपनाने से पहले वो तकनीक को अपना लेंगे. इस बीच ग्रिड को हरित बनाने के लिए नवीकरणीय बिजली का आवंटन करना और मुख्य ग्रिड स्टेबलाइज़र के तौर पर CCUS का उपयोग करके कोयले से उत्पन्न बिजली को डिकार्बनाइज़ करना सबसे अच्छा होगा.

अव्यवस्थित परिवर्तन अच्छा नहीं

ऊर्जा परिवर्तन को संस्थागत रूप देने से अधिक प्रमाणित बहस और निर्णय लेने को बढ़ावा मिल सकता है. ये काम आपूर्ति पक्ष में छह मंत्रालयों, मांग पक्ष में इतने ही मंत्रालयों और राज्य सरकारों, शहरों, तकनीकी उत्कृष्टता वाले संस्थानों, उद्योग और उपभोक्ताओं के व्यापक भागीदारी समूह के बीच बांटने के मुकाबले किसी एक एजेंसी को सौंपना बेहतर है. नीतिगत कदम को चलते-चलते निर्धारित करने की आवश्यकता है जो अलग-अलग तकनीकों और मांग के क्षेत्रों में प्रमाणित तकनीकी-आर्थिक लेन-देन पर आधारित हो ताकि कम-से-कम लागत में ऊर्जा परिवर्तन को सुनिश्चित किया जा सके.

पेशेवर तौर पर कुशल और प्रशासनिक रूप से सशक्त एक अकेली एजेंसी, जिसकी तकनीकी जड़ परिवर्तन की अगुवाई करने वाले संभावित क्षेत्रों में है, दशकों तक चलने वाली एक प्रक्रिया में आवश्यक ज़ोर, विशेषज्ञता और निरंतरता लाएगी. एक संस्थागत इनोवेशन लंबे समय से बकाया है.


संजीव अहलूवालिया ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सलाहकार हैं.

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