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ये लेख हमारी सीरीज़- कॉम्प्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया ऐंड द वर्ल्ड का एक हिस्सा है.
1945 के कोलियरी कंट्रोल ऑर्डर और आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के ज़रिए भारत सरकार ने देश में कोयले के दाम पर अपना नियंत्रण 1990 के दशक तक बनाए रखा था. 1996 में भारत सरकार ने धीरे धीरे कोयले की क़ीमतों पर से अपना नियंत्रण हटाना शुरू किया. कोलियरी कंट्रोल ऑर्डर 2000 (CCO 2000) के ज़रिए भारत सरकार ने 1945 के आदेश के साथ साथ कोयले के दाम कम करने के अपने सारे अधिकार ख़त्म कर दिए. हालांकि, कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) ने खुलकर ये बात कही थी कि वो कोयले की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी से बचने के लिए इसके दाम तय करने के मामले में भारत सरकार के साथ सलाह मशविरा करती है, ख़ास तौर से निचले दर्जे के कोयले के दाम तो सरकार के साथ मशविरे के बाद ही तय किए जाते हैं, ताकि लागत वसूली जा सके. इसके पीछे तर्क ये है कि कोयले के दाम में उतार-चढ़ाव का भारत की अर्थव्यवस्था और ख़ास तौर से कोयले से बिजली बनाने पर गहरा असर पड़ता है. इसीलिए, कोल इंडिया लिमिटेड, कोयले की क़ीमत तय करने से पहले देश में महंगाई के स्तर, उत्पादन की लागत में इज़ाफ़े की वो भरपाई, जिसे कोयले की गुणवत्ता सुधारकर नहीं पूरा किया जा सकता, अपनी परियोजनाओं को मुनाफ़ा देने लायक़ बनाए रखने के लिए अंदरूनी स्रोत बढ़ाने और कुछ हद तक आयातित कोयले के दाम से भी तुलना करती है. इसका मतलब ये है कि CIL अपना कोयला जो बिजलीघरों को बेचती है, उसका दाम भारतीय कोयले (जो ई- नीलामी से बिकता है) और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार को देखकर तय करती है. हालांकि, CIL के सस्ते दाम पर कोयला बेचने का ये मतलब नहीं होता कि बिजली बनाने का ख़र्च कम हो जाता है. क्योंकि जब कोयला खदान से निकलकर बिजलीघरों तक पहुंचता है, तो इस दौरान कोयले पर दूसरे कई तरह टैक्स लग जाते हैं. ये अतिरिक्त तय लागत, जिस पर CIL का कोई नियंत्रण नहीं है, वो कोयले के कुल दाम के आधे हिस्से के बराबर होते हैं. इसका नतीजा ये होता है कि CIL निम्न स्तर के कोयले का उत्पादन और उसकी आपूर्ति प्राथमिकता के आधार पर करती है, जिससे बिजली बनाने में इस्तेमाल होने वाले कम अच्छी गुणवत्ता कोयले के दाम कम ही रहें. निचले दर्ज़े के इस कोयले का इस्तेमाल करने से कोयला आधारित बिजलीघरों से स्थानीय और वैश्विक स्तर पर प्रदूषण बढ़ता है और प्रदूषण से लड़ने का ख़र्च भी बढ़ जाता है.
1945 के कोलियरी कंट्रोल ऑर्डर और आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के ज़रिए भारत सरकार ने देश में कोयले के दाम पर अपना नियंत्रण 1990 के दशक तक बनाए रखा था. 1996 में भारत सरकार ने धीरे धीरे कोयले की क़ीमतों पर से अपना नियंत्रण हटाना शुरू किया.
कैसे तय होती है कोयले की क़ीमत?
जैसा कि हमने पहले बताया कि साल 2000 तक भारत सरकार, 1945 के कोलियरी कंट्रोल ऑर्डर के तहत ग्रेड और कोयला खदान के हिसाब से कोयले के दाम तय करती थी. सरकार के इस अधिकार को 1955 के आवश्यक वस्तु अधिनियम के ज़रिए और भी मज़बूत बनाया गया था. कोयले के दाम से जुड़ी इस अधिसूचना में 1994 से 1996 के बीच और बदलाव किए गए, ताकि खदान से आसानी से निकलने वाले कोयले (ROM) और गहरी खुदाई के बाद निकलने वाले कोयले के दाम में अंतर को बढ़ाया जा सके और कोयले की ढुलाई में आने वाली लागत वसूल की जा सके. इन सरकारी आदेशों का एक मक़सद ये भी था कि कुछ ख़ास खदानों से निकाले गए कोयले की ज़्यादा क़ीमत वसूली जा सके. कुछ ख़ास नमूनों वाली खदानों से कोयला निकालने की लागत में नियमित रूप से बदलाव करके उसे बढ़ती हुई महंगाई के हिसाब से ढाला जाता रहा और इसी के आधार पर ग्राहकों को बेचे जाने वाले कोयले की क़ीमतें तय की जाती रहीं.
कोयले की अलग अलग क्वालिटी और ग्रेड के अलग अलग दाम तय करने के लिए यूज़फुल हीट वैल्यू (UHV) को आधार बनाया गया. 1990 और 2000 के दशक के शुरुआती दौर में भारत के कोयला सेक्टर के बारे में तैयार की गई रिपोर्टों में कोयले के दाम तय करने के लिए UHV को आधार बनाने की आलोचना की गई थी. लेकिन, इस परिकल्पना को भारत के लिए अनूठा माना गया था और इसके पीछे बहुत सोच-समझकर कुछ तर्क दिए गए थे. 1954 में जब कोयले के दाम तय करने के लिए UHV की परिकल्पना का प्रस्ताव कोल वाशरीज़ कमेटी ने दिया था, तो उस वक़्त बिजली बनाने के लिए कोयले से चलने वाले बिजलीघर, बेहतर गुणवत्ता वाले कोयले का इस्तेमाल (जिसमें स्टील उद्योग में काम आने वाला कोकिंग कोयला भी शामिल था) कर रहे थे. इसके चलते कोयले के भंडार तेज़ी से कम होते जा रहे थे. इसीलिए UHV की परिकल्पना इस्तेमाल की गई, जिसका मक़सद ये था कि बिजली बनाने के लिए निम्न स्तर के कोयले के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सके. CFRI (खनन और ईंधन के अनुसंधान के केंद्रीय संस्थान) ने इसके लिए सबूत के आधार पर जो फॉर्मूला विकसित किया था, वो- UHV=8900-138 (A+M) था. इस फ़ॉर्मूले में A का मतलब कोयले में राख की मात्रा और M से उसमें नमी की मात्रा प्रतिशत में तय होती थी. कोयले में राख और नमी की मात्रा के साथ-साथ उसकी दरों और UHV की मात्रा में रियायत भी बढ़ती जाती थी.
कोयले के दाम से जुड़ी इस अधिसूचना में 1994 से 1996 के बीच और बदलाव किए गए, ताकि खदान से आसानी से निकलने वाले कोयले (ROM) और गहरी खुदाई के बाद निकलने वाले कोयले के दाम में अंतर को बढ़ाया जा सके और कोयले की ढुलाई में आने वाली लागत वसूल की जा सके.
ब्यूरो ऑफ इंडस्ट्रियल कॉस्ट ऐंड प्राइसेज़ (BICP) के सुझावों के बाद भारत सरकार ने कोकिंग कोयले और A, B और C ग्रेड के नॉन कोकिंग कोयले के दाम पूरी तरह से बाज़ार के हवाले कर दिए. 1996 में देश में कोयले के कुल उत्पादन में नॉन कोकिंग कोयले की हिस्सेदारी लगभग 40 प्रतिशत थी. इसके बाद देखा ये गया कि कोयले की जिन ग्रेड के दाम सरकार ने बाज़ार के हवाले कर दिए थे, उनके दाम, नियंत्रित क़ीमतों वाले कोयले की तुलना में बड़ी तेज़ी से बढ़े. बिजली बनाने के लिए निचले दर्ज़े (ग्रेड D से G तक) के कोयले का इस्तेमाल हो रहा था. लेकिन, चूंकि बिजली की दरों पर सरकारी नियंत्रण था तो कोयले की इन ग्रेड के दाम पर से भी सरकारी नियंत्रण ख़त्म नहीं किया गया था.
एकीकृत कोयला नीति पर बनी समिति की सिफ़ारिशें आने के बाद, भारत सरकार ने 1997 में सॉफ्ट कोक, हार्ड कोक और डी ग्रेड के नॉन कोकिंग कोयले की क़ीमतों पर से भी अपना नियंत्रण हटा लिया. कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) और सिंगरेनी कोलियरी कंपनी (SCCL) को E, F और G ग्रेड के कोयलों के दाम तय करने की छूट दे दी गई. इसके अलावा BICP की वर्ष 1987 की रिपोर्ट के मुताबिक़ इन कंपनियों को हर छह महीने पर लागत और दाम बढ़ाने के फॉर्मूले के तहत कोयले के इन दर्ज़ों की क़ीमतें तय करने की छूट दे दी गई. 1990 के दशक में जब कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) ने ग्रॉस कैलोरिक वैल्यू (GCV) व्यवस्था के ज़रिए कोयले का ग्रेड और दाम तय करने की कोशिश की, तो बिजली और अन्य क्षेत्रों के ग्राहकों के विरोध के चलते इसमें कामयाबी नहीं मिली. आख़िरकार 2012 में जाकर CIL ने GCV के आधार पर कोयले के दाम तय करने शुरू कर दिए. 300 किलोकैलोरी (kcl) के 17 दर्जे जो 2200 kcl से शुरू होकर 7000 kcl तक जाते थे, ने UHV की परिकल्पना पर आधारित सात ग्रेड के वर्गीकरण की जगह ले ली. लेकिन, बिजली उद्योग के ग्राहकों ने UHV की परिकल्पना के आधार पर ही कोयले का वर्गीकरण जारी रखा. और उन्हें क़ीमत तय करने की नई योजना के तहत, कोयले के दाम में 25 से 77 प्रतिशत तक की छूट मिलती रही. जो कोयला ई- नीलामी के ज़रिए बेचा जा रहा था, उसे अधिसूचित क़ीमत से 20 प्रतिशत अधिक बेसिक रेट से बेचा जाने लगा.
मंज़िल पर पहुंचे कोयले का दाम
साल 2010-11 में जब CIL ने (एक्साइज़, रॉयल्टी, सेल्स टैक्स और क्लीन एनर्जी सेस) लगाने से पहले खदान से निकलने वाले ग्रेड 10 के कोयले (जिसकी कैलोरिफिक वैल्यू 4301 किलोकैलोरी प्रति किलोग्राम kcal/kg) से अधिक और 4600 kcal/kg से कम थी और जिसका इस्तेमाल बिजली बनाने में किया जाता था) उसकी क़ीमत 780 रुपए प्रति टन तय की थी. 2020-21 में उसी ग्रेड 10 के कोयले की क़ीमत मामूली इज़ाफ़े के साथ 1034 रुपए प्रति टन हो गई थी. मंज़िल पर पहुंचने वाले कोयले के दाम में उसके आकार और तोड़ने की लागत, तेज़ी से लादने और उतारने की लागत, पहुंचाने की लागत शामिल होती है. इसके अलावा, कोयले पर क़ानूनी तौर पर अनिवार्य टैक्स जैसे कि रॉयल्टी, एक्साइज़ कर, क्लीन एनर्जी सेस (जिसे अब GST मुआवज़ा कर के तौर पर शामिल कर लिया गया है, वैल्यू ऐडेड टैक्स तो लगते ही हैं. इनके अलावा खदान से निकले कोयले पर कई और टैक्स भी लगते हैं. कोयले और लिग्नाइट पर GST पांच प्रतिशत है, और इन दोनों पर राज्यों का VAT भी 5 फ़ीसद ही है. कोयले पर रॉयल्टी की दर 14 प्रतिशत (जो पश्चिम बंगाल के अलावा बाक़ी सभी राज्यों में) है. डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन (DMF) के तहत अतिरिक्त रॉयल्टी भी कोयले पर लगाई जाती है, जो राज्य सरकार और राष्ट्रीय खनिज अन्वेषण ट्रस्ट (NMET) जो केंद्र सरकार के अंतर्गत आता है, के ख़ज़ानों में जाती है. कोयले के दाम पर टैक्स का सबसे बड़ा बोझ क्लीन एनर्जी सेस (जो अब GST मुआवज़ा फंड का हिस्सा है) के तौर पर पड़ता है. इसे 2016 में 200 रुपए प्रति टन से बढ़ाकर 400 रुपए प्रति टन कर दिया गया था. कोयले की इन अतिरिक्त लागतों में सबसे बड़ी हिस्सेदारी रेल के ज़रिए कोयले की ढुलाई की दर है, जो 470 किलोमीटर की औसत दूरी के लिए 1050 रुपए प्रति टन तक हो सकती है. इन अतिरिक्त चुंगी और करों के चलते, अपनी मंज़िल तक पहुंचते पहुंचते कोयले की क़ीमत खदान से दो गुना तक अधिक हो जाती है.
देश में खदान से ग्राहकों तक पहुंचते पहुंचते कोयले का जो दाम होता है, वो तय होता है और CIL के नियंत्रण से बाहर होता है. इसका नतीजा ये होता है कि भारत की अर्थव्यवस्था के हितों को देखते हुए, CIL को कम गुणवत्ता वाले कोयले (मिसाल के तौर पर बिना धुला कोयला) की आपूर्ति को प्राथमिकता देनी पड़ती है, ताकि कोयले के दाम कम रहें. लेकिन इस अच्छे काम के चलते शेयर बाज़ार कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) को सज़ा देता रहा है और इसस CIL की आमदनी भी कम बनी रहती है. बेहतर दर्ज़े के कोयले के उत्पादन और इसकी आपूर्ति करने में CIL की नाकामी के चलते इसके शेयरधारकों की क़ीमत घटती जाती है. CIL की सबसे बड़ी शेयर धारक तो भारत सरकार ही है. बिजली बनाने वाले भी इस राजनीतिक दबाव में रहते हैं कि वो बिजली की दरें कम रखें. इससे बेहतर क्वालिटी का कोयला इस्तेमाल करने के लिए उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है. क़ीमतें कम करने के चक्कर में घटिया दर्जे के कोयले के इस्तेमाल से लागत भी बढ़ती है और स्थानीय के साथ साथ विश्व स्तर पर प्रदूषण से निपटने का ख़र्च भी बढ़ जाता है. कोयला और बिजली सस्ती रखने के नाम पर घटिया कोयले का इस्तेमाल करते हुए प्रदूषण को बढ़ाते रहना ख़तरनाक है. इससे एक तरफ़ कोयले के दाम कम बनाए रखने से नुक़सान होता है. वहीं दूसरी तरफ़ प्रदूषण से निपटने के लिए ऊंचे दर्जे की तकनीक अपनाने में भारी रक़म ख़र्च करनी पड़ती है.
स्त्रोत – याहू फाइनेंस
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