Published on Sep 08, 2022 Updated 0 Hours ago

जलवायु परिवर्तन के महत्वपूर्ण संकट का समाधान करने में इसके असर के लैंगिक पहलू को स्वीकार करना ज़रूरी है और ये नीति निर्माण में भी दिखना चाहिए.

जलवायु परिवर्तन और महिलाएं: संकट के भीतर एक और ‘संकट’

प्राकृतिक आपदाओं की कोई सीमा नहीं होती. यही बात जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर भी लागू होती है. लेकिन इस तरह की किसी भी बात में दो मूलभूत भ्रांतियां हैं. पहली ये कि जलवायु परिवर्तन क़ुदरती तबाही की तुलना में काफ़ी व्यापक और ज़्यादा जटिल घटना है और दूसरी ये कि जलवायु की तबाही का असर हर जगह एक जैसा नहीं होता है. ये सवाल कि इस संकट से कौन प्रभावित हुआ है और किस हद तक, इसका निर्धारण किसी व्यक्ति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति से होता है और पहले से मौजूद असमानता के कारण हालात बिगड़ते हैं. इस तरह की एक असमानता लैंगिक है जिसका हम इस लेख में पता लगाने की कोशिश करेंगे.

जलवायु संकट का सामना करने के मामले में इस दुनिया में ग़रीब सबसे ख़राब स्थिति में हैं और 2009 की यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ महिलाएं, जो विश्व के ग़रीबों में बहुतायत में हैं, इस मामले में सबसे कमज़ोर स्थिति में हैं.

जलवायु संकट का सामना करने के मामले में इस दुनिया में ग़रीब सबसे ख़राब स्थिति में हैं और 2009 की यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ महिलाएं, जो विश्व के ग़रीबों में बहुतायत में हैं, इस मामले में सबसे कमज़ोर स्थिति में हैं. ये पता लगाने के लिए कि महिलाएं जलवायु परिवर्तन के ख़तरे के असर से ज़रूरत से ज़्यादा क्यों प्रभावित होती हैं, हमें दो कड़ियों की छानबीन करने की आवश्यकता है: पहली ये कि किस तरह जलवायु परिवर्तन लोगों पर ख़राब ढंग से असर डाल रहा है और दूसरी ये कि महिलाओं को क्यों नुक़सान झेलना पड़ता है?

जलवायु परिवर्तन का मानवीय अनुभव

मानव जीवन पर जलवायु परिवर्तन का असर तरह-तरह का और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष- दोनों हैं. जलवायु परिवर्तन का सीधा असर वो है जिन पर ज़्यादा रिसर्च की गई है और जो स्पष्ट हैं. इनमें बढ़ते तापमान का ख़राब असर, मौसम में जल्दी-जल्दी बदलाव और मानवीय स्वास्थ्य, जीवन एवं आजीविका के लिए संसाधनों की कमी शामिल हैं. लेकिन जलवायु संकट की वजह से सिर्फ़ लोग ही नुक़सान की स्थिति में नहीं हैं बल्कि उनके इर्द-गिर्द की दुनिया को भी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. इनमें दूसरी प्रजातियां, बुनियादी ढांचे, और खाद्य, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता तक पहुंच शामिल हैं. जलवायु परिवर्तन को संक्रामक बीमारियों में बढ़ोतरी, बढ़ती खाद्य असुरक्षा और बुनियादी ढांचे की बर्बादी से भी जोड़ा गया है जो लोगों के अच्छे ढंग से जीवन जीने को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं. हालांकि इन प्रभावों की प्रवृति सामाजिक मानकों एवं किसी के द्वारा अपनाई जाने वाली भूमिका से ज़्यादा गंभीर हो जाती है और लिंग, ऐसी भूमिकाओं के लिए प्रमुख संकेतक होने की वजह से, इन परिणामों के वितरण में प्रमुख कारण बन जाता है. 

जलवायु परिवर्तन को संक्रामक बीमारियों में बढ़ोतरी, बढ़ती खाद्य असुरक्षा और बुनियादी ढांचे की बर्बादी से भी जोड़ा गया है जो लोगों के अच्छे ढंग से जीवन जीने को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं.

महिलाएं क्यों ज़्यादा नुक़सान की स्थिति में हैं?

महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन की वजह से ज़रूरत से ज़्यादा असर के पीछे कई अलग-अलग तरह के कारण हैं. महिलाएं प्राकृतिक संसाधनों पर प्राथमिक रूप से निर्भर हैं और घर के लिए खाद्य, पानी और ईंधन जुटाने के लिए ज़िम्मेदार हैं. इसलिए वो ज़्यादा असुरक्षित हैं. अलग-अलग तरह के विकास मानदंडों को लेकर राष्ट्रीय स्तर के पारिवारिक सर्वे- इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे-2 (आईएचडीएस) से मिले आंकड़े बताते हैं कि हर रोज़ पानी लाने के लिए महिलाएं (46 मिनट) पुरुषों (22 मिनट) की तुलना में दोगुने से भी ज़्यादा समय खर्च करती हैं. वैसे तो महिलाएं पर्यावरण से जुड़ी गतिविधियों में ज़्यादा भागीदार हैं लेकिन प्राकृतिक संसाधनों पर उनका नियंत्रण कम होता है और जब बात प्राकृतिक संसाधनों के वितरण और जलवायु संकट के लिए प्रबंधन से जुड़े लाभों की होती है (उदाहरण के लिए, सरकार के द्वारा मुहैया कराया गया राहत पैकेज) तो उनके पास निर्णय लेने की सीमित शक्ति होती है. इस तरह पर्यावरण से जुड़ी त्रासदी का सामना करने में वो असमर्थ हो जाती हैं. क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क की एक रिपोर्ट बताती है कि जलवायु विस्थापन और प्रवासन की वजह से महिलाएं 12-14 घंटे अतिरिक्त काम करती हैं. प्रतिकूल मौसम की परिस्थितियों की वजह से खाद्यान्न की कमी के समय महिलाएं ही बलिदान देती हैं और लैंगिक रूप से पक्षपातपूर्ण अपेक्षाओं के कारण पुरुषों के मुक़ाबले कम खाना खाती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार महिलाओं की मृत्यु दर भी ज़्यादा है और अत्यंत ख़राब मौसम की घटनाओं के दौरान और बाद में उनकी जीवन प्रत्याशा में ज़्यादा कमी होती है. महिलाओं की अधिकारहीन पहचान के कारण जलवायु परिवर्तन महिलाओं को ज़रूरत से ज़्यादा नुक़सान पहुंचाता है और इसके साथ-साथ असमानता को और बढ़ाने का जोख़िम भी तेज़ करता है.

महिलाओं की अधिकारहीन पहचान के कारण जलवायु परिवर्तन महिलाओं को ज़रूरत से ज़्यादा नुक़सान पहुंचाता है और इसके साथ-साथ असमानता को और बढ़ाने का जोख़िम भी तेज़ करता है.

भारत का अनुभव

भारत में जलवायु परिवर्तन का असर हर साल और भी ज़्यादा स्पष्ट होता जा रहा है. तेज़ होती गर्मी की लहर, अनियमित मॉनसून, मौसम से जुड़ी आपदाएं और बार-बार सूखे के रूप में ये सामने आ रहा है. लेकिन जलवायु परिवर्तन के असर के आकलन में लैंगिक नज़र के इस्तेमाल ने भारत से जुड़ी कहानियों को सुर्खियों में ला दिया है जो जलवायु संकट को लेकर महिलाओं की असुरक्षा को दृढ़तापूर्वक सामने रखती हैं. पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में चाय बागानों के अध्ययन से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान चाय के उत्पादन में उर्वरक के ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल (जिसकी आवश्यकता जलवायु और पर्यावरणीय ख़राबी की वजह से पैदा हुई) ने चाय बागान की महिला कामगारों, जो श्रम का सस्ता स्रोत हैं, को बुरी तरह से प्रभावित किया है. महिला कामगारों की आंखों पर असर पड़ा है, त्वचा संक्रमित हुई है, खाने की रुचि में कमी आई है और सांसों की बीमारी से भी जूझना पड़ा है. ग्रामीण भारत में खेती के काम में लगे कामगारों में महिलाओं की संख्या ज़्यादा है. कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर जलवायु परिवर्तन का ज़्यादा असर होता है. व्यापक जानकारी और अनुभव के बावजूद महिलाओं के पास ज़मीन का मालिकाना अधिकार कम है और वित्तीय संसाधानों की भी कमी है. इसकी वजह से जलवायु से जुड़े किसी भी संकट की गंभीरता को कम करने में महिलाएं नुक़सान की स्थिति में रहती हैं. बाढ़ के बाद महिलाओं पर असर का अध्ययन करने वाली बिहार की एक और रिपोर्ट में पाया गया कि महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई, शादी के नाम पर महिलाओं की तस्करी के मामलों में बढ़ोतरी हुई, परिवारों में लड़कों के जन्म लेने की पसंद बढ़ी और बाढ़ राहत शिविरों में दुर्व्यवहार की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई. ग्रामीण महाराष्ट्र में पानी लाने के लिए एक से ज़्यादा पत्नी रखने का मामला जलवायु परिवर्तन और महिलाओं के शोषण में बढ़ोतरी के बीच एक और कड़ी दिखाता है. सूखे और पानी के स्रोत से दूरी के कारण पानी की कमी की इस समस्या का समाधान करने के लिए गांव के मर्दों ने एक से ज़्यादा शादी करना शुरू कर दिया है. यहां इन पत्नियों की भूमिका केवल ये होती है कि वो घर में पानी की उपलब्धता को सुनिश्चित करें. गांवों के सबसे ग़रीब समुदायों की महिलाएं एक साल में लगभग ढाई महीने केवल पानी लाने में बिताती हैं और पानी के लिए महिलाओं के द्वारा तय की जाने वाली दूरी में बढ़ोतरी हुई है. साथ ही पानी लाने के लिए बाहर जाने वाले परिवारों की संख्या में भी वृद्धि हुई है. इस मामले में हम एक बार फिर देखते हैं कि महिलाओं की लैंगिक भूमिका और लैंगिक असमानता जलवायु परिवर्तन के मामले में उन्हें ज़्यादा नुक़सान की स्थिति में डाल देती हैं. 

ग्रामीण महाराष्ट्र में पानी लाने के लिए एक से ज़्यादा पत्नी रखने का मामला जलवायु परिवर्तन और महिलाओं के शोषण में बढ़ोतरी के बीच एक और कड़ी दिखाता है.

आगे का रास्ता

लैंगिक समानता सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) का एक हिस्सा होने के साथ-साथ निरंतरता हासिल करने की एक पूर्व शर्त भी है. जलवायु परिवर्तन के महत्वपूर्ण संकट का समाधान करने में अब ये ज़रूरी हो गया है कि जलवायु परिवर्तन के असर के लैंगिक पहलू को स्वीकार किया जाए और ये नीति निर्माण में भी दिखना चाहिए. सतत तकनीकों के विकास में महिलाओं को केंद्र में होना चाहिए ताकि उनकी अनुकूलता को सुनिश्चित किया जा सके. इसके अलावा, लैंगिक रूप से संवेदनशील निवेश ज़्यादा करने की ज़रूरत है ताकि इस संकट से मुक़ाबला करने के लिए बुनियादी ढांचे को विकसित किया जा सके. जलवायु परिवर्तन से जुड़े सभी कार्यक्रमों में एक लैंगिक हिस्सा होने की आवश्यकता है और इसकी प्रगति पर क़रीब से निगरानी रखनी चाहिए. प्रणालीगत समाधान के अलावा छोटे पैमाने पर और केंद्रित जवाब को बढ़ावा देने की आवश्यकता भी है. अफ्रीका में महिलाओं का एक समूह, जिसका नाम ‘सोलर सिस्टर्स’ है, ऊर्जा दक्षता हासिल करने के लिए छोटे सोलर ग्रिड का निर्माण करने की कोशिश कर रहा है. अंतर्राष्ट्रीय हरित वित्त मुहैया कराने वाले संगठनों को अपने आवेदन में एक ज़रूरी खंड बनाना चाहिए जिसमें ये जानकारी दी जाए कि फंड के इस्तेमाल से महिलाओं पर कैसे असर पड़ेगा और कैसे उन्हें कार्यक्रम में शामिल किया जाएगा. इस संकट के लिए समाधान आधारित जवाबों के बदले जनसंख्या आधारित जवाब की आवश्यकता है जहां महिलाओं को उनकी अपनी ज़रूरतों, सीमाओं और संदर्भों के साथ देखा जाता है और उसी के हिसाब से संकट की गंभीरता कम करने की नीतियां तैयार की जाती हैं. अगर हम वाकई लैंगिक अंतर घटाने के अपने संघर्ष को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो हमें इस संकट के लैंगिक विशेष असर को ध्यान में रखने की ज़रूरत है और नुक़सान कम करने के लिए इस लड़ाई में मोर्चे पर जुटी महिलाओं को लैस करना होगा.

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