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इन दिनों जब भारत और कनाडा के बीच कूटनीतिक टकराव बढ़ता जा रहा है और दोनों देशों ने एक दूसरे के राजनयिकों को अपने अपने यहां से निष्कासित कर दिया है, तो सवाल ये पूछे जा रहे हैं कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने ‘खालिस्तान का मसला’ इस वक़्त ही क्यों उठाया है? क्या ये वोट बैंक की राजनीति के लिए है या फिर कनाडा किसी तीसरे देश के इशारे पर भारत के ऊपर निशाना साध रहा है? पहले अमेरिका ने गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साज़िश में रॉ के एक पूर्व एजेंट का ‘नाम उजागर करके उसे आरोपी बनाया’ और फिर जिस तरह से ‘फाइव आईज़’ के देशों ने खुलकर कनाडा का साथ दिया, उसने मामले को और भी जटिल बना दिया है.
भारत और कनाडा समेत फाइव आईज़ (अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड) के बीच इस तल्ख़ बयानबाज़ी पर चीन भी बारीक़ी से नज़र रख रहा है. इस मसले पर चीन के भीतर चल रही परिचर्चाओं से ये पता चलता है कि इस विवाद के पीछे कुछ और कारण भी हो सकते हैं.
चीन की नज़र
भारत और कनाडा समेत फाइव आईज़ (अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड) के बीच इस तल्ख़ बयानबाज़ी पर चीन भी बारीक़ी से नज़र रख रहा है. इस मसले पर चीन के भीतर चल रही परिचर्चाओं से ये पता चलता है कि इस विवाद के पीछे कुछ और कारण भी हो सकते हैं. चीन के कुछ पर्यवेक्षक, हालिया तनाव को रूस में होने जा रहे ब्रिक्स (BRICS) सम्मेलन के चश्मे से भी देख रहे हैं. ब्रिक्स का ये सम्मेलन 22 से 24 अक्टूबर के दौरान रूस के कज़ान शहर में होने जा रहा है. पिछले साल जनवरी में ब्रिक्स के पहले बड़े विस्तार के बाद ये पहला शिखर सम्मेलन होने जा रहा है. उसके बाद से इस समूह की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है और नैटो के सदस्य तुर्की समेत लगभग 30 देशों ने ब्रिक्स में शामिल होने की दिलचस्पी दिखाई है.
चीन के विश्लेषकों का आकलन है कि रूस में होने जा रहा ब्रिक्स का सम्मेलन अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एक गेम चेंजर साबित होने जा रहा है. क्योंकि, ये सम्मेलन ब्रिक्स के विस्तार के नए दौर की आधारशिला रखेगा और इसमें स्विफ्ट (SWIFT) को परे करके व्यापार के भुगतान की नई व्यवस्था से जुड़े अहम फ़ैसले भी लिए जाने हैं. अगर ये दोनों ही बदलाव हो जाते हैं, तो इनसे दुनिया में अमेरिका के दबदबे को तगड़ा झटका लगेगा.
अलग अलग आकलनों के मुताबिक़, ब्रिक्स के सदस्य देशों की सामूहिक ताक़त, ख़रीदने की क्षमता के मामले में पहले ही G7 के देशों को पीछे छोड़ चुकी है. इसका और विस्तार होने का मतलब ये होगा कि दुनिया के अधिकतर देशों के हित एक मंच पर आएंगे और ये मंच अमेरिका के नेतृत्व वाला पश्चिमी जगत नहीं, बल्कि उसके प्रतिद्वंदी समूह का होगा. यही नहीं, अगर नैटो (NATO) का सदस्य तुर्की भी आगामी सम्मेलन के दौरान ब्रिक्स में शामिल होने का फ़ैसला करता है, तो चीन के पर्यवेक्षकों का मानना है कि इससे एक ऐसी मिसाल क़ायम होगी, जिसका अनुसरण करते हुए नैटो और यूरोपीय संघ (EU) के कई और सदस्य देश ब्रिक्स में शामिल हो सकते हैं, जो पश्चिमी ताक़तों को शर्मिंदा करने वाली बात होगी. इसके अलावा अगर ब्रिक्स की अलग भुगतान व्यवस्था बनाने या फिर भंडारण की मुद्रा को लेकर कोई सहमति बनती है, तो इसका अमेरिका और विश्व की अर्थव्यवस्था पर काफ़ी असर पड़ेगा.
ये तो सबको पता है कि रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप, पहले ही ये धमकी दे चुके हैं कि जो देश डॉलर में कारोबार करना बंद करेंगे, उन पर वो 100 प्रतिशत व्यापार कर ठोक देंगे.
ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि अमेरिका और पूरा पश्चिमी जगत, आने वाले ब्रिक्स सम्मेलन को लेकर बहुत सतर्कता बरत रहा है. ये तो सबको पता है कि रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप, पहले ही ये धमकी दे चुके हैं कि जो देश डॉलर में कारोबार करना बंद करेंगे, उन पर वो 100 प्रतिशत व्यापार कर ठोक देंगे. चीन की ख़बरों के मुताबिक़ अमेरिका छुपे तौर पर भी और खुलकर भी तमाम तरह से कज़ान सम्मेलन को नाकाम करने की कोशिश कर रहा है. ख़बरों के मुताबिक़ रूस ने 2024 के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लिए 38 देशों को न्यौता दिया है. हालांकि, जिन देशों को न्यौता दिया गया है, उन पर पश्चिमी देश लगातार इस सम्मेलन से दूरी बनाने का दबाव बना रहे हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि ऐसे कई देशों ने जिन्होंने सार्वजनिक रूप से ब्रिक्स में शामिल होने में दिलचस्पी दिखाई थी और छह महीने पहले तक साफ़ तौर पर ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में शामिल होने की ख़्वाहिश जताई थी, वो या तो भाग लेने से पीछे हट रहे हैं या फिर छोटे मोटे प्रतिनिधि ही भेज रहे हैं. मिसाल के तौर पर सऊदी अरब के युवराज ने ब्रिक्स सम्मेलन में पहली बार शिरकत करने के फ़ैसले को बदल दिया. इसके बाद से मध्य पूर्व और अन्य इलाक़ों में अमेरिका के दबदबे को लेकर चीन में तीखी परिचर्चाएं शुरू हो गईं.
अब ब्रिक्स के एक संस्थापक सदस्य के तौर पर भारत से ये उम्मीद की जा रही है कि वो आने वाले शिखर सम्मेलन में एक अहम भूमिका अदा करेगा. डॉलर में व्यापार कम करने और ब्रिक्स के विस्तार जैसे मसलों पर भारत के रुख़ का सीधा असर इसके सदस्य देशों के फ़ैसलों पर पड़ेगा. क्योंकि ये देश ब्रिक्स के मंच के अंतर्गत नए आर्थिक अवसरों की तलाश कर रहे हैं, पर वो इससे अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के नाख़ुश होने को लेकर भी फ़िक्रमंद हैं. चीन के कुछ सोशल मीडिया एकाउंट्स के मुताबिक़, इस मौक़े पर भारत के ख़िलाफ़ कनाडा की बयानबाज़ी का मतलब शायद यही है कि पश्चिमी देश भारत पर इस बात का अतिरिक्त दबाव बना रहे हैं कि आने वाले ब्रिक्स सम्मेलन में भारत, पश्चिमी देशों के रुख़ पर चले.
विदेशमंत्री का बयान
यहां ये बात याद करना उचित होगा कि हाल ही में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने डॉलर में कारोबार कम करने के बारे में अमेरिका के एक थिंक टैंक में बात की थी. जयशंकर ने ज़ोर देकर कहा था कि ‘डॉलर को लेकर भारत की नीयत में कोई खोट नहीं’ है. उन्होंने कहा था कि, ‘डॉलर पर निशाना साधना भारत की आर्थिक नीति नहीं है’… हालांकि भारत की अपनी चिंताएं हैं… अक्सर अमेरिका की नीतियों की वजह से कुछ देशों के साथ भारत के कारोबारी रिश्तों में जटिलताएं आ जाती हैं (इसीलिए) भारत ऐसे देशों के साथ कारोबार के ‘वैकल्पिक रास्ते’ तलाश रहा है, जिनके पास कारोबार करने के लिए डॉलर नहीं हैं. विदेश मंत्री ने इस बात पर भी ज़ोर दिया था कि आने वाले समय की बहुध्रुवीय दुनिया की तस्वीर आर्थिक रिश्तों और मुद्राओं में दिखाई देगी.
चीन अपने पेट्रो-युआन ख़्वाब को पूरा करने की राह में भारत को हमेशा एक रोड़े के तौर पर देखता है. इसीलिए, चीनी पर्यवेक्षकों ने जयशंकर के बयान को ‘मौक़ापरस्ती’ कहते हुए इसकी आलोचना की थी. उनका तर्क था कि एक तरफ़ तो भारत अमेरिका से बातचीत में संतुलन बनाए रखने के लिए ऐसे अवसर तलाशता रहता है, जिसमें उसका दांव भी मज़बूत हो. इसका मतलब है कि अगर अमेरिका, ब्रिक्स के भीतर डॉलर का दबदबा कमज़ोर करने के प्रयासों में भारत से खलल डालने की अपेक्षा करता है, तो अमेरिका को इसके बदले में भारत को कुछ ठोस प्रस्ताव देने चाहिए; वहीं दूसरी तरफ़ चीन और ब्रिक्स के दूसरे देशों पर इल्ज़ाम धरते हुए भारत, डॉलर का दबदबा कम करने के ब्रिक्स के ज़्यादातर एजेंडे का भरपूर इस्तेमाल कर रहा है और चीन समेत अन्य सदस्य देशों पर भारत की मुद्रा को भी शामिल करने का दबाव बना रहा है. इसके अलावा भारत ये भी चाहता है कि ‘ब्रिक्स की किसी भी भुगतान व्यवस्था’ को अपनाने की बाध्यता जैसी शर्त नहीं होनी चाहिए. चीन के पर्यवेक्षकों को शक है कि अमेरिका भी शायद भारत के रुख़ से असंतुष्ट हो और वो कनाडा का इस्तेमाल करते हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से पहले भारत पर दबाव बनाना चाहता हो.
भारत ऐसे देशों के साथ कारोबार के ‘वैकल्पिक रास्ते’ तलाश रहा है, जिनके पास कारोबार करने के लिए डॉलर नहीं हैं. विदेश मंत्री ने इस बात पर भी ज़ोर दिया था कि आने वाले समय की बहुध्रुवीय दुनिया की तस्वीर आर्थिक रिश्तों और मुद्राओं में दिखाई देगी.
भारत के सामरिक वर्ग के बीच भी, फाइव आईज़ के देशों और विशेष रूप से कनाडा के साथ लगातार बढ़ते टकराव के पीछे की वजहों को लेकर काफ़ी चर्चाएं छिड़ी हुई हैं. कज़ान शिखर सम्मेलन में भारत की भागीदारी और सदस्यता के विस्तार एवं डॉलर का दबदबा कम करने के ब्रिक्स 2024 के एजेंडे को लेकर भारत का रुख़ क्या वाकई इस टकराव की एक बड़ी वजह है? इसमें कोई शक नहीं है कि ये ऐसा सवाल है, जिसका जवाब तलाशने के लिए और पड़ताल करने की ज़रूरत है.
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