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Published on Jun 24, 2025 Updated 0 Hours ago

चीन ने ‘नए युग में राष्ट्रीय सुरक्षा’ को लेकर जो श्वेत पत्र जारी किया है, उससे चीन के ख़तरनाक इरादों और चालबाज़ियों के बारे में पता चलता है. चीन ने अपने इस अहम दस्तावेज़ में दक्षिण एशिया के बारे में ज़्यादा कुछ जिक्र नहीं किया है. भारत को इस श्वेत पत्र में छिपे चीन के मंसूबों को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए और इसके रणनीतिक मायनों को गहराई से समझना चाहिए. 

राष्ट्रीय सुरक्षा पर चीन का श्वेत पत्र: दक्षिण एशिया को किया अनदेखा

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चीन के राज्य परिषद सूचना कार्यालय ने 12 मई, 2025 को एक श्वेत पत्र जारी किया था. "नए युग में चीन की राष्ट्रीय सुरक्षा" शीर्षक के तहत जारी किया गया यह श्वेत पत्र अपने आप में अनूठा था. इस श्वेत पत्र के सामने आने के बाद से दुनियाभर में इसमें लिखी गई बातों को पढ़ा और समझा जा रहा है. इस दस्तावेज़ में चीन के नज़रिए और उसकी योजनाओं के बारे में बहुत कुछ बताया गया है, लेकिन दक्षिण एशिया को लेकर चीन की क्या सोच और इस क्षेत्र को लेकर चीन क्या मंसूबे पाले हुए है, इसके बारे में कोई ज़्यादा जानकारी नहीं है. अमेरिका की ओर से इस प्रकार के श्वेत पत्र जारी किए जाते रहे हैं और चीन ने कहीं न कहीं उसी तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा पर अपने इस दस्तावेज़ को दुनिया के सामने पेश किया है. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि चीन नए युग में अपना वैश्विक सुरक्षा दृष्टिकोण सबके सामने रखना चाहता हैं और कहीं न कहीं यह बीजिंग के बढ़ते आत्मविश्वास को भी दिखाता है. इस श्वेत पत्र के मुताबिक़ चीन एक ऐसी बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था यानी वर्ल्ड ऑर्डर का विकल्प बनाने के लिए पूरी तरह से कमर कस चुका है, जो पश्चिमी देशों की अगुवाई वाली वैश्विक व्यवस्था से अलग होगी. नई दिल्ली के रणनीतिक गलियारों में चर्चा के लिए इस चीनी दस्तावेज़ में बहुत कुछ है. दरअसल, चीनी श्वेत पत्र में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के वैश्विक सुरक्षा को लेकर व्यापक इरादों को विस्तार से ज़ाहिर किया गया है. निसंदेह तौर पर भारत की घरेलू और विदेशी सुरक्षा चिंताएं भी चीन के ऐसे मंसूबों से प्रभावित होती हैं, ऐसे में नई दिल्ली के रणनीतिक हलकों के लिए यह दस्तावेज़ ख़ासा अहम हो गया है. चीन के इस डॉक्यूमेंट में एशिया पेसिफिक रीजन पर फोकस करते हुए इस पूरे क्षेत्र को महाशक्तियों की होड़ का मुख्य केंद्र बताया गया है. इतना ही नहीं, चीन ने इस क्षेत्र में अपने लक्ष्यों को हासिल करने में अमेरिका को सबसे बड़ा रोड़ा बताया है, या कहा जाए कि उसे सबसे बड़ी चुनौती बताया है. एक और बड़ी बात है कि चीन ने अपने इस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत और दूसरे एशियाई देशों की भूमिका को एकदम नज़रंदाज़ करते हुए इनके नाम तक का जिक्र करना मुनासिब नहीं समझा है. हालांकि, इन देशों के साथ सीमा विवाद से जुड़ी वार्ताओं का उल्लेख ज़रूर किया गया है, जिनको लेकर बातचीत का दौर जारी है. भारत और दूसरी एशियाई ताक़तों की यह अनदेखी अनजाने में भी हो सकती है और यह भी संभावना है कि चीन ने ऐसा जानबूझकर किया हो. कुल मिलाकर यह सब दक्षिण एशिया को लेकर चीन के इरादों की गहराई से जांच-पड़ताल करने की ज़रूरत सामने लाता है. कहने का मतलब है कि यह कहीं न कहीं एक बुनियादी सवाल खड़ा करता है कि आखिर सुरक्षा के लिहाज़ से दक्षिण एशिया के बारे में चीन की सोच क्या है और उसके मन में इस क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर आखिर चल क्या रहा है?

चीनी श्वेत पत्र में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के वैश्विक सुरक्षा को लेकर व्यापक इरादों को विस्तार से ज़ाहिर किया गया है. निसंदेह तौर पर भारत की घरेलू और विदेशी सुरक्षा चिंताएं भी चीन के ऐसे मंसूबों से प्रभावित होती हैं, ऐसे में नई दिल्ली के रणनीतिक हलकों के लिए यह दस्तावेज़ ख़ासा अहम हो गया है.

चीनी श्वेत पत्र में एशिया-प्रशांत में सुरक्षा चिंताओं का जिक्र

चीन के इस श्वेत पत्र में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के रणनीतिक महत्व पर ध्यान केंद्रित करते हुए काफ़ी कुछ कहा गया है और वैश्विक व्यवस्था में एशिया-प्रशांत रीजन को बेहद अहम बताते हुए चीन ने इसे बहुत ज़्यादा तवज्जो दी है. बीजिंग का मानना है कि अमेरिका और उसके सुर में सुर मिलाने वाले कुछ देशों का समूह एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में उसके रास्ते की बाधा हैं. इतना ही नहीं चीन ने अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों पर शीत युद्ध के वक़्त के मुद्दों को नहीं छोड़ने का आरोप लगाते हुए इस पूरे क्षेत्र में ऐसे हालात पैदा करने का आरोप लगाया है, जो क्षेत्रीय और समुद्री विवादों के समाधान को नामुमकिन बनाते हैं. इस लिहाज़ से देखा जाए तो इस श्वेत पत्र के ज़रिए चीन ने खुद को एक ऐसे देश के रूप में पेश करने की कोशिश की है, जो बिगड़ी और उलझी परिस्थितियों को सुधारना चाहता है. कहीं न कहीं चीन ने इस तरह का प्रयास जानबूझ कर किया है और उसकी यह कोशिश दिखाती हैं कि वह सुरक्षा से जुड़े जो अंतरराष्ट्रीय मापदंड हैं, जो वैश्विक तौर-तरीक़े हैं, उन्हें बदलना चाहता है और उन्हें अपने हितों को पूरा करने के हिसाब से नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश कर रहा है. इसके अलावा, चीन ने 'ग्लोबल साउथ' को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की है और आरोप लगाया है कि ग्लोबल साउथ के देश कोरी बयानबाजी करके खुद को बहुपक्षवाद की सबसे बड़ा हिमायती बताने का प्रयास कर रहे हैं.

चीन के इस श्वेत पत्र का मकसद जहां दक्षिण एशिया में अमेरिका को एक अशांति फैलाने वाले देश के रूप में स्थापित करना था, वहीं वर्ष 2022 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा पेश की गई प्रमुख पहल यानी चीन के ग्लोबल सिक्योरिटी इनीशिएटिव (GSI) पर ध्यान आकर्षित करना था. इस दस्तावेज के मुताबिक क्षेत्र में दूसरे देशों की तरफ से सुरक्षा के मामले में दबाव या कहा जाए कि विदेशी दख़ल बहुत ज़्यादा बढ़ गया है. इन विदेशी ताक़तों ने नुकसान पहुंचाने वाली हरकतों के ज़रिए चीन को दबाने और उसकी राह में रुकावटें डालने का प्रयास किया है. इसमें यह भी कहा गया है कि इन विदेशी ताक़तों ने चीन के 'पड़ोसी' मामलों में दख़लंदाज़ी दी है, जिसके चलते झिंजियांग, तिब्बत और हांगकांग से संबंधित मसलों में चीन को दिक्कतों से जूझना पड़ा है. इस दस्तावेज़ में विदेशी धरती पर चलाए जा रहे अलगाववादी आंदोलनों का भी जिक्र किया गया है, ख़ास तौर पर तिब्बत की आज़ादी से जुड़े आंदोलनों का उल्लेख किया गया है. दूसरे देशों की ज़मीन पर चलाए जा रहे इन आंदोलनों को चीन को अपनी संप्रभुता के लिए ख़तरा बताया है.

इस श्वेत पत्र का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि बीजिंग की कोशिश न सिर्फ़ क्षेत्रीय और बहुपक्षीय संगठनों का समर्थन हासिल करने की, बल्कि खुद को क्षेत्र में शांति स्थापित करने के सबसे बड़े झंडाबरदार राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की भी है.

इस श्वेत पत्र का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि बीजिंग की कोशिश न सिर्फ़ क्षेत्रीय और बहुपक्षीय संगठनों का समर्थन हासिल करने की, बल्कि खुद को क्षेत्र में शांति स्थापित करने के सबसे बड़े झंडाबरदार राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की भी है. चीन ने इस दस्तावेज़ में अपनी वैश्विक सुरक्षा पहल को संयुक्त राष्ट्र (UN) चार्टर के मानकों के मुताबिक़ यानी 'समावेशी, व्यापक, सहकारी और टिकाऊ सुरक्षा परिकल्पना' के अनुरूप वर्णित किया है. हालांकि, चीन के इस श्वेत पत्र में पेश किया गया उसका एजेंडा दक्षिण एशिया को किस प्रकार प्रभावित करेगा, विश्लेषण में इसका उत्तर नहीं मिलता है. 

चीन दक्षिण एशिया को किस प्रकार देखता है?

दक्षिण एशिया में दबदबा क़ायम करने में चीन का सबसे बड़ा हथियार उसकी आर्थिक ताक़त है, यानी चीन ने अपने आर्थिक प्रभुत्व के बल पर इस क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित किया है. वर्ष 2013 में चीन ने जब से अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की शुरुआत की है, तब से अपने आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए चीन ने हर तरह के हथकंडे अपनाए हैं और हर क़ीमत पर अपना दबदबा बढ़ाने में जुटा है. कार्नेगी एंडोमेंट के ‘रणनीतिक क्षेत्रों पर चीन का प्रभाव’ शीर्षक वाले प्रोजेक्ट से चीन के ऐसे इरादों के बारे में काफ़ी कुछ जानने-समझने को मिलता है. इस अध्ययन में यह भी सामने आता है कि किस प्रकार बीजिंग दक्षिण एशियाई देशों की, ख़ास तौर पर बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका जैसे राष्ट्रों की कमज़ोरियों और मज़बूरियों का रणनीतिक तौर पर फायदा उठाता है. इतना ही नहीं, इन देशों के साथ चीन अपने संबंधों में हमेशा सबसे पहले सुनिश्चित करता है कि उसके हितों में कोई बाधा नहीं आए है और उसे भरपूर लाभ मिले. 

मालदीव और श्रीलंका के साथ चीनी संबंधों पर नज़र डालें, तो चीन ने इन देशों में इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं में ज़बरदस्त निवेश किया है. देखा जाए तो चीन इन देशों में एयरपोर्ट्स और बंदरगाहों से लेकर उर्जा से जुड़ी परियोजनाओं में सबसे प्रमुख निवेशक बना हुआ है. जहां तक बांग्लादेश की बात है, तो उसके चीन के साथ रिश्ते अलग बहुत व्यापक हैं. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की 2020 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बांग्लादेश पूरी दुनिया में चीन का दूसरा सबसे बड़ा सैन्य साज़ो-सामान यानी हथियार, वाहन, मशीनरी जैसे सैन्य उपकरणों का ख़रीदार है.

इन दक्षिण एशियाई देशों में सत्तासीन राजनीतिक दलों की विचारधारा को देखें, तो पिछले दशक में इन देशों की सरकारों का चीन की ओर झुकाव साफ दिखाई देता है. हाल ही में बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के बाद वहां की सरकार का चीन की ओर झुकाव स्पष्ट है. बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने चीन के प्रति अपनी वफादारी और ढाका के लिए चीन की छत्रछाया की ज़रूरत के बारे में खुलकर अपने विचार साझा किए हैं. हाल ही में मोहम्मद यूनुस ने बीजिंग का आधिकारिक दौरा किया था, जहां उन्होंने बांग्लादेश में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास, सीमा पार नदी डेटा साझाकरण और सैन्य सहयोग में चीनी निवेश को लेकर ज़बरदस्त उत्साह जताया था.

हाल ही में मोहम्मद यूनुस ने बीजिंग का आधिकारिक दौरा किया था, जहां उन्होंने बांग्लादेश में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास, सीमा पार नदी डेटा साझाकरण और सैन्य सहयोग में चीनी निवेश को लेकर ज़बरदस्त उत्साह जताया था.

जहां तक नेपाल की बात है, उसके साथ चीन के रिश्तों में सैन्य सहयोग का बहुत ज़्यादा योगदान नहीं है. लेकिन, चीन ने नेपाल में पोखरा अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रीय हवाई अड्डा, अपर मार्श्यांगड़ी हाइड्रोपावर स्टेशन और केरुंग काठमांडू सीमा पार रेलवे प्रोजेक्ट जैसी बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी परियोजनाओं में अच्छा-ख़ासा निवेश किया है. इस प्रकार की इंफ्रास्ट्रक्चर विकास परियोजनाओं ने निश्चित तौर पर चीन को क्षेत्र में दोस्ताना संबंधों को तवज्जो देने वाले पड़ोसी देश के रूप में पेश करने में मदद की है.

अगर पाकिस्तान की बात की जाए, तो दक्षिण एशिया में यह चीन का सबसे निकटतम रणनीतिक सहयोगी है. पाकिस्तान को चीन का सबसे नज़दीकी 'ग्राहक' की कहा जा सकता है, क्योंकि सैन्य मदद और आर्थिक सहयोग के मामले में पाकिस्तान की चीन पर निर्भरता बहुत ज़्यादा है. हाल ही में पहलगाम आतंकी हमलों के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष के दौरान स्पष्ट तौर पर उसकी इस निर्भरता को देखा भी गया था कि पाकिस्तान ने किस प्रकार भारत पर हमले के दौरान चीनी मिसाइलों और दूसरे चीनी सैन्य उपकरणों का उपयोग किया था. वहीं, यह भी देखने को मिला था कि भारत-पाक तनाव के बीच चीन दोनों देशों से किस तरह संयम बरतने का आह्वान कर रहा था और तटस्थ रहते हुए ख़ामोशी से पूरे घटनाक्रम पर नज़र रखे हुए था. चीन का यह बर्ताव दिखाता है कि उसका कूटनीतिक रवैया कितना अविश्वास से भरा हुआ है, यानी चीन की कथनी और करनी में बहुत अंतर है और वो कतई भरोसे के लायक नहीं है.

क्या है भारत की चुनौतियां?

आर्थिक और राजनीतिक महत्व के नज़रिए से देखा जाए तो चीन दक्षिण एशिया में एक तरह से नया खिलाड़ी ही है. बावज़ूद इसके चीन ने इस क्षेत्र के कमज़ोर राष्ट्रों और क्षेत्रीय संस्थानों को अपने झांसे में लेकर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की भरसक कोशिश की है. इसके लिए चीन ने न केवल अपनी सैन्य शक्ति का इस्तेमाल किया है, बल्कि कई मामलों में इन राष्ट्रों को विकास परियोजनाओं में सहयोग का लालच भी दिया गया है. मालदीव, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ संबंधों में चीन द्वारा लगातार इसी तरह के हथकंडे अपनाए गए हैं और ऐसा करके ही चीन ने इन देशों में अपनी जड़ें जमाई हैं. जहां तक भारत की बात है, तो वह पूरे उपमहाद्वीप और दुनिया का एक सशक्त राष्ट्र बना हुआ है, लेकिन दक्षिण एशिया में जो हालात बने हुए हैं, उनमें भारत को न केवल यहां ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है, बल्कि अपना दख़ल बढ़ाने की भी आवश्यकता है. चीन द्वारा जारी किए गए हालिया श्वेत पत्र में उसने अपनी इस दुविधा को ज़ाहिर किया है और स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'चीन विरोधी' मानी जाने वाली रणनीतिक साझेदारियों को बनाने और बढ़ाने में उसे ख़ासी दिक़्क़त होती है. कूटनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो दक्षिण एशिया में देशों के बीच इस तरह की साझेदारियां बेहद अहम हैं और ज़रूरी भी हैं. दक्षिण एशिया में चीन की हरकतों पर लगाम लाने और उसके बढ़ते दबदबे को कम करने के लिए भारत को अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस जैसे क्षेत्र के प्रभावशाली राष्ट्रों के साथ अपने रिश्तों को मज़बूत करने और उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में फैलाने की आवश्यकता है. चीन इस क्षेत्र में खुद को शांति स्थापित करने में यकीन करने वाला और वैश्विक मापदंडों को मानने वाला देश बताता है और चालाकी के साथ अपने असली मंसूबों को छिपाने का प्रयास करता है. ऐसे में भारत को दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए न केवल उठाए जाने वाले रणनीतिक क़दमों में साफगोई दिखानी चाहिए, बल्कि सैन्य और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देकर अपनी धाक जमाने की कोशिश करनी चाहिए.

इस हालातों में यह ज़रूरी हो जाता है कि भारत द्वारा चीन के श्वेत पत्र में छिपे इरादों को गहराई से समझा जाए, ख़ास तौर पर सुरक्षा से जुड़े उसे नापाक मंसूबों का पता लगाया जाए, ताकि किसी भी विपरीत परिस्थिति से निपटने के लिए भारत खुद को बेहतर तरीक़े से तैयार कर सके.

ज़ाहिर है कि भारत ने कुछ दिनों पहले जब ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान में मौजूद आतंकी ठिकानों के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई की थी, तब पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध हमलों में चीनी हथियारों का जमकर इस्तेमाल किया था. ऐसे में भारत को यह समझने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि आखिर चीन अपने इस श्वेत पत्र के ज़रिए क्या जताने की कोशिश कर रहा है. पाकिस्तान अपने 81 प्रतिशत सैन्य हथियार और उपकरण चीन से लेता है. इसके अलावा, बांग्लादेश ने चीन की सहायता से ब्रिटिश युग के लालमोनिरहट हवाई अड्डे को फिर से विकसित करने की ताज़ा योजना बनाई है. इसके साथ ही वहां की कार्यवाहक सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस ने पिछले दिनों चीन दौरे में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बातचीत के दौरान भारत के सामरिक चिकन नेक का उल्लेख किया गया था. इतना ही नहीं, बांग्लादेश में चीन द्वारा संचालित की जा रहीं आर्थिक परियोजनाएं का भी रणनीतिक लिहाज़ से निशाना भारत पर ही है और कहीं न कहीं ये परियोजनाएं भारत को नुक़सान पहुंचाने के मकसद से चलाई जा रही हैं. इसी तरह, नेपाल भी चीनी प्रभाव में आता हुआ दिखाई दे रहा है और हाल ही में उसने अपने आधिकारिक दस्तावेज़ों में तिब्बत के लिए ‘शीज़ांग’ शब्द का इस्तेमाल शुरू किया है. ज़ाहिर है कि चीन द्वारा तिब्बत के लिए शीज़ांग का उपयोग किया जाता है. दिसंबर 2024 में जब नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने बीजिंग का दौरा किया था, तब जारी किए गए साझा बयान में भी नेपाल का चीन परस्त रुख़ सामने आया था. इस साझा बयान में नेपाल ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र का 'शीज़ांग' के रूप में उल्लेख किया था और ज़ोर देकर कहा था कि "शीज़ांग से जुड़े जो भी मामले हैं, वो चीन के आंतरिक मुद्दे हैं." इसके अलावा नेपाल ने यह भी कहा था कि वह अपनी ज़मीन पर चीन के विरुद्ध किसी भी प्रकार की अलगाववादी गतिविधियों की अनुमति नहीं देगा. भारत के लिए ख़ासी चिंता का मुद्दा है, क्योंकि चीन यह भी दावा करता है कि भारत का अरुणाचल प्रदेश राज्य ही दक्षिणी तिब्बत है, जिसे वह 'ज़ंगनान' भी कहता है. ऐसे में जब आने वाले दिनों में धीरे-धीरे तिब्बत को शीज़ांग के नाम से बुलाया जाने लगेगा, जिसका मतलब आम तौर पर पश्चिमी खजाने का घर होता है. इसी प्रकार से जब चीन की अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत के रूप में दावा किए जाने कोशिश, जो कि शीज़ांग के ठीक नीचे के हिस्से में स्थित है, सामान्य हो जाएगी और तो ऐसा माना जाने लगेगा की अरुणाचल प्रदेश तिब्बत का ही भाग है. चीन की ओर से आम तौर पर इस तरह की मनोवैज्ञानिक लड़ाइयां लड़ी जाती हैं और अपने पक्ष में माहौल बनाने के साथ दुनिया को भ्रमित करने की कोशिश की जाती है. इस हालातों में यह ज़रूरी हो जाता है कि भारत द्वारा चीन के श्वेत पत्र में छिपे इरादों को गहराई से समझा जाए, ख़ास तौर पर सुरक्षा से जुड़े उसे नापाक मंसूबों का पता लगाया जाए, ताकि किसी भी विपरीत परिस्थिति से निपटने के लिए भारत खुद को बेहतर तरीक़े से तैयार कर सके.


श्रीपर्णा पाठक ओ पी जिंदल ग्लोबल विश्वविद्यालय के जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में चीनी अध्ययन की प्रोफेसर हैं. 

उपमन्यु बसु मानव रचना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च एंड स्टडीज़ के व्यवहार एवं सामाजिक विज्ञान स्कूल के सामाजिक एवं राजनीतिक अध्ययन विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

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