Author : Atul Kumar

Expert Speak Raisina Debates
Published on Aug 20, 2024 Updated 0 Hours ago

करगिल युद्ध ने चीन और भारत को यह बात सिखा दी है कि LAC को सुरक्षित करने के लिए सैन्य क्षमताओं और बुनियादी ढांचे में इज़ाफ़ा करना ज़रूरी है. इस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता है.

चीन और करगिल युद्ध: तटस्थता से संघर्ष की ओर

जुलाई 2024 में चीन ने पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील पर एक ब्लैक-टॉप्ड ब्रिज का निर्माण पूरा किया. यह पुल इस झील के दोनों छोर पर बख़्तरबंद सेना की आवाजाही को सुगम बनाने का काम करेगा. यह पुल भारत और चीन के बीच के संबंधों के दो महत्वपूर्ण पहलूओं का प्रतिनिधित्व करता है. पहला यह कि चीन लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) पर मिलिट्री इंफ्रास्ट्रक्चर यानी सैन्य बुनियादी ढांचे को विकसित करने को लेकर प्रतिबद्ध है. इस प्रक्रिया को करगिल युद्ध के बाद ख़ासी गति मिली है. करगिल युद्ध के बाद से ही बीजिंग ने ‘गो वेस्ट’ आर्थिक विकास रणनीति अपना ली थी. सैन्य बुनियादी ढांचे को विकसित करने में आयी तेज़ी इसी रणनीति का हिस्सा है.

1999 का करगिल युद्ध ऐसे समय हुआ जब भारत, चीन के एक आर्थिक साझेदार के रूप उभर रहा था. दोनों देशों ने दो मुख़्य समझौते किए थे. इसमें 1993 में LAC पर शांति और सद्‌भाव बनाए रखने संबंधी समझौता तथा 1996 में दोनों सेनाओं के बीच विश्वास बढ़ाने के उपाय करने को लेकर किया गया समझौता शामिल था. 

दूसरे, LAC पर भारत-चीन के बीच 2020 से चल रहे गतिरोध के बीच चीन ने इस ब्रिज का उद्‌घाटन किया है. यह इस बात का संकेत है कि पिछले दो दशकों में भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर चल रहे विवाद को लेकर चीन के रुख़ में निरंतर बदलाव आ रहा है. किसी वक़्त तटस्थ और कभी-कभी मध्यस्थ की भूमिका अदा करने वाला चीन अब ख़ुलकर पाकिस्तान के समर्थन में आ गया है. वह UN में पाकिस्तान के आतंकवादियों का बचाव करता है और भारत के ख़िलाफ़ ख़ुलकर सक्रिया भूमिका अदा करते हुए देखा जा सकता है. इस पेपर में इसी मुद्दे का विश्लेषण किया गया है. इसके लिए हाल की मुख़्य गतिविधियों और वर्तमान स्थिति के पीछे रहे कारणों की चर्चा की गई है.

 

करगिल युद्ध के दौरान चीन की भूमिका

 

1999 का करगिल युद्ध ऐसे समय हुआ जब भारत, चीन के एक आर्थिक साझेदार के रूप उभर रहा था. दोनों देशों ने दो मुख़्य समझौते किए थे. इसमें 1993 में LAC पर शांति और सद्‌भाव बनाए रखने संबंधी समझौता तथा 1996 में दोनों सेनाओं के बीच विश्वास बढ़ाने के उपाय करने को लेकर किया गया समझौता शामिल था. दोनों ही देशों ने LAC पर अपने विवाद को ज़्यादा तवज्जो देने की बजाय अपने संबंधों में कूटनीति और व्यापार संबंधी बातचीत पर ध्यान देने का निर्णय लिया था. हालांकि 1998 में भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में कुछ अस्थायी तनाव देखा गया. लेकिन भारतीय कूटनीतिक दल (कोर) की ओर से किए गए सक्रिय प्रयासों के कारण इस तनाव की वजह से हुए नुक़सान को 1999 तक सुधार लिया गया था.

 

भारत को उस वक़्त भी लाभ मिला, जब चीन की सलाह को दरकिनार करते हुए 1998 में पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण कर लिया. इस वजह से अंतराराष्ट्रीय स्तर पर चीन की स्थिति थोड़ी मुश्किल हो गई थी. इसका कारण यह था कि बीजिंग को ही इस्लामाबाद के परमाणु कार्यक्रम का प्रमुख सहायक माना जाता था. US की कॉक्स कमेटी की रिपोर्ट में चीन पर इस्लामाबाद को परमाणु हथियार का विकास करने के लिए यूरेनियम संवर्धन तकनीक, रिंग मैंग्नेट्‌स समेत अन्य सामग्री मुहैया करवाने का आरोप लगाया गया था.

 

इसके अतिरिक्त चीन को यह पता चल गया था कि करगिल में घुसपैठ करने वालों में उसके यहां के शिनजियांग प्रांत के उइगर विद्रोही भी शामिल थे. ऐसे में इस युद्ध का अनुभव लेने वाले उइगर विद्रोहियों के चीन के मुस्लिम बहुल शिनजियांग तथा निंगशिया प्रांत में अशांति फ़ैलाने की संभावना को देखते हुए चीन ने इस संकट का तत्काल निपटारा करते हुए इस्लामिक जिहादियों के प्रभाव को दबाने की कोशिश की थी.

 

इतना ही नहीं संघर्ष के भड़कने और लंबा चलने पर परमाणु विवाद की संभावना से चीन के दक्षिणपश्चिमी इलाके में भी अनिश्चितता का माहौल बनता और इसकी वजह से बाहरी हस्तक्षेप की संभावना बढ़ जाती. यह एक ऐसा परिणाम था जो चीन को किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था. अत: इसके जवाब में चीन ने तटस्थ, लेकिन सक्रिय भूमिका अपनाई थी. उसने ख़ुद को एशिया में एक ज़िम्मेदार हितधारक के रूप में स्थापित करते हुए इस संघर्ष की तीव्रता को कम करने की दिशा में काम किया.

नई दिल्ली और चीन के बीच लगातार होने वाली कूटनीतिक बातचीत ने पाकिस्तान के परमाणु प्रेरित अतिआत्मविश्वास को घटाने का काम किया था. भारत के ख़िलाफ़ अपने विवादों में चीन को अपने पक्ष में देखने की पाकिस्तान को आदत लग चुकी थी.

नई दिल्ली और चीन के बीच लगातार होने वाली कूटनीतिक बातचीत ने पाकिस्तान के परमाणु प्रेरित अतिआत्मविश्वास को घटाने का काम किया था. भारत के ख़िलाफ़ अपने विवादों में चीन को अपने पक्ष में देखने की पाकिस्तान को आदत लग चुकी थी. 1964 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान चीन की अप्रत्यक्ष धमकियों के कारण ही भारत को अपने सेवन माउंटेन डिवीजन में से पांच को LAC पर ही लगाए रखने पर मजबूर होना पड़ा था. 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी चीन ने पाकिस्तान को राजनीतिक और कूटनीतिक समर्थन दिया था. चीन ने पाकिस्तानी सेना को हथियार, लॉजिस्टिक्स और अपनी हवाई सीमा का उपयोग करने का अधिकार देकर सहायता मुहैया करवाई थी. इसी वजह से चीन की तटस्थता और घुसपैठ को तत्काल ख़त्म करने की चीन की मांग ने पाकिस्तान को आश्चर्यचकित करते हुए निराश कर दिया था. US भी पाकिस्तान के सिर पर बैठकर उसे इन ऑपरेशंस को तुरंत बंद करने का दबाव डाल रहा था. ऐसे में चीन की ओर से समर्थन का अभाव बेहद अहम साबित हुआ और इस युद्ध को जारी रखने की पाकिस्तान की हिम्मत जवाब दे गई.

 

करगिल युद्ध से चीन को मिला सैन्य सबक

 

चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) ने करगिल युद्ध का निरीक्षण किया था. उसने विश्व के सबसे ऊंचे इलाके में युद्ध की गंभीरता को देखा था. यह देखकर PLA ने इस इलाके में होने वाले युद्ध के चीन की दक्षिणपश्चिमी सीमा पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन भी किया था. चीन ने समन्वय के अभाव की पहचान करते हुए यह पाया कि इस इलाके में पर्याप्त आक्रामक रणनीति भी नही है. इसी वजह से भारत की 8th इंफैंट्री डिवीजन को एक लंबे और महंगे संघर्ष में काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा था. PLA का मानना है कि भारत ने कमज़ोर लॉजिस्टिक्स और सीमित हवाई समर्थन के कारण यहां समन्वित और संयुक्त ऑपरेशंस की बजाय अपनी संख्याबल पर अधिक भरोसा किया था. 

 

हालांकि, आरंभिक नुक़सान के बाद भारत ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए इसे ठीक कर किया था. भारत ने हेवी आर्टिलरी यानी भारी तोपों और लेज़र गाइडेड बम का उपयोग करते हुए सटीक हमले किए थे. दरअसल ये हमले रात के वक़्त में छोटे सैन्य समूहों की ओर से किए जाने वाले हमलों की सहायता करने के लिए किए गए थे. रणनीति में इस बदलाव का भारत को लाभ मिला था. इस बदलाव ने भारत के लचीले रुख़ का प्रदर्शन करते हुए चीन को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया था. इसके अलावा चीन ने भारत और पाकिस्तान की सैन्य क्षमताओं में काफ़ी असमानता देखी थी. वह यह समझ गया था कि भारत की विस्तृत राष्ट्रीय शक्ति की पाकिस्तान भविष्य में कभी भी बराबरी नही कर सकेगा. इसी प्रकार भारतीय सेना ने 1 सितंबर 1999 को 14th कोर की स्थापना की. इसका काम LAC का पर्यवेक्षण या देखभाल करना था. लेह में स्थित यह कोर उस वक़्त से ही लेह के पूर्वी क्षेत्र पर नज़र रखे हुए है. इसकी वजह से LAC पर भारतीय सेना की तैयारियां मजबूत हो गई हैं. यही तैयारी गलवान मुठभेड़ के दौरान अहम साबित हुई थी.

 

करगिल युद्ध से चीन को मिले सबक तात्कालिक युद्ध क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि ये काफ़ी आगे तक जाते हैं. उसने भारतीय नौसेना की उसकी अहम सी लाइंस ऑफ़ कम्युनिकेशंस (SLOCs) में व्यावधान डालने की क्षमता को देख लिया था. इसी वजह से चीन के ‘‘मलक्का डाइलेमा’’यानी ‘‘मलक्का दुविधा’’ के चलते PLA की नौसेना ने यह निर्णय लिया कि वह पश्चिमी इंडियन ओशन यानी हिंद महासागर में अपनी नौसैनिक उपस्थिति को बढ़ाएगा.

 

बाद के वर्षों में चीनी टिप्पणीकारों ने करगिल संघर्ष और गलवान मुठभेड़ के बीच समानता देखी. इन टिप्पणीकारों ने दोनों को जोड़कर देखा, लेकिन उनमें आक्रमणकारी के अर्थ को लेकर मतभेद दिखाई दिए. करगिल मामले में ये टिप्पणीकार पाकिस्तान को दोषी मानते है, लेकिन गलवान मुठभेड़ में उनका मानना है कि भारत इसमें आक्रमणकारी था, क्योंकि भारत की सेना ने चीनी क्षेत्र में घुसकर चीनी सीमा रक्षकों पर हमला किया था.

 

सैन्य बुनियादी ढांचे पर चीनी सबक

 

करगिल युद्ध से भारत भी सीमा पर बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की अहमियत को समझ चुका था. 1960 के दशकों में भारत ने ‘‘स्ट्रैटेजी ऑफ़ डिनायल’’ यानी ‘‘अस्वीकार करने की रणनीति’’ अपना रखी थी. उसका मानना था कि अर्धविकसित सीमाएं PLA को भारत के आंतरिक इलाकों में आने अथवा उसे आगे बढ़ने से रोकेंगी. लेकिन करगिल युद्ध ने उस रणनीति की प्रभाव-शून्यता यानी बेअसरदारी को साबित कर दिया. इसका कारण यह था कि भारत की संचार और रसद की आपूर्ति वाली लाइनें बेहद दूर थी, जिसका लाभ दुश्मनों को मिल रहा था. इसे देखकर भारत ने बुनियादी ढांचे को विकसित करने का विचार करते हुए अपनी रणनीति को पुनर्निधारित करना ज़रूरी समझा.

 

चीन तो करगिल संघर्ष के पहले से ही सड़क और संचार मार्ग का निर्माण करने में जुट गया था. करगिल संघर्ष के पश्चात बीजिंग के सीमा पर बुनियादी ढांचे के विकास को 2000 में अपनाई गई ‘गो वेस्ट’ विकास रणनीति के कारण महत्वपूर्ण गति हासिल हुई. इस रणनीति के तहत चीन के पश्चिमी क्षेत्र में अहम निवेश के साथ ही बुनियादी ढांचे को विकसित करने पर बल दिया गया. इसमें विशेष रूप से तिब्बत और शिनजियांग के अशांत इलाकों का समावेश था. यही कारण था कि रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इन इलाकों में सैन्य क्षमताओं को मजबूत किया गया. अगले छह वर्षों में चीन ने सीमा पर हाईवे, हवाई अड्डे, संचार और लॉजिस्टिक्स यानी रसद सुविधाओं के साथ-साथ अपनी पश्चिमी सीमा पर अनेक सैन्य बुनियादी परियोजनाओं का निर्माण किया. 

 

2006 में किंघाई-तिब्बत रेल लाइन का उद्घाटन इन कोशिशों में मील का पत्थर बन गया था. इस रेल लाइन की सहायता से अब PLA के पास अपने पश्चिमी युद्ध क्षेत्र में कुछ ही दिनों में 30 डिवीजंस को तत्काल गतिशील करने की क्षमता उपलब्ध हो गई है. इसके अलावा चीन ने अधिकांश सीमा सैन्य पोस्ट्‌स से करीब 5 से 10 किलोमीटर सड़क को विस्तारित कर दिया है. इसी वजह से अब 2006 से PLA की LAC के भारतीय हिस्से में घुसपैठ की घटनाओं में इज़ाफ़ा देखा गया है. इसमें वृद्धि के कारण ही भविष्य में बड़ी हिंसक झड़पें हुई हैं.

 

इसके विपरीत भारतीय सेना की ओर से निर्माण की शुरुआत ही 2006 में की गई. उस वक़्त ल्हासा तक पहुंची चीनी रेल लाइन से भारत को तगड़ा झटका लगा था. इस झटके की वजह से ही भारतीय सरकार ने भारत-चीन बॉर्डर रोड (ICBR) फेज़ 1 प्रोग्राम पर अमल करते हुए 2012 तक 61 सड़कों के निर्माण का लक्ष्य तय किया था. लेकिन 2016 तक इसमें से केवल सात सड़कों का निर्माण ही पूरा हो सका है. इसका मुख़्य कारण भारतीय निर्माण की गुणवत्ता थी, जो अस्थिर पहाड़ी इलाके में टिक नही सकी. इन सड़कों की ज़िम्मेदारी बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन (BRO) को सौंपी गई थी. BRO भी अपनी अंदरुनी उठा-पटक में ही फंसा हुआ था. उसका अंदरुनी द्वंद्व यह था कि वह रक्षा मंत्रालय (MoD) के साथ-साथ राष्ट्रीय राजमार्ग एवं परिवहन मंत्रालय (MoRTH) के दोहरे नेतृत्व के तहत काम करता था. इस वजह से उसकी ओर से किए जाने वाले काम अटके पड़े थे.

BRO भी अपनी अंदरुनी उठा-पटक में ही फंसा हुआ था. उसका अंदरुनी द्वंद्व यह था कि वह रक्षा मंत्रालय (MoD) के साथ-साथ राष्ट्रीय राजमार्ग एवं परिवहन मंत्रालय (MoRTH) के दोहरे नेतृत्व के तहत काम करता था. 

इसमें उल्लेखनीय प्रगति 2015 के बाद ही देखी गई जब तत्कालीन रक्षा मंत्री स्व. मनोहर पर्रिकर ने पहल करते हुए BRO को संपूर्णत: MoD के तहत लाने का निर्णय लिया. उन्होंने आधुनिक उपकरण भी ख़रीदे, जिसमें टनल-बोरिंग मशीन का भी समावेश था. उनकी अगुवाई में ही विभिन्न संबंधित मंत्रालयों के बीच कार्य शैली में सुधार देखा गया. इसके परिणाम स्वरूप ही विगत नौ वर्षों में भारत ने अब तक ICBR के दो चरणों को पूर्ण कर लिया है. इसके चलते सीमा पर उसका बुनियादी सैन्य ढांचा मजबूत हुआ है.

 

बुनियादी ढांचे में सुधार बना भारत-चीन संघर्ष का कारण 

 

जब तक चीन ने LAC पर अपने बुनियादी सैन्य ढांचे के मामले में भारत पर वर्चस्व बनाए रखा, तब तक सीमा पर भारत-चीन के बीच संबंध आमतौर पर शांतिपूर्ण ही रहे. लेकिन भारत की ओर से अपने बुनियादी सैन्य ढांचे में तेजी से सुधार की कोशिशों के कारण अब भारत उसके ढांचे की बराबरी करने लगा था. इस वजह से चीन अब असहज महसूस करने लगा है. इन घटनाओं का ही परिणाम है कि 2013 में देपसांग प्लेटू में गतिरोध पैदा हुआ. चीन को इस बात ने सबसे ज़्यादा असहज किया था भारत ने दौलत बेग ओल्डी, फुक्शे तथा न्योमा में एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड को रिएक्टिवेट किया था और चुमार में वह यानी भारत निगरानी बंकर्स का निर्माण कर रहा था. सीमा पर होने वाली इन गतिविधियों के वजह से ही देपसांग गतिरोध हुआ और PLA की राकी नाला क्षेत्र में तैनाती हुई थी. राकी नाला क्षेत्र भी एक विवादित क्षेत्र है, जिसका हल निकाला जाना है. इसके बाद भारत-चीन के बीच डोकलाम तथा गलवान में हुए विवाद को भी भारत की ओर से बुनियादी सैन्य ढांचे में किए जा रहे इज़ाफ़े से जोड़कर ही देखा जाता है.

 

तटस्थता से स्पर्धा की ओर 

 

शीत युद्ध के बाद के दौर में चीन के पास भारत के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने के अनगिनत कारण अथवा प्रोत्साहन मौजूद रहे हैं. ऐसे में करगिल युद्ध के बाद चीन तस्टथ रहा था. उसने यह दिखाने की कोशिश की थी कि वह अपने दक्षिण्पश्चिमी सीमा पर संकट का तत्काल समाधान पाने का परोकार है. ऐसा करते हुए वह ख़ुद को एक ज़िम्मेदार हितधारक साबित करना चाहता था.

पिछले तीन दशकों में चीन ने पाकिस्तान के साथ अपने गठजोड़ को पुनर्जीवित किया है. वह UN में ख़ुले तौर पर पाकिस्तानी आतंकवादियों का बचाव करता है. इतना ही नहीं वह पाकिस्तान को विभिन्न आक्रामक हथियारों की आपूर्ति भी कर रहा है.

लेकिन इस संघर्ष के कारण चीन और भारत दोनों को ही अपनी सैन्य क्षमताओं में सुधार करते हुए शक्ति को संगठित करने और रसद की क्षमता को बढ़ाने का सबक मिल गया. इसकी वजह से दोनों देशों के बीच बुनियादी सैन्य ढांचे को बढ़ाने की स्पर्धा होने लगी. सीमा पर भारत की ओर से अपने बुनियादी सैन्य ढांचे में इज़ाफ़ा करने से चीन को लगा कि अब LAC पर उसका एकाधिकार नहीं रह जाएगा. उसने भारत के इस कदम को अपने लिए चुनौती के रूप में देखा. इसी कारण करगिल युद्ध में तटस्थ रहने वाला चीन अब सीधे-सीधे संघर्ष पर उतारु हो गया. पिछले तीन दशकों में चीन ने पाकिस्तान के साथ अपने गठजोड़ को पुनर्जीवित किया है. वह UN में ख़ुले तौर पर पाकिस्तानी आतंकवादियों का बचाव करता है. इतना ही नहीं वह पाकिस्तान को विभिन्न आक्रामक हथियारों की आपूर्ति भी कर रहा है.

 

करगिल युद्ध के इस पूरे मामले में भारत और चीन के लिए मूल सबक बेहद साफ़ है. यह सबक है कि दोनों ही देशों के लिए LAC को सुरक्षित करने के लिए अपनी सैन्य क्षमताओं में इज़ाफ़ा करते हुए बुनियादी सैन्य ढांचे का विकास करना बेहद ज़रूरी हो गया है. और इस मामले में कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक विचार अथवा विमर्श को देखकर कोई समझौता नहीं कर सकता है.


अतुल कुमार, ऑर्ब्जवर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में फेलो हैं.

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