Author : Ashok Sajjanhar

Published on Aug 04, 2021 Updated 0 Hours ago

पिछले दशक की शुरुआत में मध्य एशियाई देशों की कुल सैन्य ख़रीद का सिर्फ़ 1 प्रतिशत हिस्सा चीन से आता था. आज ये आंकड़ा बढ़कर 18 प्रतिशत तक पहुंच गया है. 

मध्य एशिया के साथ चीन के कारोबार: एक मुश्किल पर खोजना डगर

मध्य एशियाई देशों- कज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान को सोवियत संघ से आज़ादी पाए 30 साल हो गए हैं. 1991 से बाद के इस कालखंड में चीन के साथ उनके रिश्तों में ज़बरदस्त तेज़ी आई है. 

सोवियत संघ के ज़माने में कज़ाक, किर्गी और ताजिक सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के साथ चीन की सीमाएं स्पष्ट नहीं थीं. इसके चलते बीजिंग और मॉस्को के बीच तनावपूर्ण हालात रहा करते थे. सोवियत संघ के विघटन और कज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान की आज़ादी के फ़ौरन बाद चीन ने इन तीनों मध्य एशियाई देशों और रूसी फ़ेडरेशन के साथ अपनी सरहद को स्थायी और अंतिम स्वरूप दे दिया. सीमाओं को अंतिम रूप देने के बाद इन देशों के साथ सहयोग को बढ़ावा देने के मकसद से 1996 में शंघाई फ़ाइव का गठन किया गया. 2002 में उज़्बेकिस्तान के प्रवेश के बाद ये समूह शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) में तब्दील हो गया.  

मध्य एशियाई देशों के साथ अपनी सरहद को अंतिम रूप देने में चीन द्वारा दिखाई गई तत्परता के पीछे एक बहुत बड़ी वजह थी. दरअसल चीन पूर्वी तुर्किस्तान में शांति कायम करना चाहता था. चीन ने इसे शिनजियांग (नए इलाक़े) का नाम दे दिया था. 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के गठन के वक़्त चीन ने सोवियत संघ की मदद से इस इलाक़े को हड़पकर अपने अधिकार-क्षेत्र में शामिल कर लिया था. 

मध्य एशिया में राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य मामलों में चीन की पैठ बढ़ती जा रही है. रूस इस इलाक़े को पारंपरिक तौर पर अपना आंगन मानता रहा है. ऐसे में आने वाले वर्षों में इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमाने को लेकर रूस और चीन में होड़ देखने को मिल सकती है.

चीन पूर्वी तुर्किस्तान में क़ानून-व्यवस्था बरकरार रखने के साथ-साथ तुर्कमेनिस्तान, कज़ाकिस्तान और उज़्बेकिस्तान में निवेश करने की इच्छा रखता है. इसके अलावा वो इन देशों से तेल, गैस और यूरेनियम जैसे जैव-ईंधनों समेत दूसरे ख़निज पदार्थों का आयात करना चाहता है. ऊर्जा की अपनी कभी न मिटने वाली ज़रूरतों को पूरा करने के लिए चीन ने पिछले दो दशकों में तेल और गैस के कई पाइपलाइन स्थापित किए हैं. 

वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) परियोजना की शुरुआत ने चीन के लिए मध्य एशिया की अहमियत और बढ़ा दी है. इस प्रोजेक्ट का नाम आगे चलकर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) कर दिया गया. ये परियोजना चीन को यूरोप और मध्य-पूर्व से जोड़ती है. 

कज़ाकिस्तान मध्य एशिया की सबसे बड़ी और समृद्ध अर्थव्यवस्था है. उसने चीन के साथ अपनी भागीदारी को बेहद उत्साह के साथ स्वीकार किया है. कज़ाकिस्तान ने ख़ुद को बीआरआई परियोजना की अहम “कड़ी” के तौर पर पेश किया है. वो बीजिंग द्वारा मुहैया कराए जा रहे निवेश और कनेक्टिविटी से जुड़े नए अवसरों का इस्तेमाल कर आर्थिक और वित्तीय लाभ हासिल करना चाहता है.    

बहरहाल, पिछले कुछ वर्षों में इनमें से कुछ देशों के नागरिकों और चीन के बीच तनाव में बढ़ोतरी देखी गई है. भले ही सरकारों और समाज के उच्च वर्गों के स्तर पर ऐसा कोई तनाव महसूस नहीं किया गया हो, लेकिन आगे चलकर कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान जैसे देशों की सरकारों को चीन के बढ़ते दबदबे के ख़िलाफ़ कोई न कोई ठोस क़दम उठाने को मजबूर होना पड़ सकता है. 

मध्य एशिया में राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य मामलों में चीन की पैठ बढ़ती जा रही है. रूस इस इलाक़े को पारंपरिक तौर पर अपना आंगन मानता रहा है. ऐसे में आने वाले वर्षों में इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमाने को लेकर रूस और चीन में होड़ देखने को मिल सकती है. वैसे तो ऊपरी तौर पर अबतक चीन और रूस बिना किसी टकराव के आपसी तालमेल के साथ आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हैं, लेकिन आने वाले वर्षों में हालात बदल भी सकते हैं.   

क्षेत्र के ख़निज संसाधनों पर चीन का बढ़ता नियंत्रण

चीन की मज़बूत अर्थव्यवस्था में ऊर्जा की मांग लगातार बढ़ती जा रही है. चीन में तैयार वस्तुओं का विदेशी बाज़ार दिन दोगुनी रात चौगुनी रफ़्तार से फैल रहा है. इन्हीं वजहों से चीन मध्य एशिया में अपने पांव पसारने की जुगत में लगा है. 1990 के दशक के बाद से ही चीन में ऊर्जा की मांग बेतहाशा बढ़ती चली गई है. चीन में तेल की दैनिक ख़पत 1998 में 42 लाख बैरल थी जो 2018 में बढ़कर 1.35 करोड़ बैरल रोज़ाना तक पहुंच गई. चीन में प्राकृतिक गैस की ख़पत में 2020 से 2050 के बीच तक़रीबन 190 फ़ीसदी की बढ़ोतरी होने का अनुमान है.  

चीन अपने ईंधन भंडार और उसके स्रोतों में विविधता लाना चाहता है. इतना ही नहीं वो यूरोप और मध्य पूर्व तक आने-जाने के नए रास्तों की तलाश में है. ऐसे में हाइड्रोकार्बन ईंधनों और ख़निजों का अपार भंडार समेटे मध्य एशिया के ये देश चीन के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गए हैं.इन देशों में 40 अरब बैरल तेल का भंडार होने का पता चला है. यहां प्राकृतिक गैस के भंडार 500 खरब घन फ़ीट से भी ज़्यादा हैं (अकेले तुर्कमेनिस्तान में ही इसका 350 खरब घन फ़ीट भंडार है). मध्य एशियाई गणराज्य (सीएआर) ईंधन की ज़रूरतों के मामले में चीन की मध्य-पूर्व पर निर्भरता कम करने में बड़ा रोल निभा सकते हैं. मध्य एशिया में यूरेनियम के भी बड़े भंडार मौजूद हैं. कज़ाकिस्तान दुनिया में इस बेशक़ीमती ख़निज के भंडार के मामले में ऑस्ट्रेलिया के बाद दूसरा स्थान रखता है. हाल के वर्षों में कज़ाकिस्तान ने यूरेनियम के उत्पादन में ऑस्ट्रेलिया को पीछे छोड़ते हुए दुनिया में पहला मुकाम हासिल कर लिया है. उज़्बेकिस्तान में भी यूरेनियम का बड़ा भंडार मौजूद है. साफ़ है कि चीन की ऊर्जा सुरक्षा के लिए मध्य एशिया बेहद अहम स्थान रखता है.

चीन अपने ईंधन भंडार और उसके स्रोतों में विविधता लाना चाहता है. इतना ही नहीं वो यूरोप और मध्य पूर्व तक आने-जाने के नए रास्तों की तलाश में है. 

मध्य एशियाई देशों को अपने ऊर्जा क्षेत्र में तकनीकी विकास और बुनियादी ढांचा खड़ा करने के लिए वित्तीय निवेश की ज़रूरत है. चीन के पास 4 खरब अमेरिकी डॉलर से भी ज़्यादा का विदेशी मुद्रा भंडार है. इसके अलावा उसे तकनीक के मामले में भी महारत हासिल है. लिहाजा चीन मध्य एशियाई देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का महत्वपूर्ण स्रोत बनकर उभरने में कामयाब रहा है.  

हाल ही में दक्षिण चीन सागर में मलेशिया, वियतनाम, इंडोनेशिया और फिलीपींस के साथ-साथ अमेरिका से चीन का टकराव देखने को मिला है. ऐसे में मध्य एशिया के तेल और गैस संसाधनों की अहमियत चीन के लिए और बढ़ गई है. चीन अपनी ईंधन ज़रूरतों का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा पश्चिम एशिया से आयात करता है. ये आयात किसी भी तरह की भूराजनीतिक ख़तरे की ज़द में रहते हैं. मध्य पूर्व के देशों के मुक़ाबले मध्य एशियाई देशों के ईंधन भंडार चीन से ज़्यादा क़रीब हैं. चीन के पश्चिमी इलाक़ों तक मध्य एशिया से ईंधन की सप्लाई करना अपेक्षाकृत ज़्यादा आसान है. 

शिनजियांग (पूर्वी तुर्किस्तान) में सुरक्षा बरकरार रखना

चीन के पश्चिमी इलाक़े में वीगर समुदाय से जुड़े लोग रहते हैं. तुर्की बोलने वाले इस नस्ली समुदाय ने 1980, 1981, 1985 और 1987 में चीन के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन छेड़ दिया था. अतीत में भी इन्होंने ऐसे ही आंदोलन किए थे. वीगर समुदाय आज़ादी चाहता है. 1924 और 1944 में इन्होंने ख़ुद को स्वतंत्र घोषित भी कर दिया था. दोनों ही बार उनके आंदोलनों को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया गया. 1944 में नए नवेले पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना ने वीगरों के प्रदर्शन को कठोरतापूर्वक दबाया था. पिछले चार वर्षों में चीन ने कई सुधार गृह स्थापित किए हैं. चिकनी चुपड़ी भाषा में चीन इन्हें “शिक्षा केंद्र” बताता रहा है. दरअसल इन केंद्रों के ज़रिए चीन वीगर समुदाय के लोगों का ब्रेनवाश करता है, उन्हें यातनाएं देता है और उन्हें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा के हिसाब से चलने को मजबूर करता है. चीन इन प्रयासों के ज़रिए वीगर लोगों की ख़ास पहचान मिटाकर उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की जुगत में लगा है. 

पूर्वी तुर्किस्तान में लंबे समय से रह रहे कज़ाक और किर्गी नस्ल वाले कई लोगों को भी इन तथाकथित सुधार गृहों में बंदी बनाकर रखा गया है. उनको नियमित तौर पर यातनाएं दी जाती हैं. उनमें से कइयों की जबरन नसबंदी करवा दी गई है. उनसे बंधुआ मज़दूरी करवाई जाती है. शिनजियांग में बंदी बनाए गए लोगों के रिश्तेदारों या इन बंदीगृहों से बचकर निकलने में कामयाब लोगों के ज़रिए ये क़िस्से मध्य एशियाई देशों तक पहुंचते रहे हैं. नतीजतन इन देशों में बड़े पैमाने पर आम लोगों के विरोध-प्रदर्शन होते रहे हैं. यहां के लोग चाहते हैं कि उनकी सरकारें चीन के साथ इस मुद्दे को मज़बूती से उठाए. हालांकि, अब तक इन विरोध-प्रदर्शनों का मध्य एशियाई देशों की सरकारों पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ है. 

चीन-विरोधी प्रदर्शन

कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान में अतीत में कई बार चीन-विरोधी प्रदर्शन हुए हैं. 2009 और 2016 में कज़ाकिस्तान में चीन के ख़िलाफ़ व्यापक विरोध-प्रदर्शन हुए थे. ये प्रदर्शन उन ख़बरों के बाद हुए थे जिनमें कहा गया था कि कज़ाकिस्तान की सरकार चीन को खेती के मकसद से अपनी ज़मीन का बड़ा टुकड़ा लीज़ पर देने की मंज़ूरी देने जा रही है. 2011 में झानाओज़ेन में तेल कर्मचारियों और कज़ाकिस्तान के क़ानून का पालन कराने वाले अधिकारियों के बीच हिंसक झड़प में कई लोगों की जान चली गई थी. इस तेल क्षेत्र में चीन की कंपनी सीआईटीआईसी भी निवेशक थी. उसपर कज़ाक कामगारों को वेतन देने में भेदभाव करने के इल्ज़ाम लगे थे. पिछले साल नूर-सुल्तान स्थित चीनी दूतावास के साथ सार्वजनिक तौर पर विवाद छिड़ गया था. इस फ़साद के पीछे की वजह कज़ाकिस्तान के कई शहरों में कथित तौर पर कोविड-19 के घातक स्ट्रेन का सामने आना था. ज़ाहिर तौर पर इस पूरी कवायद के पीछे वुहान वायरस का ठीकरा चीन की बजाए किसी दूसरे देश के मत्थे फोड़ने की रणनीति काम कर रही थी. चीनी दूतावास द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को कज़ाकिस्तान के स्वास्थ्य मंत्री ने तत्काल ख़ारिज कर दिया था.  

चीन अपनी ईंधन ज़रूरतों का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा पश्चिम एशिया से आयात करता है. ये आयात किसी भी तरह की भूराजनीतिक ख़तरे की ज़द में रहते हैं.

किर्गिस्तान में भी समय-समय पर इसी तरह के विरोध-प्रदर्शन देखने को मिले हैं. 4 अक्टूबर 2020 को रद्द हुए संसदीय चुनाव के बाद प्रदर्शनकारियों ने चीनी कारोबार के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त ग़ुस्से का इज़हार किया था. इससे पहले 2018 में भी चीन को किर्गिस्तान में भारी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. दरअसल चीन ने किर्गिस्तान में 38.6 करोड़ अमेरिकी डॉलर की लागत से एक थर्मल पावर प्लांट का पुनर्निर्माण किया था. सर्दियों में बेहद ठंडे मौसम में अचानक इस प्लांट ने काम करना बंद कर दिया था. उस इलाक़े में कार्यरत चीनी कंपनियों के भ्रष्ट और प्रदूषणकारी बर्तावों पर कई सवाल खड़े किए गए थे.   

चीनी वित्त, सामानों, कामगारों और प्रशासन ने मध्य एशिया के आर्थिक भूगोल को बदलकर रख दिया है. यहां के देशों की सरकारों ने बड़े उत्साह के साथ चीनी प्रयासों का समर्थन किया और उन्हें बढ़ावा दिया है. हालांकि, इस पूरी कवायद में मध्य एशियाई देशों के नागरिक हाशिए पर बने रहे. वो किनारे खड़े होकर बस तमाशा ही देखते रहे. इन देशों के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सामरिक, सांस्कृतिक और सैन्य क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ते चीनी दख़ल के चलते आम लोगों के बीच व्यापक तौर पर चिंता का माहौल दिखाई दे रहा है. 

हालांकि, इन प्रदर्शनों और आंदोलनों का चीन पर शायद ही कोई असर पड़ता हो. उज़्बेकिस्तान इसका सबसे सटीक उदाहरण है. इस्लाम कारिमोव के राष्ट्रपति रहते यहां चीनी निवेश और प्रभावों के लिए रास्ते बंद थे. हालांकि, 2016 में शवकत मिरज़ियोयेव द्वारा राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद चीनी निवेश को खुली बाहों से स्वीकार किया जाने लगा. 

मध्य एशिया में सुरक्षा के क्षेत्र में चीनी पैठ

चीन इस इलाक़े में सुरक्षा के क्षेत्र में अपना दखल बढ़ाने पर बेहद बारीकी से ध्यान देता रहा है. सुरक्षा मामलों में चीन की मौजूदगी दिखाई देने लगी है. चीन यहां सैन्य अड्डों का निर्माण कर रहा है. अफ़ग़ानिस्तान से लगी चीनी सीमा के किनारे ताजिकिस्तान की फ़ौज के सैन्य प्रशिक्षण के लिए चीन साझा अभ्यास से जुड़े कार्यक्रम चला रहा है. उन्हें फ़ौजी साजोसामान मुहैया करवा रहा है. कुल मिलाकर चीन इस क्षेत्र में अपनी ताक़त का खुले तौर पर इज़हार करने लगा है. 2019 में ऐसी ख़बरें भी आई थीं कि चीनी फ़ौज ताजिक, किर्गी और उज़्बेकी सेनाओं के साथ साझा प्रशिक्षण अभ्यास कर रही है. पिछले दशक की शुरुआत में मध्य एशियाई देशों की कुल सैन्य ख़रीद का सिर्फ़ 1 प्रतिशत हिस्सा चीन से आता था. आज ये आंकड़ा बढ़कर 18 प्रतिशत तक पहुंच गया है. 

ताजिकिस्तान अपने दक्षिण में अफ़ग़ानिस्तान के साथ 1300 किमी लंबी सरहद साझा करता है. यहां आज की तारीख़ में चीन की सैन्य मौजूदगी भले ही काफ़ी कम हो लेकिन उसमें लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है. 2019 में ऐसी कई ख़बरें आईं जिनमें कहा गया कि चीन ने “अफ़ग़ानिस्तान से लगी सीमा के ताजिकिस्तान वाले हिस्से में 30 से 40 सुरक्षा चौकियों के पुनर्निर्माण या स्थापना” से जुड़े अधिकार या ठेके हासिल कर लिए हैं. 

चीन की मौजूदगी के फ़ायदे

इसमें कोई शक़ नहीं कि इस इलाक़े में चीन के बढ़ते प्रभाव के कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं. यहां के स्थानीय लोग चीन की दीर्घकालिक रणनीतियों के बारे में कई तरह के षड्यंत्रकारी किस्सों की खुले तौर पर चर्चा करते रहते हैं. हालांकि, वो ये भी स्वीकार करते हैं कि चीन द्वारा यहां खड़े किए गए बुनियादी ढांचों की बदौलत उनकी ज़िंदगी में बेहतर बदलाव आए हैं. यहां स्थानीय बिल्डरों और कॉन्ट्रैक्टर्स के मुक़ाबले चीनी कंपनियों को कहीं ज़्यादा विश्वसनीय और भरोसेमंद माना जाता है. भले ही सार्वजनिक माध्यमों में कंफ्यूशियस इंस्टीट्यूट्स की आलोचनाएं होती रहती हैं. उन्हें स्थानीय युवाओं का ब्रेनवॉश करने वाली एजेंसी बताया जाता है. इसके बावजूद चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था द्वारा प्रस्तुत अवसरों का लाभ उठाने की ताक में कई युवा इन संस्थानों का दौरा करते रहते हैं. 

बेल्ट एंड रोड से जुड़ी निवेश परियोजनाओं के ज़रिए चीन मध्य एशियाई क्षेत्र में तेज़ी से पैठ जमाता जा रहा है. ऐसे में ये इलाक़ा वैश्विक व्यापार और कनेक्टिविटी का नया अगुआ  बनकर उभर रहा है. 

मध्य एशिया में रूस और चीन

रूस पारंपरिक तौर पर मध्य एशिया को अपने ‘नज़दीक वाले परदेस’ के तौर पर देखता रहा है. वो इस क्षेत्र को अपने प्रभाव के दायरे में मानता है. बहरहाल एक शक्तिशाली आर्थिक ताक़त के तौर पर चीन के उदय ने इस इलाक़े के समीकरणों को बदलकर रख दिया है. ऐसे में देशों के बीच के रिश्ते नए सिरे से गढ़े जाने लगे हैं.  

कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान में अतीत में कई बार चीन-विरोधी प्रदर्शन हुए हैं. 2009 और 2016 में कज़ाकिस्तान में चीन के ख़िलाफ़ व्यापक विरोध-प्रदर्शन हुए थे. ये प्रदर्शन उन ख़बरों के बाद हुए थे जिनमें कहा गया था कि कज़ाकिस्तान की सरकार चीन को खेती के मकसद से अपनी ज़मीन का बड़ा टुकड़ा लीज़ पर देने की मंज़ूरी देने जा रही है. 

रूस और चीन के बीच विभिन्न मसलों पर मोटे तौर पर बनी समझ के बावजूद इस इलाक़े में तेज़ी से बढ़ती चीनी मौजूदगी को क्रेमलिन (रूस) बेहद एहतियात और अविश्वास भरी नज़रों से देखता रहा है. शुरुआती दौर में इस क्षेत्र में पैठ जमाने की चीनी कोशिशों के प्रति रूस ने टकराव वाला रुख़ अपनाया था. वो ऊर्जा क्षेत्र की नई परियोजनाओं के ज़रिए इस क्षेत्र की मुख्य आर्थिक ताक़त होने की अपनी छवि को बरकरार रखना चाह रहा था. इसी कोशिश के तहत उसने चीन की नई पहलों की धार कुंद करने की चाल चली थी. इसी कड़ी में रूस ने अपना ख़ुद का आर्थिक समूह: यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन स्थापित किया. बहरहाल रूसी कोशिशों के रास्ते में अनेक रुकावटें आ खड़ी हुईं. पश्चिमी जगत के साथ उसके रिश्तों की खाई दिन ब दिन चौड़ी होती चली गई. रूस पर नित नई पाबंदियों की भरमार हो गई. रूस द्वारा क्रीमिया को अपने अधिकार क्षेत्र में मिला लेने के चलते पश्चिम के साथ उसके रिश्तों में तल्खी आती गई. इसके बाद 2014 में पूर्वी यूक्रेन में छिड़ी जंग की वजह से यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन से जुड़ी पूरी कवायद पर ब्रेक लग गया. इन तमाम वजहों से रूस को चीन के साथ एक अधिक यथार्थवादी रिश्ता बनाने पर मजबूर होना पड़ा. रूस-चीन द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से साल 2014 को एक टर्निंग प्वाइंट के तौर पर देखा जा सकता है

.यहां के स्थानीय लोग चीन की दीर्घकालिक रणनीतियों के बारे में कई तरह के षड्यंत्रकारी किस्सों की खुले तौर पर चर्चा करते रहते हैं. हालांकि, वो ये भी स्वीकार करते हैं कि चीन द्वारा यहां खड़े किए गए बुनियादी ढांचों की बदौलत उनकी ज़िंदगी में बेहतर बदलाव आए हैं.

आज मध्य एशिया में ऐसा लगता है मानो रूस ने चीन की आर्थिक श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया है. हालांकि, इसके साथ ही रूस ने अपनी प्रासंगिकता को सुरक्षित रखने और इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बरकरार रखने की भी कोशिशें की हैं. चीन इस क्षेत्र की सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त हो सकता है लेकिन रूस अपने राजनीतिक, रक्षा और सैन्य संबंधों के ज़रिए इस इलाक़े में अपनी पैठ बनाए रखेगा. कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन जैसी संस्थाओं के ज़रिए रूस इस क्षेत्र से जुड़े अपने विचारों को आकार देता रहेगा.

निष्कर्ष

चीन पूरी शिद्दत से मध्य एशिया में अपनी आर्थिक मौजूदगी बढ़ाना चाहता है, लेकिन उसकी इस सोच के साथ यहां के कई देश इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते. सेंट्रल एशिया बैरोमीटर द्वारा 2020 में किए गए अध्ययन से पता चला था कि मध्य एशियाई लोग अपने इलाक़े में चीन की मौजूदगी के चलते धीरे-धीरे काफ़ी असहज महसूस करने लगे हैं. कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान में पिछले कुछ समय से चीनी निवेशकों के ख़िलाफ़ तनाव का माहौल बनने लगा है. कज़ाकिस्तान की सिर्फ़ 7 प्रतिशत और किर्गिस्तान की केवल 9 फ़ीसदी आबादी ने अपने-अपने देशों में ऊर्जा और बुनियादी ढांचों से जुड़ी चीनी परियोजनओं के प्रति “ठोस समर्थन” का इज़हार किया है.  

आज मध्य एशिया में ऐसा लगता है मानो रूस ने चीन की आर्थिक श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया है. 

कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान के विपरीत उज़्बेकिस्तान की सीमा प्रत्यक्ष रूप से चीन के साथ नहीं लगती है. वहां के स्थानीय लोगों में चीनी निवेश के प्रति अपेक्षाकृत ज़्यादा उत्साह देखने को मिलता है. हालांकि, वहां भी चीन के प्रति संदेह का वातावरण बढ़ रहा है. 2019 में 65 प्रतिशत उज़्बेकी लोगों ने चीनी निवेश के प्रति “ठोस समर्थन” ज़ाहिर किया था. 2020 में ये आंकड़ा गिरकर 48 फ़ीसदी पर पहुंच गया. 

मध्य एशिया के लोग उन देशों में चीन की बढ़ती मौजूदगी के व्यापक सामरिक और सुरक्षात्मक चुनौतियों को लेकर कोई बहुत ज़्यादा चिंतित नहीं हैं. इसकी बजाए उनका ध्यान अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ी चुनौतियों पर है. वो अपनी आंखों के सामने दिख रही आर्थिक तरक्की में हिस्सा लेने को आतुर हैं. मध्य एशिया के साथ चीन की क़ुदरती सरहदों से ज़ाहिर है कि इस इलाक़े में हमेशा ही चीन का प्रभाव और दिलचस्पी बनी रहेगी और वो यहां अपना दबदबा बनाए रखेगा. 

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