Published on Nov 01, 2021 Updated 0 Hours ago

अफ्रीकी देशों में पहले दिख रहे चीनी-आशावाद का धीरे-धीरे लुप्त होना और पश्चिमी देशों के बीआरआई के ख़िलाफ़ उभरते विरोध पर्याप्त कारण हैं जिसे लेकर यह समझा जा सकता है कि चीन को अपनी अफ्रीकी नीति को लेकर फिर से विचार करने की आवश्यकता है.

चीन और अफ्रीका – क्या दोनों देशों के बीच सुनहरे संबंधों वाले दिनों का अंत आ गया है?

2000 के दशक में सबसे अहम बदलाव अफ्रीकी देशों में चीन के व्यापार, निवेश और वित्तीय प्रवाह को लेकर रहा.

इस दौरान अफ्रीकी महादेश में चीन के व्यापार और निवेश के संबंधों में ज़बर्दस्त इजाफ़ा हुआ जबकि चीन-अफ्रीका के संबंधों की सबसे ख़ास विशेषता यह थी कि अफ्रीकी ढांचागत व्यवस्था के विकास में चीन ने भारी-भरकम निवेश किया. साल 2000 से 2019 के बीच चीन ने अफ्रीका के सार्वजनिक क्षेत्र के उधारकर्ताओं को 153 बिलियन अमेरिकी डॉलर ख़र्च करने का वादा किया. अफ्रीका में चीन के निवेश प्रमुख तौर पर चाइना डेवलपमेंट बैंक, चाइना एक्ज़िम बैंक के ज़रिए मुमकिन किया गया जबकि चीनी कंपनियों ने प्रमुख इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे सड़क, रेलवे और बंदरगाहों का वहां निर्माण करवाया.

अफ्रीका में चीनी निवेश की ऐसी कहानी ने दुनिया भर के शोधकर्ताओं और पत्रकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा जिसके बाद अफ्रीका में चीनी जुड़ाव से संबंधित कई तरह के साहित्य नज़र आने लगे. हालांकि ज़्यादातर अध्ययनों में अफ्रीकी देशों पर चीन के असर के बारे में एक द्विभाजित अवधारणा को सामने लाया गया जिसमें चीन को ‘ख़तरा’ या फिर ‘अवसर’ के तौर पर परिभाषित किया गया लेकिन अफ्रीका में चीन की भूमिका को लेकर एक साफ धारणा फिर भी सामने नहीं आ सकी. दूसरी तरफ, वो लोग हैं जिनके मुताबिक अफ्रीका में चीन वहां की ढांचागत व्यवस्था, जिसकी कमी वहां के विकास के लिए सबसे बड़ी बाधा है, उसे विकसित कर बेहद अहम भूमिका निभा रहा है. इसके साथ ही कुछ ऐसे भी शोधकर्ता हैं जो अफ्रीका के इन्फ्रास्ट्रक्चर समझौतों को लेकर चीनी संसाधन के इस्तेमाल की खुलकर आलोचना करते हैं और चीन के कर्ज़ देने की प्रक्रिया की अस्पष्टता को ‘कर्ज़ के जाल में फंसाने की कूटनीतिक कोशिश’ मानते हैं. विशेषज्ञों ने ‘चीन के छिपे हुए कर्ज़’ की समस्या को भी रेखांकित किया है क्योंकि अफ्रीकी देशों को चीनी कर्ज़ के एक महत्वपूर्ण हिस्से के बारे में जानकारी नहीं दी गई है. हाल में एडडाटा द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, कम और मध्यम आय वाले देशों को चीन के द्वारा दिए गए ऐसे कर्ज़ जिसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है वह करीब 385 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर है.

अफ्रीका में चीनी निवेश की ऐसी कहानी ने दुनिया भर के शोधकर्ताओं और पत्रकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा जिसके बाद अफ्रीका में चीनी जुड़ाव से संबंधित कई तरह के साहित्य नज़र आने लगे.

चीन की कर्ज़ देने के तरीकों को लेकर होने वाली आलोचनाओं के बावजूद अफ्रीकी नेता चीन को महत्वपूर्ण साझेदार बताते हैं और अफ्रीकी देशों के ढांचागत विकास के लिए चीन के निवेश का स्वागत करते हैं और इसे दोनों देशों के लिए सकारात्मक सहयोग बताते हैं. मसलन, रवांडा के राष्ट्रपति पाल कागमे अफ्रीका में चीन के निवेश की वकालत करते हैं. उनके मुताबिक “चीन अफ्रीका के साथ बराबरी का साझेदार है”. हालांकि, कोविड महामारी के बाद ज़्यादातर अफ्रीकी देश चीनी कर्ज़ के बोझ तले दब चुके हैं. विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय कर्ज़ के आंकड़े 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक सब-सहारा अफ्रीकी देशों के बाह्य कर्ज़ में 43 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है. साल 2016 में बाह्य कर्ज़ का आंकड़ा 492 बिलियन अमेरिकी डॉलर था जो 2020 में 702 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. इसके आगे इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सब-सहारा क्षेत्र जिसका नेतृत्व अंगोला कर रहा है, वहां कर्ज़ की राशि में सबसे ज़्यादा बढ़ोतरी देखी गई. हालांकि ऋण संचय की गति साल 2018 के बाद से धीमी पड़ी है, सब-सहारा अफ्रीकी देशों पर चीन का कर्ज़ साल 2020 के अंत तक 45 फ़ीसदी हो चुकी है.

चीन की कर्ज़ नीति की आलोचना

कर्ज़ के बढ़ते बोझ और आर्थिक विकास की धीमी गति के चलते अफ्रीकी देशों के सामने बेहद कम विकल्प मौजूद रह गए हैं. ज़्यादातर अफ्रीकी देश अब चीन के प्रोजेक्ट को रद्द करने में लगे हैं. कुछ देशों ने तो ख़राब गुणवत्ता वाले कार्य और गलत तरीके से किए गए समझौतों को लेकर भी शिकायत की है. यहां तक कि कई अफ्रीकी नेताओं ने चीन के कर्ज़ देने की प्रक्रियाओं को लेकर भी आलोचना की है.  अप्रैल 2020 में तत्कालीन तंजानिया के राष्ट्रपति जॉन मैगुफुली ने 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर वाले चीन द्वारा विकसित किए जा रहे म्बेगानी क्रीक बंदरगाह जिसे उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति जकाया किक्वेते ने स्वीकृति दी थी उसे लेकर कहा था कि ऐसे समझौते को कोई ‘शराबी’ ही स्वीकार कर सकता है. साल 2020 में केन्या की हाई कोर्ट ने केन्या सरकार और चीन रोड ब्रिज कॉर्पोरेशन के बीच रेलवे कॉन्ट्रैक्ट को रद्द कर दिया था क्योंकि यह समझौता देश की सरकारी ख़रीद के नियमों के अनुरूप नहीं था. इसी साल घाना ने भी राजधानी अक्करा में इंटेलिजेंट ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम को विकसित करने के चीन के प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया था. इसकी वजह चीन की कंपनी द्वारा किए गए कार्यों की गुणवत्ता को लेकर चिंता जाहिर करना बताया गया था. कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य के राष्ट्रपति फेलिक्स त्सेसीकेडी ने भी सिकोमाइन अनुबंध के तहत माइनिंग कॉन्ट्रैक्ट की समीक्षा करने का आह्वान किया है – जिसे तब ‘शताब्दी का समझौता’ कह कर प्रचारित किया गया था – और साल 2008 में जिस पर हस्ताक्षर किया गया था.

विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय कर्ज़ के आंकड़े 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक सब-सहारा अफ्रीकी देशों के बाह्य कर्ज़ में 43 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है. साल 2016 में बाह्य कर्ज़ का आंकड़ा 492 बिलियन अमेरिकी डॉलर था जो 2020 में 702 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया.

अफ्रीकी नेता चीन के इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को लेकर लगातार हो रही आलोचनाओं का सामना कर रहे हैं तो चीन के कर्ज़ देने की प्रक्रिया को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. अफ्रीकी कार्यकर्ता पर्यावरण संबंधी नियमों और राष्ट्रीय कानून के उल्लंघन, चीनी कॉन्ट्रैक्ट को लेकर अस्पष्टता, ख़राब गुणवत्ता वाले चीन के इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट और भ्रष्टाचार को लेकर लगातार अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं. इसलिए अफ्रीका में चीनी आशावाद का समय अब लगभग गायब होने जा रहा है लेकिन चीन के लिए इसका क्या मतलब है ख़ास कर तब जबकि चीन ने अफ्रीका के साथ अपने रिश्ते को बराबरी और आपसी सम्मान के तहत बढ़ाया गया सहयोग कहा था? हालांकि ज़्यादातर अफ्रीकी देशों के साथ संबंधों को लेकर चीन सबसे बड़े आर्थिक सहयोगी के तौर पर उभरा लेकिन चीन के साथ दुनिया के मुकाबले अफ्रीकी कारोबार का हिस्सा महज़ 4 फ़ीसदी है. इसी प्रकार चीन के प्रत्यक्ष निवेश की प्रवाह में भी अफ्रीका की हिस्सेदारी भी बेहद कम – महज 2.9 फ़ीसदी – है. इसलिए कहा जा सकता है कि अफ्रीका को लेकर चीन की दिलचस्पी सिर्फ आर्थिक नहीं है यह कुछ और भी है. दरअसल अफ्रीकी देश चीन की अंतर्राष्ट्रीय छवि और वैश्विक नेतृत्व की आकांक्षाओं को लेकर बेहद अहम भूमिका निभाते हैं.

अफ्रीकी कार्यकर्ता पर्यावरण संबंधी नियमों और राष्ट्रीय कानून के उल्लंघन, चीनी कॉन्ट्रैक्ट को लेकर अस्पष्टता, ख़राब गुणवत्ता वाले चीन के इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट और भ्रष्टाचार को लेकर लगातार अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं.

चीन पर लगाम कसने की कोशिश

चीन की वैश्विक नीति में अफ्रीका के महत्व को देखते हुए, चीन हो सकता है कि अपनी प्रक्रियाओं में सुधार लाए. कुछ बदलाव तो पहले से प्रभाव में लाए जा चुके हैं. अफ्रीका में चीन के निवेश में साल 2018 से ही भारी गिरावट दर्ज़ की जा रही है और अफ्रीका में बड़े ढांचागत व्यवस्था को विकसित करने में चीन की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की भूमिका भी इसकी वजह से सुस्त पड़ सकती है. हालांकि अफ्रीका में चीन के निजी सेक्टर की भूमिका, जो अफ्रीका में चीन की बढ़ती दूसरी बड़ी आर्थिक पदचिह्नों की विशेषता है जिसे विशेषज्ञों ने अक्सर नज़रअंदाज़ किया है, जो हो सकता है कि भविष्य में बढ़ जाए लेकिन अफ्रीका के कर्ज़ के बोझ को देखते हुए चीन को काफी हद तक उसकी उस क्षमता के आधार पर आंका जाएगा जिसके तहत वह अफ्रीका के कर्ज़ संकट को ऋण के पुनर्गठन और राहत की बदौलत रोक सकता है. ऐतिहासिक तौर पर अफ्रीकी महादेश हमेशा से शक्ति हासिल करने के लिए जंग के मैदान में तब्दील रहा है.

सितंबर 2021 में यूरोपियन यूनियन के ग्लोबल गेटवे इनिशिएटिव की घोषणा दरअसल इस मकसद से की गई है जिससे कि वैश्विक इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में चीन के बढ़ते असर और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का सामना किया जा सके.

चीन और पश्चिमी देशों के बीच हाल में बढ़ती रणनीतिक दुश्मनी को देखते हुए कहा जा सकता है कि चीन को अब एक ज़्यादा आक्रामक यूरोपियन यूनियन और अमेरिका की अफ्रीकी नीति का सामना करना पड़ सकता है. सितंबर 2021 में यूरोपियन यूनियन के ग्लोबल गेटवे इनिशिएटिव की घोषणा दरअसल इस मकसद से की गई है जिससे कि वैश्विक इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में चीन के बढ़ते असर और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का सामना किया जा सके. बीआरआई की तरह ही ग्लोबल इनिशिएटिव भी पारदर्शिता, पर्यावरण और सामाजिक स्थिरता जैसे मुद्दों पर ख़ास जोर दे सकता है. यहां तक कि अमेरिकी नेतृत्व वाले बिल्ड बैक बेटर इनिशिएटिव का मक़सद भी चीन को रोकना है. इस तरह अफ्रीकी देशों में चीन की बढ़ती आलोचना और वैश्विक इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में पश्चिमी देशों की फिर से एंट्री के चलते चीन को बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव से जुड़े सभी मामलों को लेकर जवाब देना ज़रूरी होगा, जिससे अफ्रीका में वह अपने मौजूदा साख को बचाए रख सके.

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