Author : Satish Misra

Published on Jul 24, 2019 Updated 0 Hours ago

अपने राजनैतिक दुश्मनों को मित्र में बदलने की कला से उन्होंने राजनीति का एक ऐसा अध्याय लिखा जो आने वाले समय में मिसाल बनकर उभरेगा.

गवर्नेंस को नया आयाम देने वाली मुख़्यमंत्री थीं शीला दीक्षित

तीन बार दिल्ली की भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के निधन से निश्चित ही जहाँ कांग्रेस पार्टी को नुकसान हुआ है वहीँ देश ने भी एक अनुभवी, कुशल एवं निपुण प्रशासक खो दिया है.

एक बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी दिल्ली में पली और बड़ीं हुईं शीला जी का जहाँ लगाव और आत्मीयता देश की राजधानी से था वहीँ वे उत्तर प्रदेश से भी बहुत नज़दीक से जुडी रहीं. उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि दिल्ली को आधारभूत संरचना एवं सुविधायें प्रदान करना था जिसके लिए उनको सदा याद किया जायेगा.

जब 1998 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के संगठन की ज़िम्मेदारी उनको सौपीं थी तब ऐसा नहीं लगता था के वे अलग-अलग गुटों में विभाजित पार्टी के संगठन को एकजुट करते हुए कांग्रेस को विधान सभा चुनावों में कामयाबी दिलवा पाएंगी. अधिकांश पार्टी के नेता और राजनैतिक विश्लेषक यह स्वीकारने में हिचकिचाते थे.

पर उन्होंने न केवल भिन्न गुटों के नेताओं को विश्वास में लेकर पार्टी को एकता के सूत्र में बांधा बल्कि पार्टी को जुझारू बनाते हुए आम जनता के मुद्दों को उठाते हुए जनसंघर्ष को एक धार प्रदान की और जनता में अपनी और पार्टी की पैठ बनाई.

सड़कों और फ्लाईओवर का ऐसा जाल बिछाया जिससे आम आदमी की दैनिक जिंदगी सरपट दौड़ने लगी. कोई 90 से ऊपर फ्लाई ओवर उनकी याद दिलाते रहेंगे.

विधानसभा चुनाव ऐसे समय पर हुए जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सरकार थी और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे जिनकी लोकप्रियता शिखर पर थी, पर शीला जी ने चुनाव की कमान बख़ूबी संभाली और कांग्रेस को अप्रत्याशित जीत दिलवाई जिसमें पार्टी को 52 सीटों पर विजय प्राप्त हुई और मुख्य़ विरोधी दल बीजेपी को मात्र 15 सीट ही मिल पाईं.

चुनाव जीतने के बाद उन्होंने दिल्ली के मुख्य़मंत्री का पद संभाला. वे 2013 तक दिल्ली की मुख्य़मंत्री रहीं. अपने 15 वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने अथक प्रयास करते हुए दिल्ली की शक्ल-सूरत को बदल डाला और उसको एक आधुनिक रूप दे डाला. सड़कों और फ्लाईओवर का ऐसा जाल बिछाया जिससे आम आदमी की दैनिक जिंदगी सरपट दौड़ने लगी. कोई 90 से ऊपर फ्लाई ओवर उनकी याद दिलाते रहेंगे.

दिल्ली परिवहन निगम की ब्लू-लाइन बसों को समाप्त करते हुए दिल्ली वासियों को एक आधुनिक सीएनजी से चलने वाली बसों का बेड़ा दिया जिससे पर्यावरण प्रदुषण पर नियंत्रण करने में मदद मिली. जन-परिवहन को सीऐनजी में परिवर्तित करना हालांकि, सर्वोच्च न्यायलय के आदेश पर हो रहा था पर शीला दीक्षित ने आदेश को चुनौती नहीं दी पर उसको शिरोधार्य मानते हुए प्रदूषण दूर करने क एक अवसर के रूप में देखा और आदेश का पालन किया.

काश दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल शीला दीक्षित से कुछ सीख लेते तो पिछले चार सालों में दिल्ली और विकसित हो गयी होती.

 सुप्रीम कोर्ट का जन परिवहन को पेट्रोल एवं डीजल के स्थान पर सीएनजी में परिवर्तित करने का आदेश वास्तव में एक बहुत बड़ी चुनौती थी. दिल्ली में सीएनजी को उपलब्ध करना और उसके लिए पाइपलाइन का जाल बिछवाना एक टेढ़ी खीर थी , लेकिन उन्होंने केंद्र सरकार के साथ सहयोग करते हुए तत्कालीन खनिज तेल-मंत्री राम नाइक एवं सड़क परिवहन मंत्री भुवन चंद्र खंडूरी से सीधा संपर्क साधते हुए इस बड़ी समस्या का समाधान कर डाला.यह केंद्र और राज्य के संबंधों को कैसे चलाया जाता है उसका एक बेहतरीन उदहारण है. काश दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल शीला दीक्षित से कुछ सीख लेते तो पिछले चार सालों में दिल्ली और विकसित हो गयी होती.

दिल्ली की मेट्रो सेवा उनकी दिल्ली वासियों को एक और भेंट है. जब तत्कालीन सरकार ने साल 2002 में मेट्रो सेवा के उद्घाटन के चार दिन बाद बीजेपी के दिल्ली के बड़े नेता मदनलाल ख़ुराना को दिल्ली मेट्रो रेल निगम का अध्यक्ष बना दिया तो शीला जी विचलित नहीं हुई, उन्होंने फ़ौरन अपने राजनैतिक प्रतिद्वंधी को चाय पर आमंत्रित करके अपने पाले में कर लिया जिससे की विकास में बाधा ना आ सके. उसके बाद से दिल्ली में मेट्रो सेवा का बराबर विस्तार होता गया जब तक वे दिल्ली की मुख्य़मंत्री रहीं.

जहाँ विकास के मामले में वे दिल्ली पर अपने प्रशासनिक कौशल और एक व्यवहार कुशल राजनैतिक व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ कर गयी हैं वहीँ उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया की जनमुखी विकास का मार्ग कैसे प्रशस्त किया जा सकता है.

अपनी राजनैतिक सूझ भूझ से अपनी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाते हुए निर्णय लिए जिससे की उनका राजनैतिक सफर चलता रहा और वे किसी षड्यंत्र की शिकार नहीं बन पाईं.

उनके राजनैतिक जीवन की औपचारिक शुरुआत 1984 में उत्तर प्रदेश में कन्नौज लोकसभा सीट जीतने से हुई और उनका राजनैतिक सफर वास्तव में अपने ससुर उमाशंकर दीक्षित की निगरानी में 1968-69 में शरू हुआ था. उमाशंकर दीक्षित, जो देश के गृहमंत्री और अन्य कई विभागों के मंत्री रहे थे, इंदिरा गाँधी के प्रमुख सलाहकारों में से एक थे.

कांग्रेस पार्टी के 1961 के विभाजन के बाद, उमाशंकर दीक्षित इंदिरा कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बने और उस कठिन समय में शीला जी ने अपने ससुर का हाथ बांट कर उनका विश्वास हासिल किया. डॉ राजेंद्र प्रसाद मार्ग पर स्थित अपने आवास से ही शीला जी ने राजनीति के गुर सीखे थे.

हालाँकि नेहरू-गाँधी परिवार से उनके और उनके परिवार के रिश्ते के नाते उनको पार्टी में पद और विशेष स्थान मिला पर उन्होंने अपनी राजनैतिक सूझ भूझ से अपनी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाते हुए निर्णय लिए जिससे की उनका राजनैतिक सफर चलता रहा और वे किसी षड्यंत्र की शिकार नहीं बन पाईं. उन्होंने अपनी लगन और अथक परिश्रम से वह मुकाम और सफलता प्राप्त की जिसके लिए दिल्ली की जनता उनको हमेशा याद रखेगी.

सबको विशेषकर अपने राजनैतिक दुश्मनों को मित्र में बदलने की अपनी कला से उन्होंने राजनीति का एक ऐसाअध्याय लिखा जो आने वाले और आज के राजनीतिज्ञोंका मार्ग दर्शन कर सकता है.

आज जब देश की राजनीति ने राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता को दुश्मनी में बदल डाला है और उसमे कटुता एवं घृणा भर दी है तो ऐसे समय में शीला दीक्षित का राजनैतिक जीवन और उनकी मृत्यु के बाद उनके किरदार को मिली प्रशंसा इस बात का प्रमाण है की सकारात्मक स्तर पर भी राजनीति करके सफलता और लोकप्रियता हासिल करना संभव है.

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