Published on Sep 18, 2021 Updated 0 Hours ago

इस महामारी के दौरान अन्य प्राथमिकताओं के चलते बच्चों के शौक़ और ज़रूरत की चीज़ों की बुरी तरह से अनदेखी हुई है.

कोविड-19 महामारी की ख़ामोश आवाज़ें हैं बन चुके हैं पूरी दुनिया के बच्चे और किशोर!

महामारी के दौरान बच्चों की मुसीबत पर, ख़ास तौर से अलग अलग संस्कृतियों के संदर्भ में अब भी बेहद कम रिसर्च हुई है. कोविड-19 के चलते दुनिया के तमाम अलग-अलग समुदाय, बिल्कुल अलग-अलग तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं. ये समस्याएं मोटे तौर पर किसी देश और समुदाय की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक- सांस्कृतिक परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं. हालांकि, इन सबके बीच एक बात बिल्कुल एक जैसी है: इस दौरान बच्चों की तकलीफ़ों के बारे में सबसे कम चर्चा हुई है. कहने का ये मतलब नहीं है कि सामान्य परिस्थितियों में बच्चों की आवाज़ सुनी जाती है. लेकिन, इस महामारी के दौरान दूसरे मसले और समस्याओं को प्राथमिकता दी गई और अभी भी ऐसा ही हो रहा है. कुल मिलाकर, महामारी के हवाले से ज़्यादातर परिचर्चाओं के केंद्र में स्वास्थ्य सेवाएं, लॉकडाउन लगाने के तौर-तरीक़ों, चुनाव कराने या फिर महामारी के समाज पर पड़ने वाले व्यापक आर्थिक प्रभावों की चर्चा हुई है. वयस्कों की ज़रूरतों के चलते बच्चों के भविष्य का मसला, दूसरी पायदान पर धकेल दिया गया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि बहुत से बच्चे सामाजिक संपर्क से महरूम हो गए और, स्वास्थ्य या शिक्षा की सेवाओं तक भी उनकी पहुंच बहुत सीमित हो गई.

महामारी के हवाले से ज़्यादातर परिचर्चाओं के केंद्र में स्वास्थ्य सेवाएं, लॉकडाउन लगाने के तौर-तरीक़ों, चुनाव कराने या फिर महामारी के समाज पर पड़ने वाले व्यापक आर्थिक प्रभावों की चर्चा हुई है. वयस्कों की ज़रूरतों के चलते बच्चों के भविष्य का मसला, दूसरी पायदान पर धकेल दिया गया है.

संघर्ष प्रभावित इलाक़ों के बच्चों पर असर

सीरिया, हैती या यमन जैसे वो देश जहां सैन्य संघर्ष छिड़ा हुआ है, वहां की सबसे बड़ी चुनौती मानवीय सेवाएं देने वाले संगठनों को सीमित या बिल्कुल भी सहयोग न मिलने की रही है. कोविड-19 के चलते विकास और मानवीय मदद के लिए काम करने वाले बहुत से संगठनों ने अपने अभियान सीमित कर दिए और अपने कर्मचारियों को सुरक्षित ठिकानों पर वापस बुला लिया. जैसे कि द न्यू ह्यूमैनिटैरियन के मुताबिक़, मई 2020 में संयुक्त राष्ट्र ने यमन की राजधानी सना से अपने बच्चे खुचे अंतरराष्ट्रीय कर्मचारियों में से लगभग आधे लोगों को वापस बुला लिया था, जिससे उन्हें कोरोना महामारी का शिकार होने से बचाया जा सके. इसके साथ साथ यात्रा पर लगे प्रतिबंधों के चलते मानवीय मदद और विकास के काम में सहयोग करने वाले कर्मचारियों की आवाजाही पर बुरा असर पड़ा. इसका नतीजा ये हुआ है कि संघर्ष प्रभावित इलाक़ों में रहने वाले बच्चों पर दोहरा ख़तरा मंडराने लगा: एक तो कोविड-19 महामारी और उसके चलते उन्हें मिलने वाली मदद में भी कटौती हो गई. इससे कई बार तो लोगों की मौत भी हो गई. इन नाज़ुक इलाक़ों में बच्चों की ज़िंदगी के जोखिम वाले ख़तरे बढ़ गए. इनमें हिंसा, कुपोषण, भुखमरी और स्वास्थ्य समस्याओं जैसी चुनौतियां शामिल हैं. यूनिसेफ़   के मुताबिक़ हैती के क़रीब एक तिहाई बच्चों को फ़ौरन आपातकालीन मदद की दरकार है. बच्चों की इस ज़रूरत की वजह सिर्फ़ कोविड-19 नहीं है, बल्कि हिंसा और साफ़ पानी व स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच सीमित होने जैसे कारण भी शामिल हैं.

सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर पाना अभी भी अमीर तबक़े को हासिल सहूलियत जैसी है. क्योंकि ये अमीर लोग ही हैं जो अपने बच्चों की देख-भाल के लिए किसी को काम पर रख सकते है. अमीर लोगों के घरों में ही अलग शौचालय और रसोई जैसी सुविधाएं मुमकिन हैं.

विकासशील देशों के बच्चों की चुनौती

वहीं दूसरी तरफ़ विकासशील देशों के बहुत से बच्चों के लिए स्कूल से दूर बैठ कर पढ़ाई करना एक विकल्प नहीं हो सकता है. क्योंकि उनके पास या तो इंटरनेट की सुविधा नहीं है. या उनके इलाक़े में इंटरनेट सेवा ही नहीं है. या फिर बिजली बहुत महंगी है. इसके अलावा, कई बार स्कूल जाना बंद होने का मतलब ये नहीं होता कि बच्चे सोशल डिस्टेंसिंग कर पा रहे हैं. बच्चों के मां-बाप को घर चलाने के लिए काम पर जाना पड़ता है. उन्हें बच्चों को अपने पड़ोसियों या अपने समुदाय दूसरे लोगों के भरोसे छोड़कर नौकरी पर जाना पड़ता है. सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर पाना अभी भी अमीर तबक़े को हासिल सहूलियत जैसी है. क्योंकि ये अमीर लोग ही हैं जो अपने बच्चों की देख-भाल के लिए किसी को काम पर रख सकते है. अमीर लोगों के घरों में ही अलग शौचालय और रसोई जैसी सुविधाएं मुमकिन हैं.

समाज किसी भी तरह का हो उससे जुड़ी चुनौतियां और समस्याएं कैसी भी हों. मगर, महामारी के दौरान बच्चों के हालात से निपटने और स्थानीय या क्षेत्रीय माहौल के मुताबिक़ उन्हें ढालना ही तमाम परिचर्चाओं का केंद्र बिंदु होना चाहिए था. 

यहां तक कि पोलैंड समेत पूर्वी और मध्य यूरोप के कई देशों में मां-बाप के लिए अपने बच्चों के लिए कंप्यूटर ख़रीदना और इंटरनेट का कनेक्शन लगवाना एक बड़ी चुनौती जैसा था. ओपन आइज़ इकॉनमी समिट (OEES) द्वारा प्रकाशित एक्सपर्टिज़ा-3 में जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक़, पोलैंड के क़रीब दस प्रतिशत बच्चों (एक या ज़्यादा बच्चों ) वाले परिवारों में सिर्फ़ एक ही कंप्यूटर या टैबलेट था. 28 प्रतिशत बड़े परिवारों में केवल दो कंप्यूटर या टैबलेट हैं. ऐसे घरों में कंप्यूटर या टैबलेट को बच्चों को आपस में साझा करना पड़ता है. उन्हें दूर बैठकर काम करने वाले मां-बाप भी इस्तेमाल करते हैं. उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक़ OEES ने अनुमान लगाया था कि क़रीब 25 प्रतिशत बच्चे इश समस्या से प्रभावित हुए हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि अमीर घरानों के बच्चों को शिक्षा की सुविधाओं तक बेहतर पहुंच हासिल थी. इस तरह से कोविड-19 महामारी ने ग़रीब तबक़े के बीच के अंतर को और बढ़ा दिया है.

विकसित देशों के बच्चों का हाल

वहीं, दूसरी तरफ़ कल्याणकारी देशों के सामने अलग तरह की चुनौती थी. हम इसे ‘सुविधा की बहुतायत वाली दुविधा’ भी कह सकते हैं. क्योंकि बहुत से बच्चों को सोशल डिस्टेंसिंग के चलते घर में अकेले अपने कंप्यूटर और स्मार्टफ़ोन की स्क्रीन पर वक़्त बिताने का मौक़ा मिला. इन नए हालात से पैदा हुए तनाव और सामाजिक हेल-मेल की कमी ने मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सा से जुड़ी चुनौतियां खड़ी कर दीं. तमाम सूत्रों के मुताबिक़, मनोचिकित्सकों ने बच्चों और किशोरों के बीच डिप्रेशन, चिंता, नर्वस सिस्टम की चुनौतियों और किसी मुश्किल के बाद अवसाद (PTSD) जैसी बीमारियां बढ़ती हुई दर्ज की हैं. साइलेसिया की मेडिकल यूनिवर्सिटी में बच्चों के विकास के दौरान मनोचिकित्सा और मनोविकार से जुड़ा विभाग संभालने वाली प्रोफ़ेसर मागोर्ज़टा यानास-कोज़िक ने ज़ोर देकर कहा कि महामारी के दौरान किसी काम में दिलचस्पी न होने से जुड़ी बीमारियां बढ़ रही हैं. इसके अलावा प्रोफ़ेसर मागोर्ज़टा का कहना है कि किशोरों के साइबर हिंसा का शिकार होने की आशंका अधिक है.

अलग-थलग रहने के कारण बहुत से छात्रों को अपनी दोस्ती बनाए रखने और अपना सामाजिक हेल-मेल बढ़ाने में मुश्किलें पेश आ रही हैं. बाहरी दुनिया को देखने के लिए सोशल मीडिया एक ज़रिया बना है. लेकिन ये हक़ीक़त के बजाय आभासी और बनावटी दुनिया ज़्यादा दिखाता है. मशहूर लोगों के रहन-सहन और तौर-तरीक़ों को अपनाने की आदत, तस्वीरों की एडिटिंग जैसी आदतें तमाम सोशल मीडिया पर वायरल हैं. इसके चलते बहुत से किशोर उम्र बच्चे ख़ुद को बाक़ी दुनिया से अलग समझते हैं, और डिप्रेशन के शिकार हैं. इस समस्या पर मैस्लो परिकल्पना से भी मुहर लगती है. इसके तहत, अपनी उम्र के वर्ग का हिस्सा होने, स्वीकार किए जाने और सामाजिक संपर्क की ज़रूरत इंसानों की ज़रूरतों की पायदान में सबसे ऊपर आते हैं.

इन चुनौतियों से निपटने का दूसरा तरीक़ा ये हो सकता है कि नीति निर्माताओं द्वारा राजधानी में बैठकर लिए जाने फ़ैसलों को स्थानीय लोगों और शहरों की ज़रूरत के हिसाब से ढाला जाए, 

समाज किसी भी तरह का हो उससे जुड़ी चुनौतियां और समस्याएं कैसी भी हों. मगर, महामारी के दौरान बच्चों के हालात से निपटने और स्थानीय या क्षेत्रीय माहौल के मुताबिक़ उन्हें ढालना ही तमाम परिचर्चाओं का केंद्र बिंदु होना चाहिए था. एक ही जगह बैठकर लिए गए क़ानूनी प्रावधानों और फ़ैसलों को हर जगह लागू करने से कुछ गिने चुने लोगों को ही फ़ायदा होता है और दूसरे लोगों के साथ भेद-भाव होता है; मसलन अगर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले मां-बाप को काम पर जाना पड़ता है और वो अपने बच्चों को पड़ोसियों या अपने इलाक़े में रहने वाले दूसरे लोगों के हवाले छोड़ने को मजबूर होते हैं, तो होना यही चाहिए कि नीति निर्माता इस मामले में स्कूल बंदी से कुछ रियायत दे सकते हैं. क्योंकि, इन हालात में बच्चे तो दूसरे लोगों के संपर्क में वैसे भी आ ही जाते हैं. सेव द चिल्ड्रेन्स रिसोर्स सेंटर ने ये हक़ीक़त उजागर की है कि शहरों में रहने वाले ग़रीब लोग छोटे-छोटे कमरों में रहा करते हैं; ऐसे में बच्चों मे खीझ पैदा हो जाती है, क्योंकि उन्हें खेलने की जगह नहीं मिलती. घर में रहने पर बच्चों को जो भी थोड़ी बहुत जगह मिलती है, वो छोटे आंगन या आने-जाने के रास्ते होते हैं, जिन्हें उन्हें अपने पड़ोसियों से साझा करना पड़ता है. इसके अलावा नेपाल जैसे देशों में ऑनलाइन पढ़ाई कराना, एक हक़ीक़त से ज़्यादा ख़्वाब सरीखी बात थी. क्योंकि, नेपाल के शिक्षा विभाग के मुताबिक़, नेपाल के केवल 48 प्रतिशत सरकारी स्कूल ऑनलाइन थे और वहां डिजिटल पढ़ाई हो रही थी.

संभावित समाधान

हमने ऊपर जिन चुनौतियों का ज़िक्र किया है, उनसे निपटने का पहला तरीक़ा तो यही हो सकता है कि लचीलापन अपनाया जाए. उदाहरण के लिए, पोलैंड के पोडलेसी इलाक़े में लॉकडाउन के दौरान अध्यापकों ने तय किया कि वो पढ़ाई के टाइम-टेबल को परिवारों के हिसाब से बदल लें. अगर अध्यापकों को ये पता होता था कि किसी परिवार में दो बच्चे हैं, लेकिन उनके पास कंप्यूटर एक ही है और दोनों को अलग अलग विषय पर एक साथ ही क्लास करनी है, तो टीचर दूसरे बच्चे की कक्षा का समय बदल देते थे.

इन चुनौतियों से निपटने का दूसरा तरीक़ा ये हो सकता है कि नीति निर्माताओं द्वारा राजधानी में बैठकर लिए जाने फ़ैसलों को स्थानीय लोगों और शहरों की ज़रूरत के हिसाब से ढाला जाए, जिससे स्थानीय लोगों की चुनौतियों का हल निकाला जा सके. जिन बच्चों के पास तकनीक और इंटरनेट की सुविधा नहीं है, उनके लिए ऑनलाइन पढ़ाई के विकल्प का कोई मतलब नहीं है. इसीलिए, इंटरनेट और कंप्यूटर से महरूम बच्चों के छोटे छोटे समूहों को एक साथ बिठाकर पढ़ाने का विकल्प आज़माया जा सकता है. ये समाधान उन इलाक़ों में लागू किया जा सकता है, जहां नए संक्रमण की तादाद कम हो.

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