Author : Akanksha Sharma

Published on Jul 21, 2021 Updated 0 Hours ago

दुनिया भर में 200 बड़े कॉरपोरेशन को मौसम की चरम घटनाओं को लेकर करीब 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का जोख़िम उठाना पड़ता है. लिहाज़ा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को लेकर अब कोई भी सरकार हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती.

कार्बन उत्सर्जन को शून्य स्तर तक ले जाने की चुनौती: पर्यावरण से जुड़ा निर्णायक कदम उठाने की ज़रूरत

साल 2015 में पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट के दौरान दुनिया के पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक लाने पर बहुआयामी सहमति बनी. बावज़ूद इसके आगामी 2040 तक मानवजनित गतिविधियों के चलते लगातार बढ़ रहे दुनिया के तापमान का बड़ा सामाजिक और आर्थिक असर देखा जाने वाला है.

पिछले कुछ दशकों से मानवजनित गतिविधियों के चलते कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन प्रति वर्ष 1 फ़ीसदी की दर से बढ़ा है. इससे ग्लोबल वार्मिंग का ख़तरा हमारे पर्यावरण को लगातार नुक़सान पहुंचा रहा है. जबकि दुनिया के अस्तित्व के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम से कम प्रति वर्ष 3-6 फ़ीसदी की दर से कम करना होगा जिससे धरती के बढ़ते तापमान पर अंकुश लगाई जा सके. हालांकि पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट के दौरान इसके सदस्य देशों ने धरती के तापमान को इस शताब्दी के अंत तक 2 डिग्री सेल्सियस कम करने का संकल्प लिया था लेकिन इसे लागू होने के पांच साल के बाद भी इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है. जिन संप्रभु देशों ने साल 2050 तक कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य करने की प्रतिबद्धता दुहराई थी दुनिया में 25 फ़ीसदी कार्बन उत्सर्जन की वजह ऐसे ही मुल्क हैं. और तो और ज़्यादातर देशों ने अभी तक पेरिस समझौते में बनी सहमति के मुताबिक़ अपने यहां पर्यावरण नीति तक को लागू नहीं किया है. ऐसे में जबकि वक्त तेजी से बीतता जा रहा है तो संप्रभु राष्ट्र और कॉरपोरेट्स किस प्रकार पर्यावरण संकट की समस्या से निपटेंगे?

जिन संप्रभु देशों ने साल 2050 तक कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य करने की प्रतिबद्धता दुहराई थी दुनिया में 25 फ़ीसदी कार्बन उत्सर्जन की वजह ऐसे ही मुल्क हैं. और तो और ज़्यादातर देशों ने अभी तक पेरिस समझौते में बनी सहमति के मुताबिक़ अपने यहां पर्यावरण नीति तक को लागू नहीं किया है. 

एकता के बजाए बहुलता

2019 में मैड्रिड के COP25  में पर्यावरण के मुद्दे को लेकर तमाम देशों में साफ तौर पर अंतर दिखा था, जहां यह सहमति बनी थी कि साल 2020 से पहले अपने वादों पर फिर से विचार करेंगे. हालांकि अच्छी मंशा रहने के बावज़ूद पेरिस क्लाइमेट समझौते में शामिल देशों के बीच कई मुद्दों पर असहमति दिखी. पारस्परिकता से लेकर महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा देने, उपलब्धियों की समीक्षा, कार्बन क्रेडिट वैल्यूएशन के स्तर में कमी और वैश्विक कार्बन बाज़ार की गतिशीलता, क्लीन डेवलपमेंट तंत्र (सीडीएम), स्थानीय समुदायों के लिए सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों को तैयार करने समेत जलवायु संकट का सामना करने वाले मुल्कों के लिए नुक़सान की हालत में प्रावधानों को बनाने पर सहमति बनी थी. ऐसे में जबकि पहले से तय सीओपी 26 कार्यक्रम को नवंबर 2021 तक के लिए रद्द कर दिया गया और दुनिया भर के देशों के सामने कोरोना महामारी के ख़तरे से निपटने की चुनौतियां खड़ी हों तो ऐसे में दुनिया के दक्षिण में मौजूद सरकारें और कॉरपोरेट्स कैसे कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य करने में अपनी भूमिका निभा सकती हैं?

कैसे ये मुल्क पर्यावरण बचाने के लिए विकेंद्रीकरण के युग की शुरुआत करेंगे?

अब जबकि हर बीतते दिन के साथ ग्लोबल वार्मिंग का असर ज़्यादा से ज़्यादा साफ दिखने लगा है तो वैश्विक स्तर पर आम सहमति से तैयार की गई एक नीति की यहां ज़रूरत को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. हालांकि, ऐसे समय में जब अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण वार्ता असफल हो रही है तो व्यक्तिगत सरकारें और व्यापार संगठन एकतरफा और समन्वित पहल कर उदाहरण पेश कर सकते हैं. ऐसी गतिविधियों में क्षमता में बढ़ोतरी लाकर कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना, व्यावहारिक पर्यावरण जोख़िमों के विश्लेषण और प्रबंधन उपायों, नवीनीकरण की प्राथमिकता और पर्यावरण स्थिरता मुख्य रूप से शामिल हैं. जाहिर है ग्लोबल वार्मिंग की चुनौतियों से निपटना एक सामूहिक कोशिश है. फिर भी उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था और वैसे कॉरपोरेशन जिनकी वैश्विक मौज़ूदगी है उनके द्वारा उठाए गए कदम निश्चित तौर पर इस पर बहुआयामी प्रभाव डाल सकते हैं.

ऐसे समय में जब अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण वार्ता असफल हो रही है तो व्यक्तिगत सरकारें और व्यापार संगठन एकतरफा और समन्वित पहल कर उदाहरण पेश कर सकते हैं. ऐसी गतिविधियों में क्षमता में बढ़ोतरी लाकर कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना, व्यावहारिक पर्यावरण जोख़िमों के विश्लेषण और प्रबंधन उपायों, नवीनीकरण की प्राथमिकता और पर्यावरण स्थिरता मुख्य रूप से शामिल हैं. 

कार्बन उत्सर्जन को शून्य तक लाने का लक्ष्य और ज़रूरी स्थानीय विकास

जैसा कि दुनिया भर में ऊर्जा की मांग तेजी से बढ़ रही है और दुनिया में कई अर्थव्यवस्थाएं कार्बन आधारित प्रोजेक्ट की ओर अग्रसर हैं, तब ऐसे समय में सरकारों को कार्बन उत्सर्जन के शून्य स्तर तक पहुंचने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निर्णायक भूमिका अख़्तियार करने के साथ घरेलू स्तर पर इसे लेकर प्रतिबद्धता निभाने की ज़रूरत है. इसे लेकर ना सिर्फ विधायिका का हस्तक्षेप बल्कि सामाजिक परिप्रेक्ष्य में आम राय बनाने की भी ज़रूरत है.  इन बदलावों को बढ़ावा देने के लिए उद्योग विशेष संबंधी चर्चा और स्वतंत्र नियामक ढांचा तैयार करने की भी ज़रूरत है. रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए कार्बन टैक्स जैसे प्रगतिशील कदम के साथ साथ पर्यावरण के लिए अनुकूल औद्योगिक समाधान को बढ़ावा देने की भी ज़रूरत है. इसके साथ ही यह भी ज़रूरी है कि ऐसे आर्थिक विकास को सुनिश्चित किया जाए जिसकी बदौलत सरकारें टैक्स ढांचे और सब्सिडी की पहल कर मुल्क के अंदर लाखों गरीबों के जीवन में बदलाव ला सकें.

उदाहरणस्वरूप, मोरक्को ऐसा देश है जिसने अपनी ऊर्जा की मांग को पूरा करने के लिए सोलर फार्म को स्थापित किया जिसके जरिए बहुत हद कार्बन उत्सर्जन की दर को कम किया गया. इसके साथ ही दुनिया भर में ऊर्जा संबंधी उत्सर्जन का 70 फ़ीसदी शहरों के द्वारा किया जाता है. ऐसे में कार्बन उत्सर्जन की दर में कमी लाने की अवधारणा को स्थानीय और नगर निगम के स्तर पर भी बढावा देने की ज़रूरत है.   

पर्यावरण अनुकूल व्यापार को बढ़ावा

स्वाभाविक तौर पर व्यवसाय सामाजिक संस्थाएं होती हैं और अपने मूल्यों के चलते स्थानीय और वैश्विक तौर पर सामाजिक-आर्थिक प्रगति को बढावा देते हैं. ऐसे में कार्बन उत्सर्जन के ज़ीरो लक्ष्य को प्राप्त करने में किसी भी देश में इसकी अहम भूमिका होती है. हालांकि ग्रीन इकोनॉमी की ओर बदलाव में इन कारकों की भूमिका बेहद अहम है जिसे नीति निर्माताओं को अपने व्यापारिक रणनीति में शामिल करना पड़ेगा. इसके लिए आपूर्ति श्रृंखलाओं की अधिक से अधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, कार्बन के व्यावहारिक मूल्य के लिए व्यापारिक विकल्प तैयार करने के साथ ग्रीन कारोबारी अवसरों की खोज करना आवश्यक है जिससे दुनिया भर में कार्बन रहित विश्व के सपने को साकार किया जा सके. दुनिया भर में 200 बड़े कॉरपोरेशन को मौसम की चरम घटनाओं को लेकर करीब 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का जोख़िम उठाना पड़ता है. लिहाज़ा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को लेकर अब कोई भी सरकार हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती. कंपनियों के लिए सिर्फ कार्बन उत्सर्जन के स्तर को ही कम करने की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए बल्कि जहां तक संभव हो इसके लिए परीक्षण और इसे और युक्तिसंगत बनाने के लिए नीति और तकनीक को भी बढावा देने की आवश्यकता है.

रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए कार्बन टैक्स जैसे प्रगतिशील कदम के साथ साथ पर्यावरण के लिए अनुकूल औद्योगिक समाधान को बढ़ावा देने की भी ज़रूरत है. इसके साथ ही यह भी ज़रूरी है कि ऐसे आर्थिक विकास को सुनिश्चित किया जाए जिसकी बदौलत सरकारें टैक्स ढांचे और सब्सिडी की पहल कर मुल्क के अंदर लाखों गरीबों के जीवन में बदलाव ला सकें. 

टिकाऊ मैन्युफैक्चरिंग एक तरह का पर्यावरण अनुकूल व्यापार का अनुशासित जरिया है. इसमें नियंत्रित उत्सर्जन प्रोफाइल, जीवन चक्र आकलन, ज़ीरो वेस्ट टू लैंडफिल (जेडडब्ल्यूएल) और पानी को लेकर  सकारात्मक इस्तेमाल जैसी बुनियादी अवधारणाएं शामिल होती हैं, जिसका मक़सद व्यापारिक गतिविधियों के जरिए कार्बन उत्सर्जन को कम करना है. इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का सम्मान और वैकल्पिक ऊर्जा विकल्पों में निवेश करना इस लक्ष्य को पूरा करने में मददगार साबित हो सकता है. दिलचस्प बात तो ये है कि हाल में किए गए रिसर्च से पता चलता है कि जर्मनी और फ्रांस में फॉसिल फ्यूल (जीवाश्म ईंधन) के –20 प्रतिशत की तुलना में नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश करने से 178 प्रतिशत से अधिक का रिटर्न मिला. 

कार्बन उत्सर्जन के वास्तविक मूल्य को फिर से खोजना

हालांकि, ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन भविष्य की दिशा में फायदे को बनाए रखने और समय के साथ जलवायु पैटर्न में ग्लोबल वार्मिंग से प्रेरित बदलावों को कम करने के लिए दुनिया भर में सार्वजनिक और निजी संस्थाओं के लिए वर्तमान कार्बन मूल्य निर्धारण मॉडल में निहित कमी को जोरदार तरीके से उठाने की ज़रूरत है. अपर्याप्तता को निर्णायक रूप से संबोधित करना ज़रूरी है. साल 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के अनुच्छेद 17 में पहले से ही कार्बन-तटस्थ या वैसी संस्थाएं जो अतिरिक्त उत्सर्जन वाली इकाइयों को इस बात की इजाज़त देता है कि वो अपनी सहमति से बनाए गए दायरे में इसे उन्हें बेच सकता है जो अपनी कार्बन उत्सर्जन सीमा को कम करना चाहते हैं जिससे दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन का बाज़ार स्थापित हो सके.

कंपनियों के लिए सिर्फ कार्बन उत्सर्जन के स्तर को ही कम करने की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए बल्कि जहां तक संभव हो इसके लिए परीक्षण और इसे और युक्तिसंगत बनाने के लिए नीति और तकनीक को भी बढावा देने की आवश्यकता है.

 लेकिन, पिछले कुछ सालों में कार्बन उत्सर्जन को लेकर ट्रेडिंग स्कीम के मूल्य व्यवस्था की खोज काफी मुश्किल हो गई है. इसकी वजह दुनिया भर में कार्बन बाज़ार के राजनीतिक अर्थशास्त्र की नई व्यवस्था है. विश्व भर में कार्बन की कीमतों को उसके मापदंड के नीचे रखने के पीछे एक नहीं कई ताकतें ज़िम्मेदार हैं. इसे सुधारने के लिए इन्हें प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है. यही नहीं भूराजनीतिक और आर्थिक शक्तियों द्वारा कार्बन उत्सर्जन को शून्य स्तर तक पहुंचाने के लक्ष्य से समझौता किया जा रहा है. ऐसे में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए ग्रीन इकोनॉमी में बदलाव की राजनीति को सामाजिक और पर्यावरण संबंधी सही फैसले लेकर पूरा किया जा सकता है. कार्बन उत्सर्जन के बढ़े स्तर की अदूरदर्शी व्यावयसायिक तरीकों को छोड़ना भी इसके प्रतिस्पर्धात्मक फायदे हासिल करने का तरीका नहीं हो सकता है. वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की मानें तो कम कार्बन विकास  साल 2030 तक 26 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के आर्थिक मौकों को पैदा कर सकता है.

हम जितनी तेजी से प्रतिक्रिया दे रहे हैं उसकी तुलना में वैश्विक पर्यावरण ज़्यादा तेजी से बदल रहा है जिसका प्रभाव इंसानी अस्तित्व पर पड़ने वाला है.  अगर हम बेरोक-टोक बढ़ते हुए कार्बन उत्सर्जन के स्तर की इंसानी कीमत के बारे में सोचें तो कार्बन उत्सर्जन की सीमा को शून्य करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दुनिया की सहमति अपेक्षित नहीं होगी. इस वक्त हालात ऐसे हैं कि दुनिया को कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए एक निर्णायक और विकेंद्रित कार्रवाई की ज़रूरत है. इस लक्ष्य में शामिल सभी देश और इससे संबंधित निजी या सार्वजनिक संस्थाएं हों – उनके लिए यह अनोखा मौका है जिससे कि वो आने वाले भविष्य को ज़्यादा से ज़्यादा हरा भरा बना सकें. 

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