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Published on Apr 18, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत के लिए, CBAM के मायने EU को होने वाले निर्यात में होने वाली कमी से बढ़कर हैं. यह नया प्रावधान समता, कार्यक्षमता और WTO समझौते के प्रावधानों से समरूपता पर चिंता के बादल मंडराता हैं.

क्या CBAM भारत के लिए कारगर साबित होगा?

बीते साल 2023 में दो संयोजित विषय आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक ‘डी-कार्बोनाइजेशन’ विश्व भर के नीति निर्माताओं के लिए केंद्र बिंदु रहे. ‘कार्बन बॉर्डर फीस’ और ‘कार्बन डिस्क्लॉसर’ के नए प्रावधानों से लेकर महत्वपूर्ण जलवायु संबंधित ख़र्च और प्रोत्साहन पैकेजों तक कई नई नीतियों ने ‘कार्बन’ को अंतरराष्ट्रीय व्यापार करने के नए तौर तरीके का अभिन्न हिस्सा बना दिया है.

CBAM की भूमिका  

भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह बात काफी ध्यान आकर्षित कर रही है कि 2023 के यूरोपियन कमीशन का ‘कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म’  (CBAM) भारत से यूरोपियन यूनियन (EU) को होने वाले निर्यात को किस तरह प्रभावित करेगा. यूरोपियन कमीशन ने CBAM के मसौदे को 2023 में लागू किया. यह कदम carbon leakage को रोकने के लिए उनके व्यापक जलवायु और व्यापार नीति का हिस्सा है. अगर गौर से देखा जाए तो CBAM ने गहन कार्बन उत्सर्जन वाले उद्योगों के लिए ‘प्रोडक्ट एम्मिशन रिपोर्टिंग’ को अनिवार्य कर दिया है चाहे वह उद्योग पूरी तरह या कम उत्सर्जन में लिप्त हो, जिसमें लोहा, स्टील, सीमेंट, एल्यूमीनियम, उर्वरक, बिजली और हाइड्रोजन से जुड़े उद्योग शामिल हैं. इनमे से किसी भी उद्योग से संबंधित एक घोषित पैमाने से ज़्यादा ‘कार्बन इंटेंसिटी’ वाले वस्तुओं के आयात करने पर आयात करने वाले को ‘कार्बन पॉल्युशन फी’ देनी होगी जो राष्ट्रीय औसत के अनुसार होगी. इस शुल्क में तभी रियायत संभव होगी अगर ये साबित हो कि उन्होंने स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कदम उठाए हैं जैसे की ‘क्लीन एनर्जी’ को इस्तेमाल करना इत्यादि.  

CBAM की घोषणा ने विविध प्रकार की प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया है. एक तरफ इस कदम के समर्थक ये मानते है कि इससे ‘कार्बन लीकेज’ को कम करने में सहायता मिलेगी और यह कदम अंतरराष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से वैश्विक कार्बन स्तर को कम करने के द्वार खोलेगा.

CBAM की घोषणा ने विविध प्रकार की प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया है. एक तरफ इस कदम के समर्थक ये मानते है कि इससे ‘कार्बन लीकेज’ को कम करने में सहायता मिलेगी और यह कदम अंतरराष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से वैश्विक कार्बन स्तर को कम करने के द्वार खोलेगा. वे यह मानते है कि CBAM उद्योगों को जलवायु के हित में कदम उठाने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने की दौड़ में उन्हें आगे बढ़ने और शिखर पर पहुँचने के लिए प्रोत्साहित करेगा. 

इसके ठीक विपरीत, इस कदम पर संशय प्रकट करने वाले और आलोचक CBAM को एक दंड प्रक्रिया के जैसा मानते है जो इस कदम को व्यापार को सुरक्षित रखने के प्रयास को वातावरणीय मुखौटा पहनाने के जैसा मानते है. उनका यह संशय इस इस बात पर आधारित है कि CBAM भी EU ‘एमिशन्स ट्रेडिंग सिस्टम’ के पीछे की मंशा की तरह ही आर्थिक लाभ को वातावरण के लक्ष्यो से ज़्यादा प्राथमिकता देता है. CBAM को इस दृष्टि से उपनिवेशवाद और घरेलू उद्योगों के संरक्षण के एक नए रूप में देखा जा रहा है जो कार्बन उत्सर्जन को कम करने और आर्थिक सुरक्षा जैसी बातों की आड़ लेकर कही जा रही है. 

भारत के सन्दर्भ में, CBAM के आने से उसके मायने केवल EU को किए जाने वाले निर्यात में कमी या इसके आर्थिक परिणामों से परे यह कदम ‘कॉमन बट डिफ्रेंशिएटेड रेस्पॉन्सिबिलिटीज़ एंड रेस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज’ (CBDRRC) and विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसे समझौतों के अंतर्गत कहे जाने वाली बातें जैसे समता और इन समझौतों की कार्यक्षमता और अनुकूलता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाता है. CBAM के एकतरफा क्रियान्वयन से वैश्विक शक्ति के संतुलन को भी ख़तरा हो गया है. यह ऐसे समय में हो रहा है जब उद्योग प्रधान देश सभी मापदंडों के परे जाकर अपना ‘कार्बन बजट’ लगभग ख़त्म कर चुके है और अब प्रगतिशील अर्थव्यवस्थाओं पर अपना प्रभाव इस्तेमाल कर रहें है जो प्रगति के विभिन्न पड़ावों में है और वैश्विक समीकरणों पर किसी प्रकार का प्रभाव डालने में असमर्थ है. यह बात यहाँ इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि भारत के मामले में अभी यह देश अपने उत्सर्जन के चरम तक पहुंचा भी नहीं है जिसके बाद ही जाकर कहीं वह ‘नेट ज़ीरो इकॉनमी’ बनेगा. 

क्लीन ‘एनर्जी’

यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अपर्याप्त ‘डेटा सिस्टम’ के कारण कई देशों को व्यावहारिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि अधिकांश देशों में उत्सर्जन का हिसाब रखने के लिए बुनियादी ढांचे की कमी है. इस चुनौती के चलते अपर्याप्त ‘डेटा सिस्टम’ वाले देशों से किए गए आयात पर डिफ़ॉल्ट उत्सर्जन डेटा उपयोग किया जा सकता है और इससे यूरोपियन कौंसिल द्वारा लगाए गए ‘मार्क-अप’ के कारण लागत काफ़ी ज़्यादा बढ़ने की संभावना है. इसके अलावा ‘डेटा’ या आंकड़ों की सुरक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह लगता है क्योंकि CBAM संवेदनशील और गोपनीय जानकारी को साझा करना अनिवार्य बनाता है.

हालाँकि CBAM प्रणाली संभवतः देशों को कार्बन उत्सर्जन को कम करने की राह चुनने पर मजबूर करने में सक्षम हो सकता है पर इसके कार्यान्वयन का तरीका चौंकाने वाला है क्योंकि इस प्रक्रिया में व्यापारिक हिस्सेदारों और अंतराष्ट्रीय साझेदारों से विचार विमर्श की कमी थी और यह कदम वैश्विक व्यापार के सामंजस्य उन्मुख और समावेशी रिवायतों से हटकर था. यह कदम परिचायक है एक संकीर्ण घरेलू हितों के संरक्षण का जो वैश्वीकरण के मूल सिद्धांतों के ठीक विपरीत है जिसे पश्चिमी देशों ने ही विश्व के अन्य देशों पर थोपा था. अंततः यह कहा जा सकता है कि CBAM का सफ़ल कार्यान्वयन अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर टिका है और यह प्राप्त करने के लिए आम सहमति और डेटा के साझाकरण को बढ़ावा देना होगा. 

एक तरफ से भारत ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) में CBAM के विषय में अपनी गंभीर चिंता व्यक्त कर इसके खिलाफ़ अपनी आवाज़ को उठाया है, पर साथ ही साथ भारत अपने घरेलू मोर्चे पर भी सक्रिय रूप से अपने हितों की रक्षा के लिए कई उपायों पर काम कर रहा है ताकि सतत विकास को बढ़ावा दिया जा सके जिसमें अन्य उपायों के अलावा 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तिगुना करने के लक्ष्य सहित कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग सिस्टम (CCTS) की स्थापना भी शामिल है. लेकिन भारत पहले से ही काफ़ी ऊर्जा करों के बोझ तले दबा हुआ है इसलिए भारत को प्रभावित क्षेत्रों के निर्यात के कार्बन (प्रभावित क्षेत्रों) की गणना के लिए इन लेवी को कार्बन मूल्य समकक्षों में परिवर्तित करने की संभावना पर विचार करना चाहिए. कार्बन के मूल्य निर्धारणों को ऊर्जा करों के साथ जोड़ने से भारत CBAM के तहत बढ़ी हुई व्यापार लागत से उपजने वाले आर्थिक प्रभावों को कुछ हद तक ठीक कर पाएगा. इसके अलावा, भारत ‘फ्री ट्रेड एग्रीमेंट’ (FTA) के अंतर्गत आने वाले सूक्ष्म, छोटे, और मध्यम उद्यमों (MSME ) को दी जाने वाली छूट को इस्तेमाल कर इन महत्वपूर्ण उद्योग क्षेत्रों को CBAM के प्रतिकूल प्रभावों और व्यापार प्रतिबंधों से बचा सकता है. फ़िलहाल, इस तरह के कुछ सक्रिय उपाय करने से शायद भारत को CBAM द्वारा उत्पन्न चुनौतियों से निपटने में मदद मिल सकती है और उसके कमज़ोर आर्थिक विभागों के हितो की रक्षा की जा सकती है. 

 

यह कहा जा सकता है कि CBAM का सफ़ल कार्यान्वयन अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर टिका है और यह प्राप्त करने के लिए आम सहमति और डेटा के साझाकरण को बढ़ावा देना होगा. 

ये सभी जानते हैं कि CBAM एक गैर-राजकोषीय विषय है और इसलिए भारत सहित अन्य विकासशील देशों को अपनी अर्थव्यवस्था पर होने वाले आकस्मिक प्रभाव को कम करने के लिए कर्तव्यों के प्रत्यावर्तन पर बातचीत करने की कोशिश करनी चाहिए. नवीकरणीय ऊर्जा प्रमाणपत्र (I-RECs) के प्रावधानों का लाभ उठाना एक तरीका हो सकता है जो ज़रूरी अतिरिक्त राजस्व स्रोत बन सकता है और यह वित्तीय स्रोत ‘क्लीन एनर्जी’ को आगे बढ़ाने वाले उपकर्मो को वित्तीय मदद प्रदान कर सकता है. इस बात को स्पष्ट तरह से समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि विकासशील और कमज़ोर देशों की कंपनियां जो यूरोपीय संघ में कोई भी वस्तु आयात करती हैं, वे ‘क्लीन एनर्जी’ को I-RECs के माध्यम से ख़रीद सकती हैं और Peace RECs की सहायता से उनकी ख़रीद को सत्यापित कर सकती हैं. कंपनियां और संस्थान I-RECs और Peace RECs का उपयोग कर अप्रत्यक्ष उत्सर्जन को कमतर कर दावा कर सकती है और CBAM संबंधित शुल्क से बच सकती हैं. साथ ही साथ वे अपने देश में स्वच्छ ऊर्जा के विकास में सहयोग कर सकती हैं. CBAM जैसी नीतियां आने वाले समय में I-RECs की मांग को तिगुना कर सकती है और इससे 30 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का सृजन होगा जो भारत जैसे विकासशील देशों को ‘क्लीन एनर्जी’ के ‘डेवलपर्स’ को पूंजी प्रदान करने में मदद करेगा और बिजली निर्माण क्षेत्र में ‘डी-कार्बोनाइजेशन’ को गति देगा. इसलिए, भारत में CBAM से बचने के लिए स्वच्छ ऊर्जा की ख़रीद करने वाली भारतीय कंपनियां ऊर्जा के ‘डी-कार्बोनाइजेशन’ में तेजी लाने में मदद करेंगी और औसत राष्ट्रीय ‘कार्बन इंटेंसिटी’ को कम करने के साथ-साथ सभी को लाभान्वित भी करेंगी.

COP28 के वैश्विक जलवायु वित्त ढांचे घोषणा के आधार पर, यूरोपीय संघ को स्थानीय ‘डी-कार्बोनाइजेशन’ का समर्थन करने के लिए मूल देश में ‘क्लीन एनर्जी’ की ख़रीद के लिए भुगतान किए जाने वाले किसी भी अतिरिक्त शुल्क के लिए आयातकों को मुआवज़ा देने पर विचार करना चाहिए.

विकासशील और कमज़ोर देशों की कंपनियां जो यूरोपीय संघ में कोई भी वस्तु आयात करती हैं, वे ‘क्लीन एनर्जी’ को I-RECs के माध्यम से ख़रीद सकती हैं और Peace RECs की सहायता से उनकी ख़रीद को सत्यापित कर सकती हैं. 

उदाहरण के लिए, यदि कोई भारतीय कंपनी CBAM से बचने के लिए भारतीय I-RECs की ख़रीद के लिए € x का भुगतान करती है और वे भारतीय बिजली क्षेत्र के ‘डी-कार्बोनाइजेशन’ में सहयोग करती है तो यूरोपीय संघ को CBAM-आधारित पूंजी के माध्यम से इस भारतीय कंपनी को € x की भरपाई करनी चाहिए. यह जलवायु वित्त प्रक्रिया CBAM की मंशा को स्पष्ट करने के साथ-साथ और अधिक कंपनियों को अपने मूल देश में एनर्जी ट्रांजीशन का समर्थन करने के लिए प्रेरित करेगी.

 

आगे की राह 

यह सुनिश्चित करने के लिए कि CBAM जैसी नीतियां न केवल नीतिगत कार्रवाई है बल्कि निजी जलवायु समर्थन के लिए पूंजी को बढ़ाने का इरादा रखती हैं, ब्रसेल्स को CBAM और संबंधित नीतियों (जैसे की ‘कॉर्पोरेट सस्टेनेबिलिटी रिपोर्टिंग डायरेक्टिव’ CSRD) के कार्यान्वयन को स्पष्ट और सरल बनाना चाहिए ताकि व्यापक अंतरराष्ट्रीय समाज के साथ एकजुटता को बढ़ावा दिया जा सके. इससे वे वैश्विक आर्थिक ‘डी-कार्बोनाइजेशन’ का समर्थन करने के लिए भारत से लेकर विकासशील और कमज़ोर देशों तक हर जगह कंपनियों द्वारा स्वैच्छिक जलवायु समर्थित कार्य को प्रोत्साहित करेंगी. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि EU के लिए यह अब ज़रूरी है कि वे समानता और निष्पक्षता के सिद्धांतों को थाम कर रखने वाले कदमो को शामिल करके उभरती दुनिया की चिंताओं को दूर करें . यदि CBAM 2027 में साकार हो जाता है, तो EU को इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए विशेष तरीकों पर विचार करना चाहिए. इस नए तंत्र की स्वीकार्यता इससे भी महत्वपूर्ण है.

वाशिंगटन, लंदन और अन्य जगहों पर नीति निर्माताओं को चाहिए कि जब वे कार्बन सीमा शुल्क के लिए CBAM के समान प्रस्तावित कानून विकसित करें तो वे भी समता और निष्पक्षता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए कंपनियों के लिए ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करने वाले कार्यों को शुरू करने के लिए प्रोत्साहन को बढ़ाने का कार्य करे.

 

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