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जैसा कि हम जानते हैं बहुपक्षवाद 100 साल से ज़्यादा पुराना है - इसकी शुरुआत 1919 में जिनेवा में स्थापित राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशंस) के समय हुई थी. बहुपक्षवाद को वैश्विक शासन व्यवस्था में औपचारिक रूप से महिलाओं की भूमिका स्वीकार करने में एक शताब्दी से अधिक का समय लगा. 2021 में यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) के द्वारा बहुपक्षवाद में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को अपनाया गया जो हर साल 25 जनवरी को मनाया जाता है. ये दिवस बहुपक्षीय प्रणाली में निर्णय लेने वाले महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की अधिक भागीदारी की वकालत करता है, ये सुनिश्चित करता है कि लैंगिक परिवर्तन के कदमों और समझौतों के माध्यम से बहुपक्षवाद महिलाओं एवं लड़कियों के लिए काम करे.
दुनिया में शासन व्यवस्था और निर्णय लेने में पुरुषों का पूरी तरह से दबदबा है. लैंगिक रूप से समान अंतरराष्ट्रीय प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए समर्पित संगठन GWL वॉयसेज़ की 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय संगठनों में महिलाओं की भारी कमी है.
वैश्विक अनिश्चितताओं में बढ़ोतरी, वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया, बहुपक्षीय संस्थानों में भरोसे की भारी कमी और अमेरिका के उनसे अलग होने के मंडराते ख़तरे के बीच जिस समय बहुपक्षवाद को हर तरफ से गंभीर चुनौती मिल रही है, उस समय क्या ऐसे दिवस का कोई महत्व है जो बहुपक्षवाद में लैंगिक समानता की वकालता करता है? इसका जवाब साफ तौर पर हां होगा- लैंगिक समानता पर वैश्विक समझौतों, संधियों और सम्मेलनों की दिशा में काम करने वाली बहुपक्षीय प्रणाली लैंगिक असमानता को ख़त्म करने में सार्थक प्रगति के लिए आवश्यक है. इसी तरह संकट का सामना कर रही बहुपक्षीय प्रणाली को महिलाओं की अधिक भागीदारी, जुड़ाव और उनके द्वारा निर्णय लेने की आवश्यकता है. ये न केवल समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है बल्कि प्रभावी रूप से जलवायु, टिकाऊ विकास, शांति, सुरक्षा और मानवाधिकार की मौजूदा चुनौतियों का जवाब देने के लिए भी.
महिलाओं के योगदान की उपेक्षा
दुनिया में शासन व्यवस्था और निर्णय लेने में पुरुषों का पूरी तरह से दबदबा है. लैंगिक रूप से समान अंतरराष्ट्रीय प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए समर्पित संगठन GWL वॉयसेज़ की 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय संगठनों में महिलाओं की भारी कमी है. 1945 से विश्व के सबसे बड़े 33 बहुपक्षीय संगठनों के नेताओं में से महिलाओं ने सिर्फ़ 12 प्रतिशत समय के लिए कमान संभाली है (रेखाचित्र देखें). इसने आगे ये भी बताया है कि दुनिया के सभी चार सबसे बड़े विकास बैंकों समेत इनमें से 13 संगठनों ने कभी भी एक महिला नेता को नहीं चुना है.
रेखाचित्र: 1945 से प्रमुख बहुपक्षीय संगठनों के प्रमुख, लिंग के आधार पर विभाजित

स्रोत: GWL वॉयसेज़, सालाना रिपोर्ट 2023
ताकतवर होने और निर्णय लेने वाले अधिकतर पदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है. 2015 और 2023 के बीच संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सदस्य देशों के स्थायी प्रतिनिधियों में केवल 22 प्रतिशत महिलाएं थीं. वैसे तो दुनिया भर में संघर्ष का बढ़ना जारी है लेकिन शांति प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी कम हो रही है. संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व या सह नेतृत्व वाली शांति प्रक्रियाओं में केवल 16 प्रतिशत वार्ताकार महिलाएं थीं जो 2020 में 23 प्रतिशत और 2021 में 19 प्रतिशत की तुलना में गिरावट है. ये स्थिति उस प्रमाण के बावजूद है कि संघर्षों की वजह से महिलाओं एवं लड़कियों पर बहुत ज़्यादा असर पड़ता है और शांति प्रक्रियाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी बेहतर नतीजों की ओर ले जाती है क्योंकि महिलाओं के होने से शांति वार्ता में परिणाम तक पहुंचने और शांति समझौतों के लागू होने एवं उनके ज़्यादा समय तक चलने की संभावना बढ़ जाती है.
बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली में भी महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम रही है. परिवारों और लोगों पर व्यापार के असर को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यापार नीतियों को लैंगिक रूप से संवेदनशील बनाने की मांग ने हाल के समय में ही गति पकड़ी है.
बहुपक्षवाद का नारीवादी दृष्टिकोण
बहुपक्षवाद में महिलाओं पर चर्चा को अक्सर नारीवादी विदेश नीति पर चर्चा के साथ जोड़ा जाता है. नारीवादी विदेश नीति (FFP) को अपनाने के मामले में स्वीडन के पहला देश बनने (जिसे उसने 2022 में रद्द कर दिया) के 10 साल के भीतर ये दुनिया भर में फैल गई है- 16 देशों ने या तो नारीवादी विदेश नीति को प्रकाशित किया है या नारीवादी विदेश नीति को विकसित करने के अपने इरादे की घोषणा की है.
ग्लोबल नॉर्थ की तुलना में ग्लोबल साउथ में नारीवादी विदेश नीति पर चर्चा व्यापक रही है और इसका दायरा ज़्यादा बड़ा है. ग्लोबल साउथ विदेश नीति के प्रति उपनिवेश मुक्त दृष्टिकोण की मांग करता है.
अंतरराष्ट्रीय शांति संस्थान की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि अभी तक बहुपक्षीय प्रणालियों में FFP का असर बहुत ज़्यादा नहीं रहा है. वैसे तो G7 के 7 में से 3 देशों- कनाडा, फ्रांस और जर्मनी- ने FFP को अपनाया है लेकिन G7 के नतीजों पर इसका प्रभाव सीमित रहा है. रिपोर्ट में ये सिफारिश की गई है कि बहुपक्षवाद को प्रभावी ढंग से बदलने के लिए FFP को केवल “महिलाओं के मुद्दे” की तरह नहीं बल्कि एक पुरानी और असमान प्रणाली में सुधार करने के तरीके की तरह देखना होगा. अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में FFP एक अवसर का प्रतिनिधित्व करती है जो जलवायु संकट, संघर्ष एवं असमानता जैसी वर्तमान चुनौतियों का जवाब देने के लिए विमर्श को व्यापक कर सके और एक अधिक समावेशी दृष्टिकोण ला सके.
ग्लोबल साउथ से अलग दृष्टिकोण
ग्लोबल नॉर्थ (विकसित देश) से ग्लोबल साउथ (विकासशील देश) की तरफ वैश्विक शक्ति के मौजूदा बदलाव के साथ वर्तमान बहुपक्षीय व्यवस्था में सुधार की मांग करने वालों में भारत सबसे आगे रहा है. ग्लोबल नॉर्थ की तुलना में ग्लोबल साउथ में नारीवादी विदेश नीति पर चर्चा व्यापक रही है और इसका दायरा ज़्यादा बड़ा है. ग्लोबल साउथ विदेश नीति के प्रति उपनिवेश मुक्त दृष्टिकोण की मांग करता है. इसके लिए ये बहुपक्षीय प्रणाली से छूट गए देशों और समुदायों को शामिल करने की बात करता है. 2023 में भारत की G20 अध्यक्षता के दौरान ये स्पष्ट रूप से दिखा जब भारत ने स्थायी सदस्य के रूप में अफ्रीकन यूनियन समेत ग्लोबल साउथ के देशों को शामिल करने की वकालत की. इसके साथ-साथ भारत ने महिलाओं के लिए आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रगति को आगे बढ़ाने के साधन के रूप में महिलाओं के नेतृत्व में विकास की धारणा के साथ लिंग आधारित नीति निर्माण को प्राथमिकता दी. इस सदी में बने रहने के लिए बहुपक्षवाद को इन विचारों की आवश्यकता होगी.
पिछले साल आयोजित भविष्य के शिखर सम्मेलन (समिट ऑफ द फ्यूचर) के दौरान बहुपक्षवाद को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश के तहत “हर किसी के लिए, हर जगह का काम करने वाली बहुपक्षीय प्रणाली बनाने” की प्रतिबद्धता जताई गई. बहुपक्षीय व्यवस्था में निर्णय लेने में महिलाओं की पूर्ण भागीदारी और उनके नेतृत्व को सुनिश्चित करना तो केवल शुरुआत है.
सुनैना कुमार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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