Published on Feb 26, 2022 Updated 0 Hours ago

सार्वजनिक सेक्टर में योग्यता के प्रति की ‘ड्रैग-एंड-ड्रॉप’ दृष्टिकोण को प्राप्त कर पाना कठिन होगा, क्योंकि दोनों ही निजी सेक्टर और सार्वजनिक सेक्टर में ज़मीन आसमान का फर्क हैं. 

क्या निजी क्षेत्र में ‘योग्यता क्रांति’ के सहारे सिविल सेवा में सुधार की राह प्रशस्त हो सकती है?

एक अग्रणी अख़बार में ‘कर्मचारी से कर्मयोगी’ शीर्षक से छपी लेख ने अपने जिरह में कहा कि निजी क्षेत्रों में योग्यता पर आधारित रोज़गार, सिविल सेवा में सुधार हेतु सरकार द्वारा किए जा रहे अनुकरण के लिए एक सबक साबित हो सकता है. इस लेख में देश में हाल में घटित तीन योग्यता क्रांति, को सामने रखा गया है जिसमें – क्रिकेटर्स के लिए हुआ आईपीएल, कलाकारों के लिए स्ट्रीमिंग प्लैटफॉर्म्स, और उद्यमियों (ऑन्त्रप्रेन्योर्स) के लिए आयी प्राइवेट एक्विटी शामिल है. इन क्रांतियों के पीछे की प्रमुख वजह थी सत्ता में हुई परिवर्तन, जो कि टैलेंट अथवा प्रतिभा को महत्व देने के उद्देश्य से लम्बवत या वर्टिकल अनुक्रम से क्षैतिज या horizontal नेटवर्क में परिवर्तित हुआ. आगे बात करते हुए उन्होंने कहा कि जहां सिविल सर्विस के चयन में योग्यता गैर-विवादास्पद रही है, उचित प्रदर्शन प्रणाली के अभाव ने, प्रदर्शन के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव की अनुमति नहीं दी. जिसके परिणामस्वरूप, कम उत्पादकता वाले व्यक्ति भी सिविल सेवा में बने रहे. इस आर्टिकल ने lateral entry और मंत्रालयों, विभागों और सिविल सर्विस की संख्या में तेज़ कमी करने की वक़ालत की है. इस लेख ने क्षमता निर्माण कमीशन में काफी योग्यता को देखा और आशा व्यक्त की कि दृढ़ मानव संसाधन रीबूट के ज़रिए सिविल सेवा प्रदान करेंगे जो कि रणनीतिक और रचनात्मक दोनो ही होंगे.   

सिविल सेवा को री-स्ट्रक्चर करने के उद्देश्य से सन् 2005 में स्थापित, दूसरे प्रशासनिक सुधार कमीशन  ने कुछ सिफ़ारिशों की श्रृंखला तैयार की थी जिनमें से कुछ तो काफ़ी अतिवाद से ग्रसित थे.

मिशन कर्मयोगी 

इस लेख में उल्लेखित ‘कर्मचारी से कर्मयोगी’ संदर्भ दरअसल भारत सरकार द्वारा सन 2020 में लॉन्च की गई ‘मिशन कर्मयोगी’ है. इस मिशन के अंतर्गत वर्तमान में ऑफिसर एवं कर्मचारियों के भर्ती के बाद के प्रशिक्षण तंत्र को बेहतर कर भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करना था. साल 2021 में स्थापित क्षमता निर्माण कमीशन को इस बदलाव को मूर्तरूप देने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी. कमीशन आजीवन सीखते रहने और भविष्य के लिए तैयार, फुर्तीले और सक्षम सिविल कर्मचारियों को तैयार करने के उद्देश्य के लिये ‘सर्वोत्तम सीखने का अवसर’ प्रदान करने की परिकल्पना करता हैं. उन्हें आशा है इसके ज़रिये वो भारतीय प्रशासनिक सेवा में सीखने के इकोसिस्टम को पूरी तरह से बदल पाएंगे और ‘स्मार्ट, ज़िम्मेदार, नागरिक केंद्रित व प्रभावशाली पब्लिक सर्विस’ का निर्माण कर पायेंगे. 

कुछ समाधान जो ऐसे कई लेखों द्वारा प्रस्तावित किए गए है वे सब थ्योरी के रूप में उपयुक्त हैं और सिविल सेवा से  जुड़े कर्मचारियों को और भी ज़्यादा कार्यकुशल बना सकते हैं. सिविल सेवा को री-स्ट्रक्चर करने के उद्देश्य से सन् 2005 में स्थापित, दूसरे प्रशासनिक सुधार कमीशन  ने कुछ सिफ़ारिशों की श्रृंखला तैयार की थी जिनमें से कुछ तो काफ़ी अतिवाद से ग्रसित थे. हालांकि, उनमें से ज़्यादातर सिफ़ारिशें क्रमिक सरकारी व्यवस्थाएं द्वारा ‘राजनीतिक तौर पर मुश्किल’ पाए गए, और इसलिए उन्हें जोश के साथ स्वीकृत नहीं किया गया, ये वो एक पहलू है जिसे सिद्धांतकार अक्सर ही विचार करना भूल जाते हैं वो ये कि जो सरकार सत्ता में रहती है, वो ही असल राजनीति से दो-चार होती है. ख़ासकर, इस देश में, कभी-कभी, हम पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर के बीच के बुनियादी अंतर को भी ढक देते हैं और जिस गूढ़ परिस्थिति में सिविल सर्विस से जुड़े लोग काम करते हैं, उसे भी नजरअंदाज़ कर देते हैं. सिविल सेवा सुधार के ऊपर किसी भी प्रकार की सलाह लेने से पहले, इन्हें बेहतर तरीके से समझा जाना चाहिए और साथ हीं उसका संज्ञान भी लिया जाना चाहिए. 

ऐसे कई उदाहरण रहे हैं जिसने साबित किया है कि योग्यता मानव दुर्बलता का ख्य़ाल रख पाने में सक्षम नहीं हैं. भारत की लचीली वर्ण व्यवस्था का अड़ियल जाति प्रथा में बदलाव जन्म पर आधारित था जिसने समाज पर काफी बड़ा सामाजिक क़हर बरपाया और उस वजह से लोगों के साथ लंबे समय तक अन्याय हुआ.

निजी और सरकारी क्षेत्रों में अंतर 

भिन्न उद्देश्यों से वशीभूत निजी और सरकारी सेक्टर वृहत रूप से विभिन्न क्षेत्र हैं. पहला वो है जो विशुद्ध रूप से खुली प्रतियोगिता के माहौल में कार्य करता है. इसलिए, इसे बाहरी वातावरण में उत्पन्न होती चुनौतियों से दो चार होते हुए त्वरित निर्णय लेने के साथ-साथ फायदा प्रदान करने के लिए ऊंचे दर्जे की दक्षता प्राप्त करनी चाहिए. जबकी बेहतर कौशल प्राप्त करना और चुनौतियों का सामना करना दोनों ही सेक्टर में एक समान सूत्र हैं, हालांकि, सरकार की एकाधिकारवृत्ती इन चुनौतियों को कम जानलेवा बना देती हैं. ये भेद और भी स्पष्ट हो जाता है जब हम ये देखते हैं कि सरकारी संस्थानों में इस प्रक्रिया में शूचिता का अनुपालन कितनी गंभीरता से किया जाता है. सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत, उचित आवेदन के ज़रिए, किसी भी नागरिक को सरकार द्वारा लिए गए सभी निर्णयों के अवलोकन का अधिकार है, और अदालत में जनहित याचिका (पीआईएल) के ज़रिए उस निर्णय को चुनौती दिए जाने का प्रावधान भी हैं. इसलिए सारे निर्णय अति सावधानीपूर्वक लिए जाने चाहिए. इसके आगे, सरकारी कर्मचारियों द्वारा लिए गए सभी नीतिगत निर्णय समान रूप से लिए जाने चाहिए और ग़ैर-भेदभावपूर्ण एवं सर्वभौमिकता की परीक्षा में खरे उतरने चाहिए. जबकि, सरकारी निर्णय टेक्नोलॉजी, प्रबंधन प्रक्रिया और अन्य जैसों में कारक होने चाहिए; उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि स्थिरता प्रदान करने के लिए सरकारें भी हैं.   

उपरोक्त कुछ वजहों से ही सरकारी क्षेत्र में रैंक को लेकर कुछ आरक्षण सुरक्षित किए जाते हैं जो निजी क्षेत्र में नहीं होता है. पिछले कुछ दशकों में, देश में लिए गए कुछ निर्णयों के मद्देनज़र, देश में बाद की सभी सरकार अपवाद रहित तौर पर आरक्षण के आवेदन को व्यापक करने के पक्ष में रहे हैं और कई को तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत 50 प्रतिशत की सीमा के ऊपर जाने से रोका भी गया है. अत्याधिक आरक्षण की प्रक्रिया में कई प्रकार की त्रुटियां ढूंढे  जाने को विभिन्न तरीकों से जायज़ भी ठहराया जा सकता है लेकिन हमें योग्यता के प्रतिफल को भी ध्यानपूर्वक देखने व समझने की आवश्यकता है.  

योग्यता या मेरिटोक्रेसी, योग्यतम की उत्तरजीविता या (सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट) के सिद्धांत की पैरवी करता है और समानता, न्याय व बिरादरी की धारणा का त्याग करता है जिन्हें ज़ोर-शोर से राष्ट्रीय क्रांतियों द्वारा स्थापित किया गया था.

सदियों से योग्यता के गुणों की परख़ समस्त विश्व में होती आई हैं और कनफ़्यूशियस एवं प्लेटो जैसे विख्य़ात चिंतक एवं दार्शनिकों ने भी इस बहस का समर्थन किया है. भारत और उसकी ब्यूरोक्रेसी के परिप्रेक्ष्य में, ख़ासकर चीन और सिंगापुर के साथ, योग्यता के आधार पर हमेशा तुलना से होती आई हैं. दुर्भाग्यवश, सैद्धांतिक तौर पर, योग्यता काफी मायने रखती है, ऐसे कई उदाहरण रहे हैं जिसने साबित किया है कि योग्यता मानव दुर्बलता का ख्य़ाल रख पाने में सक्षम नहीं हैं. भारत की लचीली वर्ण व्यवस्था का अड़ियल जाति प्रथा में बदलाव जन्म पर आधारित था जिसने समाज पर काफी बड़ा सामाजिक क़हर बरपाया और उस वजह से लोगों के साथ लंबे समय तक अन्याय हुआ. यूएसए में, उसके राष्ट्र बनने के उपरांत सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों के कुल पदों का आधा से भी ज़्यादा हिस्सा मात्र तीन कानून विद्यालयों – हार्वर्ड, येल और कोलंबिया यूनिवर्सिटी में शिक्षित न्यायाधीशों ने हासिल कर रखा है. 

निरपवादरूप से, योग्यता को हमेशा से हमने कोटरी या एक छोटे से गुट में तब्दील होते हुए देखा है, जो अन्य लोगों को बाहर रखते हुए, सदैव खुद के हितों की रक्षा करता हैं. योग्यता या मेरिटोक्रेसी, योग्यतम की उत्तरजीविता या (सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट) के सिद्धांत की पैरवी करता है और समानता, न्याय व बिरादरी की धारणा का त्याग करता है जिन्हें ज़ोर-शोर से राष्ट्रीय क्रांतियों द्वारा स्थापित किया गया था. इसी एक वजह से विश्व के समस्त देशों ने प्रशासनिक व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र को अपनाया, क्योंकि योग्यता या मेरिटोक्रेसी की मदद से समस्त लोगों को न्याय दे पाना मुश्किल था. 

प्रदर्शन प्रबंधन प्रणाली के संबंध में, कुछ प्रयोग हुए हैं. हालांकि, जिस तरीके से सरकारी पदस्थापनाएं या नियुक्ति होती रही है, उस स्थिति में, ऐसे किसी भी तय मानक को प्राप्त करने के प्रयास व्यर्थ ही साबित हुए हैं. किसी भी सरकारी कर्मचारियों की एक तय अवधि के लिये नियुक्ति नहीं की जाती है. और कई राज्यों में तो, कितनों को छह महीने अथवा उससे भी कम समय प्राप्त होता हैं; उन्हे कई दफ़े उनकी विशेषज्ञता के क्षेत्र के बिल्कुल ही विपरीत पदों पर पदस्थापित कर दिया जाता और एक विशेष धारा को प्रभावित करने हेतु अनगिनत दबाव भी झेलने पड़ते हैं. ऐसे माहौल में, जहां राजनीतिक बिरादरी में अनुशासन की इतनी कमी हैं, ब्यूरोक्रेट किसी भी प्रकार के निर्णय लेने को अनिच्छुक होने को बाध्य है अथवा वे अपने कार्यक्षेत्र के अधिकारों के इस्तेमाल की आदत डाल पाने में असमर्थ होते हैं और न ही अपनी कार्य-कौशल को निखार पाते हैं.

पार्श्व प्रविष्टि  लैटरल इंट्री का विचार सार में काफी आकर्षक प्रतीत होता हैं. सरकार के भीतर दिए गए वातावरण के आधार पर, ऐसे स्त्री और पुरुषों की संख्या न के बराबर होगी जो की निजी क्षेत्रों में मिलने वाली सैलरी और कामकाज की विदेशी प्रणाली को छोड़ कर सिविल सेवा के क्षेत्र में आना चाहेंगे. चूंकि, राजनीतिक दल बेरहमीपूर्वक राजनीतिक तटस्थता के उस सिद्धांत पर हमला बोल रहे है, जिस पर सिविल सेवा खड़ी है, लैटरल इंट्री को अब-तक कोई खरीदार नहीं मिल हैं. माकूल वजहों से राज्यों में भी इस विचार के प्रति कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है. 

राज्य और केंद्र के बीच के मतभेद 

केंद्र और राज्य सरकार के बीच आईएएस अधिकारी के बंटवारे और उनपर अपने नियंत्रण को लेकर केंद्र और राज्य के बीच की इस घमासान के बीच ये स्थिति और भी गुमराह करने वाली बन गई हैं. 1954 के आईएएस (कैडर) के नियम 6 सुधार में प्रस्तावना दिया गया है कि भारत सरकार के पास ये अधिकार है कि वो राज्य सरकार की पसंदगी अथवा नापसंदगी को दरकिनार करते हुए, आईएएस अधिकारियों को केंद्र द्वारा पदस्थापित कर सकता है और ये राज्य और केंद्र के बीच के मतभेद की एक प्रमुख वजह है. इससे इन सिविल अधिकारियों का जीना पहले से भी ज़्यादा दुश्वार हो जाएगा. 

जब मालिक अथवा प्रशासक और राजनीतिक बिरादरी द्वारा काम करने के लिये बेहतरीन माहौल दिया जाएगा तभी कुशलता, व्यवसायिकता और प्रतिबद्धता के उद्देश्यों को सफलतापूर्वक पूरा किया जा सकेगा.

जब मालिक अथवा प्रशासक और राजनीतिक बिरादरी द्वारा काम करने के लिये बेहतरीन माहौल दिया जाएगा तभी कुशलता, व्यवसायिकता और प्रतिबद्धता के उद्देश्यों को सफलतापूर्वक पूरा किया जा सकेगा. एक ऐसे राजनीतिक माहौल में, जहां शिक्षा और व्यवसायिकता को बिल्कुल ही निरुत्साहित किया जाता है और वो खुले तौर पर  सुशासन के लिये विनाशकारी साबित हुआ है वहां, क्षमता निर्माण कमीशन की उपयोगिता काफी क्षीण और दृढ़ ह्यूमन रिसोर्स रीबूट सिर्फ़ एक आत्मीय आशा की किरण के रूप में देखी जा सकती है. इससे एक बेहतर नाश्ता बन सकता है लेकिन पौष्टिक भोजन नहीं.   

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