शहरीकरण - वैश्विक विकास के सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति बनकर पूरी दुनिया में उभरा है और ये आगे भी जारी रहेगा. वर्तमान समय में, दुनिया भर की शहरें मिलकर, दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 80 प्रतिशत पैदा करती हैं. उसी तरह से, दुनिया भी अब 50 प्रतिशत से भी ज्य़ादा की वैश्विक आबादी के शहरों में रहने के कारण जनसांख्यिकीय रूप से शहरी बन चुकी है. इसके अलावा, ये भी माना जा चुका है कि ये प्रतिशत लगातार रहेगा और संभवतः2050 तक ये बढ़कर 70 प्रतिशत तक पहुँच चुका होगा.
विकास और जनसांख्यिकी के मुद्दों पर शहरों के छाये रहने से, समावेश की अवधारणा और साझा समृद्धि का पोषित लक्ष्य – शहरों की समावेशी नहीं बनने की स्थिति में, महज़ एक यूटोपियन विचार ही बनकर रह जाएगा. इस आत्मबोध के भाव ने अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को ‘समावेशी शहरों’ के बारे में बातें करने और इस अवधारणा को वैश्विक नीति एवं लक्ष्यों में भी आगे रखने या प्राथमिकता देने को प्रेरित किया है.
संयुक्त राष्ट्र का सतत् विकास लक्ष्य (SDG), भी मुख्य रूप से डेवेलपमेंटल इन्कलूज़न यानी कि विकासात्मक समावेशन के लक्ष्य की ओर काम करना है. ऐसा करने के लिये वे मूलतः गरीबी और भुखमरी को ख़त्म करने एवं स्वास्थ्य एवं शिक्षा को सुनिश्चित करने को ज़रूरी समझते हैं.
संयुक्त राष्ट्र का सतत् विकास लक्ष्य (SDG), भी मुख्य रूप से डेवेलपमेंटल इन्कलूज़न यानी कि विकासात्मक समावेशन के लक्ष्य की ओर काम करना है. ऐसा करने के लिये वे मूलतः गरीबी और भुखमरी को ख़त्म करने एवं स्वास्थ्य एवं शिक्षा को सुनिश्चित करने को ज़रूरी समझते हैं. सभी SDG सार्वभौमिक स्तर पर लैंगिक समानता, जल एवं सैनिटेशन, आधुनिक ऊर्जा, और सभी के लिए काम के बेहतर अवसर की अपेक्षा करता है. शहरी नज़रिये से देखें, SDG 11 स्पष्ट तौर पर “शहरों और मानव बस्तियों को समावेशी, सुरक्षित, लचीली एवं टिकाऊ” बनाने का लक्ष्य रखती है. विकास के लिए सार्वभौमिक प्रेरणापरक आदर्श के तौर पर, समावेशन को स्थापित करने की इच्छा तब तक हासिल नहीं हो पायेगी जब तक कि इसे दुनिया में इंसानों के रहने के लिये सबसे महत्वपूर्ण रिहायशी इलाकों यानी कि शहरों में साकार नहीं किया जाता है. अब सवाल ये उठता है कि क्या शहरें समावेशन का अवसर दे पाएगी. एक तरफ जहां ‘ समावेशन’ व्यापक तौर पर बहुआयामी है, यह लेख रोज़गार, आवास, लिंग और वृद्धावस्था को चुनता है, और इसके ज़रिये इन क्षेत्रों की वर्तमान स्थिति के बारे में पता करने की कोशिश करता है एवं समावेशी बनने की उनकी क्षमता संबंधी एक राय कायम करता है.
समावेशी शहर की भूमिका
आम तौर पर, देखा जाये तो समावेशन की अवधारणा को एक नैतिक विचार के तौर पर स्वीकृति, जिसे सभी देशों को एक आदर्श के तौर पर अपनाना चाहिये, एक नयी घटना है. हालांकि, समावेशन को नैतिक अवधारणा के रूप में स्वीकार किया जाना, व अनुकरण किए जाने योग्य समझना, सभी अंतरराष्ट्रीय चार्टर, द्वारा इसकी शपथ लेना, वो आधार है जिसे मानते हुए दुनिया भर के शहरों ने इस दिशा में गंभीर प्रयास करने शुरू किए हैं?
सबसे पहले हमे रोज़गार के विषय पर अपना ध्यान देना चाहिए. अपने हाल ही के प्रमुख रिपोर्ट ‘वर्ल्ड इंप्लॉयमेंट एंड सोशल आउट्लुक ट्रेंड्स: 2024’, में इंटरनेश्नल लेबर ऑर्गेनाज़ेशन (ILO) ने बताया कि वर्ष 2023 में दर्ज वैश्विक बेरोज़गारी दर 5.1 2024 में बढ़कर 5.2 प्रतिशत तक पहुँच जायेगा. इसके मतलब ये है कि वर्ष 2024 में, दो मिलियन श्रमिक अलग से नौकरी तलाश रहे होंगे. इस बात की भी संभावना है कि लेबर मार्केट का स्वरूप और वैश्विक बेरोज़गारी की दशा और भी बदतर हो जाने की संभावना है. इसलिए रोज़गार के क्षेत्र में, अपने प्रयासों के बावजूद शहरों के पास ऐसे नागरिकों का अधिकांश प्रतिशत है जो रोज़गार ढूंढ पाने में असफल रहे है. गिरती आबादी वाले कई देशों ने अपने यहां आने वाले प्रवासियों को प्रोत्साहित किया है जिससे उनके कार्यों की ज़रूरत को संतुष्ट किया जा सके. हालांकि, हाल फिलहाल में, कई देश एवं उनके शहर पलायन अथवा प्रवासी प्रभावों का दोबारा आकलन कर रहे हैं एवं कई अन्य मसलों में, अपने अनुभवों के आधार पर, बाहरी लोगों का बहिष्कार करने संबंधी निर्णय ले रहे हैं.
समावेशन को मापने के लिए, रोज़गार के अलावा, किफायती एवं सर्वव्यापी आश्रय की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण मानदंड है. न्यूयॉर्क शहर में, जहां 8.3 मिलियन लोग रह रहे है, वहां प्रति 83 व्यक्ति में से एक व्यक्ति बेघर/आवासहीन है. यानी 100,000 से भी अधिक व्यक्ति रोज़ शहर के आश्रय प्रणाली में अपनी रातें बिताते हैं. इसके अलावा भी, हर तीन में से एक बच्चा गरीबी रेखा से नीचे है. साल 2021 में, न्यूयॉर्क के लगभग 2.7 मिलियन निवासी, जो कुल अमेरिकियों के 12.8 प्रतिशत की तुलना में 13.9 प्रतिशत होते हैं वे लोग गरीबी में रह रहे हैं.
इसी तरह, लंदन के 25 प्रतिशत लोग गरीबी में जीवन यापन कर रहे हैं. साल 2022-23 में खराब नींद (जहां बेघर लोग जो सिर पर छत न होने के कारण, ज़्यादातर शहर के सड़कों पर ही सोते हैं) के मामले में, जहां संख्या बढ़कर 10.053 तक पहुँचने के साथ, लंदन में सबसे बड़ी वृद्धि देखी गई है. (वर्ष 2018) की द ग्रेट लंदन अथॉरिटी के दस्तावेज़ “समावेशी लंदन” के अनुसार, लंदन शहर लंबे अरसे से कतार पर खड़ी असमानता, भेदभाव और बच्चों की गरीबी की समस्या से जूझ रहा है.
इसके अलावा, एशियाई विकास बैंक नें 26 शहरों के 211 शहरों के नमूनों का अध्ययन किया और ये पाया कि 90 प्रतिशत शहरों में रह रहे मध्यम आय वाले परिवारों के लिए, घरों के बड़ी अथवा ऊंची कीमत गंभीर रूप से उनकी पहुँच के बाहर है. ये समस्या बड़े शहरों से लेकर छोटे समूहों तक व्याप्त है. किफायती मकानों के पहुँच से बाहर होने की वजह से, ज़्यादातर शहरी नागरिकों को पर्याप्त आवासों में सुरक्षित जल, एवं बेहतर स्वच्छता के बग़ैर जीने को विवश होना पड़ता है.
शहरों में असमानता के बेतरह बढ़ने के पीछे की प्रमुख वजह में से एक मूल्यों की वृद्धि या महंगाई की समस्या है. जिस तरह से ज़मीन की कीमत बढ़ रही है, गरीब व्यक्ति की ज़मीन के टुकड़े को खरीद पाने अथवा किराये पर लेने, चाहे वो सिर पर छत का इंतज़ाम करने के तौर पर हो या स्वःरोज़गार के तौर पर, उनकी क्षमता के बाहर और काफी चुनौतीपूर्ण होती जा रही है.
शहरों में असमानता के बेतरह बढ़ने के पीछे की प्रमुख वजह में से एक मूल्यों की वृद्धि या महंगाई की समस्या है. जिस तरह से ज़मीन की कीमत बढ़ रही है, गरीब व्यक्ति की ज़मीन के टुकड़े को खरीद पाने अथवा किराये पर लेने, चाहे वो सिर पर छत का इंतज़ाम करने के तौर पर हो या स्वःरोज़गार के तौर पर, उनकी क्षमता के बाहर और काफी चुनौतीपूर्ण होती जा रही है. 2023 के दौरान, साल भर के अंदर ही भारत के 12 बड़े शहरों में संपत्ति की कीमतों में एक साल में 18.8 प्रतिशत तक वृद्धि दर्ज की गई. आवासीय ज़मीन के संबंध में, मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, बेंगलुरू, पुणे, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद, जयपुर और सूरत 10 सबसे महंगे शहर रहे हैं.
अगर 10वीं रैंक वाले शहर का उदाहरण लिया जाए, और अगर ऐसा माना जाय कि एक कम आय वाले परिवार को सूरत में 400 स्क्वैयर फुट अपार्टमेंट लेनी हो तो, इसके लिए उस परिवार को भारतीय मुद्रा में 15 से 20 लाख रुपये अदा करने पड़ेंगे. अपनी पहुँच से बाहर की कीमत होने की वजह से, अंततः उस परिवार को किसी झुग्गी झोपड़ी वाली बस्ती अथवा चॉल में बसना पड़ता है. शहरें जैसे-जैसे व्यापक होती जाती है, भूमि की कीमतों में भी उछाल आती जाती है. उदाहरण के लिए, उसी तरह की 400 स्क्वैर फुट अपार्टमेंट के लिए मुंबई उपनगर में उन्हें 1.78 करोड़ रुपये का भुगतान करना पड़ेगा. इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मुंबई की आधी से ज़्यादा आबादी झुग्गियों में रहती है.
निष्कर्ष
इस वजह से, सभी बड़े शहर ‘रोज़गार’ एवं ‘रहने योग्य’ के विरोधाभास से पीड़ित है. एक तरफ, बड़े शहर, जहां सबसे ज़्यादा अनौपचारिक क्षेत्र में रोज़गार प्रदान करने की सबसे अधिक संभावना रखते हैं. दूसरी तरफ, वे वहां रहने और बसने की क्षमता को और भी महंगे एवं असहनीय बनाने की संभावना रखते है. दूसरी तरफ, अनौपचारिक श्रमिक एक बेहतर घर की आशा नहीं कर सकते हैं.
दुर्भाग्यवश, वृद्ध व्यक्तियों की ज़रूरतें, उत्पादक की ज़रूरत नहीं होती हैं. वे नैतिकता एवं मानवता से जुड़े मुद्दे हैं. इसलिए, शहरों को अपने आर्थिक लाभ की एकांगी खोज से विमुख होकर अपने यहाँ वृद्ध नागरिकों के देखभाल के प्रति भी संवेदनशील होने की ज़रूरत है.
लैंगिक स्तर पर समावेशन अथवा बुजुर्गों के लिए प्रावधान के क्षेत्र में शहरों का प्रदर्शन भी बेहतर होता नहीं दिख रहा है. दुनिया भर में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं की श्रम शक्ति कम है. सार्वभौमिक तौर पर, पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कम भुगतान किया जाता है. उसी तरह से, शहरों में रहते हुए बुजुर्गों को भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. उदाहरण के लिए, लंदन में, उसके कई क्षेत्रों में, वृद्धजनों एवं कम गतिशील विकलांग जनों के लिए ज़रूरी परिवहन नेटवर्क उपलब्ध नहीं है. वहाँ महिलाओं, अश्वेतों, एशियाई एवं अन्य अल्पसंख्यक समूहों एवं विकलांग लोगों को रोज़गार एवं वेतन में कमी का सामना करना पड़ रहा है. अपने स्वभाव अनुसार, शहरें एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसे दक्षता एवं उत्पादकता की तलाश है. दुर्भाग्यवश, वृद्ध व्यक्तियों की ज़रूरतें, उत्पादक की ज़रूरत नहीं होती हैं. वे नैतिकता एवं मानवता से जुड़े मुद्दे हैं. इसलिए, शहरों को अपने आर्थिक लाभ की एकांगी खोज से विमुख होकर अपने यहाँ वृद्ध नागरिकों के देखभाल के प्रति भी संवेदनशील होने की ज़रूरत है.
किसी समावेशी शहर में समावेशिता के कई अन्य आयाम होते है. हालांकि, समावेशन के चंद संवेदनशील क्षेत्रों – रोज़गार, आवास, जेंडर और वृद्ध नागरिकों जैसे उपरोक्त विश्लेषण द्वारा हमने ये पाया है कि तमाम प्रयासों के बावजूद, शहरें, समावेशन के कारकों को पूर्ण रूप से संतुष्ट कर पाने में काफी चुनौतियों का सामना कर रही हैं. यह अंततः हमे इस निष्कर्ष तक पहुंचाती है कि शहरी ताकतें, समावेशन को क्रमश: नकारती हैं, और उनके मूल स्वभाव के विपरीत, समावेशन को उनके स्वभाव का हिस्सा बनाने की कोशिश को मामूली तौर पर ही सफल होते देख पा रहे हैं. जो सतही तौर पर नज़र तो आता है लेकिन सार के तौर पर वो पराजित ही है.
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