मां का दूध प्रजनन प्रक्रिया का एक अनिवार्य भाग है, जिसका मां और शिशु की सेहत पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। स्तनपान से बच्चों के जन्म के बीच अंतर रखने में मदद मिलती है, गर्भाश्य और स्तन कैंसर का खतरा कम हो जाता है तथा साथ ही साथ यह मोटापे से बचाव में भी समर्थ बनाता है। शिशुओं के लिए मां का दूध पहला कुदरती आहार है, यह न सिर्फ जन्म के बाद के शुरूआती महीनों में शिशुओं की जरूरत की समस्त ऊर्जा और पोषक तत्व उपलब्ध कराता है, बल्कि निमोनिया और डायरिया जैसे संक्रमणों से बच्चों की रक्षा भी करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और यूनिसेफ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन शिशु के जन्म के बाद वाले शुरूआती छह महीनों के दौरान उसे केवल मां का दूध पिलाने तथा किसी भी तरह का अतिरिक्त आहार न देने और यहां तक कि पानी तक नहीं पिलाने की सलाह देते हैं। डब्ल्यूएचओ जन्म के एक घंटे के भीतर शिशु को मां का दूध पिलाने की भी सिफारिश करता है, क्योंकि गर्भावस्था की समाप्ति पर बनने वाला पीला, गाढ़ा दूध नवजात शिशु के लिए बिल्कुल उपयुक्त आहार होता है। जन्म के बाद वाले शुरूआती छह महीनों के दौरान शिशु को केवल मां का दूध पिलाना चाहिए और उसके बाद उसे दो साल का होने तक या उसके बाद भी उचित पूरक आहार के साथ-साथ मां का दूध पिलाना जारी रखना चाहिए।
विश्व स्वास्थ्य सभा ने शुरूआती छह महीनों के दौरान केवल मां का दूध पिलाने की दर में वर्ष 2025 तक कम से कम 50% तक वृद्धि किए जाने का लक्ष्य निर्धारित किया है, भारत ने भी इस पर हस्ताक्षर किए हैं। जिन देशों में शिशुओं को केवल मां का दूध पिलाने की दर 50% या उससे ज्यादा है, उन्हें इसमें प्रति वर्ष 1.2% की दर से वृद्धि किए जाने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। भारत में शिशुओं को केवल स्तनपान कराने की दर वर्ष 2006 में 46.4% थी, जो वर्ष 2017 में बढ़कर 54.9% हो गई और इसी अवधि के दौरान प्रारंभ में स्तनपान शुरू कराने की दर 23.4% से लगभग दोगुना बढ़कर 41.6% हो गई। भारत का लक्ष्य वर्ष 2025 तक सिर्फ स्तनपान कराने की दर में वृद्धि करते हुए उसे 69% तक लाना है। देश में कुपोषण के भारी दबाव और पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की मौत का प्रमुख कारण निमोनिया और डायरिया होने के कारण, भारत में स्तनपान को प्रोत्साहन दिए जाने की बहुत अधिक आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र की हाल की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 99,499 बच्चों की मौत निमोनिया और डायरिया जैसे रोगों के कारण हो जाती है, जिनकी रोकथाम स्तनपान के जरिए आसानी से की जा सकती है। रिपोर्ट में यह अनुमान भी व्यक्त किया गया है कि अपर्याप्त स्तनपान के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को 14 बिलियन डॉलर का खामियाजा उठाना पड़ सकता है।
राज्यों के स्तर पर, अधिकतर भारतीय राज्यों में शिशुओं को केवल स्तनपान कराए जाने में वृद्धि हुई है। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) की हाल की रिपोर्ट में कहा गया है कि शिशुओं को स्तनपान कराने के मामले में सबसे ज्यादा तेज गति से वृद्धि गोवा, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और त्रिपुरा में हुई है। गोवा में शिशुओं को स्तनपान कराने की दर में जबरदस्त वृद्धि हुई है। यहां यह दर वर्ष 2005-06 में 17.7% थी, जो 2015-16 में बढ़कर 60.9% हो गई। मध्य प्रदेश, जहां बच्चों में कुपोषण के सबसे अधिक मामले सामने आते हैं, वहां भी शिशुओं को स्तनपान कराने की दर वर्ष 2005-06 में 21.6% से बढ़कर 2015-16 में 58.2% हो गई। वर्ष 2016 में, छत्तीसगढ़ में शिशुओं को स्तनपान कराने की दर अधिकतम 77.2% रही, जबकि उसके बाद मणिपुर में (73.6%),दादरा और नगर हवेली में (72.7%), त्रिपुरा में (70.7%), और आंध्र प्रदेश में (70.2%) देखी गई। हालांकि भारत में संतोषजनक स्थिति नहीं है। मेघालय, नागालैंड, पुदुचेरी, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में केवल स्तनपान की दर 50% से भी कम है। मेघालय में छह महीने से कम उम्र के बच्चों को केवल स्तनपान कराने की दर देश में सबसे कम 35.8% है, लेकिन सौभाग्य से पिछले दशक भर में इस राज्य में शिशुओं को केवल स्तनपान कराने की दर में वर्ष 2005-06 के 26.3% की तुलना में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। तमिलनाडु में भी, केवल स्तनपान कराए जाने की दर 2005-06 में 34.1% से बढ़कर 2015-16 में 48.3% हो गई। हालांकि भारत के सबसे ज्यादा आबादी और कुपोषण के भारी दबाव वाले राज्य उत्तर प्रदेश में शिशुओं को केवल स्तनपान कराने की दर बहुत कम 41.6% है। दुर्भाग्यवश, राज्य में केवल स्तनपान कराने की दर में 2005-06 में लगभग 51.3% के मुकाबले काफी कमी आई है। इतना ही नहीं, शहरी उत्तर प्रदेश में शिशुओं को केवल स्तनपान कराने की दर मेघालय के बराबर लगभग 35.6% है। जिन अन्य राज्यों में केवल स्तनपान कराने की दर में कमी आई है, उनमें अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल शामिल हैं।
बच्चों में कुपोषण के अधिक मामलों वाले उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में शिशुओं को केवल स्तनपान कराए जाने को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। हालांकि शिशुओं को केवल स्तनपान कराए जाने के लक्ष्य को प्राप्त करना आसान नहीं है। भारत में शिशुओं को केवल मां का दूध पिलाए जाने की दर कम होने के लिए निम्नलिखित कारण मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं :
- सामाजिक विश्वास, जिनके तहत केवल स्तनपान कराने को सही नहीं माना जाता और जो शिशुओं को मिला-जुला आहार (शिशु के छह माह का होने से पहले ही उसे अतिरिक्त तरल और ठोस पदार्थ दिए जाते हैं, क्योंकि केवल मां के दूध को पर्याप्त नहीं माना जाता) दिए जाने के पक्षधर हैं,
- स्वास्थ्य कर्मियों, परिवार और समुदाय की ओर से पर्याप्त सहायता का अभाव,
- माताओं को शिशुओं को अपना दूध पिलाने के बारे में प्रसूति केंद्रों में अंतर-वैयक्तिक परामर्श और कुशल सहायता का अभाव,
- शिशुओं के लिए फॉर्मूला, दूध के पाउडर और मां के दूध के अन्य विकल्पों का जबरदस्त प्रचार,
- महिलाओं के लिए पर्याप्त आराम का अभाव और घर का कामकाज जल्द शुरू करने का दबाव तथा
- मातृत्व अवकाश या कार्यस्थल पर स्तनपान की सुविधाओं के बारे में पर्याप्त प्रावधान न होना।
भारत क्या कर रहा है तथा अभी और क्या किए जाने की जरूरत है?
शिशुओं को केवल मां का दूध पिलाए जाने के महत्व को पहचानते हुए भारत सरकार ने हाल के वर्षों में केवल स्तनपान को बढ़ावा दिए जाने को प्राथमिकता दी है। पिछले साल स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने स्तनपान के फायदों के बारे में माताओं के बीच जागरूकता उत्पन्न करने के लिए प्रमुख कार्यक्रम मदर्स एब्सोल्यूट एफेक्शन (मां) का शुभारंभ किया था।
मातृत्व अवकाश की अवधि बढ़ाकर 26 हफ्ते किए जाने के फैसले ने भी माताओं को छह महीने तक शिशु को केवल अपना दूध पिलाने में मदद की है। लेकिन भारत में अधिकांश महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं और उन्हें घर का भी बहुत सारा काम करना होता है, इसे देखते हुए तत्काल ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता है, जिनसे अनियमित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं द्वारा अपने शिशुओं को स्तनपान कराने में वृद्धि हो सके। मातृत्व लाभ कार्यक्रम को संभवत: इस दिशा में उठाया गया सही कदम करार दिया जा सकता है, जिसके तहत मजदूरी में होने वाली हानि की भरपाई के लिए 6000 रुपये की नकद राशि हस्तांतरित की जाती है। लेकिन कुछ विशेषज्ञ इस योजना के अंतर्गत आवंटित धन को नाकाफी मानते हैं। सरकार को ऐसे समाधान तलाशने की जरूरत है, जिनसे अनियमित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं को सशक्त बनाया जा सकें तथा पुरुष और महिला के बीच घर के कामकाज का न्यायसंगत बंटवारा करने को प्रोत्साहित कर सकें।
स्तनपान के लिए विश्व स्वास्थ्य सभा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए, सरकार को स्तनपान को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। साथ ही, स्तनपान के फायदों के बारे में जागरूकता फैलाना और साथ ही साथ स्तनपान के तरीकों में सुधार लाने के लिए कदम उठाना भी महत्वपूर्ण है।
सबसे पहले, स्तनपान के संबंध में जानकारी देने के लिए और परामर्शदाताओं की बहुत आवश्यकता है। दूसरा, यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि अनियमित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को मातृत्व अवकाश के दौरान उचित वेतन मिले। तीसरा, कार्यालयों, रेस्तराओं, मॉल्स, रेलवे स्टेशनों आदि में शिशुओं को स्तनपान कराने के लिए अलग स्थानों की व्यवस्था किए जाने की आवश्यकता है, ताकि महिलाएं घर से बाहर भी शिशुओं को अपना दूध पिला सकें। चौथा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को शिशुओं के अनुकूल अस्पताल संबंधी पहल को प्राथमिकता के आधार पर कार्यान्वित करने की आवश्यकता है। पांचवां, सरकार को शिशु दुग्ध विकल्पों, दूध की बोतलों और शिशु आहार (उत्पादन, आपूर्ति और वितरण का नियंत्रण) अधिनियम, 1992 और संशोधन अधिनियम 2003 का उल्लंघन करने वाली कम्पनियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई किए जाने की जरूरत है। छठा, विशेषकर राज्य स्तर पर बेहतर आंकड़े महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि फिलहाल कुछ ऐसे जिले हैं, जिनके बारे में किसी भी तरह के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अंत में, केवल स्तनपान की दिशा में सहायता प्रदान करने संबंधी सरकार की समस्त पहलों का प्रभावी कार्यान्वयन और निगरानी आवश्यक है।
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.