ब्राज़ील (Brazil) में पूरी ताक़त, जज्बे और उत्साह के साथ लड़े गए चुनावों में ब्राज़ील के मतदाताओं ने 30 अक्टूबर को राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो को सत्ता से बाहर कर दिया और दो बार के पूर्व राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला दा सिल्वा उर्फ ‘लूला’ को राष्ट्रपति चुन लिया. नए राष्ट्रपति अपने समर्थकों के बीच ‘लूला’ के नाम से ही लोकप्रिय हैं. यह चुनाव दो बिल्कुल विपरीत विचारधाराओं और पहचान वाले उम्मीदवारों के बीच था, जिनके समर्थकों के बीच अविश्वसनीय कटुता है. देखा जाए तो पिछले कई दशकों में यह ब्राज़ील के सबसे क़रीबी चुनावों में से एक था. इस चुनाव में विजेता और हारने वाले के बीच के मतों का अंतर दो प्रतिशत से भी कम था.
भले ही बोल्सोनारो को बेहद क़रीबी अंतर से हार का सामना करना पड़ा हो, इसके बावज़ूद यह चुनाव बोल्सोनारो की चार साल की विभाजनकारी राजनीति पर एक करारा तमाचा है. इसके पीछे जो प्रमुख वजह है, वो कोरोना महामारी के दौरान उनकी सरकार का घोर कुप्रबंधन है, जिसकी वजह से 7 लाख से अधिक ब्राज़ीली नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
हालांकि कई चुनावी सर्वेक्षण करने वालों का स्पष्ट मानना था कि पहले दौर में बोल्सोनारो द्वारा 43 प्रतिशत वोट (लूला द्वारा प्राप्त किए गए 48 प्रतिशत वोट के विरुद्ध) प्राप्त करने के बाद, लूला आसानी से इस चुनावी दौड़ में आगे निकल जाएंगे. इसके बावज़ूद दूसरे दौर में जीत तक पहुंचने के लिए बोल्सोनारो और उनके समर्थकों द्वारा बेहद आक्रामक चुनावी अभियान चलाया गया. भले ही बोल्सोनारो को बेहद क़रीबी अंतर से हार का सामना करना पड़ा हो, इसके बावज़ूद यह चुनाव बोल्सोनारो की चार साल की विभाजनकारी राजनीति पर एक करारा तमाचा है. इसके पीछे जो प्रमुख वजह है, वो कोरोना महामारी के दौरान उनकी सरकार का घोर कुप्रबंधन है, जिसकी वजह से 7 लाख से अधिक ब्राज़ीली नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. हालांकि, यह चुनाव लूला की ज़ोरदार वापसी के लिए याद किया जाएगा, जो रिश्वत के आरोपों से जुड़े एक विवादास्पद मुक़दमे में 580 दिन तक जेल में बंद रहे. इस चुनाव के नतीज़ों के बाद बोल्सोनारो ब्राज़ील के 34 वर्षों के लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे पहले राष्ट्रपति बन गए हैं, जो दोबारा चुनकर सत्ता में नहीं लौट पाए.
दो ध्रुवों में बंटा चुनाव
ब्राज़ील का 2022 का चुनाव शायद दशकों में देश का सबसे ध्रुवीकृत चुनाव था. कहा जा सकता है कि यह दो पूरी तरह से अलग विचारधाराओं के बीच एक युद्ध की तरह था. इस चुनाव में बोल्सोनारो ने रूढ़िवादियों, अति-राष्ट्रवादियों और बाज़ार समर्थक धड़ों के गठबंधन का प्रतिनिधित्व किया, जबकि लूला की वर्कर्स पार्टी ने अपने मज़बूत वामपंथी आधार के साथ, समाजवादी और ग़रीब समर्थक विचारधारा एवं सतत विकास की वक़ालत की. एक तरफ बोल्सोनारो के रूढ़िवादी धड़े ने अधिक से अधिक निजीकरण और प्रतिबंधों को हटाने के लिए जबरदस्त पैरवी की, वहीं दूसरी तरफ लूला की वर्कर्स पार्टी ने चुनावों के दौरान ग़रीबों के हित से जुड़ी आर्थिक नीतियों, उनके लिए भोजन और आवास पर जनादेश की मांग की. हालांकि, यह विभाजन केवल राजनीतिक और आर्थिक वैश्विक नज़रिए तक ही सीमित नहीं था. दक्षिण अमेरिका के सबसे बड़े चुनाव ने पूरे ब्राज़ील के समाज को दो खेमों में बांट दिया: बोल्सोनारिस्टास बनाम लुलिस्टास. एक तरफ बोल्सोनारिस्टास ने लूला को एक भ्रष्ट वामपंथी चोर कहा, वहीं दूसरी तरफ लुलिस्टास ने बोल्सोनारो को एक जातिवाद फैलाने वाला और सत्तावादी, निरंकुश चरमपंथी बताया. संक्षेप में कह जाए तो यह एक ऐसा चुनाव था, जिसने ब्राज़ीलियाई नागरिकों को ब्राज़ीलिया के लोगों के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया. चुनाव में इतनी अधिक नफ़रत का माहौल पहले कभी नहीं देखा गया.
ट्रंप की तरह ही बोल्सोनारो ने खुलेआम चुनावी नतीज़ों को नहीं मानने की धमकी दी. यहां तक कि हार के बाद भी वो अपनी ज़िद पर अड़े रहे. हालांकि, उन्होंने बदलवा की प्रक्रिया की अनुमति देने में एक दिन से अधिक का समय लिया, फिर भी उन्होंने लूला से हार मानने से इनकार कर दिया.
वैचारिक विभाजन से अलग, यह अब तक का सबसे तीखा और कड़वाहट से भरा चुनाव अभियान था. उदाहरण के लिए, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की तरह ही बोल्सोनारो और उनके लाखों कट्टर समर्थकों ने मीडिया, चुनाव प्रक्रिया, विशेष रूप से इसके इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग सिस्टम और सुपीरियर इलेक्टोरल कोर्ट द्वारा चुनावी प्रबंधन पर सवाल उठाया और सेना का इस्तेमाल करने की भी धमकी दी. ट्रंप की तरह ही बोल्सोनारो ने खुलेआम चुनावी नतीज़ों को नहीं मानने की धमकी दी. यहां तक कि हार के बाद भी वो अपनी ज़िद पर अड़े रहे. हालांकि, उन्होंने बदलवा की प्रक्रिया की अनुमति देने में एक दिन से अधिक का समय लिया, फिर भी उन्होंने लूला से हार मानने से इनकार कर दिया.
आगे की राह कठिन
हालांकि लूला की जीत बेहद कम अंतर वाली हो सकती है, लेकिन लैटिन अमेरिका में पिंक टाइड (कुछ विश्लेषक इसे पिंक टाइड 2.0 कहते हैं) के विस्तार के मामले में यह एक महत्त्वपूर्ण जीत है. पहली बार, इस क्षेत्र के छह सबसे अधिक आबादी वाले और आर्थिक रूप से अहम देशों (मेक्सिको, पेरू, चिली, अर्जेंटीना, कोलंबिया और अब ब्राज़ील) में वामपंथी एजेंडे वाले राष्ट्रपति होंगे. यह यूरोप और पश्चिम में दक्षिणपंथी, पॉपुलिस्ट सरकारों की बढ़ती प्रवृत्ति के ठीक उलट है. लूला की जीत को कई लोग लैटिन अमेरिका में ग्रीन वामपंथ की जीत के रूप में देखते हैं और अमेज़ॉन वर्षावन के नुकसान को उलटने को लेकर उनका सख़्त बयान, इसका पुख्ता प्रमाण है.
फिर भी, इनमें से कई एजेंडे ऐसे हैं, जिन्हें पूरा करना इतना आसान नहीं होगा. लूला के नए कार्यकाल के सामने चुनौतियां बहुत बड़ी हैं. उन्हें विरासत में एक अब तक की सबसे धीमी गति वाली अर्थव्यवस्था मिली है, जो महामारी और वैश्विक आर्थिक मंदी से और अधिक प्रभावित हुई. उनके पहले के कार्यकाल (2003-2010) में रिकॉर्ड 25 मिलियन लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला गया था. यह सब बड़े पैमाने पर कमोडिटी में तेज़ी और उच्च वैश्विक आर्थिक विकास द्वारा वित्तपोषण की वजह से हुआ था. जबकि आज उन्हें एक ऐसी अर्थव्यवस्था विरासत में मिली है, जिसके 1 प्रतिशत से कम बढ़ने की उम्मीद है (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के पूर्वानुमान के मुताबिक़ 0.6 प्रतिशत).
बोल्सोनारो की LGBT विरोधी और अमेज़ॉन के वर्षावन के विनाश सहित उनकी जलवायु विरोधी नीतियों का भी उनके कट्टर कंजर्वेटिव समर्थकों द्वारा समर्थन किया गया था.
दूसरा, वह जिस ब्राज़ील पर शासन करने जा रहे हैं, वह पहले से बहुत अलग. उनके पिछले कार्यकाल यानी वर्ष 2003 से 2010 के दौरान ब्राज़ील का समाज और राजनीति आज की तुलना में कम विभाजित थे. इसलिए उन्हें बोसला फैमिलिया (सशर्त कैश ट्रांसफर कार्यक्रम) जैसी कई पथ-प्रदर्शक सामाजिक नीतियों को लागू करने के लिए व्यापक सामाजिक गठबंधन बनाने में मदद मिली. हालांकि, बोल्सोनारो के नेतृत्व में धुर दक्षिणपंथी समूहों के आश्चर्यजनक उदय के बाद से ब्राज़ील का लगभग आधा समाज बहुत ही शत्रुतापूर्ण हो चुका है और एक दुश्मन की भांति हर उस चीज़ का विरोध करता है, जिसके लिए लूला और उनकी ग़रीब समर्थक वर्कर्स पार्टी आवाज बुलंद करती है. इतना ही नहीं, बोल्सोनारो की LGBT विरोधी और अमेज़ॉन के वर्षावन के विनाश सहित उनकी जलवायु विरोधी नीतियों का भी उनके कट्टर कंजर्वेटिव समर्थकों द्वारा समर्थन किया गया था. पिछले कुछ वर्षों में “बीफ़, बाइबिल और बुलेट” का मुद्दा एक प्रमुख रूढ़िवादी एजेंडा के रूप में उभरकर सामने आया है और ब्राज़ील की आबादी के एक बड़े हिस्से के भीतर इसे मज़बूत समर्थन मिला हुआ है. वास्तव में, बोल्सोनारो के चार साल के कार्यकाल को लूला के शासनकाल में शुरू की गईं कई प्रमुख सामाजिक नीतियों के बड़े उलटफेर और उनकी फंडिंग कम करने के रूप में जाना जाता है. इस प्रकार देखा जाए तो लूला का तीसरा कार्यकाल एक गठबंधन निर्माता और एकजुटता स्थापित करने वाले नेता के रूप में उनकी काबीलियत की परख करने वाला होगा.
बोल्सोनारो की चुनौती
आख़िर में, लूला के लिए सबसे बड़ी चुनौती बोल्सोनारो और उनके रूढ़िवादी गठबंधनों की तरफ से आएगी. बोल्सोनारो भले ही राष्ट्रपति का चुनाव हार गए हों, लेकिन उनके कंजर्वेटिव गठबंधन ने कई राज्यों में जीत हासिल की है और कांग्रेस में भी उनका दबदबा है. इस प्रकार, सरकार के भीतर और बाहर बोल्सोनारो के कट्टर समर्थक ग़रीब-समर्थक वामपंथी नीतियों के किसी भी विस्तार और रूढ़िवादी एजेंडा में किसी भी तरह के बदलाव का पुरज़ोर विरोध करेंगे. वर्ष 2016 में लूला समर्थक और तत्कालीन राष्ट्रपति डिल्मा रूसेफ पर बेवजह महाभियोग चलाने के दौरान जिस प्रकार से विपक्ष की शातिर चालों और विरोध का सामना करना पड़ा था, वह दौर फिर से दिखाई दे सकता है.
लूला को अपने शासन के दौरान एक और शक्ति इस बार मिल सकती है, वह शक्ति है इस क्षेत्र के कई देशों में प्रमुख तौर पर वामपंथी सरकारें. ये सरकारें वैचारिक समर्थन और आर्थिक सहयोग के मामले में मददगार साबित हो सकती हैं.
हालांकि, यह भी सच है कि लूला कोई डिल्मा रूसेफ नहीं है. जो लोग वर्कर्स पार्टी के इस साहसी नेता के आश्चर्यजनक राजनीतिक उत्थान के बारे में जानते हैं कि कैसे उन्होंने ग़रीबी और अभावों से भरी ज़िंदगी से अपने इस सफर की शुरुआत की थी, वे अलग-अलग गठबंधनों के बीच पुल बनाने, उन्हें साथ लाने की उनकी क्षमता को भी अच्छी तरह पहचानते हैं. अपने पिछले कार्यकाल के दौरान उन्होंने ना केवल कई श्रमिक गठबंधनों और वाम-विचारधारा वाले संगठनों का नेतृत्व किया था, बल्कि वह मध्यम वर्ग के लोगों को शामिल कर व्यापक आधार वाला गठबंधन बनाने में भी क़ामयाब हुए थे. वो एक ऐसा गठबंधन था, जिसने उनकी परिवर्तनकारी और ग़रीब कल्याण वाली सामाजिक नीतियों का समर्थन किया था. लूला को अपने शासन के दौरान एक और शक्ति इस बार मिल सकती है, वह शक्ति है इस क्षेत्र के कई देशों में प्रमुख तौर पर वामपंथी सरकारें. ये सरकारें वैचारिक समर्थन और आर्थिक सहयोग के मामले में मददगार साबित हो सकती हैं. हालांकि, यह देखना अभी बहुत ज़ल्दबाज़ी है कि ब्राज़ील और लैटिन अमेरिका के अधिकांश भागों में स्थितियां किस रुप में सामने आएंगी. बहरहाल, इसमें कोई दोराय नहीं है कि ब्राज़ील का चुनावी नतीज़ा दुनिया के सभी क्षेत्रों के लोकतंत्रों में बढ़ते दंक्षिणपंथ और अधिनायकवाद को रोकने की दिशा में महत्त्वपूर्ण साबित होने वाला है.
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