दुनिया भर में जैव ईंधन के उत्पादन को सबसे ज़्यादा राजनीतिक बढ़ावा तभी मिलता है, जब इनसे किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फ़ायदे होते हैं.
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के पूर्वानुमानों के मुताबिक़, वर्ष 2023 तक भारत एथेनॉल कातीसरा सबसे बड़ा उत्पादकबन जाएगा, और वो चीन को पीछे छोड़ देगा. 2016 में भारत एथेनॉल के उत्पादक देशों की सूची में सातवें नंबर पर था, और उसने वर्ष 2021 तक जर्मनी, थाईलैंड और कनाडा को पीछे छोड़कर चौथी पायदान पर अपनी जगह बना ली थी. 2022 में भारत, एथेनॉल के उत्पादन में चीन की बराबरी कर लेगा और वर्ष 2023 तक वोचीन को पीछे छोड़ते हुएअमेरिका और ब्राज़ील के बाद तीसरे नंबर पर पहुंच जाएगा. भारत में एथेनॉल के उत्पादन में ये उछाल लगभग पूरी तरह से नीतिगत क़दमों के कारण आया है.भारत में एथेनॉल के उत्पादन को लेकर IEA के इस उम्मीद भरे पूर्वानुमान के पीछे सबसे हालिया नीतिगत क़दम, एथेनॉल को ईंधन में मिलाने के बारे में नीति आयोग और पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा2021 की एक रिपोर्टमें तय किया गया लक्ष्य है.
भारत में एथेनॉल के उत्पादन को लेकर IEA के इस उम्मीद भरे पूर्वानुमान के पीछे सबसे हालिया नीतिगत क़दम, एथेनॉल को ईंधन में मिलाने के बारे में नीति आयोग और पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा 2021 की एक रिपोर्ट में तय किया गया लक्ष्य है.
इस रिपोर्ट के अहम सुझावों में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा अप्रैल 2022 तक पूरे देश में पेट्रोल में दस प्रतिशत एथेनॉल मिलानाअनिवार्य करना और अप्रैल 2023 तक चरणबद्ध तरीक़े से पेट्रोल में20 प्रतिशत एथेनॉल मिलाने (E20)की योजना को शुरू करना है. इन सुझावों ने2018 की जैविक ईंधन वाली नीतिमें तय किए गए लक्ष्यों की समय सीमा और कम कर दी है. उस नीति में पेट्रोल में 20 प्रतिशत एथेनॉल मिलाने और डीज़ल में पांच फ़ीसद बायोडीज़ल मिलाने का लक्ष्य तक करने की समय सीमा 2030 निर्धारित की गई थी. तकनीकी नज़रिए से देखें, तो2021 की नीति आयोग की रिपोर्टने एक क़दम पीछे जाने का ही काम किया है. क्योंकि इस रिपोर्ट में ऐसे जैव ईंधन पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जो खाद्य आधारित पदार्थों से तैयार होते हैं. जबकि 2018 की नीति का ज़ोर ऐसे जैविक ईंधन बनाने का था, जो ग़ैर खाद्य जैविक ईंधन से तैयार होते हैं. खाद्य पदार्थों पर आधारित जैविक ईंधन की ओर वापसी के इस क़दम से खाना बनाम ईंधन की बहस को दोबारा ज़िंदा कर दिया है. क्योंकि बहुत से पर्यावरण संगठन इस क़दम की आलोचना कर रहे हैं.
जैविक ईंधन
आज जैविक ईंधनों के उत्पादन में जोदो विकल्पसबसे ज़्यादा हावी हैं, वो हैं चीनी पर आधारित बायोएथेनॉल का उत्पादन और वनस्पति तेल या फैटी एसिड मेथिल ईस्टर (FAME) पर आधारित बायोडीज़ल.पहली पीढ़ीके ज़्यादातर जैविक ईंधनों (यानी 1GB जो मुख्य रूप से बायोएथेनॉल और बायोडीज़ल हैं) को उन खाद्य आधारित पौधों से बनाया जाता है, जिनमें ऊर्जा वाले कण जैसे कि चीनी, तेल या सेल्यूलोज़ होते हैं. वर्ष 2000 से कुल जैविक ईंधन के उत्पादन में बायोडीज़ल का उत्पादन लगभग दस गुना बढ़ गया है. साल 2000 में कुल जैविक ईंधन के उत्पादन में बायोडीज़ल की हिस्सेदारी महज़3.3 प्रतिशतथी, जो 2020 में बढ़कर क़रीब 32 फ़ीसद हो गई है. लेकिन, आज भी बनाए जाने वाले जैविक ईंधन में बायोएथेलॉल की हिस्सेदारी दो तिहाई है. पहली पीढ़ी के जैविक ईंधनों (1GB) से मिलने वाला जैविक ईंधन अब भी सीमित है और इसका खाद्य सुरक्षा पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है. वहीं दूसरी पीढ़ी के जैविक ईंधन (2GB) जानवरों के चारे यानीलिग्नोसेल्यूलोज़िक– (किसी पौधे के बिना स्टार्च वाले रेशों) जैसे कि सूखा पौधा, पराली और वनों का कचरा. ये सबके सब ग़ैर खाद्य पदार्थ वाले जैविक कचरे, या फिर ख़ाली पड़ी ज़मीन पर उगाई जाने वाली फ़सले हैं. आज भी दूसरी पीढ़ी के जैविक ईंधन के कच्चे माल को बहुत कम ही कारोबारी स्तर पर पैदा किया जा रहा है. तीसरी पीढ़ी के जैविक ईंधन (3GB) काही पर आधारितहैं और उनमें बिना खेती योग्य ज़मीन का इस्तेमाल किए हुई ज़्यादा ऊर्जा देने वाले ग़ैर खाद्य पदार्थ के जैविक ईंधन बनने की क्षमता है जिनसे बायोडीज़ल, बायोएथेनॉल और हाइड्रोजन तैयार की जा सकती है. तीसरी पीढ़ी के जैविक ईंधन (3GB) पर अभी भी रिसर्च हो रहा है और इनके विकास का काम जारी है.चौथी पीढ़ी के ऐसे जैविक ईंधनों (4GB) या सौर ऊर्जा पर आधारित जैविक ईंधन जैसे की सौर ईंधन और बिजली वाले ईंधन जो असीमित मात्रा में उपलब्ध, सस्ते और बड़े पैमाने पर मौजूद कच्चे माल का इस्तेमाल करके सौर ऊर्जा को सीधे ईंधन में तब्दील करते हैं, उन पर अभी भी रिसर्च शुरुआती दौर में ही है.
जैविक ईंधन के इस्तेमाल से कच्चे तेल का आयात कम होने की उम्मीद है जिससे ऊर्जा सुरक्षा बढ़ेगी. ऊर्जा की अर्थव्यवस्था में स्थानीय उद्यमी और गन्ना किसान साझीदार बनेंगे और इससे गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण भी कम होगा.
अमेरिका, दुनिया भर मेंएथेनॉल का सबसे बड़ा उत्पादकहै और विश्व के कुल एथेनॉल का 46 प्रतिशत उत्पादन करता है. दुनिया के कुल बायोडीज़ल उत्पादन में अमेरिका की हिस्सेदारी 19 फ़ीसद है. अमेरिका में 87 प्रतिशतबायोएथेनॉल को मक्के से बनाया जाता है. ब्राज़ील, दुनिया कादूसरा सबसे बड़ाएथेनॉल उत्पादक देश है, जहां विश्व के कुल एथेनॉल का 28 फ़ीसद बनाया जाता है. जबकि ब्राज़ील में दुनिया के कुल बायोडीज़ल में से 14 प्रतिशत का उत्पादन होता है. ब्राज़ील में एथेनॉल को गन्ने से बनाया जाता है, तो बायोडीज़ल को सोयाबीन से.यूरोपीय संघ, दुनिया में बायोडीज़ल का सबसे बड़ा उत्पादकहै. लेकिन, वो अपना ज़्यादातर बायोडीज़ल, जानवरों के आयातित चारे से बनाता है. 2019 में दुनिया भर में कुल प्राथमिक ईंधन की खपत में जैविक ईंधनों की हिस्सेदारी0.2 फ़ीसदथी, जबकि परिवहन के क्षेत्र में कुल ऊर्जा खपत का0.7 प्रतिशतजैविक ईंधन से आता था. भारत में भी प्राथमिक ऊर्जा खपत में जैविक ईंधन की हिस्सेदारी लगभग0.2 फ़ीसदऔर परिवहन ऊर्जा में इसकी हिस्सेदारी क़रीब0.7 प्रतिशतही थी.
जैविक ईंधन के इस्तेमाल के पीछे के तर्क
जहां तक आर्थिक, पर्यावरण संबंधी और सामाजिक टिकाऊपन की बात है, तो जैविक ईंधन अपनाने केफ़ायदे भी हैं और नुक़सान भी. दुनिया भर में जैविक ईंधन का प्रयोग बढ़ाने के पीछे इसके कम ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन (GHG), कच्चे तेल के कम आयात से ऊर्जा सुरक्षा और ग्रामीण विकास में योगदान का हवाला दिया जाता है.नीति आयोग की रिपोर्टभी जैविक ईंधन के इस्तेमाल के इन्हीं फ़ायदों का हवाला देती है:जैविक ईंधन के इस्तेमाल से कच्चे तेल का आयात कम होने की उम्मीद है जिससे ऊर्जा सुरक्षा बढ़ेगी.ऊर्जा की अर्थव्यवस्था में स्थानीय उद्यमी औरगन्ना किसानसाझीदार बनेंगे और इससे गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण भी कम होगा. जहां तक किसानों को फ़ायदे की बात है, तो उसमें कोई शक नहीं है. क्योंकि, जैविक ईंधन ही नहीं, जब भी किसी फ़सल की मांग बढ़ेगी तो उससे किसानों को फ़ायदा होगा. लेकिन, जैविक ईंधन के पर्यावरण और ऊर्जा संबंधी हित स्पष्ट नहीं हैं, और ये फ़ायदे ख़ास संदर्भों में ही मिलते हैं.
भारत में एथेनॉल बनाने का FER उपलब्ध नहीं है. लेकिन, संभावना यही है कि ये ब्राज़ील के एथेनॉल की तुलना में कम ही होगा, क्योंकि, जैविक ईंधनों पर हुए बहुत से अध्ययनों में ब्राज़ील के एथेनॉल को सबसे अधिक ऊर्जा वाला बताया गया है.
कुल ऊर्जा संतुलन
अगर हम ईंधन (पेट्रोलियम या जैविक ईंधन) का उत्पादन करने में लगने वाली ऊर्जा और इसके बदले में इन ईंधनों से हासिल होने वालीकुल ऊर्जा के अनुपात (OER)की बात करें, तो ये पेट्रोल में सबसे ज़्यादा और सेल्यूलोज़ पर आधारित एथेनॉल में सबसे कम है. पर चूंकि जैविक ईंधन बनाने में लगने वाली ऊर्जा का ज़्यादातर हिस्सा नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों से आता है, तो जैविक ईंधन तैयार करने में लगने वालेजीवाश्म ईंधन के अनुपात (FER)यानी जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से तैयार किए जाने वाले तरल ईंधन ईंधन में सबसे कम ऊर्जा लगती है. पेट्रोल के लिए FER, इसकेOER के लगभग बराबर यानी 0.8है. वहीं, ब्राज़ील के गन्ने से बननेवाले एथेनॉल में येअनुपात लगभग 10है.गन्ने से तैयार होने वाले एथेनॉल में FER अधिक है क्योंकि, गन्ने से एथेनॉल बनाने के लिए इसके रेशों का ही अधिक इस्तेमाल होता है.भारत में एथेनॉल बनाने का FER उपलब्ध नहीं है. लेकिन, संभावना यही है कि ये ब्राज़ील के एथेनॉल की तुलना में कम ही होगा, क्योंकि, जैविक ईंधनों पर हुए बहुत से अध्ययनों में ब्राज़ील के एथेनॉल को सबसे अधिक ऊर्जा वाला बताया गया है.
ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन
नीति आयोग की रिपोर्टकहती है कि गाड़ियों में जैविक ईंधन के इस्तेमाल से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन काफ़ी कम होगा. इसीलिए, रिपोर्ट में एथेनॉल को पेट्रोल में मिलाने को बढ़ावा देने का तर्क दिया गया है. लेकिन अगर हम जैविक ईंधन केकुल आयु चक्र (LCA)यानी पौधे से ईंधन बनाने और ईंधन के इस्तेमाल के दौरान कार्बन उत्सर्जन और इसके कार्बन उत्सर्जन पर असर के अध्ययनों की बात करें, तो इनके नतीजे अक्सर विरोधाभास भरे रहे हैं, और अनुमानों मेंकाफ़ी अंतरपाया गया है. इन अनुमानों में भारी अंतर की एक वजह तो जैविक ईंधन के लिए खेती के इस्तेमाल में आने वाली ज़मीन के प्रयोग में बदलाव का कुल कार्बन उत्सर्जन में योगदान का आकलन कर पाना बहुत मुश्किल होता है. सभी पौधे और पेड़कार्बन के भंडारका काम करते हैं, क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) से वायुमंडल से कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) को सोखते हैं. गाड़ियों में जैविक ईंधन जलने से पौधों में क़ैद ये कार्बन डाई ऑक्साइड वापस पर्यावरण में पहुंच जाएगी. लेकिन, चूंकि जैविक ईंधन बनाने के लिए दोबारा पौधे उगाए जाते हैं, तो उनसे होने वाले कार्बन उत्सर्जन का असर कम हो जाता है. इसलिए, सैद्धांतिक रूप से माना यही जाता है किजैविक ईंधन कार्बन न्यूट्रलहोते हैं. लेकिन, अगर किसी जंगल को साफ़ करके वहां पर जैविक ईंधन के लिए खेती की जाती है, तो इसका मतलब ये है कि एक बड़े कार्बन भंडार को ख़त्म कर दिया जाता है और इससे जो कार्बन उत्सर्जन नियंत्रित होगा, वो जंगल साफ़ करने से हुए नुक़सान की भरपाई कर पाएगा या नहीं, ये कह पाना बेहद मुश्किल है. जंगल साफ़ करना याज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव (LUC)को अकादेमिक क्षेत्र में आम तौर पर यही कहा जाता है कि इससे जैविक ईंधन से होने वाले फ़ायदे बहुत कम हो जाते हैं. मिसाल के तौर पर ब्राज़ील के गन्ने से बनने वाले एथेनॉल की लगातार बढ़ती मांग को पूरी करने का मतलब, वर्षा वनों को लगातार साफ़ करनाहै. इससे ब्राज़ील में एथेनॉल के उत्पादन में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है. कहने का मतलब ये है ब्राज़ील के एथेनॉल के इस्तेमाल से पेट्रोल की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 60 फ़ीसद ज़्यादा हो रहा है.
भारत में एथेनॉल का उत्पादन खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगाकर ही किया जा सकता है क्योंकि जैविक ईंधन का घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए ज़रूरी सिंचाई योग्य ज़मीन देश में बहुत कम है.
भारत के संदर्भ में चीन के मक्के पर आधारित एथेनॉल उत्पादन और सोयाबीन पर आधारित बायोडीज़ल के उत्पादन से जुड़े अध्ययन शायद ज़्यादा प्रासंगिक होंगे.चीन में एथेनॉल और बायोडीज़ल के उत्पादन से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर हुए अध्ययन में पाया गया है कि इनसे पेट्रोल और डीज़ल की तुलना में40 और 20 प्रतिशत ज़्यादा उत्सर्जनहोता है. क्योंकि इनके लिए फ़सलें उगाने के लिए उर्वरक का ज़्यादा इस्तेमाल होता है. जैविक ईंधन बनाने में भी ज़्यादा ऊर्जा लगती है, जो कोयले से बनती है. अगर ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव (LUC) से जुड़े ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को न जोड़ा जाए, तो पहली पीढ़ी के ज़्यादातर जैविक ईंधनों (1GB) से कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन की दर3 से 11 ग्राम प्रति मिलियन जूल (CO2 eq per MJ)होती है, जो पेट्रोलियम पर आधारित ईंधनों की तुलना में कम है. लेकिन, अगर हम जैविक ईंधन के उत्पादन के लिए ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव (LUC) को भी इस गणना में शामिल कर लें, तो जलवायु परिवर्तन के प्रति ज़्यादा संवेदनशील यूरोपीय संघ जैसे क्षेत्रों में माना यही जाता है कि पेट्रोल और डीज़ल की तुलना में जैविक ईंधनों से पर्यावरण को ज़्यादा नुक़सान होता है.
विवाद के मुद्दे
जैविक ईंधन पर नीति आयोग की रिपोर्ट जारी होने के बाद इस पर हुईपरिचर्चाओंसे ये बात उजागर हुई है कि पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने से खाद्य सुरक्षा और पानी की चुनौतियां बढ़ सकती हैं. अगर खाद्य फ़सलों के उत्पादन वाली ज़मीन पर गन्ना उगाया जाता है, तो इसमें पानी की खपत ज़्यादा होगी. ऐसे में ये बात साफ़ तौर से समझ में आती हैकि ईंधन और खाद्य क्षेत्र की मांग के बीच होड़से पानी और खाद्य सुरक्षा, दोनों की चुनौती खड़ी हो सकती है. इसके जवाब में ये तर्क बहुत दिनों तक नहीं दिया जा सकता है कि केवल उपयोग से अधिक गन्ना और चावल ही जैविक ईंधन बनाने में इस्तेमाल किया जाएगा.मॉनसूनकी उम्मीद से अधिक बारिश से ही ज़रूरत से अधिक अनाज पैदा होता है. लेकिन भविष्य में अगर पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने की महत्वाकांक्षी योजना पर ज़ोर दिया जाता रहा, तो इस पर अमल हो पाना मुश्किल होगा. भारत अभी अपने इस्तेमाल का ज़्यादातर एथेनॉल आयात करता है. ये बातनीति आयोग ने अपनी रिपोर्टमें भी मानी है. इसका मतलब ये है कि एथेनॉल से ऊर्जा सुरक्षा में कोई ठोस योगदान मिल पाना अभी बाक़ी है. अगर घरेलू उत्पादन नहीं बढ़ता है, तो केवल आयात से पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकेगा. घरेलू स्तर पर एथेनॉल का उत्पादन अभी चुनौती बना रहेगा.भारत में एथेनॉल का उत्पादन खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगाकर ही किया जा सकता है क्योंकि जैविक ईंधन का घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए ज़रूरीसिंचाई योग्य ज़मीन देश में बहुत कमहै. जैविक ईंधन के इस्तेमाल से गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण को कम करने का फ़ायदा बहुत कम है.इसके अलावा भारत ने सड़क परिवहन का जिस रफ़्तार से विद्युतीकरण करने का लक्ष्य तय किया है, उस लिहाज़ से जैविक ईंधन से प्रदूषण कम करने का मक़सद भी अनुपयोगी है. दुनिया भर में जैव ईंधन के उत्पादन को सबसे ज़्यादा राजनीतिक बढ़ावा तभी मिलता है, जब इनसेकिसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाको फ़ायदे होते हैं. संसाधनों की कमी वाले भारत के लिए जैविक ईंधन अपनाने से फ़ायदे तो बहुत कम होंगे, मगर इसकी क़ीमत बहुत ज़्यादा चुकानी पड़ सकती है.
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