Published on Dec 20, 2021 Updated 0 Hours ago

COP26 के दौरान केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री जितेंद्र सिंह ने मिशन "एकीकृत बायोरिफ़ाइनरी" का आग़ाज़ किया. भारत और नीदरलैंड के बीच आपसी गठजोड़ से इस पहल की शुरुआत की गई है.

Bio-fuel: भारत में एक मज़बूत जैव-ईंधन उद्योग होने के फ़ायदे!

हाल ही में 26वें UNFCCC कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ द पार्टीज़ (COP26) में जलवायु परिवर्तन (Climate Change) से निपटने को लेकर कई फ़ैसले और ऐलान हुए. ग्लासगो (Glasgow Summit)  समझौते का सार यही है कि दुनिया में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए समुचित क़दम नहीं उठाए जा रहे हैं. समझौते के तहत दुनिया के देशों से उनकी 2030 की जलवायु प्रतिबद्धताओं या राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों (NDCs) के प्रति और गंभीर होने की अपील की गई. COP26 में दिए अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने पांच प्रमुख घोषणाओं के रूप में भारत की NDCs का ताज़ा लेखाजोखा पेश किया. भारत की ओर से की गई घोषणाओं का सबसे अहम हिस्सा नवीकरणीय ऊर्जा और नेट-ज़ीरो (Net Zero) से जुड़ा है. भारत ने 2030 तक 500 गीगावाट (GW) नवीकरणीय ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य रखा है. इसके साथ ही 2070 तक नेट-ज़ीरो हासिल करने का महत्वाकांक्षी इरादा भी ज़ाहिर किया है.

एकीकृत बायोरिफ़ाइनरी एक ऐसी सुविधा है जिसके ज़रिए जैव संसाधनों को मूल्य-वर्धित उत्पादों में बदला जाता है. साथ ही इस क़वायद से अधिकतम ऊर्जा भी हासिल की जाती है.  

COP26 के दौरान केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री जितेंद्र सिंह ने मिशन “एकीकृत बायोरिफ़ाइनरी” का आग़ाज़ किया. भारत और नीदरलैंड  के बीच आपसी गठजोड़ से इस पहल की शुरुआत की गई है. मिशन इनोवेशन के तहत आने वाले इस कार्यक्रम का लक्ष्य स्वच्छ ऊर्जा के स्रोत विकसित करना है. दरअसल एकीकृत बायोरिफ़ाइनरी एक ऐसी सुविधा है जिसके ज़रिए जैव संसाधनों को मूल्य-वर्धित उत्पादों में बदला जाता है. साथ ही इस क़वायद से अधिकतम ऊर्जा भी हासिल की जाती है. इस प्रक्रिया से ठोस, आत्मनिर्भर, टिकाऊ और पर्यावरण अनुकूल तरीक़े से प्रचुर मात्रा में और उम्दा रसायन भी हासिल किए जा सकते हैं. पिछले कुछ सालों में भारत में जैव ईंधन से जुड़े उद्योग में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रम शुरू किए जा चुके है. भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा के एक अतिरिक्त स्वरूप और जीवाश्म आधारित ईंधनों के विकल्प के तौर पर जैव समाधानों की पड़ताल करने को लेकर अपना झुकाव दोहराया है.

दुनिया में ऊर्जा की मांग बेतहाशा बढ़ती जा रही है. एक अनुमान के मुताबिक अगले दशक में विश्व में ऊर्जा की मांग 17 अरब टन तेल के बराबर हो जाएगी. बीपी एनर्जी आउटलुक 2019, के अनुसार वैश्विक स्तर पर ऊर्जा की कुल मांग में भारत का हिस्सा 2040 तक बढ़कर 11 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा. भारत की राष्ट्रीय ऊर्जा आपूर्ति में कोयला, तेल और गैसोलीन जैसे कार्बन उत्सर्जनकारी ईंधनों का योगदान 69 फ़ीसदी है. ज़ाहिर है ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए इन प्रदूषणकारी ईंधनों का सहारा लेने से जलवायु के मोर्चे पर बेहद नुकसानदेह परिणाम सामने आएंगे. इसके साथ ही ईंधनों के लिए भारत की आयात पर निर्भरता और भी बढ़ जाएगी. मिसाल के तौर पर 2020 में आई आर्थिक सुस्ती के बावजूद भारत के कुल आयात (367.9 अरब अमेरिकी डॉलर) में तेल का हिस्सा 28.35 प्रतिशत (104.3 अरब अमेरिकी डॉलर) रहा था. आयातित ईंधनों पर ऐसी निर्भरता से भारत का ऊर्जा क्षेत्र भूराजनीतिक अस्थिरताओं और आपूर्ति श्रृंखला में आने वाली रुकावटों से जुड़े ख़तरों की ज़द में रहता है. जीवाश्म आधारित ईंधनों से जुड़ी मानवीय गतिविधियों के चलते पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जलवायु के लिए बड़ा संकट खड़ा हो गया है. और तो और जीवाश्म ईंधनों का भंडार धीरे-धीरे घटता भी जा रहा है. ऐसे में जैव-ईंधन कई फ़ायदों वाला विकल्प साबित हो सकता है.

 देश में हर साल 30 करोड़ टन से ज़्यादा कृषि से जुड़ा कचरा पैदा होता है. इसी तरह भारत में खाद्यान से जुड़ा कूड़ा भी तक़रीबन 30 करोड़ टन सालाना है. 

टिकाऊ ऊर्जा व्यवस्था के तौर पर जैव-ईंधन

निश्चित रूप से जैव-ईंधन हमें ऊर्जा का एक टिकाऊ तंत्र मुहैया कराता है. ये नवीकरणीय और पर्यावरण के अनुकूल है. साथ ही इसके ज़रिए घरेलू स्तर पर उपलब्ध कच्चे मालों का इस्तेमाल भी सुनिश्चित हो सकता है. जैव ईंधन के उत्पादन के लिए आम तौर पर फ़र्मेंटेशन तकनीक का प्रयोग किया जाता है. इस प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाले माइक्रोब्स या सूक्ष्म कीटाणु ग्लूकोज़ जैसे सामान्य शक्कर या शुगर को अनेक जैव-रासायनिक तरीक़ों से मूल्य-वर्धित रसायनों में बदल देते हैं. जैव-ईंधन के उत्पादन की प्रक्रिया सामान्य तापमान (25-45 डिग्री सेल्सियस) में पूरी की जा सकती है. जबकि  रासायनिक तरीक़ों से ऊर्जा के उत्पादन में 500 डिग्री सेल्सियस से ऊपर के तापमान की आवश्यकता होती है. साफ़ है कि जैव-ईंधन के उत्पादन की पूरी प्रक्रिया ऊर्जा के इस्तेमाल के नज़रिए से ज़्यादा कार्यकुशल है. जीवाश्म ईंधनों से हासिल की जाने वाले ऊर्जा की तुलना में जैव-ईंधन परियोजनाओं से कार्बन के उत्सर्जन में कटौती की जा सकती है. साथ ही कच्चे माल में आत्मनिर्भरता भी सुनिश्चित हो सकती है.

आम तौर पर फ़र्मेंटेशन दो प्रकार के होते हैं: ठोस स्वरूप में और तरल या पानी में डूबे हुए. ठोस स्वरूप वाले फ़र्मेंटेशन के तहत पानी की ग़ैर-मौजूदगी में सूक्ष्मजीवों का इस्तेमाल किया जाता है. ज़ाहिर है ये तरीक़ा पानी में डुबोकर किए जाने वाले फ़र्मेंटेशन के मुक़ाबले आर्थिक रूप से सौ गुणा ज़्यादा सस्ता होता है. निश्चित रूप से ये प्रणाली ज़्यादा कार्यकुशल है. पानी में डुबोकर किए जाने वाले फ़र्मेंटेशन में पानी के इस्तेमाल की ज़रूरत के चलते लागत में बढ़ोतरी हो जाती है. चूंकि परिस्थितियों का अधिकतम उपयोग और नए तौर-तरीक़े अपनाना हमेशा कठिन होता है लिहाज़ा डुबोकर किया जाने वाला फ़र्मेंटेशन ही शोधकर्ताओं की पहली पसंद बनी हुई है. बहरहाल पानी से जुड़े टिकाऊ तौर-तरीकों और आर्थिक फ़ायदों के मद्देनज़र ठोस स्वरूप वाले फ़र्मेंटेशन के इस्तेमाल पर गंभीरता से विचार करने का वक़्त अब आ गया है.

बहरहाल इन फ़ायदों के बावजूद जैव-ईंधन उत्पादन के लिए सूक्ष्म जीवों पर आधारित फ़र्मेंटेशन की प्रक्रिया के रास्ते में अनेक चुनौतियां हैं. आम तौर पर इसकी प्रक्रिया-लागत वाणिज्यिक ईंधनों के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा है. इस लागत का एक बड़ा हिस्सा ग्लूकोज़ जैसे महंगे सबस्ट्रैट्स की बदौलत सामने आता है. लिहाज़ा जैव-ईंधन की लागत को कम करने के लिए इस उद्योग से जुड़े सस्ते कच्चे माल (feedstock) की तलाश करनी होगी और उनपर काम शुरू करना होगा. प्रयोग में लाए गए फ़ीडस्टॉक्स के आधार पर जैव-ईंधनों को चार पीढ़ियों में बांटा जाता है. इनमें से हरेक पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी की ख़ामियों को दूर करने की क़वायदों के नतीजे के तौर पर उभर कर सामने आई है. पहली पीढ़ी में मक्का, गन्ना जैसे खाद्य फ़सलों का इस्तेमाल किया जाता है. जबकि दूसरी पीढ़ी में खेती के लिग्नोसेल्यूलोसिक अवशेषों जैसे चावल के चोकर (rice bran), गेहूं के चोकर (wheat bran) आदि को प्रयोग में लाया जाता है. पहली पीढ़ी के तौर-तरीक़े भोजन बनाम ईंधन की नैतिक बहस को जन्म देते हैं. वहीं दूसरी पीढ़ी के फ़ीडस्टॉक्स भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं और इन्हें आमतौर पर कचरा समझा जाता है. इसके अलावा रेस्टोरेंटों, रसोईघरों से निकलने वाले खाद्य कचरे और आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े चूरे शुगर के अच्छे स्रोत होते हैं. इन्हें म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट (MSW) के नाम से जाना जाता है. खाद्य पदार्थों से जुड़ा कचरा पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए बड़ी सिरदर्दी का सबब है. भारत के पास इन कच्चे मालों के उत्पादन की अपार क्षमता मौजूद है. देश में हर साल 30 करोड़ टन से ज़्यादा कृषि से जुड़ा कचरा पैदा होता है. इसी तरह भारत में खाद्यान से जुड़ा कूड़ा भी तक़रीबन 30 करोड़ टन सालाना है. ये कचरा जैव ईंधन उत्पादन के लिए सबस्ट्रैट्स साबित हो सकता है. भारत में घरेलू स्तर पर इनकी भरमार है. ये सस्ते हैं और इनमें शुगर या शर्करा का स्तर भी बहुत ऊंचा होता है. इतना ही नहीं ऐसे कच्चे मालों के इस्तेमाल से सर्कुलर इकॉनोमी को भी बढ़ावा मिलता है.

जैव ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग को लेकर भारत ने ब्राज़ील के साथ एक समझौता पत्र (MoU) पर दस्तख़त भी किया है. ग़ौरतलब है कि जैव-ईंधनों के लिए गन्ने से जुड़े कच्चे माल के इस्तेमाल में ब्राज़ील का ट्रैक रिकॉर्ड बेहद शानदार रहा है. 

जैव ईंधन के मोर्चे पर शोधकर्ताओं को एक और चुनौती का सामना करना पड़ता है. ये चुनौती है फ़र्मेंटेटिव उत्पादन की निम्न कार्यकुशलता. बाज़ार की मांगों के हिसाब से प्रतिस्पर्धी बनने के लिए थोड़े से सबस्ट्रैट से उत्पादन का ऊंचा स्तर हासिल करना ज़रूरी होता है. बहरहाल खेती बाड़ी और खाद्यान्न से जुड़े कचरे का इस्तेमाल एक जटिल प्रक्रिया है. इसके लिए क्रमश: सेल्युलोज़, हेमिसेल्युलोज़ और काइटिन के प्री-ट्रीटमेंट के लिए अतिरिक्त स्तर हासिल करने होते हैं. कार्बोहाइड्रेट हासिल किए जाने के पहले ये प्रक्रिया पूरी करनी होती है. अक्सर इसके लिए अनेक स्तरों वाली प्रॉसेसिंग करनी होती है. नतीजतन ये पूरी प्रक्रिया बेहद कठिन, महंगी और अकार्यकुशल हो जाती है. उत्पादन में सुधार करने और पूरी प्रक्रिया को कार्यकुशल बनाने के लिए जैवतकनीकी से जुड़े उपकरणों मसलन जेनेटिक इंजीनियरिंग और प्रॉसेस इंजीनियरिंग को इस्तेमाल में लाया जाता है.

भारत और जैव-ईंधन: हालिया नीतिगत पहल

भारत सरकार जैव ईंधन उत्पादन के लिए घरेलू फ़ीडस्टॉक की क्षमताओं को स्वीकार किया है. मिसाल के तौर पर 2018 में जैव ईंधन से जुड़ी राष्ट्रीय नीति में “भारत के एनर्जी बास्केट में जैव ईंधनों के सामरिक महत्व” को रेखांकित किया गया है. सरकार की नीतियां बायोइथेनॉल के उत्पादन को बढ़ाने पर केंद्रित हैं. इसके लिए शर्करा-युक्त (मीठे चुकंदर, मीठे ज्वार आदि) और स्टार्च-युक्त पदार्थों (मक्का, सड़े या नष्ट हुए अनाज आदि) का इस्तेमाल किया जाता है. ज़ाहिर है ये तमाम चीज़े मानवीय उपभोग के लायक नहीं हैं. इतना ही नहीं भारत सरकार ने इस क्षेत्र में पूंजी के अभाव से जुड़ी समस्या पर भी ध्यान दिया है. दूसरी पीढ़ी के इथेनॉल बायोरिफ़ाइनरियों के लिए 5000 करोड़ रु की व्यवहार्यता फ़ंडिंग गैप स्कीम का प्रावधान किया है. भारत ने 2023-24 तक पेट्रोल में 20 प्रतिशत इथेनॉल मिलाने (blending) का लक्ष्य भी रखा है.

हाल में COP26 में की गई घोषणाओं से पहले ही भारत ने पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाओं के ज़रिए जैव-ईंधन के क्षेत्र में ख़ुद को स्थापित करने की क़वायद शुरू कर दी थी. सितंबर 2021 में प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा की पृष्ठभूमि में भारत और अमेरिका ने द्विपक्षीय तौर पर जैव-ईंधनों पर भारत-अमेरिका के नए टास्क फ़ोर्स का गठन किया. ये टास्क फ़ोर्स तकनीकी हस्तांतरण को बढ़ावा देकर जैव-ईंधन क्षेत्र के विकास के लिए कारोबारी मॉडल विकसित करने का काम करेगा. दिसंबर 2020 में एशियाई विकास बैंक ने एशियाई स्वच्छ ऊर्जा कोष के तहत भारत में जैव-ईंधनों के विकास में मदद के लिए 24 लाख अमेरिकी डॉलर के अनुदान को मंज़ूरी दी थी. जैव ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग को लेकर भारत ने ब्राज़ील के साथ एक समझौता पत्र (MoU) पर दस्तख़त भी किया है. ग़ौरतलब है कि जैव-ईंधनों के लिए गन्ने से जुड़े कच्चे माल के इस्तेमाल में ब्राज़ील का ट्रैक रिकॉर्ड बेहद शानदार रहा है.

जैव ईंधन क्षेत्र से ग्रामीण क्षेत्रों में कम-कौशल वाले रोज़गार भी पैदा हो सकेंगे. ज़ाहिर है इससे भारतीय किसानों के लिए अतिरिक्त आमदनी सुनिश्चित की जा सकेगी. 

‘आत्म निर्भरता के लिए जैव ईंधन’

हालांकि जैवईंधनों से भारत की ऊर्जा से जुड़ी मांग के बहुत बड़े हिस्से की पूर्ति नहीं हो सकेगी. इसके बावजूद ये एक दशक के भीतर आत्मनिर्भरता हासिल करने से जुड़े भारत के सामरिक लक्ष्यों की पूर्ति में बेहद अहम भूमिका निभा सकते हैं. जैव ईंधन से भारत के ईंधन आयात से जुड़ी ज़रूरतों और निर्भरताओं में कमी लाई जा सकती है. इससे विदेशी मुद्रा भंडार की बचत में मदद मिलेगी और बाहर की ओर पूंजी के प्रवाह को रोकने में मदद मिलेगी. नीति आयोग की विशेषज्ञ समिति के मुताबिक 2025 तक 20 फ़ीसदी इथेनॉल मिलाने (blending) से जुड़ा लक्ष्य हासिल कर लेने पर भारत में सालाना 4 अरब अमेरिकी डॉलर की विदेशी मुद्रा की बचत होने लगेगी. इतना ही नहीं इससे जीवाश्म ईंधनों पर आधारित ऊर्जा व्यवस्था की आपूर्ति श्रृंखला से जुड़ी अनिश्चितताओं और समस्याओं से पार पाने में भी मदद मिलेगी. चूंकि भारत में कृषि क्षेत्र से जुड़ा भारी-भरकम कचरा गांवों में पैदा होता है लिहाज़ा जैवईंधन उत्पादन संयंत्रों की स्थापना से स्थानीय स्तर पर आपूर्ति श्रृंखलाएं तैयार करने में मदद मिलेगी. ग़ौरतलब है कि फ़सलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों और मौसमी प्रभावों के चलते कृषि क्षेत्र से मिलने वाले जैव-ईंधन के ख़राब होने या जल्द सड़ने का ख़तरा रहता है. लिहाज़ा इन स्थानीय आपूर्ति श्रृंखलाओं को कार्यकुशल बनना होगा. इससे ग़ैर-नवीकरणीय ऊर्जा की रसद और परिवहन से जुड़ी लागतों को कम करना मुमकिन हो सकेगा. साथ ही आपूर्ति श्रृंखला को भूराजनीतिक अस्थिरताओं से बचाकर वैश्विक आर्थिक झटकों से अलग-थलग करने में मदद मिलेगी. इसके अलावा जैव ईंधन क्षेत्र से ग्रामीण क्षेत्रों में कम-कौशल वाले रोज़गार भी पैदा हो सकेंगे. ज़ाहिर है इससे भारतीय किसानों के लिए अतिरिक्त आमदनी सुनिश्चित की जा सकेगी. मिसाल के तौर पर इथेनॉल उद्योग की बदौलत देश के चीनी मिलों को साल 2020-21 में 2 अरब अमेरिकी डॉलर का अतिरिक्त मुनाफ़ा होने की उम्मीद है. ग्रामीण भारत की क्रय शक्ति बढ़ने से भारत में उपभोक्ता मांग में बढ़ोतरी होगी. इसका भारत में असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर प्रोत्साहनकारी प्रभाव पड़ेगा.

हालांकि इस सिलसिले में कुछ मसले काबिल-ए-ग़ौर हैं. E20 लक्ष्यों की ओर आगे बढ़ने के लिए भारत सरकार पिछले कुछ अर्से से खाद्यान फसलों को दूसरी पीढ़ी के फ़ीडस्टॉक पर तरजीह देने लगी है. इससे मध्यम काल में मोटे अनाजों जैसे मक्का, जौ और बाजरे के उत्पादन में अचानक बढ़ोतरी करने की ज़रूरत आ पड़ी है. इन घटनाक्रमों से संकेत मिलते हैं कि फ़ीडस्टॉक की मांग में बढ़ोतरी के साथ-साथ नीति निर्माताओं को कृषि के तौर-तरीक़ों और स्वरूपों में आने वाले खलल को भी ध्यान में रखना होगा. खाद्य बाज़ार में मुनाफ़े फ़ीडस्टॉक के जैसे प्रतिस्पर्धी बने रहने चाहिए. ऐसा नहीं होने पर किसान खाद्य पदार्थों की मांग, मिट्टी के स्वास्थ्य और पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं के इतर ज़्यादा शर्करा तत्वों वाले फसल उगाने लगेंगे. इससे ज़मीन के इस्तेमाल में अप्रत्यक्ष रूप से बदलाव (iLUC) हो जाएगा. ज़ाहिर है इससे शुद्ध उत्सर्जन के स्तर में भी बढ़ोतरी होने लगेगी. ग़ौरतलब है कि कृषि क्षेत्र में दूसरी पीढ़ी के अवशेषों को व्यापक रूप से पॉल्ट्री फ़ीड (मुर्ग़ियों के दाने) के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाता है. इन पदार्थों को जैव ईंधनों के फ़ीडस्टॉक के तौर पर प्रयोग में लाए जाने पर पॉल्ट्री सेक्टर के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी और उनकी खाद्य आपूर्ति पर दबाव पड़ने लगेगा. लिहाज़ा ज़्यादा से ज़्यादा फ़ीडस्टॉक पैदा करने वाली फसलें उगाने को लेकर दी जाने वाले प्रोत्साहनकारी नीतियां तैयार करते वक़्त देश की खाद्य सुरक्षा ज़रूरतों को भी ध्यान में रखना होगा.

जैव ईंधन उत्पादन से आत्मनिर्भरता हासिल करने के लक्ष्य को हक़ीक़त में बदला जा सकता है. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को विज्ञान, उद्योग और समाज के बीच ज़्यादा से ज़्यादा जुड़ावों को बढ़ावा देना होगा. 

दरअसल, स्थानीय आपूर्तिकर्ताओं को प्रशिक्षित कर उन्हें कचरे से दौलत पैदा करने की संभावनाओं को लेकर कचरे की छंटाई करने के लिए प्रोत्साहन देना होगा. ज़ाहिर है इसी तरीक़े से जैव ईंधन उत्पादन से आत्मनिर्भरता हासिल करने के लक्ष्य को हक़ीक़त में बदला जा सकता है. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को विज्ञान, उद्योग और समाज के बीच ज़्यादा से ज़्यादा जुड़ावों को बढ़ावा देना होगा.

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Authors

Akanksha Jain

Akanksha Jain

Akanksha Jainis adoctoral researcher at South Asian University. Her research areasinclude industrial biotechnology waste and biomass valorisation bioenergy and bioproduct production and bioprocess engineering. She ...

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Ambuj Sahu

Ambuj Sahu

AmbujSahuworks as a Research Associate at the Delhi Policy Group and an alumnus from Indian Institute of Technology Delhi. His interests include foreign security and ...

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