7 अक्टूबर को इज़रायल पर आतंकी हमले के बाद जारी इज़रायल-हमास युद्ध ने जिस वक्त दुनिया भर में प्रदर्शन, बहस, बंटवारा और वैचारिक युद्ध को जन्म दिया है, उसी समय ऑनलाइन दुनिया में एक अजीबोगरीब घटना देखना को मिली. 2002 में अल क़ायदा के संस्थापक ओसामा बिन लादेन के द्वारा कथित रूप से लिखी गई एक चिट्ठी, जिसका शीर्षक 'लेटर टू अमेरिका' था, का एक हिस्सा सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. ये ख़ास तौर पर टिकटॉक पर वायरल हुआ जिस पर चीन की कंपनी बाइटडांस का मालिकाना हक है (भारत ने 2020 में टिकटॉक पर पाबंदी लगाई थी).
अपनी मौत के एक दशक बाद बिन लादेन को ऑनलाइन स्पेस, जहां संदर्भ और जानकारी तेज़ी से महत्वहीन आवश्यकता बनती जा रही है, में युवा फॉलोअर मिले जिनमें से ज़्यादातर पश्चिमी देशों के हैं.
टिकटॉक के यंग यूजर्स तक चिट्ठी का टेक्स्ट 2003 में ब्रिटेन के अख़बार द गार्जियन की वेबसाइट में प्रकाशित एक आर्टिकल के ज़रिए पहुंचा. हालांकि ये वायरल ट्रेंड एक बदलाव के साथ आया. बिन लादेन की चिट्ठी पढ़ने वाले ज़्यादातर युवाओं ने इसका ग़लत मतलब निकाला. ऐसा लगा कि लोग एक मोस्ट वॉन्टेड आतंकवादी, जिसने सितंबर 2001 में अमेरिका पर हमला करके हज़ारों लोगों की हत्या की थी, की चिट्ठी नहीं पढ़ रहे थे बल्कि उसके विचारों की तरफ इस तरह देख रहे थे मानो किसी ज़ुल्म सहने वाले व्यक्ति की हो. स्कॉलर शिराज़ माहेर इसे एक “महान प्रतिरोध” के विचार की तरफ चले आने या दिमाग में भरना कहते हैं. अपनी मौत के एक दशक बाद बिन लादेन को ऑनलाइन स्पेस, जहां संदर्भ और जानकारी तेज़ी से महत्वहीन आवश्यकता बनती जा रही है, में युवा फॉलोअर मिले जिनमें से ज़्यादातर पश्चिमी देशों के हैं. ये फॉलोअर बिन लादेन को एक तरह का स्वतंत्रता सेनानी समझ रहे हैं. बेशक इसका संदर्भ गज़ा का संकट था.
अब 2023 की तरफ बढ़े तो हमास भी आतंकवाद और एक “महान प्रतिरोध” की रूमानियत (रोमांटिसिज़्म) के बीच अंतर को धुंधला करने में कामयाब हुआ है. मौजूदा बहस के एक बड़े हिस्से में इज़रायल के ख़िलाफ़ हमास के आतंकी हमले, जिसकी वजह से बंधक संकट भी खड़ा हुआ जो अभी तक जारी है, में इस फिलिस्तीनी उग्रवादी संगठन को अक्सर आतंकी गुट की तरह नहीं बल्कि ‘प्रतिरोध’ के फ्रंट के अनुकूल नज़रिए से देखा जाता है. अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर 1997 में हमास को एक आतंकी संगठन घोषित किया था लेकिन 7 अक्टूबर के आतंकी हमले के बाद ये समूह कम-से-कम आंशिक तौर पर लोगों की ये सोच बदलने में सफल रहा है. इसके पीछे उसकी कोई योजना नहीं थी बल्कि अप्रत्याशित ढंग से मिले ऑनलाइन समर्थन से ये संभव हुआ है जिसमें पश्चिमी देशों से मिला समर्थन शामिल है.
सोशल मीडिया का उपयोग
ऊपर बताया गया ट्रेंड अलग से नहीं बना है. आधिकारिक सरकारी नीति के रूप में भी पश्चिमी देशों के द्वारा अफ़ग़ान तालिबान जैसे किरदारों के साथ बात करने के फैसले ने सरकार से अलग उग्रवादी किरदारों को सार्वजनिक चर्चा के कुछ हिस्सों में तर्कसंगत किरदार के तौर पर अविश्वसनीय अधिकार दिए हैं. ऑनलाइन जानकारी की रफ्तार और बनावट इन संगठनों को अपनी इच्छा के मुताबिक नैरेटिव तय करने की इजाज़त देती है. ये अब लंबे समय से एक परेशान करने वाला ट्रेंड बना हुआ है. सरकार और सुरक्षा एजेंसियां बार-बार इस तरह के नैरेटिव का मुकाबला करने की अपनी कोशिशों में नाकाम साबित हुई हैं और ऑनलाइन जानकारी के प्रसार का मुकाबला करने के लिए परंपरागत सरकारी नीतियां हमेशा इन तकनीक से प्रेरित ट्रेंड से कुछ कदम पीछे ही रहेंगी. 2010 के आसपास जब इस्लामिक स्टेट का आतंक चरम पर था तो ये इस तथ्य पर आगे बढ़ा था कि उसके विचार एक भौतिक आतंकी संगठन से परे ज़िंदा रहने चाहिए. इस समय भी गज़ा में युद्ध के बीच ISIS से जुड़े तीन आतंकी हमले यूरोप में हुए जिनमें लोग हताहत हुए हैं. ये स्थिति तब है जब अल क़ायदा और ISIS जैसे संगठन वैचारिक तौर पर हमास के समर्थन में नहीं हैं क्योंकि हमास बातचीत, चुनाव, शिया देश ईरान के साथ दोस्ती स्वीकार करने, इत्यादि के लिए पूरी तरह से इस्लामिक तौर-तरीके अपनाने के बदले ज़्यादा राजनीतिक संगठन बना हुआ है. फिर भी अल कायदा जैसे समूहों ने लंबे समय से इज़रायल-अमेरिका गठबंधन को एक ‘यहूदी-धर्म योद्धाओं के गठबंधन’ के रूप में बताकर उसका मुकाबला करने के लिए अपनी विचारधारा का प्रचार किया है. हालांकि स्कॉलर बराक मेंडलसन कहते हैं कि 9/11 के समय से अल क़ायदा के पास दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है क्योंकि तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में लड़ाई शुरू कर दी और इराक़ में अल कायदा छिन्न-भिन्न हो गया और इसी से तथाकथित इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश) का जन्म हुआ.
सरकार और सुरक्षा एजेंसियां बार-बार इस तरह के नैरेटिव का मुकाबला करने की अपनी कोशिशों में नाकाम साबित हुई हैं और ऑनलाइन जानकारी के प्रसार का मुकाबला करने के लिए परंपरागत सरकारी नीतियां हमेशा इन तकनीक से प्रेरित ट्रेंड से कुछ कदम पीछे ही रहेंगी.
डीपफेक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मिनट-दर-मिनट ब्यौरे के ज़माने में सूचना की सच्चाई और महत्वपूर्ण सोच-विचार के लिए समय की बेहद कमी है. बिन लादेन की चिट्ठी को विश्वसनीयता देने वाले टिकटॉक वीडियो को अलग-अलग सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म के ज़रिए लाखों लोगों ने देखा. इसका ये मतलब है कि समझदारी से बनाए गए 2-3 मिनट के वीडियो के ज़रिए बिन लादेन की चिट्ठी को लाखों लोगों ने देखा. इस तरह अल क़ायदा के मर चुके प्रमुख और उसकी विचारधारा को एक पूरी तरह अलग और उलझन में डालने वाले संदर्भ में एक नया जीवनदान मिला. बिन लादेन और उसके उत्तराधिकारी अयमान अल ज़वाहिरी की 2022 में काबुल में हत्या के बाद अल क़ायदा का अस्तित्व ख़तरे में था क्योंकि ज़वाहिरी के बाद उसके नए सरगना का एलान तक नहीं किया गया था. लेकिन ऑनलाइन तरीके से इस संगठन को अचानक पश्चिमी देशों में कुछ लोगों ने परोपकारी और एक्टिविस्ट के तौर पर समझ लिया. बिन लादेन की सोच के भीतर इस तरह का सार्वजनिक रुख अनसुना नहीं था. बिन लादेन के द्वारा अल क़ायदा की स्थापना के पांच साल के बाद 1993 में मशहूर पत्रकार रॉबर्ट फिस्क ने सूडान में उसका इंटरव्यू एक ‘सऊदी कारोबारी’ के तौर पर किया जो मुजाहिदीन की भर्ती करता था. उस इंटरव्यू का शीर्षक था: “सोवियत विरोधी योद्धा ने अपनी सेना को शांति की राह पर रखा”. उस वक्त अमेरिका बनाम सोवियत या साम्यवाद बनाम पूंजीवाद की लड़ाई ने इस संकीर्ण दृष्टिकोण का नेतृत्व किया था. ये उस समय की प्रमुख विचारधारा थीं. आज के समय में बिन लादेन के वायरल होने के पीछे अमेरिका में जड़ जमा चुके सीधे-सादे वैचारिक विमर्श का निकलना भी है. बिन लादेन का इस तरह नए सिरे से मशहूर होना ऐसी समस्या है जिसका बहुत कम उपाय है. ये समस्या यूज़र के समझदार न होने से बढ़ी; संघर्ष एवं युद्ध से प्रेरित है; ऐसा वीडियो बिना किसी फिल्टर के, तोड़-मरोड़ कर और अक्सर पूरी तरह से दुष्प्रचारित लोगों के स्मार्टफोन पर हर समय चलता रहता है. ये ‘ट्रेंड’ लोगों की सोच में पहले से मौजूद पूर्वाग्रहों में चला जाता है और उन्हें और ज़्यादा मज़बूत करता है, इस हद तक कि 2023 में बिन लादेन को पढ़ने वाले युवा लोग भी हैं.
मौजूदा समय और भविष्य में तकनीक महत्वपूर्ण रूप से विचारधारा, राजनीति और संघर्ष को निर्धारित करेगी.
मौजूदा समय और भविष्य में तकनीक महत्वपूर्ण रूप से विचारधारा, राजनीति और संघर्ष को निर्धारित करेगी. ख़बरों के मुताबिक हमास से जुड़े खातों ने क्रिप्टोकरेंसी और आतंकी संगठनों के द्वारा संचालित फेसबुक खातों पर 2014-15 में सीरिया के गृह युद्ध की लाइव तस्वीरों का इस्तेमाल करके 40 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा इकट्ठा किया है. इन तस्वीरों पर यूज़र की तरफ से 'लाइक' और 'इमोजी' के जरिए प्रतिक्रिया दी गई. वहीं आज के समय में गज़ा के युद्ध की AI के द्वारा बनाई गई तस्वीरों का इस्तेमाल किया जा रहा है जहां लाखों लोग असली या फर्ज़ी के बीच अंतर करने में नाकाम हो रहे हैं. ऐसे में डिजिटल स्पेस लोगों के लिविंग रूम में एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया है. आज समाज और राजनीति को समझना एक बेहद शुरुआती ‘जांच बनाम एल्गोरिदम’ की बाइनरी (द्वंद्व) पर आ रही है.
कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.
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