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आर्सेनिक संकट इस बात पर ज़ोर देता है कि हमें पाइप और पंप से आगे देखने की भी ज़रूरत है. ऐसा दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जिसके केंद्र में आम लोग हों. ऐसी नीति, जिसमें सुरक्षा, पारदर्शिता और समुदाय की भागीदारी भारत की जल सुरक्षा को परिभाषित करती है.
Image Source: Wikimedia Commons
ये लेख विश्व जल सप्ताह 2025 निबंध श्रृंखला का हिस्सा है.
जब भी हम भारत में पानी के अभाव के बारे में सोचते हैं, तो हमारे ज़हन में अक्सर सूखी नदियों, अनियमित मानसून और भूजल के अत्यधिक दोहन की तस्वीर बनती है, जबकि हमारे पैरों के नीचे एक और गंभीर संकट चुपचाप बहता है. ये समस्या है, दूषित पीने का पानी, विशेष रूप से आर्सेनिक के कारण. ये संकट बाढ़ या सूखे की तरह ध्यान नहीं खींचता, फिर भी इसके गंभीर प्रभाव स्वास्थ्य, उत्पादकता और मानव गरिमा पर दिखते हैं. गरीब समुदायों में इसकी सबसे ज़्यादा मार पड़ती है.
हालांकि, आर्सेनिक का प्रदूषण गंगा नदी के कई मैदानी हिस्सों में स्वाभाविक रूप से होता है, लेकिन अनियंत्रित मानव गतिविधियों और खराब शासन के कारण ये प्रदूषण बढ़ जाता है. पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में लाखों निवासियों को पहले से ही जलवायु परिवर्तन से जुड़े संकटों का सामना करना पड़ता है. इन इलाकों में भूमिगत जल अब भी पीने के पानी का प्राथमिक स्रोत बना हुआ है. दुखद बात ये है कि पानी के ये प्राथमिक स्रोत भी अक्सर ज़हर से भरे होत हैं. अगर हम आर्सेनिक के स्तर को कम करके सुरक्षित सीमा तक लाएं तो इससे 70 करोड़ रूपये से ज़्यादा का आर्थिक लाभ हो सकता है. सबसे गरीब परिवारों पर स्वास्थ्य लागत का बोझ सबसे ज़्यादा होता है. अगर इन तक स्वच्छ पानी पहुंच जाए तो उन्हें सबसे अधिक फायदा होगा. ऐसे में जब ये स्पष्ट है कि प्रदूषित पानी की सबसे बड़ी कीमत गरीब चुकाते हैं तो सवाल उठता है कि इसे ठीक करने के लिए हम और कितना लंबा इंतजार कर सकते हैं?
ऐसे में जब ये स्पष्ट है कि प्रदूषित पानी की सबसे बड़ी कीमत गरीब चुकाते हैं तो सवाल उठता है कि इसे ठीक करने के लिए हम और कितना लंबा इंतजार कर सकते हैं?
पश्चिम बंगाल, बिहार और असम जैसे उच्च-आर्सेनिक वाले राज्यों में ज़मीनी दौरे और सर्वेक्षण एक दर्दनाक वास्तविकता को उजागर करते हैं. आम तौर पर लोगों को पता होता है कि उनके पीने का पानी असुरक्षित है, लेकिन उनके पास कोई विकल्प नहीं होता है. रासायनिक विधि द्वारा शुद्ध किया गया और पाइप तक घर या सार्वजनिक नलों तक आने वाला पानी या तो उपलब्ध नहीं है, या फिर बहुत महंगा है. कुछ लोग बारिश के पानी पर निर्भर करते हैं और अगर मुमकिन है तो कुछ अपने पड़ोसियों से साझा करते हैं. हालांकि, ज़्यादातर लोग ऐसे होते हैं, जो कुछ कर नहीं सकते. वो इस दुखद स्थिति को अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि इसे सुधारने का खर्च वो नहीं उठा सकते.
आर्सेनिक प्रदूषण का नकारात्मक प्रभाव बहुत धीमे दिखते हैं, जबकि जीवाणु जनित बीमारियों प्रकोप तुरंत दिखता है. ऐसे में सरकार बीमारियों के प्रकोप के मामले में तो तुरंत कार्रवाई करती है लेकिन आर्सेनिक के दुष्परिणामों की अक्सर अनदेखी होती है. हालांकि, अब विशेषज्ञ ये तर्क दे रहे हैं कि आर्सेनिक प्रदूषण को एक धीमी शुरुआत वाले आपातकाल के रूप में फिर से परिभाषित करने का समय है. इस पर उसी तरह ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है, जैसे किसी आपातकालीन स्थिति में दी जाती है. इससे समन्वित शासकीय प्रयास, वित्तपोषण और नवाचार के नए रास्ते खुल सकते हैं.
आर्सेनिक से होने वाला नुकसान प्रभावित लोगों को गरीबी के दुष्चक्र में फंसा सकता है. पीने के पानी में आर्सेनिक सिर्फ स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुँचाता, बल्कि ये घरेलू आय को भी कम करता है. बिहार के आर्सेनिक प्रभावित जिलों से किए गए एक विस्तृत क्षेत्रीय अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि, औसतन, प्रभावित परिवार प्रति वर्ष मज़दूरी के रूप में 2,438 रुपये गंवाते हैं. इतना ही नहीं उन्हें इलाज में सालाना करीब 5,942 रुपये भी खर्च करने होते हैं. ये प्रति परिवार हर साल 8,380 रुपये से अधिक का कुल आर्थिक बोझ है. कम आय वाले ग्रामीण परिवारों के लिए ये बहुत बड़ी रकम है. अगर कुछ और इलाकों में देखें तो सिर्फ दो जिलों (पटना और भोजपुर) में समाज के लिए वार्षिक बीमारी की व्यापक लागत 26.6 करोड़ रुपये (लगभग 5 मिलियन डॉलर) आंकी गई है. ये वास्तविक और हर साल होने वाला नुकसान हैं, सिर्फ एक सांख्यिकी नहीं. जो पैसे, स्कूल की फीस या कृषि निवेश के लिए आवंटित किए जा सकते थे, उन्हें डॉक्टरों, दवाओं और एक स्वास्थ्य संकट का प्रबंधन करने में खर्च किया जा रहा है, जबकि कायदे से ये संकट होना ही नहीं नहीं चाहिए था. इन छिपी लागतों को ध्यान में रखे बिना, जल नीतियां कमज़ोर समुदायों द्वारा झेले जा रहे वास्तविक बोझ को कम करके आंका जा सकती हैं. आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो, आर्सेनिक प्रदूषण एक गरीबी के दुष्चक्र का भी प्रतिनिधित्व करता है.
इन चुनौतियों के बावजूद, लोग निष्क्रिय नहीं हैं. भुगतान करने के इच्छुक (डब्ल्यूटीपी) लोगों को लेकर बिहार में किए गए अध्ययन में, 84 प्रतिशत ने कहा कि वो सुधरी हुई जल गुणवत्ता के लिए भुगतान करने को तैयार हैं. प्रति परिवार ये औसत 240 रुपये सालाना था. वो परिवार तो और भी ज़्यादा भुगतान करने के लिए तैयार थे, जिन्होंने बीमारी का अनुभव किया या जागरूकता संदेश प्राप्त किए. महत्वपूर्ण बात ये है कि भुगतान करने की इच्छा सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है. ये दिखाती है कि लोग अपने बच्चों की रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें बीमारी के कलंक से बचना चाहते हैं, और पहले ही बोझ से जूझ रही सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों पर निर्भरता को कम करना चाहते हैं. कई समुदायों में, शुद्धता, गरिमा और स्वच्छता को काफ़ी अहमियत दी जाती है. इस तरह के सांस्कृतिक विचार भी स्वच्छ और सुरक्षित पानी की धारणाओं को जन्म देते हैं.
इसका मतलब है कि जागरूकता अभियानों को केवल तकनीकी तथ्यों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. उन्हें जनभावना, विश्वास और सामाजिक तंत्रों को संबोधित करना चाहिए. जिन सामाजिक कार्यक्रमों में आशा कार्यकर्ताओं, स्कूल के बच्चों या स्थानीय प्रभावशाली व्यक्तियों को शामिल किया जाता है, उन्हें अक्सर सफलता मिलती है. इसकी वजह ये है कि वो साझा मूल्यों को संबोधित करते हैं, सिर्फ व्यक्तिगत डर को नहीं.
भारत के जल जीवन मिशन का लक्ष्य हर ग्रामीण परिवार को सुरक्षित और पर्याप्त पाइपयुक्त जल प्रदान करना है. हालांकि, आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में इस मिशन का कार्यान्वयन अभी भी अधूरा है. ऐसे में इन इलाकों में आर्सेनिक हटाने की इकाइयां (एआरयू) एक अस्थायी समाधान का काम करती हैं. दुर्भाग्य से, इनमें से कई इकाइयां अच्छी तरह से काम नहीं करती या समय के साथ कार्य करना बंद कर देती हैं. पश्चिम बंगाल के गायघाट में किए गए एक अध्ययन में 12 भूजल आधारित एआरयू का मूल्यांकन किया गया. अध्ययन में पाया गया कि इन इकाइयों की आर्सेनिक हटाने की दक्षता 35 प्रतिशत से 83 प्रतिशत के बीच थी. पानी के उपचार के बाद भी, 16.7 प्रतिशत नमूने सुरक्षा मानकों पर खरे नहीं उतरे. चिंता की बात ये है कि आर्सेनिक के संपर्क से कैंसर का ख़तरा अब भी कई गांवों में बहुत ज़्यादा बना रहा.
इसके विपरीत, उसी क्षेत्र में एक स्थानीय गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) द्वारा संचालित सतही जल उपचार संयंत्र यानी सरफेस वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगातार सुरक्षित सीमाओं के भीतर जल प्रदान करता रहा. ये इसलिए संभव हुआ क्योंकि जल स्रोत में लोहे-आर्सेनिक का अनुपात बेहतर था और उसका नियमित रखरखाव किया गया. हालांकि, एआरयू के माध्यम से सुरक्षित जल मुहैया कराने की लागत का अनुमान 28.6 करोड़ रुपये था, जो इस प्रकार के निवेश की दीर्घकालिक स्थिरता के बारे में सवाल उठाता है.
भारत का आर्सेनिक संकट एक व्यापक क्षेत्रीय चुनौती का प्रतीक है. बांग्लादेश में, 3.5 करोड़ से ज़्यादा लोग आर्सेनिक के संपर्क में हैं. इसके बावजूद बांग्लादेश ने कम-लागत, सामुदायिक संचालित नीतियों के माध्यम से इस संकट का निपटने में महत्वपूर्ण प्रगति की है. इसके लिए रंग से चिह्नित ट्यूबवेल मैपिंग, स्थानीय ज़रूरत के हिसाब से ढलने वाले फिल्टर और व्यापक जन शिक्षा जैसे कार्यक्रम चलाए गए हैं. इन रणनीतियों ने कई ग्रामीण क्षेत्रों में आर्सेनिक के दुष्परिणाम को काफ़ी कम कर दिया है. वैश्विक स्तर पर, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) पेयजल में आर्सेनिक की सीमा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर रखने की सिफारिश करता है. हालांकि, भारत मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने भी देश में स्वीकार्य सीमा 10 एमजी/लीटर निर्धारित की है, लेकिन ये उन क्षेत्रों में 50 एमजी/लीटर तक की अनुमति देता है, जहां कोई वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध नहीं है. आर्सेनिक की सुरक्षित सीमा में ये लचीलापन ज़मीनी हकीकत को दर्शाता है. हालांकि, इसके साथ ही ये सुरक्षित पानी को सार्वभौमिक रूप से सुलभ बनाने के लिए दीर्घकालिक समाधानों की तत्काल ज़रूरत पर भी ज़ोर देता है.
आर्सेनिक का मुद्दा भूजल पानी के स्रोतों और सीमा पार जल प्रबंधन से भी जुड़ा हुआ है, खासकर गंगा नदी के आसपास के क्षेत्र में, जहां भूमिगत जल प्रणाली भारत, बांग्लादेश और नेपाल में फैली हुई है.
आर्सेनिक का मुद्दा भूजल पानी के स्रोतों और सीमा पार जल प्रबंधन से भी जुड़ा हुआ है, खासकर गंगा नदी के आसपास के क्षेत्र में, जहां भूमिगत जल प्रणाली भारत, बांग्लादेश और नेपाल में फैली हुई है. भारत क्षेत्रीय सहयोग से लाभ प्राप्त कर सकता है. तकनीक के आदान-प्रदान, संयुक्त देखरेख, और नागरिक नेतृत्व वाली निगरानी नवाचारों में सहयोग किया जा सकता है. इसके साथ ही उन नीतियों को अपना सकता है, जो पड़ोसी देशों में पहले से ही सकारात्मक परिणाम दे रहे हैं.
नीति निर्माता क्या कर सकते हैं?
स्रोत : लेखक का अपना अध्ययन
भारत ने जल जीवन मिशन जैसी पहल के ज़रिए ग्रामीण क्षेत्र तक स्वच्छ पीने का पानी पहुंचाने में काफ़ी प्रगति की है. हालांकि, पानी तक पहुंच को हमेशा स्वच्छ जल की आपूर्ति का आश्वासन नहीं समझना चाहिए. घरेलू नल से आने वाले पानी से लंबी अवधि के स्वास्थ्य ज़ोखिमों को लेकर स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है. ये कहा जा सकता है कि हमने अभी समस्या का स्थायी समाधान नहीं किया है, अभी सिर्फ इसकी पैकेजिंग को बदल दिया है.
आर्सेनिक प्रदूषण एक और गंभीर मुद्दे को उजागर करता है, और ये मुद्दा है बुनियादी ढांचे के निर्माण और जल सुरक्षा के बीच का असंतुलन. ये हमें याद दिलाता है कि जब तक जिम्मेदारी और समुदाय का विश्वास नहीं है, तब तक कोई भी प्रौद्योगिकी स्वास्थ्य परिणामों की गारंटी नहीं दे सकती. इसका प्रभाव अमूर्त नहीं है. ये स्पष्ट तौर पर दिखता है. दूषित जल का प्रभाव एक बच्चे के सामान्य विकास में रुकावट, एक परिवार के बार-बार इलाज पर होने वाले खर्च, और एक समुदाय हताशा में दिखता है. अगर हम सार्थक और स्थायी परिवर्तन चाहते हैं, तो हमें हार्डवेयर-केंद्रित नज़रिए की बजाए एक ऐसे दृष्टिकोण की ओर बढ़ना चाहिए जो सुरक्षा, पारदर्शिता और भागीदारी पर आधारित हो. हमें सिर्फ मात्राओं का हिसाब रखने के अलावा ये भी देखना होगा कि जो पानी पाइपलाइन के माध्यम से घरों तक पहुंच रहा है, वो कैसा है. इसमें उन लोगों की सुनवाई करना शामिल है, जो हर दिन उस पानी का उपयोग करते हैं. ये बात सिर्फ कुछ लक्ष्यों को हासिल करने के बारे में नहीं है. ये गरिमा को बहाल करने और गैरज़रूरी पीड़ा को रोकने को लेकर भी है. ये भी सुनिश्चित करना होगा कि हर नागरिक, चाहे वो कहीं भी रहता हो, उस पानी पर भरोसा कर सके, जिसे वो पीता है. एक सुरक्षित पानी का गिलास विशेषाधिकार नहीं होना चाहिए. ये एक न्यायपूर्ण और गरिमामयी समाज का मौलिक वादा होना चाहिए.
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Dr Barun Kumar Thakur is an Associate Professor in the Department of Economics at FLAME University, Pune, with expertise in environmental economics. ...
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