Author : Nilanjan Ghosh

Published on Sep 28, 2022 Updated 0 Hours ago

बांग्लादेश और भारत ने अनेक मुद्दों पर सहयोग में महारथ हासिल कर ली हैं, लेकिन दोनों के बीच जल का बंटवारा विवाद का विषय बना हुआ है.

भारत-बांग्लादेश जल संबंधी राजनीति: सुखद समझौते और विवादास्पद मुद्दे

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री एच.ई. शेख हसीना की पांच से आठ सितंबर 2022 के बीच संपन्न हुई भारत यात्रा को लेकर बांग्लादेश की मीडिया में इस बात को लेकर काफी सवाल उठाए गए और चिंता व्यक्त की गई कि आखिर बांग्लादेश को इस यात्रा से क्या हासिल हुआ है. इन दोनों देशों के बीच होने वाली किसी भी बैठक में जल हमेशा से ही अहम मुद्दा बना हुआ है. इसे लेकर आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि बांग्लादेश और भारत की सीमाओं पर दोनों देश 54 नदियां साझा करते हैं. चूंकि अधिकांश मुख्य प्रवाहों में भारत उच्च प्रवाह को नियंत्रित करता हैं, अत: इसे लेकर अनेक विवादास्पद मुद्दे जन्म लेते रहते हैं. जैसी की उम्मीद थी, ‘‘बांग्लादेश की प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के बाद जारी हुए भारत-बांग्लादेश संयुक्त बयान’’, में जल के मुद्दे को काफी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया.

जल का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि यह बांग्लादेश और भारत के बीच संबंधों को निर्धारित करने की क्षमता रखता है. इसके बावजूद संयुक्त बयान में दोनों देशों ने कुछ सुखद समझौतों को साझा किया. संयुक्त बयान, भारत और बांग्लादेश के संयुक्त नदी आयोग की 23-25 अगस्त 2022 के दौरान आयोजित 38वीं मंत्री स्तरीय बैठक के संदर्भ में एक समझौते को स्वीकार करता है. इसमें दोनों देशों के जल  मंत्रालयों के बीच कुशियारा नदी के जल बंटवारे को लेकर समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए गए थे. इस समझौते की वजह से ऐसी उम्मीद है कि जहां दक्षिण असम की जल परियोजनाओं की राह आसान होगी, वहीं  बांग्लादेश को भी इस समझौते से सिंचाई संबंधी काम करने में आसानी होगी.

सितंबर 2022 के बीच संपन्न हुई भारत यात्रा को लेकर बांग्लादेश की मीडिया में इस बात को लेकर काफी सवाल उठाए गए और चिंता व्यक्त की गई कि आखिर बांग्लादेश को इस यात्रा से क्या हासिल हुआ है. इन दोनों देशों के बीच होने वाली किसी भी बैठक में जल हमेशा से ही अहम मुद्दा बना हुआ है.

बांग्लादेश और भारत के बीच साझा की जाने वाली सीमा पार फेनी नदी पर नौ मार्च 2021 को इन दो तटवर्ती देशों के प्रधानमंत्रियों के हाथों “मैत्री सेतु” का उद्घाटन किया गया था. त्रिपुरा राज्य की सिंचाई जरूरतों की तात्कालिकता को देखते हुए, संयुक्त बयान में यह भी उल्लेख किया गया है कि भारत जल्द से जल्द अंतरिम फेनी जल-साझाकरण समझौते पर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराता है. बयान में यह भी कहा गया है कि पीने के उद्देश्यों के लिए फेनी नदी से 1.82 क्यूसेक पानी की निकासी पर दोनों देशों के बीच 2019 के समझौता ज्ञापन को लागू करने के लिए बुनियादी ढांचे के निर्माण में बांग्लादेश की भूमिका को भारत स्वीकार करता है.

जानकारी के आदान-प्रदान को प्राथमिकता देने और अंतरिम जल बंटवारे समझौतों की रूपरेखा तैयार करने के लिए कुछ अतिरिक्त नदियों को शामिल करके सहयोग के क्षेत्र का विस्तार करने पर संयुक्त नदी आयोग के निर्णय का भी संयुक्त बयान में प्रशंसनीय उल्लेख किया गया है. दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त बयान में 1996 के गंगा जल बंटवारा संधि के प्रावधानों के तहत बांग्लादेश द्वारा प्राप्त पानी के आदर्श उपयोग का अध्ययन करने के लिए एक संयुक्त तकनीकी समिति के गठन का भी स्वागत किया गया है.

गंगा जल बंटवारा संधि 1996 : समझौता समाप्त होने के बाद क्या होगा?

अब तक तो सब ठीक है. संयुक्त बयान में उल्लेखित सभी समझौते दोनों देशों के बीच जल संबंधों के मामले में दोनों के लिए लाभकारी दिखाई दे रहे हैं. लेकिन उपरोक्त समझौतों में भी कुछ ऐसे विवादास्पद मुद्दे शामिल हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. इस तरह के मुद्दों की गवाही तो इतिहास भी देता है. इसमें बांग्लादेश की सीमा पर 16.5 किलोमीटर के उच्च प्रवाह पर बने फरक्का बैराज का निर्माण शामिल है. बैराज के निर्माण का मूल उद्देश्य फीडर नहर के माध्यम से भागीरथी-हुगली चैनल (गंगा की एक वितरिका) के प्रवाह को बढ़ाकर तलछट को बाहर निकालकर कोलकाता बंदरगाह को पुनर्जीवित करना था. बैराज 1975 में चालू हो गया था. बहाव के साथ वाले यानी डाउनस्ट्रीम बांग्लादेश ने हमेशा यह तर्क दिया है कि यह मोड़ शुष्क मौसम में मुख्यधारा के प्रवाह को कम करके उनकी शुष्क मौसम में होने वाली कृषि को काफी नुकसान पहुंचाने वाला साबित होगा.

इसी जल संबंधी राजनीतिक गतिरोध से बचने के लिए 1996 में बांग्लादेश और भारत के बीच गंगा जल बंटवारा संधि (जीडब्ल्यूटी) पर हस्ताक्षर किए गए. इस संधि को सफल कहा जा सकता है, क्योंकि भारत ने संधि में किए गए वादे के अनुसार फरक्का बैराज से वर्ष के जनवरी-मई के दौरान प्रवाह की समय सारिणी का सख्ती से पालन किया. इस के विपरीत, हाल के आंकड़ों से यह पता चलता है कि बांग्लादेश को फरक्का बैराज से छोड़े गए पानी की तुलना में हार्डिंग ब्रिज पर 10-15 प्रतिशत अधिक पानी मिलता है. इसे और कुछ नहीं, बल्कि अच्छी बात ही कहा जा सकता है.

जीडब्ल्यूटी समझौते को लेकर चिंता का विषय कुछ और ही है. यह समझौता 2026 में समाप्त होने वाला है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इसके बाद क्या होगा? इसके बाद फरक्का बैराज  को कैसे देखा जाएगा? इसके जल का बंटवारा कैसे होगा?  इसके लिए हमें सबसे पहले, यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि फरक्का बैराज और जीडब्ल्यूटी दोनों एक रिडक्शनिस्ट यानी न्यूनीकरणवादी इंजीनियरिंग उदाहरण के प्रतीक हैं. इन दोनों ने दक्षिण एशिया के जल शासन में ‘‘अंकगणितिय जल विज्ञान’’ (पानी को केवल इसकी मात्रा के माध्यम से देखे हुए, प्रवाह शासन समेत अन्य सभी मापदंडों की अनदेखी करके) को गहराई से शामिल करने में अहम भूमिका अदा की है. जैसे गंगा जैसी हिमालयी नदी अपने पानी के साथ उच्च स्तर के तलछट ले जाती हैं. यह तलछट महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र कार्य अर्थात इकोसिस्टम सर्विसेस में मसलन मिट्टी का निर्माण और उसकी उर्वरकता को बढ़ाने में अहम भूमिका अदा करते हैं. गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना (जीबीएम) डेल्टा का निर्माण नदियों द्वारा लाए गए तलछट से ही होता है. यह एक ऐसी बात है, जिसके बारे में समझौते में कोई उल्लेख दिखाई नहीं देता.

जीडब्ल्यूटी समझौते को लेकर चिंता का विषय कुछ और ही है. यह समझौता 2026 में समाप्त होने वाला है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इसके बाद क्या होगा? इसके बाद फरक्का बैराज  को कैसे देखा जाएगा? इसके जल का बंटवारा कैसे होगा?

गंगा के तलछट के बड़े घटक फरक्का बैराज के ऊपरी प्रवाह की ओर फंस रहे हैं और इन्हें कथित रूप से डेल्टा के मिट्टी के निर्माण को बाधित करने वाला बताया जा रहा है. दूसरी ओर, डेल्टा के सुंदरबन वाले भारतीय इलाके में समुद्र के स्तर में वृद्धि और लवणता का प्रवेश हो रहा है. इसके परिणामस्वरूप समकालीन भूमि पुनर्जीवन नहीं हो पा रहा है, जिसकी वजह से भूमि का नुकसान होता है. पहले तलछट की वजह से इस इलाके में समकालीन भूमि पुनर्जीवन होता था. इसी प्रकार फरक्का बैराज के उच्च प्रवाह वाले क्षेत्र में तलछट के जमाव के कारण बैकवॉटर के प्रभाव से बिहार में बाढ़ की स्थिति भी गंभीर होने की बात कही जा रही है. ऐसा तब होता है जब बिहार की कोसी नदी से निकलने वाला ऊंचा बहाव गंगा के मुख्य प्रवाह में समाहित होता है. इन दोनों नदियों के जल को वहां मौजूद तलछट की वजह से आगे बढ़ने का रास्ता नहीं मिल पाता है. इसलिए, प्रस्तावित संयुक्त तकनीकी समिति (विवरण में उल्लेखित) के अध्ययन के दायरे को केवल जल आवंटन तक सीमित किए बिना तलछट और डेल्टा की चिंता को भी अपने अध्ययन में अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहिए. जब हम 2026 की स्थिति का विचार करते हैं, तो हमें तलछट की चिंता पर गौर करना ही चाहिए.

तीस्ता की उलझन

दोनों देशों के बीच विवाद का एक और मुद्दा तीस्ता नदी है. यह इस बात से ही साफ हो जाता है कि संयुक्त बयान में यह कहा गया है कि, ‘‘प्रधानमंत्री शेख हसीना ने 2011 में तय किए गए तीस्ता नदी समझौते के मसौदे के अनुसार जल बंटवारे को लेकर अंतरिम समझौता का समापन करने की बांग्लादेश की लंबित मांग को पुन: दोहराया है.’’ इस मामले में भी समस्या वहीं है जो गंगा जल बंटवारे के वक्त मौजूद थी : वर्ष के जनवरी से मई तक के शुष्क मौसम में होने वाला जल प्रवाह. वर्ष के इन्ही महीनों में बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल दोनों में ही बोरो धान की फसल बोई जाती है. 2011 में हुआ बांग्लादेश-भारत तीस्ता जल बंटवारा समझौता, पश्चिम बंगाल की आपत्तियों की वजह से ही लागू नहीं किया जा सका है.

जहां बांग्लादेश यह शिकायत करता है कि अपस्ट्रीम से कम प्रवाह उनकी कृषि को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है, वहीं दूसरी ओर पश्चिम बंगाल की ओर से यह कहा जाना संदिग्ध है कि शुष्क मौसम में तीस्ता की जल उत्पादकता में गिरावट आई है. हालांकि, पश्चिम बंगाल में पीने के पानी और धान की सिंचित खेती की जरूरतों को पूरा करने के लिए गजलडोबा (उत्तरी पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में) से तीस्ता-महानंदा लिंक नहर के डायवर्सन चैनल के माध्यम से पानी के उपयोग में वृद्धि को कोई भी देख सकता है. बेशक, ऐतिहासिक रूप से दोनों देशों में मूल्य निर्धारण व्यवस्था (भारत में एमएसपी व्यवस्था सहित) सिंचित धान (जो बाजरा की तुलना में 8-10 गुना अधिक पानी की खपत करता है) के पक्ष में व्यापार की शर्तों और रकबे को स्थानांतरित करने के लिए जिम्मेदार है. इस प्रक्रिया को जल संसाधन विकास परियोजनाओं से और सुगम बनाया गया है, जिससे शुष्क मौसम में पानी की मांग कई गुना बढ़ गई है.

यदि तीस्ता के विवादास्पद मुद्दे का हल निकालना है तो पश्चिम बंगाल को भरोसे में लेकर ही बातचीत की टेबल पर पहुंचना बेहद अनिवार्य है. चूंकि तीस्ता भी एक अंतर-राज्य नदी है.

लेकिन इस समस्या के एक और स्तर की लगातार उपेक्षा की जाती है. तीस्ता पर 30 परिचालित, गैर परिचालित और प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाएं स्थित है. इसमें से लगभग 80 प्रतिशत सिक्किम में हैं. भले ही इन परियोजनाओं के ‘‘रन ऑफ रिवर’’ होने का दावा किया जा रहा हो, लेकिन यह सभी (छोटे छोटे अंतराल पर स्थापित) परियोजनाएं, अपस्ट्रीम स्टोरेज प्रणाली (मेकैनिज्म) वाली हैं, जहां कम बारिश के दिनों में जल संचित कर रखा जाता है. फिर इसे टर्बाइन में छोड़कर बिजली पैदा की जाती है. इस कारण प्रवाह व्यवस्था बाधित होती है और डाउनस्ट्रीम का प्रवाह सूख जाता है. इससे नदी टूकड़ों में बंट जाती है, जिसकी वजह से तलछट भी अटक जाते हैं. इस वजह से नदी के समान प्रवाह को बाधा पहुंचती है और यह मत्स्य पालन तथा जैव विविधता को नुकसान पहुंचाने वाला साबित होता है.

बातचीत का सेमी-पॉलीसेंट्रिक रवैया 

भारतीय संविधान में जल राज्य का विषय है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत का संघीय ढांचा बांग्लादेश-भारत के बीच जल संबंधी राजनीतिक संबंधों का सबसे अहम निर्धारक है. यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि गंगा जल संधि के दौरान पश्चिम बंगाल ने जहां इसे मंजूरी दिलवाने में अहम भूमिका अदा की थी, वहीं अब तीस्ता के मामले में उसका रवैया इसके ठीक विपरीत है. यदि तीस्ता के विवादास्पद मुद्दे का हल निकालना है तो पश्चिम बंगाल को भरोसे में लेकर ही बातचीत की टेबल पर पहुंचना बेहद अनिवार्य है. चूंकि तीस्ता भी एक अंतर-राज्य नदी है, अत: नई दिल्ली और ढाका के बीच होने वाली बातचीत में पश्चिम बंगाल को शामिल भर कर लेने से समस्या का हल नहीं निकलेगा. सिक्किम से उपजने वाली समस्या को देखते हुए उसे भी इस बातचीत की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. ऐसा होने पर ही यह एक सेमी-पॉलीसेंट्रिक दृष्टिकोण (पूरी तरह से पॉलीसेंट्रिक नहीं, जो अर्ध-स्वायत्त इकाइयों के कई केंद्रों के साथ बातचीत के जटिल रूप की बात करता है) समाधान प्रक्रिया में आ सकता है. जब विभिन्न खिलाड़ी मांग प्रबंधन की प्रक्रिया का विकल्प चुनते हैं, तब केंद्र और राज्य के अलग-अलग विचारों के साथ ‘संघर्षपूर्ण संघवाद’ के वर्तमान संतुलन को दरिकनार किया जा सकता है. अत: 2011 का तीस्ता समझौता (जिसका संयुक्त बयान में उल्लेख किया गया है) फिलहाल तो अस्थिर लग रहा है. लेकिन बातचीत का सेमी-पॉलीसेंट्रिक रवैया अपनाकर इस पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है.

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