Author : Sunjoy Joshi

Published on Nov 27, 2021 Updated 0 Hours ago

किसी भी प्रजातांत्रिक देश में ऑर्डिनेंस द्वारा शासन किसी भी सरकार के लिये सही रास्ता नहीं है. क्या ऐसा संसद को शॉर्ट सर्किट करने के लिए किया गया?

कृषि “सुधार” किस मोड़ पर?

Image Source: Sanchit Khanna — Hindustan Times via Getty

(ये लेख ओआरएफ़ के वीडियो मैगज़ीन इंडियाज़ वर्ल्ड के एपिसोड –‘कृषि “सुधार” किस मोड़ पर?’, में चेयरमेन संजय जोशी और नग़मा सह़र के बीच हुई बातचीत पर आधारित है.)


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर 2021 को गुरु पर्व के दिन सरकार द्वारा गत वर्ष पारित किए तीनों कृषि कानूनों (Farm Laws) को वापिस ले ने की घोषणा की. घोषणा तो हो गयी लेकिन किसान अब भी अपना धरना-प्रदर्शन वापस लेने का नाम नहीं ले रहे है. किसान अब प्रधानमंत्री के ऐलान पर संसद की मुहर लगने तक नहीं हटेंगे. साथ ही MSP यानि की न्यूनतम सरकारी मूल्य पर फसल की खरीदी को लेकर सरकार से गारंटी की मांग रखी है. विश्लेषकों का मानना है कि हमारे देश में कृषि सुधार (agriculture reforms) की दरकार बहुत ज़्यादा है इसलिए सुधारों को वापस लेना देश हित में नहीं. लेकिन कईयों का मानना है कि अंततः इस मुद्दे पर किसानों कि जीत हुई है – आख़िर सच्चाई क्या है और ये कानून फेल क्यों हुआ?

 विश्लेषकों का मानना है कि हमारे देश में कृषि सुधार की दरकार बहुत ज़्यादा है इसलिए सुधारों को वापस लेना देश हित में नहीं. लेकिन कईयों का मानना है कि अंततः इस मुद्दे पर किसानों कि जीत हुई है – आख़िर सच्चाई क्या है और ये कानून फेल क्यों हुआ?

सच्चाई कभी दो छोर में से एक पर स्थित नहीं होती है, सच्चाई तो वह धुरी है जो दो छोरों को पाटती है. सब पक्ष, यहाँ तक कि किसान भी,  सहमत हैं कि कृषि में सुधार अत्यावश्यक हैं – लेकिन सुधार के आकार पर सब में परस्पर मतभेद है. धरने पर बैठे किसान तो मान बैठे हैं कि उन्हें MSP भर मिल जाए, कृषि सुधार पूर्ण हो जाएंगे.  

गलती अगर हुई तो इन क़ानूनों को लागू करने कि प्रक्रिया में, ऐसी कौन सी आपात स्थिति थी की 5 जून 2020 को, जब देश कोविड से जूझ रहा था, यकायक तीन अध्यादेश लाये गये. ऐसे अध्यादेश जो आज तक अमल नहीं हो पाये हैं! 

किसी भी प्रजातांत्रिक देश में ऑर्डिनेंस द्वारा शासन किसी भी सरकार के लिये सही रास्ता नहीं है. क्या ऐसा संसद को शॉर्ट सर्किट करने के लिए किया गया? 14 सितंबर 2020 को इस अध्यादेश को संसद में पेश किया गया. फिर तीन दिन के भीतर लोकसभा और तीन दिन में राज्यसभा, दोनों में बिना बहस के इसे पारित कर दिया गया. विपक्ष वॉकआउट करता रहा, और जो परीक्षण प्रक्रिया अनुसार सेलेक्ट कमिटी में सम्पन्न होता, जो बहस संसद में होती, दोनों नदारद थे. सेलेक्ट कमिटी क़ानूनों के हर पहलू पर विचार-विमर्श करती है, बाहर के लोगों से भी राय – मशविरा लेती है – वो सब कुछ नहीं हुआ. नतीजा यह हुआ की जो बातचीत या डिबेट संसद के भीतर और सेलेक्ट कमिटी के भीतर होनी चाहिये थी, वो अब सड़कों पर उतर आई. धरना-प्रदर्शन का दौर शुरू हो गया और शुरू हो गया सोशल मीडिया (ट्विटर) पर घमासान. जिस व्यक्ति को लट्ठ उठाना नहीं आता वो लगे ट्विटर पर हैशटैग उठा लट्ठ चलाने. दोनों पक्षों में कोई भी पीछे नहीं था. पर क्योंकि पहल सरकार ने की इसलिये इसमें ज़्यादा गलती implementation के मामले में सरकार की तरफ़ से ही मानी जाएगी.   

भारत में हज़ारों कानून हैं, अकेले महाराष्ट्र जैसे राज्य में हज़ार कानून हैं, लेकिन कितने कारगर हैं ये कानून समस्याओं का समाधान कराने में? जिस प्रकार की प्रक्रिया अपनाई गयी उससे लोगों को सरकार की नीयत पर शक हुआ कि आख़िर सरकार क्या चाहती है? 

सिर्फ़ कानून लाने से सुधार नहीं होता है. कानून कोई जादुई छड़ी नहीं की घुमा दी और सुधार हो गया. भारत में हज़ारों कानून हैं, अकेले महाराष्ट्र जैसे राज्य में हज़ार कानून हैं, लेकिन कितने कारगर हैं ये कानून समस्याओं का समाधान कराने में? जिस प्रकार की प्रक्रिया अपनाई गयी उससे लोगों को सरकार की नीयत पर शक हुआ कि आख़िर सरकार क्या चाहती है? आख़िर सुधारों का क्रियान्वयन कैसे होगा. रातों-रात न तो वेयरहाउस खड़े हो सकते हैं और नही एफसीआई को हटाया जा सकता है. इस परिवर्तन के दौरान  Procurement भी चालू रहना आवश्यक था और साथ ही किसानों को यह दिलासा और विश्वास कि उनका हित सर्वोपरि रहेगा. इसी विश्वास कि कमी के चलते किसानों को शक हुआ सरकार की नीयत पर और उसके उद्देश्यों को शक की निगाह से देखा जाना लगा.

कृषि सुधार के लिए आवश्यक है की तमाम stakeholders से, किसानों से वार्तालाप हो और सरकार और किसान अपना पक्ष रखें और एक दूसरे को समझाएँ. समस्या तब उत्पन्न होती है जब नॉर्थ ब्लॉक के गलियारों में बैठे लोग मान लें की देश का किसान जाहिल है और अपना अच्छा बुरा समझने की क्षमता नहीं रखता. सरकार पक्ष की यही मानसिकता के कारण जो कुछ रहा-सहा सुधार इन कानूनो के ज़रिये करने की “कोशिश की” गई थी वह भी विफल हुआ, “कोशिश” शब्द इसलिए क्योंकि कोशिश की सफलता अथवा विफलता निर्भर करती भविष्य में बनने वाले इंफ्रास्ट्रक्चर पर. कानून मात्र पारित कर देने से इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा नहीं होता, और न ही प्राइवेट सेक्टर रातों-रात इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर पाता. अब दुर्भाग्य यह है कि कृषि सुधार पर पूरी बहस पटरी से उतरी नजर आ रही है. आगामी चुनाव में एमएसपी पर गारंटी जैसी लोकलुभावन मांगों में वृद्धि के चलते यह और भी पटरी से उतर जाएगी. 

अब तक वर्तमान सरकार के जो भी दोष हो, आर्थिक लोकलुभावन (economic populism) उनमें से एक कतई नहीं था. आर्थिक सुधारों के मामले में अब तक सरकार ने कई कदम उठाए हैं. सच है कई में सोचा कुछ और हुआ कुछ और, पर किसी में भी लोकलुभावन बनने का उद्देश्य नहीं रहा. 

अब दुर्भाग्य यह है कि कृषि सुधार पर पूरी बहस पटरी से उतरी नजर आ रही है. आगामी चुनाव में एमएसपी पर गारंटी जैसी लोकलुभावन मांगों में वृद्धि के चलते यह और भी पटरी से उतर जाएगी. 

पर परिवर्तन एक प्रक्रिया है जिसका समग्र प्रबंधन किया जाना ज़रूरी है. यहाँ परिवर्तन के प्रबंधन पर ज़ोर नहीं, सिर्फ़ कायदे-कानून पर ज़ोर दिया गया. इन्हीं कारणों से इस कानून को वापस लेना पड़ा है. 

कृषि सुधार कानून तो वापस हुए पर क्या सरकार MSP का भार उठा सकती है? 

MSP का मुद्दा पूरी तरह राजनैतिक बन चुका है और चुनाव तक खूब ज़ोर शोर से इस मुद्दे को उठाया भी जाएगा.  फसलों के न्यूनतम मूल्य MSP घोषित तो ज़रूर होते हैं पर बहुत ही सीमित क्षेत्रों में कुछ ही फसलों पर वास्तव में लागू हो पाते हैं. न्यूनतम मूल्य पर खरीद का ज़िम्मा एफसीआई (FCI) का रहता है. और अब तक इस पद्धति में कई सारी खामियां देखी गयी हैं .

अभी भी जो सीमित मात्रा में क्षेत्र विशेष से procurement हो रहा हैं, उसे ठीक से बाज़ार में उतार नहीं पाते हैं. नतीजन बहुत बड़ी मात्रा में ये अनाज एफसीसीआई के गोदामों में सड़कर बर्बाद हो जाता है, उसका उपयोग ही नहीं हो पाता है और इसका खर्च वहन करना ही केंद्र सरकार के लिये मुश्किल होता जा रहा है. वास्तव में चूंकि procurement एक केंद्रीकृत प्रक्रिया है, और प्रतीत होता है की कृषि कानून का एक प्रमुख उद्देश्य था केंद्र सरकार को procurement के इस जंजाल से निकाल प्रक्रिया को बाज़ार व्यवस्था, या डिमांड और सप्लाई से जोड़ना. वास्तव में चुनावी मुद्दा कुछ भी बने, किसी भी राजनैतिक दल के लिये सरकार में रहकर MSP का गारंटी देना संभव नहीं है. तब हमारा मानना है की MSP का मुद्दा ही इस पूरे डिबेट को डी-रेल कर रहा है.

MSP की खामियों के चलते भारतीय कृषि का स्वरूप हरित क्रांति के बाद लगातार अस्त-व्यस्त हो गया है. वे चुनिंदा फसल जिन पर जिस इलाके में MSP उपलब्ध होता है, मसलन गेहुं और गन्ना, वहाँ समस्त कृषि क्षेत्र बाकी फसल छोड़ इन्हीं फसलों कि दौड़ में लग जाते हैं. बड़े बड़े फसली क्षेत्र और उर्वर भूमि सीमित फसलों के उतपादन में परिवर्तित होती जा रही है जिसके दुष्परिणाम साफ़ झलक रहे हैं. परिणाम है भारत की कृषि बायो-डायवर्सिटी का हनन. 

 MSP की खामियों के चलते भारतीय कृषि का स्वरूप हरित क्रांति के बाद लगातार अस्त-व्यस्त हो गया है. वे चुनिंदा फसल जिन पर जिस इलाके में MSP उपलब्ध होता है, मसलन गेहुं और गन्ना, वहाँ समस्त कृषि क्षेत्र बाकी फसल छोड़ इन्हीं फसलों कि दौड़ में लग जाते हैं. 

सरकार इसका भार वहन कर सकती है या नहीं, इस से बड़ा मुद्दा हो जाता है – MSP का भारतीय कृषि पर प्रभाव होगा! यदि   हम फसल खरीद की समस्त प्रणाली को मांग और आपूर्ति से हटाकर एक सरकारी खरीद की पद्धति खड़ी कर दें तो तो लाज़मी है कि सरकार जिस फसल पर ज़्यादा कीमत दे उसी फसल की ओर सारे किसान आकर्षित होंगे जोकि भारतीय कृषि के भविष्य के लिए घातक है.  

हम बार-बार अपनी सांस्कृतिक धरोहर की दुहाई देते हैं पर हम यह क्यों भूल जाते हैं की हमारी कृषि धरोहर तो उससे भी ज्यादा, 6-7 हज़ार वर्ष, पुरानी है. जो फसलें आज भी हमारे किसान उगाते हैं, जो अनाज हम खाते हैं, वो किसी मॉनसान्टो या अन्य कंपनी की प्रयोगशाला में नहीं ईजाद हुई. इनका ईजाद हमारे किसानों की कई हज़ार वर्षों की मेहनत का परिणाम है. दरअसल, उन्हीं की मेहनत और सोच के फलस्वरूप, भारत दुनिया भर में क्रॉप बायोडायवर्सिटी वाले क्षेत्रों में एक प्रमुख क्षेत्र है. अतः आवश्यक है की किसी भी कृषि सुधार के दौरान हमें इस बायोडायवर्सिटी को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए. मुद्दा वास्तव में सिर्फ़ सघन (intensive), या विस्तृत (extensive), या फिर पैनी (precision) खेती की तकनीकों का नहीं है. आवश्यक है की हमारी खेती के प्रकार व्यापक और वैविध्यपूर्ण हो. हमारे देश की बायोडायवर्सिटी की सुरक्षा और उसका संरक्षण कृषि सुधार का एक प्रमुख उद्देश्य होना चाहिये.

भारत में करीब एक सौ साठ भिन्न भिन्न फसलों की प्रजातियां हैं, और उससे दोगुनी संख्या में उनकी जंगली प्रजातियां हैं. अगर हम धान की बात करें तो उसकी हीं करीब 50 हज़ार प्रकार हमारे देश में हैं, जिनमें से कुछ सुरक्षित हैं, कुछ असुरक्षित और विलुप्त होने की कगार पर. जैसे इंसान कोविड की मार से आज त्रस्त है, उसी तरह फसलों पर भी ऐसी बीमारियां आती हैं. इन खतरों से यदि कुछ हमारी रक्षा कर सकता है तो व है यही जेनेटिक बायो-डायवर्सिटी. इसलिये बचाकर रखना है उसे सुरक्षित रखना हमारी अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए अनिवार्य है. साथ ही साथ हमें उन तकनीकों को सुरक्षित रखना है जिसे हमारी परंपरागत कृषि पद्धतियों ने हजारों वर्षों में विकसित किया है. कैसे किसान प्रेरित हो सकें कि वे भी इन तकनीकों को सुरक्षित रखने के लिये तैयार हों. ये सभी चीज़ें कृषि सुधार और सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के लिये बेहद ज़रूरी हैं. 

जैसे इंसान कोविड की मार से आज त्रस्त है , उसी तरह फसलों पर भी ऐसी बीमारियां आती हैं. इन खतरों से यदि कुछ हमारी रक्षा कर सकता है तो व है यही जेनेटिक बायो-डायवर्सिटी. इसलिये बचाकर रखना है उसे सुरक्षित रखना हमारी अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए अनिवार्य है. 

अंततः भारत एक विशाल देश है, यहां कई अलग-अलग एग्रो-क्लाईमेटिक ज़ोन हैं, प्रत्येक राज्य के भीतर ही कई प्रकार के भिन्न एग्रो-क्लाईमेटिक ज़ोन हैं. इन की विविधता को देखते हुए एक केंद्रीय नीति के अंतर्गत इनका संचालन नहीं किया जा सकता. इसीलिए कृषि को संविधान के अंतर्गत एक स्टेट सब्जेक्ट का दर्जा प्राप्त है. ऐसे में अध्यादेश का हथोड़ा चला रातों- रात कृषि को परिवर्तित करने की सोच ही त्रुटि-पूर्ण है. 

हम चाहे किसी भी तरह की कृषि पद्धति अपनाएं, चाहे एक्सटेंसिव,या इंटेसिव एग्रिकल्चर,या फिर टेक्नोलॉजी पर आधारित प्रिसिज़न एग्रीकल्चर –  घूम फिर कर बात कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर पर आकर अटक जाती है. क्या हमारी सिंचाई पद्धति इनके अनुरूप है, क्या हमारी उर्वरक उपलब्ध करा पाने की क्षमता इतनी कारगर है? यदि इन समस्त परिवर्तन के लिए हमारी बुनियादी व्यवस्था मजबूत नहीं है तो सिर्फ़ कानून लाकर परिवर्तन संभव नहीं. 

भारत में कृषि क़ानूनों का भविष्य क्या है? हम कैसे इस प्रक्रिया को बेहतर कर सकते हैं?     

कानून कोई जादू की छड़ी नहीं हैं. कानून का कुछ भी मसौदा हो उसमें कमियाँ रहेंगी और ये कमियाँ सभी पक्षों के आपसी विचार विमर्श के बिना दूर नहीं हो सकती. इन तीन क़ानूनों में भी कमियाँ थीं, प्रक्रिया गलत थी और परिणाम भी नहीं मिला. 

क्या इनको लाने का वक्त भी अनुकूल था? ख्य़ाल रहे इनको कोविड महामारी के बीचों – बीच लाया गया. इस समय वैसे ही समस्त अर्थ व्यवस्था की हालत डांवाडोल थी. और यदि आंकड़े देखें तो पायेंगे कि 2018-19, 2019-20, 2020-21 के दौरान जब भारत पर कोविड का साया था, उस वक्त कृषि अकेला ऐसा क्षेत्र था जिसने आर्थिक रूप से भारत को कोविड से उबारा, साल 2018-19 में कृषि का जीडीपी में भाग 17.6% था, 2019-20 में कोविड काल में यह बढ़कर 18.4% पहुंचा और 2020-21 में तो यह 20% पार कर गया. पिछले कई वर्षों से लगातार कृषि का देश की अर्थव्यवस्था में महत्व कम होता जा रहा था. किसी जमाने में कृषि हमारी अर्थ व्यवस्था में 50% का योगदान देता था. अब कई बरसों बाद पहली बार कोविड के दौरान कृषि ने फिर से बाज़ी पलटी है. ऐसे संकट काल में काहे मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना? 

पिछले कई वर्षों से लगातार कृषि का देश की अर्थव्यवस्था में महत्व कम होता जा रहा था. किसी जमाने में कृषि हमारी अर्थ व्यवस्था में 50% का योगदान देता था. अब कई बरसों बाद पहली बार कोविड के दौरान कृषि ने फिर से बाज़ी पलटी है. ऐसे संकट काल में काहे मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना? 

कृषि सुधार के लिए वक्त़ आयेगा. पहले कोविड से उबर लीजिये. पर जब भी सुधार की बात हो, सुधार के विभिन्न पहलुओं पर वार्तालाप ज़रूरी है. और सुधार ऐसा हो जो भारतीय कृषि की भिन्नता को पहचाने, उसे प्रोत्साहित करे और संरक्षित करे. ऐसा राज्यों को साथ लेकर, राज्य से भी निचले स्तर पर जाकर एक विकेंद्रीकृत कृषि प्रणाली के तहत ही संभव होगा.  

इसमें कई पहलू शामिल हो सकते हैं, जिसमें पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप का भी योगदान हो सकता है, और प्राइवेट पार्टनरशिप का भी अपना स्थान है. मुद्दा extensive, intensive या precision एग्रीकल्चर मात्र का नहीं है. मुद्दा है की कैसे वे लोग जिनका जीवन कृषि पर निर्भर है, जिनकी जीविका इस पर आधारित है, कैसे उनकी आजीविका के साधनों में सुधार हो,

उसके लिए सबसे पहले हमें ये स्वीकार करना होगा की कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी कमियां है जिन से हम मुंह नहीं मोड़ सकते. सिर्फ़ कोल्ड स्टोरेज या वेयर-हाउस बनाने की बात नहीं है, हमारे यहां पिछले कई वर्षों से सिंचाई में निवेश ही नहीं किया गया है, नए साधनों में निवेश की बात छोड़िए, मौजूदा साधनों के रख-रखाव के लिये भी पैसे उपलब्ध नहीं है. यही कारण जिन स्थानों में सिंचाई साधन उपलब्ध है वहाँ भी ट्यूबवेल में भारी इनवेस्टमेंट किया जाता है, जिससे ग्राउंड वॉटर का स्तर लगातार गिर रहा है और मिट्टी दूषित होती जा रही है. इन सभी चीज़ों के मद्देनजर जब तक हम समग्र रूप से कृषिसुधार के बारे में नहीं सोचेंगे तब सिर्फ़ ये कह देने भर से कि तीन कानून भारत के एग्रीकल्चर में आमूल-चूल परिवर्तन ला देंगे, गलत होगा.     

हमारे किसानों को समृद्ध और सशक्त बनाने के लिये ये ज़रूरी है कि हम अपनी कृषि के संबंध में लिए जाने वाले निर्णयों को विकेंद्रीकृत करें. 

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