तीन दशकों तक दक्षिणपंथी और वामपंथी- दोनों सरकारों के द्वारा अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने की नाकाम कोशिश के बाद 2023 का चुनाव राजनीतिक तौर पर एक बाहरी हस्ती के लिए एक सही मौका था. इस साल 138 प्रतिशत की चौंका देने वाली मुद्रास्फीति के साथ सत्ता विरोधी उम्मीदवार की कामयाबी के लिए ये सही समय लग रहा था. उग्र ‘अराजक-पूंजीवादी’ और उदारवादी अर्थशास्त्री जेवियर माइली ने ख़ुद को सत्ता विरोधी उम्मीदवार के तौर पर पेश किया और सुर्खियां हासिल की. माइली की कहानी लुभावनी थी और उनके विवादित विचारों- देश के केंद्रीय बैंक को बंद करना, देश की मुद्रा के रूप में डॉलर की शुरुआत करना और मानव अंगों की बिक्री की अनुमति देना- ने हलचल मचा दी. स्वाभाविक तौर पर ज़्यादातर विश्लेषकों ने माना कि मीडिया में माइली की तेज़ी से बढ़ती लोकप्रियता का चुनाव में उनके प्रदर्शन से सीधा संबंध होगा. फिर भी चुनाव के दिन अर्जेंटीना के लोगों ने एहतियात बरतने का फैसला लिया और मौजूदा आर्थिक मंत्री सर्जियो मस्सा को सबसे ज़्यादा 36.6 प्रतिशत वोट मिले. 29.9 प्रतिशत वोट के साथ माइली दूसरे नंबर पर रहे जबकि मध्यवर्ती-दक्षिणपंथी उम्मीदवार पैट्रिशिया बुलरिच को 23.8 प्रतिशत वोट मिले. इस तरह मस्सा और माइली ने 19 नवंबर को होने वाले दूसरे दौर के चुनाव के लिए क्वालिफाई किया.
स्वाभाविक तौर पर ज़्यादातर विश्लेषकों ने माना कि मीडिया में माइली की तेज़ी से बढ़ती लोकप्रियता का चुनाव में उनके प्रदर्शन से सीधा संबंध होगा. फिर भी चुनाव के दिन अर्जेंटीना के लोगों ने एहतियात बरतने का फैसला लिया और मौजूदा आर्थिक मंत्री सर्जियो मस्सा को सबसे ज़्यादा 36.6 प्रतिशत वोट मिले.
ये हैरान करने वाला घटनाक्रम दो महत्वपूर्ण सवाल खड़े करता है: पहला, मौजूदा आर्थिक मंत्री जिसके कार्यकाल के दौरान देश की अर्थव्यवस्था में गिरावट आई, उसे इतना ज़्यादा वोट क्यों हासिल हुआ? दूसरा, अब बुलरिच के वोटर किसी चुनेंगे, उदारवादी मस्सा या उग्र माइली?
पहले सवाल का जवाब देने के लिए हमें अर्जेंटीना के अतीत पर नज़र डालना चाहिए. इस दक्षिण अमेरिकी देश ने पूरे इतिहास के दौरान काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं. 1900 के दशक की शुरुआत में अर्जेंटीना दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था और वो यूरोप के लोगों के लिए माइग्रेट (प्रवास) करने के हिसाब से पसंदीदा देश बन गया. अर्जेंटीना की आर्थिक किस्मत 50 के दशक के बाद फीकी पड़ने लगी. शीत युद्ध के दौरान अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई और 1989 में हाइपरइन्फ्लेशन (बेलगाम मुद्रास्फीति) 5,000 प्रतिशत के अकल्पनीय स्तर पर पहुंच गया. स्वाभाविक रूप से ज़्यादातर विश्लेषक अर्जेंटीना के आर्थिक संकट के लिए इसके राजनेताओं को ज़िम्मेदार ठहराते हैं जिनके पास मुश्किल समय में अर्थव्यवस्था की रक्षा और इसे आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी होती है. पिछली आधी सदी के दौरान सेना के जनरलों और दक्षिणपंथी एवं वामपंथी सरकारों ने अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था का बंटाधार किया है. इस चुनाव में ज़्यादातर मतदाताओं के लिए जवाब सीधा था: हां, अर्थव्यवस्था बिगड़ रही है लेकिन हमें ये मालूम है कि ये और भी ज़्यादा ख़राब हो सकती है. इन मतदाताओं ने उस व्यक्ति पर अपना भरोसा जताया जिसे वो जानते हैं. वो माइली पर दांव लगाकर अंजान रास्ते की तरफ नहीं बढ़ना चाहते हैं. इसके अलावा, मस्सा को सरकारी मशीनरी का भी फायदा हुआ और उन्होंने चुनाव से पहले सरकारी खर्च में भी बढ़ोतरी की. मस्सा ने पिछले महीने सफलतापूर्वक ख़ुद को उग्र माइली के मुकाबले एक ‘सुरक्षित’ पसंद के रूप में पेश किया.
जो भी चुनाव जीते लेकिन अर्जेंटीना के अगले राष्ट्रपति को मौजूदा समय में दुनिया के किसी भी दूसरे देश की तुलना में राजनीति की सबसे मुश्किल ज़िम्मेदारी विरासत में मिलेगी. अर्जेंटीना की आर्थिक परेशानी की जड़ें आधी सदी से भी ज़्यादा पुरानी हैं.
दूसरे सवाल का जवाब देना ज़्यादा मुश्किल है. एक आसान राजनीतिक परिदृश्य में बुलरिच और माइली- दोनों दक्षिणपंथी हैं जबकि मस्सा वामपंथी हैं लेकिन यहां बारीकियां महत्वपूर्ण हैं: माइली को ज़्यादा सटीक ढंग से अति-दक्षिणपंथी कहा जा सकता है और बुलरिच को या तो मध्यवर्ती-दक्षिणपंथी या दक्षिणपंथी कहा जा सकता है जबकि मस्सा मज़बूती से या तो वामपंथी या ज़्यादा-से-ज़्यादा मध्यवर्ती-वामपंथी हैं. बुलरिच के कुछ वोटर, जो वामपंथ की तरफ नहीं जाना चाहते हैं, माइली को विचारधारा के मामले में स्वाभाविक विकल्प के तौर पर देख सकते हैं. हालांकि बुलरिच के बाकी वोटर, जो मस्सा की विचारधारा के करीब हैं, मस्सा को एक अधिक उदारवादी विकल्प के तौर पर देख सकते हैं. ये वोटर अधिक उग्र विकल्प से बचना चाहते हैं. वोटिंग के कुछ दिनों के बाद बुलरिच ने सार्वजनिक रूप से अपना समर्थन माइली को दिया. फिर भी निर्णायक फैक्टर केवल ये हो सकता है कि माइली या मस्सा में से कौन बाकी चुनाव प्रचार के दौरान ज़्यादा उदारवादी बन पाता है. जो भी उम्मीदवार ऐसा करेगा, बुलरिच के मतदाताओं का दिल जीतने में उसके कामयाब होने की ज़्यादा संभावना है.
राजनीति की मज़बूत विरासत
जो भी चुनाव जीते लेकिन अर्जेंटीना के अगले राष्ट्रपति को मौजूदा समय में दुनिया के किसी भी दूसरे देश की तुलना में राजनीति की सबसे मुश्किल ज़िम्मेदारी विरासत में मिलेगी. अर्जेंटीना की आर्थिक परेशानी की जड़ें आधी सदी से भी ज़्यादा पुरानी हैं. ये कोई छोटी करतूत नहीं है कि किसी भी दूसरे देश के मुकाबले अर्जेंटीना ने इतिहास में ज़्यादा डिफॉल्ट किया है.
अगर मस्सा जीतते हैं तो हम आर्थिक सुधारों में कुछ हद तक निरंतरता और सीमित मात्रा में खर्च घटाने के उपायों की उम्मीद कर सकते हैं. पूर्व राष्ट्रपति जुआन पेरोन की नीतियों के समर्थक के रूप में मस्सा के पास कदम उठाने के लिए कुछ गुंजाइश है. पेरोन की नीतियों का मौजूदा रूप वामपंथी हो सकता है लेकिन समय के साथ ये बदल सकता है और ये वामपंथी, मध्यवर्ती और दक्षिणपंथी गुटों के लिए खुली है. अगर मस्सा अपनी पार्टी के अधिक उग्र तत्वों से दूरी बनाने और एक ज़्यादा व्यावहारिक रास्ते पर ध्यान देने में सफल होते हैं तो वो राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य के केंद्र तक पहुंच सकते हैं.
अगर माइली जीतते हैं तो ये देखा जाना बाकी है कि क्या वास्तव में वो अपनी उग्र नीतियों को आगे बढ़ाएंगे या वो दूरी कम करने की कोशिश करेंगे और ऐसी संसद के साथ मिलकर काम करेंगे जिसका नियंत्रण विपक्ष के हाथों में होगा. वो आर्थिक मामलों में कुछ रियायत मिलने पर अपने सामाजिक एजेंडे को भी छोड़ सकते हैं. या फिर वो चुनाव अभियान के दौरान किए गए अपने वादों पर अड़े रह सकते हैं और केंद्रीय बैंक को बंद करने की कोशिश कर सकते हैं, सरकारी मंत्रालयों में भारी कटौती कर सकते हैं और सरकारी कंपनियों का आकार छोटा कर सकते हैं या उन्हें बेच सकते हैं. ये कदम उठाते हुए वो गन रखने के मामले में उदारीकरण, मानव अंगों को बेचने और गर्भपात को आपराधिक बनाने के ज़रिए अपने सामाजिक एजेंडे को बढ़ाते रहेंगे. माइली के बारे में उम्मीद लगाना बेहद मुश्किल है लेकिन फिर भी वो सबसे आगे रह सकते हैं.
अर्जेंटीना के घटनाक्रम पर भारत अपनी नज़र रखना चाहता होगा और अगर माइली चुनाव जीतते हैं तो अपनी साख का इस्तेमाल कर उन्हें ब्रिक्स+ में शामिल होने के लिए राज़ी कर सकता है.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान अर्जेंटीना ने शायद अपनी चमक खो दी है लेकिन ये दक्षिण अमेरिकी देश एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय और बहुपक्षीय किरदार बना हुआ है. भारत और अर्जेंटीना के बीच ऐसा संबंध है जिसे दोनों देश ‘सामरिक साझेदारी’ का नाम देते हैं और अर्जेंटीना G20 का हिस्सा भी है. अर्जेंटीना के इस चुनाव में भारत की एक व्यक्तिगत दिलचस्पी भी है: अर्जेंटीना को इस साल की शुरुआत में ब्रिक्स+ संगठन में शामिल होने का न्योता दिया गया था लेकिन माइली ने सार्वजनिक रूप से बयान दिया कि अगर वो चुनाव जीतते हैं तो अर्जेंटीना इस संगठन में शामिल नहीं होगा. अर्जेंटीना के घटनाक्रम पर भारत अपनी नज़र रखना चाहता होगा और अगर माइली चुनाव जीतते हैं तो अपनी साख का इस्तेमाल कर उन्हें ब्रिक्स+ में शामिल होने के लिए राज़ी कर सकता है.
हरि सेशासायी ORF में विज़िटिंग फेलो हैं. इसके अलावा वो पनामा के विदेश मंत्रालय के सलाहकार और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) में एशिया-लैटिन अमेरिका के विशेषज्ञ भी हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.