ये लेख हमारी सीरीज़, ‘रिइमैजिनिंग एजुकेशन/ इंटरनेशनल डे ऑफ एजुकेशन 2024’ का एक हिस्सा है
पूर्व प्राथमिक शिक्षा यानी 3 से 6 साल आयु के बच्चों की पढ़ाई, उनके बाद के जीवन में सीखने का एक मज़बूत आधार तैयार करती है. बच्चों के विकास के लिए उनके शुरुआती जीवन का ये हिस्सा बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दौरान बच्चे भाषा, बुनियादी अंक याद करना, चलना फिरना और सामाजिक कौशल सीखते हैं. ज़्यादातर रिसर्च ये बताते हैं कि मौखिक भाषा के विकास और संख्या सीखने का अधिकतम समय बच्चे के जीवन के शुरुआती तीन साल होते हैं, जबकि सामाजिक कौशल को वो 3 से 5 साल के दौरान सीखते हैं. इसीलिए, शिक्षा व्यवस्था को बच्चों के जीवन की इस ‘अवसर वाली खिड़की’ का इस्तेमाल उनके विकास के लिए करना चाहिए, ताकि बच्चे अपने जीवन के इस महत्वपूर्ण दौर में सीखने के लिए पर्याप्त सहयोग प्राप्त कर सकें. इंडिया अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन इम्पैक्ट स्टडी 2017 में भी ये पाया गया था कि जिन बच्चों को शुरुआती जीवन में ही अच्छी शिक्षा मिल जाती है, वो प्राथमिक शिक्षा के दौरन में सीखने के मामले में अच्छे नतीजे प्राप्त करते हैं. टिकाऊ विकास के लक्ष्य (SDG) 4 का लक्ष्य 4.2 (समावेशी शिक्षा) भी तीन से छह साल आयु वर्ग के सभी बच्चों के विकास के लिए सीखने के समावेशी और समान अवसरों को बढ़ावा देने की वकालत करता है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बच्चों के सीखने के लिए समावेशी माहौल और खेलों पर आधारित सीखने की तकनीकें अपनाने पर ज़ोर दिया गया है. इसमें बच्चों की शुरुआती शिक्षा के लिए चार मॉडलों का ज़िक्र किया गया है.
बच्चों की शुरुआती पढ़ाई की इतनी अहमियत होने के बावजूद, इसको नीतिगत अहमियत देने की शुरुआत भारत में हाल के दिनों में ही हुई है. इस मामले में पहला नीतिगत क़दम 2013 में नेशनल अर्ली चाइल्डहुड केयर ऐंड एजुकेशन नीति अपनाने के साथ उठाया गया था. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बच्चों के सीखने के लिए समावेशी माहौल और खेलों पर आधारित सीखने की तकनीकें अपनाने पर ज़ोर दिया गया है. इसमें बच्चों की शुरुआती शिक्षा के लिए चार मॉडलों का ज़िक्र किया गया है. इनमें समुदायों में आंगनबाड़ी केंद्र, स्कूलों में आंगनबाड़ी केंद्र, स्कूलों में प्री-प्राइमरी वर्ग और अलग से चलाए जाने वाले प्री-स्कूल शामिल हैं.
छोटे बच्चों के लिए पूर्व प्राथमिक शिक्षा, अक्सर अपने घरों, माता-पिता और देख-रेख करने वालों से दूर समाज में पहला क़दम हुआ करता है. इस दौरान बच्चे अपने मां-बाप या देख-भाल करने वालों से अलग होने पर तनाव के शिकार होते हैं. उन्हें अध्यापकों और दूसरे बच्चों के साथ घुलने मिलने में दिक़्क़तें आती हैं. उन्हें टॉयलेट ट्रेनिंग के तनाव से गुज़रना पड़ता है और वो अध्यापकों को अपनी बात कह पाने में भी समस्याओं का सामना करते हैं क्योंकि वो स्कूल में नए अध्यापकों और देख-भाल करने वालों से डरे रहते हैं. बच्चों को प्री-स्कूल में अपना काम करने और उन गतिविधियों में शामिल होने में भी दिक़्क़त पेश आती है, जिनकी उनसे अपेक्षा की जाती है. इसीलिए, इतने छोटे बच्चों के लिए पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के कार्यक्रमों को संवेदनशील और बच्चों की ख़ास ज़रूरतों का ध्यान रखने वाला होना चाहिए.
नेशनल अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन करीकुलम
भारत का नेशनल अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन करीकुलम फ्रेमवर्क इन चुनौतियों को स्वीकार करता है और वो बच्चों के विकास में मां-बाप, परिवार और समुदाय की भूमिका को रेखांकित करता है, और बच्चों सीखने के लिए उनको अनौपचारिक, खेल पर आधारित माहौल देने की वकालत करता है. इसके अलावा ये फ्रेमकवर्क बच्चों को शुरुआती शिक्षा मातृभाषा या घरेलू भाषा में देने और बहुभाषी कक्षाओं की भी वकालत करता है, क्योंकि भारत में भाषाई विविधता को देखते हुए किसी भी कक्षा के बच्चे अलग अलग पृष्ठभूमि से आते हैं और उनकी मातृभाषा या घरेलू भाषाएं अलग अलग हो सकती हैं.
भारत का नेशनल अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन करीकुलम फ्रेमवर्क इन चुनौतियों को स्वीकार करता है और वो बच्चों के विकास में मां-बाप, परिवार और समुदाय की भूमिका को रेखांकित करता है, और बच्चों सीखने के लिए उनको अनौपचारिक, खेल पर आधारित माहौल देने की वकालत करता है.
हालांकि, व्यवहार में इसको हासिल करना मुश्किल है. ख़ास तौर पर इसलिए भी, क्योंकि भारत में शहरी अप्रवासियों की विशाल आबादी, जो अक्सर ग़रीबी में रहती है और वो बड़े शहरों में ज़्यादातर सरकारी योजनाओं तक पहुंच बनाने के लिए संघर्ष करती रहती है. भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में अप्रवासी परिवारों के बच्चों की अच्छी पूर्व प्राथमिक शिक्षा तक पहुंच अपर्याप्त होती है. इसके कई कारण होते हैं, जैसे कि शुरुआती बचपन की शिक्षा की महत्ता को लेकर जागरूकता का न होना, अपने इलाक़े में बच्चों की शुरुआती की सुविधाओं के बारे में सीमित जानकारी, सामुदायिक कार्यकर्ताओं या फिर अध्यापकों द्वारा किया जाने वाला भेदभाव और भाषा की बाधाएं. मिसाल के तौर पर जो परिवार, काम की तलाश में बिहार या उत्तर प्रदेश जैसे उत्तरी राज्यों से बड़े शहरों में जाते हैं, उनके बच्चों को उन शहरों में पूर्व प्राथमिक शिक्षा हासिल करने में दिक़्क़त पेश आती है, जहां पढ़ाई का माध्यम मराठी, मलयालम या तमिल जैसी दूसरी भाषाएं होती हैं.
नेशनल अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन करीकुलम फ्रेमवर्क इस समस्या को पर्याप्त रूप से स्वीकार करता है और इसीलिए ये रूप-रेखा बहुभाषी कक्षाओं पर ज़ोर देती है. पाठ्यक्रम की ये रूप-रेखा ये सुझाव भी देती है कि अध्यापकों को बच्चों की मातृभाषा या घरेलू भाषा के कुछ शब्द और जुमले सीखने की कोशिश करनी चाहिए और बच्चों को अपनी ज़बान में अपनी बातें कहने और एक दूसरे से सीखने के लिए भी प्रोत्साहित करना चाहिए. खुलकर खेलने और आपस में बातचीत का ये सीखने वाला माहौल आदर्श है. लेकिन, हमारे लिए इसे लागू करने की व्यवहारिक चुनौतियों को भी समझना ज़रूरी है. क्या बच्चों की शुरुआती देख-भाल और पढ़ाई की ज़िम्मेदारी संभालने वाले आंगनबाड़ी केंद्रों में देख-रेख करने वालों और अध्यापकों की पर्याप्त संख्या है, जो अलग अलग भाषाओं वाले बच्चों को संभाल सकें? क्या उन्हें पर्याप्त संसाधन, प्रशिक्षण और सहायता मिल रही है, जिससे वो उन बहुत छोटे बच्चों की देख-भाल कर सकें, जो अपने मां-बाप और परिवार से अलग होने की वजह से डरे और घबराए रहते हैं और अपनी ज़रूरतें बता पाने में अक्षम होते हैं? क्या पूर्व प्राथमिक अध्यापक या देख-भाल करने वाले इतने प्रशिक्षित होते हैं कि वो बच्चे के सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार से परिचित हों? इनमें से ज़्यादातर सवालों के जवाब हां में नहीं हैं. हालांकि, ये वो सवाल हैं, जिनका सामना हमें उस वक़्त करना पड़ता है, जब हम बच्चों को उनके शुरुआती दौर में सीखने के समावेशी और समतावादी माहौल वाले अवसर देने के प्रयास करते हैं.
भारत में हाल के दिनों में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा को तवज्जो दी जा रही है, वो स्वागतयोग्य है. लेकिन, इसको बहुत सोच-विचार और वास्तविक निवेश का समर्थन भी मिलना चाहिए, ख़ास तौर से मानव संसाधनों के मामले में. भारत में बचपन की अच्छी शुरुआती शिक्षा की राह में जो सबसे बड़ी बाधा आती है, वो प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव है. छोटे बच्चों की देख-भाल करना अक्सर ऐसा काम नहीं माना जातै, जिसके लिए उचित ट्रेनिंग दी जानी चाहि, और, पूर्व प्राथमिक अध्यापकों को उन निजी स्कूलों में भी बहुत कम वेतन मिलता है, जो अमीर मां-बाप से मोटी फ़ीस वसूलते हैं.
शुरुआती बचपन में अच्छी शिक्षा से न केवल बच्चे स्कूल के लिए बेहतर ढंग से तैयार होते हैं और अकादेमिक क्षेत्र में बेहतर उपलब्धि हासिल करते हैं. बल्कि इससे उन्हें दूसरे सामाजिक आर्थिक लाभ भी मिलते हैं.
निष्कर्ष
किसी बच्चे के बचपन के शुरुआती वर्षों का उसके शारीरिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है. कमज़ोर या हाशिए पर पड़े समुदायों से आने वाले बच्चों के लिए बचपन में अच्छी देख-भाल और शिक्षा से अन्य समुदायों के बच्चों के साथ उनके फ़ासले पाटे जा सकते हैं और उनका आगे का जीवन भी बेहतर बनाया जा सकता है. यही नहीं, शुरुआती बचपन में अच्छी शिक्षा से न केवल बच्चे स्कूल के लिए बेहतर ढंग से तैयार होते हैं और अकादेमिक क्षेत्र में बेहतर उपलब्धि हासिल करते हैं. बल्कि इससे उन्हें दूसरे सामाजिक आर्थिक लाभ भी मिलते हैं. मिसाल के तौर पर इस वजह से माओं को काम करने का मौक़ा मिलता है और अधिक उम्र वाले बच्चे, ख़ास तौर से महिलाएं भी अपने छोटे-भाई बहनों की देख-भाल का बोझ उठाने से मुक्त हो जाती हैं, फिर उससे उनके स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ने की तादाद भी कम हो जाती है. इसीलिए, शुरुआती बचपन में बच्चों की देख-भाल और अच्छी पढ़ाई में सरकार द्वारा ख़र्च करने और आंगनबाड़ियों को सशक्त बनाने की ज़रूरत वाजिब लगती है. लेकिन, उससे भी अहम बात ये है कि इस मामले में किए जाने वाले प्रयास बहुत सावधानी और संवेदना के साथ किए जाने चाहिए और इन कोशिशों में बच्चों की अनूठी ज़रूरतों का ख़याल रखा जाना चाहिए. कुल मिलाकर, अच्छी शुरुआत तो है, मगर अभी बहुत लंबा सफर तय करना है.
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