Author : Anchal Vohra

Published on Feb 23, 2021 Updated 0 Hours ago

क्रांति निश्चित तौर पर प्रेरणा देने वाली थी और कुछ समय के लिए इसने अरब में रहने वाले लोगों और दुनिया को ये यकीन भी दिलाया कि परेशानी में घिरा ये इलाक़ा आख़िरकार आधुनिक लोकतंत्र को अपनाने की तरफ़ बढ़ रहा है. इसके बावजूद ग़लत क्या हुआ?

एक दशक बाद अरब स्प्रिंग: प्रदर्शन को अंजाम देना मुश्किल काम, लेकिन लोगों को राजनीतिक तौर पर संगठित करना बेहद कठिन

नवंबर 2020 की शुरुआत में यूरोप की तरफ़ जा रही एक नाव लीबिया के बंदरगाह अल-ख़ुम्स के तट के नज़दीक डूब गई. इस हादसे में 74 प्रवासियों की मौत हो गई जिनमें बच्चे भी शामिल थे. अक्टूबर 2020 तक कम-से-कम 900 अन्य लोग डूब चुके हैं जबकि 2014 से 2020 तक 20,000 से ज़्यादा लोग डूब चुके थे. मानवाधिकार कार्यकर्ता बताते हैं कि भू-मध्यसागर अनजान लोगों की सबसे बड़ी कब्रगाह बन चुका है और इसके बावजूद प्रवासियों का आना जारी है. नवंबर 2020 में प्रवासियों के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईओएम) ने कहा कि लीबिया के तट से आगमन में बढ़ोतरी देखी गई है, वो भी तब – जब हज़ारों लोगों को वापस भेज दिया गया.

अरब स्प्रिंग के एक दशक बाद मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के कई देशों में, जहां लोगों ने नागरिक अधिकार के तौर पर मुख्य़ रूप से नौकरी और ख़ुशहाली मांगी थी, आर्थिक हालात बिगड़े हैं. लाखों लोगों का विस्थापन हुआ है और लाखों अन्य लोग दो वक़्त के खाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ये हालत ख़ासतौर पर उन देशों में है जो गृह युद्ध से बर्बाद हो गए हैं.

अरब स्प्रिंग के एक दशक बाद मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के कई देशों में, जहां लोगों ने नागरिक अधिकार के तौर पर मुख्य़ रूप से नौकरी और ख़ुशहाली मांगी थी, आर्थिक हालात बिगड़े हैं. लाखों लोगों का विस्थापन हुआ है और लाखों अन्य लोग दो वक़्त के खाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 

अरब स्प्रिंग की शुरुआत 26 साल के एक फल विक्रेता मोहम्मद बूअज़ीज़ी से हुई जिसने ख़ुद को उस वक़्त आग लगा ली जब स्थानीय पुलिस ने उसके ठेले और फलों को ज़ब्त कर लिया. उसकी हताशा नौजवानों की ज़्यादा आबादी वाले देश में बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी का प्रतीक थी. बूअज़ीज़ी के ख़ुद को आग लगाने की घटना ने पहले से नाराज़ आबादी को और ज़्यादा ग़ुस्से से भर दिया. वो इस मज़बूती से सड़कों पर इकट्ठा हो गए कि लंबे समय से सत्ता पर काबिज़ निरंकुश राष्ट्रपति ज़िने अल-आबिदीन को इस्तीफ़ा देकर देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.

एक तरफ़ जहां ट्यूनीशिया भले ही एक कमज़ोर लोकतंत्र में तब्दील हो गया और गृह युद्ध से बच गया लेकिन लोगों के रहन-सहन का स्तर उल्लेख़नीय ढंग से गिरा है. बेरोज़गारी अभी भी ज़्यादा है और द-गार्जियन अख़बार के एक सर्वे के मुताबिक़ कम-से-कम आधे से ज़्यादा लोग महसूस करते हैं कि क्रांति से पहले के मुक़ाबले उनकी हालत ख़राब हुई है.

इसके बावजूद ट्यूनीशिया को सीरिया, लीबिया, यमन और मिस्र के मुक़ाबले इकलौता कामयाब देश माना जाता है.

सीरिया की हालत दुष्कर

शायद सीरिया की हालत सबसे ज़्यादा ख़राब हुई. राष्ट्रपति बशर अल असद और अनगिनत विद्रोही समूहों के बीच युद्ध में सीरिया के 5 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए और एक करोड़ 20 लाख लोग बेघर हो गए. सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वाले ज़्यादातर लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन अब उन देशों में हैं जिन्होंने सीरिया के शरणार्थियों को पनाह दी है. वो न तो साझा राजनीतिक ताक़त थे, न ही इस्लामिक गुटों के मुक़ाबले में असरदार सशस्त्र समूह. रूस के समर्थन वाली सीरिया की सेना के मुक़ाबले में तो उनकी ताक़त कुछ भी नहीं थी. इससे भी बढ़कर, प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ सरकार का जवाब इतना क्रूर था कि धीरे-धीरे उनकी इच्छाशक्ति कमज़ोर हो गई और उन्हें छिपने के लिए मजबूर होना पड़ा.

सीरिया अब तीन अलग-अलग ज़ोन में बंटा हुआ है: असद के दावे वाला ज़ोन, कुर्दिश नियंत्रण वाला पूर्वोत्तर का इलाक़ा और इदलिब जिस पर अभी अल क़ायदा के पूर्व सहयोगी हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) का कब्ज़ा है. नौ साल लंबे संघर्ष, पड़ोसी देश लेबनान में बैंकिंग संकट और अमेरिका की तरफ़ से लगाई गई पाबंदी की वजह से सीरिया की अर्थव्यवस्था गर्त में है. उधर लीबिया दो हिस्सों में बंट गया है. लीबिया मुस्लिम ब्रदरहुड के राजनीतिक इस्लाम के समर्थक तुर्की और राजनीतिक इस्लाम को अपने शासन के लिए ख़तरा मानने वाले राजतंत्र संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और सऊदी अरब के बीच व्यापक दुश्मनी दिखाता है.

तुर्की त्रिपोली आधारित राष्ट्रीय सहमति की सरकार (जीएनए) का समर्थन करता है जो राजनीतिक इस्लाम से जुड़ी है. दूसरी तरफ़ यूएई बेनग़ाज़ी आधारित फील्ड मार्शल ख़लीफ़ा हफ़्तार और उनके संगठन लीबियाई नेशनल आर्मी (एलएनए) को समर्थन देता है.

लीबिया में तुर्की के समर्थन वाली मिलिशिया ने हाल के दिनों में लड़ाई के दौरान बढ़त हासिल की है. वहीं मिस्र में यूएई ने राजनीतिक इस्लाम के ऊपर बढ़त बनाई है. यूएई ने मुस्लिम ब्रदरहुड के राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी के ख़िलाफ़ जनरल अब्देल फ़तेह अल-सिसी के विद्रोह का साथ दिया. मुर्सी पूर्व राष्ट्रपति मुबारक के सत्ता से बाहर होने के बाद राष्ट्रपति बने थे. यूएई ने आसानी से वश में आने वाले सिसी को मिस्र के राष्ट्रपति के तौर पर सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया.

कट्टरपंथियों के साये में क्रांति

क्रांति निश्चित तौर पर प्रेरणा देने वाली थी और कुछ समय के लिए इसने अरब में रहने वाले लोगों और दुनिया को ये यकीन भी दिलाया कि परेशानी में घिरा ये इलाक़ा आख़िरकार आधुनिक लोकतंत्र को अपनाने की तरफ़ बढ़ रहा है. इसके बावजूद ग़लत क्या हुआ?

कई जानकार कहते हैं कि प्रदर्शन में भाग लेने वाले उदारवादियों के मुक़ाबले इस्लामिक कट्टरपंथियों की संख्य़ा काफ़ी ज़्यादा थी और वो बहुत ज़्यादा संगठित भी थे. इन रूढ़िवादियों और इस्लामिक ताक़तों की भी चाहत थी कि युवाओं को नौकरी मिले और भ्रष्टाचार का ख़ात्मा हो लेकिन ऐसा वो धार्मिक सत्ता के तहत चाहते थे. 10 साल बाद उदारवादी बिखर चुके हैं और राजनीतिक इस्लाम को मानने वाले अरब राजतंत्र से जंग लड़ रहे हैं.

दिलचस्प बात ये है कि जिस इकलौते देश में भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों ने महत्वपूर्ण कामयाबी दर्ज की वो भारत है. यहां कार्यकर्ता राजनीतिक तौर पर संगठित हुए और उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी बनाई जिसने बाद में दिल्ली के चुनाव में जीत हासिल की. हालांकि सिविल सोसायटी के इन सदस्यों को देश भर के चुनाव में करारी हार मिली लेकिन कई लोगों ने महसूस किया कि उनके पास अब एक ऐसा मंच हैं जहां वो राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ सकते हैं. भारत में आंदोलन की सफलता का राज़ भारत की लोकतांत्रिक परंपरा है.

रूढ़िवादियों और इस्लामिक ताक़तों की भी चाहत थी कि युवाओं को नौकरी मिले और भ्रष्टाचार का ख़ात्मा हो लेकिन ऐसा वो धार्मिक सत्ता के तहत चाहते थे. 10 साल बाद उदारवादी बिखर चुके हैं और राजनीतिक इस्लाम को मानने वाले अरब राजतंत्र से जंग लड़ रहे हैं. 

मध्य-पूर्व और अफ्रीका के जिन देशों में प्रदर्शन हुए थे वहां ज़मीनी राजनीति काफ़ी ज़्यादा ख़तरनाक है.

सेना के जनरल और तानाशाहों ने जान-बूझकर उदारवादी विपक्ष को उभरने नहीं दिया. ऐसे में उन्हें चुनौती देने वाले सिर्फ़ कट्टरपंथी बच गए. गद्दाफ़ी के लीबिया, असद के सीरिया और मुबारक के मिस्र में राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं थी और इसलिए उदारवादी प्रदर्शनकारी अपना कोई राजनीतिक दल नहीं बना सके. बदलाव हमेशा कठिन मेहनत का नतीजा होता है, ख़ास तौर से उन देशों में जहां शासक अनैतिक हों और सत्ता में बने रहने के लिए लाखों लोगों को मारने में उसे कोई हिचक नहीं हो.

भले ही ऐसा लगे कि सब कुछ लुट चुका है लेकिन तब भी अरब स्प्रिंग की वजह से अरब की सड़कों पर राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है. ये पता करना मुश्किल है कि इसका अरब के लोगों के भविष्य पर क्या असर होगा. फिलहाल तो लोगों को राजनीतिक या आर्थिक बदलाव की काफ़ी कम उम्मीद दिख रही है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.