-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
आलोचक शायद सही हैं: ट्रंप का दूसरा कार्यकाल शायद क़यामत की आमद साबित हो. या फिर ये भी हो सकता है कि ये वो कड़वी दवा हो, जिसे दुनिया की सेहत ठीक करने के लिए ज़रूरी बताया जा रहा था
Image Source: Getty
क़यामत की भविष्यवाणी करने वाले शायद सही हैं. हो सकता है कि राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल के लिए सत्ता में डोनाल्ड जे. ट्रंप की वापसी शायद महिलाओं के अधिकारों, समृद्धि और सारी अच्छी बातों के ख़ात्मे का बिगुल बजाने वाली हो. जैसे दुनिया के सामने तमाम तरह के संकट और भयंकर अनिश्चितताओं की चुनौती ही पर्याप्त नहीं थी कि अब दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे ताक़तवर सैन्य शक्ति अमेरिका ने दोबारा उस नेता को अपना राष्ट्रपति चुन लिया है, जिसे अचानक कुछ भी क़दम उठाने की बड़ी आदत के लिए जाना जाता है. अगर आप इन तर्कों पर यक़ीन करते हैं, तो आपके लिए ये बात बिल्कुल साफ़ हो जाएगी कि अमेरिकी जनता ने न केवल अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है, बल्कि हम सबको भी मुसीबत की तरफ़ धकेल दिया है. पर क्या सच में ऐसा है?
इस लेख के पहले हिस्से में हम वो तीन तर्क सामने रख रहे हैं कि ट्रंप की चुनावी जीत से दुनिया के बहुत से देशों और आम लोगों को सावधान रहकर उम्मीद लगाए रखने का अच्छा कारण दिया है. लेख के दूसरे हिस्से में हम उन तीन जोखिमों की पड़ताल करेंगे, जो ट्रंप और उनकी टीम की सत्ता में वापसी की वजह से पैदा होंगे. इसके साथ साथ हम लेख में इस बात को भी रेखांकित करेंगे ये संभावित चुनौतियां अन्य देशों के लिए नए अवसर भी लेकर आई हैं.
गिलास आधा ख़ाली या आधा भरा?
व्यापार, वैश्विक प्रशासन और विविधता वो क्षेत्र हैं, जिन पर ट्रंप की चुनावी जीत का आशंका के उलट सकारात्मक असर देखने को मिल सकता है.
इस लेख के पहले हिस्से में हम वो तीन तर्क सामने रख रहे हैं कि ट्रंप की चुनावी जीत से दुनिया के बहुत से देशों और आम लोगों को सावधान रहकर उम्मीद लगाए रखने का अच्छा कारण दिया है. लेख के दूसरे हिस्से में हम उन तीन जोखिमों की पड़ताल करेंगे, जो ट्रंप और उनकी टीम की सत्ता में वापसी की वजह से पैदा होंगे.
व्यापार की सियासत
पहले, याद कीजिए कि पहले कार्यकाल में प्रेसिडेंट ट्रंप और विश्व व्यापार संगठन (WTO) के बीच ज़बरदस्त झगड़े चलते रहे थे. अगस्त 2018 में ट्रंप ने विश्व व्यापार संगठन को ‘दुनिया के अब तक के इतिहास का सबसे ख़राब व्यापार समझौता’ घोषित कर दिया था. ट्रंप की टीम के क़दम तो उनके इस सख़्त बयान से भी आगे बढ़कर थे. ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान हमने व्यापार युद्ध, व्यापार कर और विश्व व्यापार संगठन की विवादों के निपटारे वाली व्यवस्था को पंगु होते देखा था. वैसे तो बाइडेन के सत्ता में आने के बावजूद, अमेरिका बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था के संरक्षक की अपनी पहले वाली भूमिका में नहीं लौटा था. लेकिन, ट्रंप 2.0 की टीम से उम्मीद है कि वैश्विक व्यापारिक प्रशासन के मामले में वो अपना पुराना रिकॉर्ड (और निश्चित रूप से प्रेसिडेंट ओबामा या फिर प्रेसिडेंट बाइडेन) का रिकॉर्ड तोड़ डालेगी. चुनाव से ठीक पहले, उम्मीदवार के तौर पर ट्रंप ने कहा था कि व्यापार कर यानी ‘टैरिफ’ ‘शब्दकोश का सबसे ख़ूबसूरत शब्द’ है; इसे देखते हुए आशंका है कि स्वघोषित ‘टैरिफ मैन' ट्रंप जब सत्ता संभालेंगे तो एक बार फिर से पूरी ताक़त से बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ देंगे. उन्होंने चुनाव में वादा किया है कि वो अमेरिका के सभी व्यापारिक साझीदारों पर समान रूप से 10 प्रतिशत व्यापार कर लगाएंगे और चीन पर तो वो 60 प्रतिशत व्यापार कर ठोक देंगे.
अर्थशास्त्रियों ने ट्रंप के इस ऐलान की उस क़ीमत का पूर्वानुमान लगाने में वक़्त नहीं लगाया, जो बदले में अमेरिका को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चुकानी होंगी. ख़ास तौर से इसलिए भी क्योंकि अमेरिका के व्यापारिक साझीदार भी पलटवार में अमेरिकी निर्यात पर टैरिफ लगा देंगे. ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था के भविष्य को लेकर भी तमाम तरह की आशंकाएं जताई जा रही हैं. हालांकि, जेनेवा और ब्रसेल्स में बैठे विश्व व्यापार के सामंतों को नींद से जगाने के लिए शायद इस व्यवस्था को तगड़ा झटका देना ज़रूरी है. विश्व व्यापार संगठन (WTO) बहुत लंबे समय से टेक्नोक्रेट की एक अलग ही दुनिया के तौर पर काम करता रहा है और वो विश्व व्यापार की बुनियादी चुनौतियों जैसे कि आपसी निर्भरता का हथियार की तरह इस्तेमाल किए जाने की समस्या से निपट पाने में पूरी तरह नाकाम रहा है. वैसे तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि WTO, ट्रंप के आने के बाद भी पहले की तरह, पुराने ढर्रे पर ही चलता रहे (और शायद उसकी प्रासंगिकता ही ख़त्म हो जाए). पर ट्रंप का दूसरा कार्यकाल इस संगठन और इसके सदस्यों के लिए एक बड़ा मौक़ा लेकर आया है. आख़िरकार अब जाकर एक वास्तविक मौक़ा आया है, जब इस व्यवस्था में नई जान डाली जा सकती है. इसके नियमों को आज के हिसाब से ढालकर समान विचारधारा वाले साझीदारों के बीच वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को सुरक्षित बनाया जा सकता है और वैश्विक व्यापार प्रशासन को उसके असल मक़सद के लिए तैयार किया जा सकता है.
वैश्विक प्रशासन
सिर्फ़ व्यापारिक प्रशासन ही नहीं है, जहां ट्रंप की वापसी एक ऐसा निर्णायक अवसर लेकर आई है, जिसकी सख़्त आवश्यकता महसूस की जा रही है. बहुपक्षवाद ने बीसवीं सदी में दुनिया को शांत और समृद्ध बना पाने की जो क्षमता दिखाई, उसकी वजह से आज भी नेकनीयत वाले उदारवादी इस व्यवस्था पर आंख मूंदकर भरोसा करते हैं. हालांकि, आज के दौर में ये अंधा यक़ीन करना ठीक नहीं है. क्योंकि आज इस व्यवस्था के बुनियादी उसूलों (जैसे कि आपसी निर्भरता) को ही चुनौती दी जा रही है. जबकि पहले ये अपेक्षा की जाती थी कि देश अगर एक दूसरे पर निर्भर रहेंगे, तो वो शांति के लिए आपस में मिलकर एक समुदाय की तरह बर्ताव करेंगे. लेकिन, आज इस आपसी निर्भरता को ऐसे ऐसे तरीक़ों से हथियार बनाया जा सकता है, जिसकी कुछ लोगों ने कल्पना तक नहीं की थी. क्रियान्वयन के स्तर पर भी कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों के कामकाज पर सवाल उठाए जाने के पर्याप्त कारण साफ़ दिखते हैं. हमें इन बहुपक्षीय संगठनों के सचिवालय की बनावट, इनके नेतृत्व के देशों के बीच विभाजन की बारीक़ी और सख़्ती से पड़ताल करने की ज़रूरत है. क्या इन संगठनों की प्रशासनिक मशीनरी उसी तरह से निरपेक्ष है, जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है. या फिर इसका कई बार छुपकर (और कई मामलों में खुलकर) दुरुपयोग किया जा रहा है और कुछ तानाशाही राष्ट्रवादी देश अपने संकुचित लक्ष्य साधने के लिए इनका बेज़ा इस्तेमाल कर रहे हैं. ट्रंप ने जिस डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिसिएंशी (DOGE) की घोषणा की है, उससे प्रेरणा लेते हुए वैश्विक प्रशासन को बी चाहिए कि वो बहुपक्षवाद को लेकर ट्रंप के बदनाम संदेहास्पद रवैये का लाभ उठाते हुए कठोर सुधार करें (इसमें ऐसे संगठनों को दिए जाने वाले फंड में कटौती भी शामिल है, जो कुछ देशों के लिए आसान राजनीतिक औज़ार बन गए हैं). इसके लिए तमाम देशों के बीच तालमेल देखने को मिल सकता है, जिनमें वो राष्ट्र भी शामिल हो सकते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में सुधार करना चाहते हैं.
अप्रवास, विविधता और सत्ता की राजनीति
बहुत से लोग (और वो शायद सही भी हो) उस अप्रवास विरोधी जज़्बात के उभार से डर जाते हैं, जिन्हें शायद ट्रंप अपने बयानों से बढ़ावा देते हैं. हालांकि, हमें इस पर नज़दीक से नज़र डालने की ज़रूरत है. वैसे तो अल्पसंख्यकों ने इस चुनाव में भी डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट दिया. लेकिन एशियाई मूल के बहुत से अमेरिकी नागरिकों ने इस बार के चुनाव में ट्रंप को तरज़ीह दी. वैसे तो कुछ अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा ट्रंप को वोट देने के पीछे कई कारण बताए जा सकते हैं. लेकिन, सबसे ठोस कारण तो ‘अच्छे’ बनाम ‘बुरे’ अप्रवास की सोच है. सफल और क़ानून का पालन करने वाले अप्रवासी शायद, एंगेला मर्केल की अप्रवासियों के लिए सीमाएं पूरी तरह से खोल देने की नीति के उलट दक्षिणपंथी मध्यमार्गी विचारधारा को पसंद करें. विडंबना तो ये है कि एंगेला मर्केल ख़ुद दक्षिणपंथी मध्यमार्गी नेता रही थी. इसमें हम ख़राब दिखने वाली नीति का पहलू भी जोड़ सकते हैं. बड़े पैमाने पर अप्रवासियों को निकाल बाहर करने की कट्टर नीति के इतर ट्रंप प्रशासन काफ़ी विविधता भरी तस्वीर पेश करता है. यूरोप की कई सरकारों के उलट ट्रंप ने विवेक रामास्वामी से लेकर तुलसी गबार्ड तक, भारतीय मूल के कई नेताओं को अहम पदों पर नियुक्त किया है. ट्रंप की कैबिनेट तो जर्मनी से भी ज़्यादा विविधता भरी दिखती है. फिर आप इससे आगे की सोचें. ये सिर्फ़ दिखावे वाली बात नहीं, बल्कि ताक़त की वैश्विक राजनीति है. ट्रंप की कैबिनेट में मज़बूत भारत समर्थक तबक़े की मौजूदगी से अमेरिका, पाकिस्तान और चीन से निपटने के दौरान कड़ा रुख़ अपना सकता है, जो इससे पहले की अमेरिकी सरकारों के दौरान मुमकिन नहीं था. और, ये सब कुछ अस्पष्ट से मूल्यों और दुनिया की भलाई के नाम पर नहीं बल्कि ठोस अमेरिकी हितों के आधार पर होगा.
प्रशासनिक कमियां और नए अवसर
हमने लेख के पिछले हिस्से में ये सुझाया है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल को लेकर कुछ उम्मीदें लगाने में हर्ज नहीं है. हालांकि, ट्रंप की वापसी को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं, उनमें से तीन को रेखांकित करना आवश्यक है. पहला, इस बात का जोखिम है कि ट्रंप के लेन देन में यक़ीन रखने से शायद मानवता के बुनियादी मूल्यों की अनदेखी की जाए. और चूंकि हित और मूल्यों में अक्सर आपसी संबंध होते हैं. ऐसे में मूल्यों को कमकर के आंकने से मध्यम अवधि में ख़ुद अमेरिका ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों के हितों को भी चोट पहुंचेगी, जो वैश्विक नियमों (जैसे कि लोकतंत्र) के पक्ष में मज़बूती से खड़े होते हैं. दूसरा, चुनाव से पहले भी यूरोप में ट्रंप की वापसी होने की सूरत में यूक्रेन को मिलने वाले समर्थन को लेकर आशंकाएं जताई जा रही थीं. तीसरा, अगर विश्व व्यापार संगठन ख़ुद को अपडेट नहीं करता और वैश्विक व्यापार खंड खंड हो जाता है, तो फिर क्या होगा? ये मसले गंभीर हैं, लेकिन अगर अन्य ताक़तें आगे आएं तो इन चुनौतियों से भी निपटा जा सकता है.
अब जाकर एक वास्तविक मौक़ा आया है, जब इस व्यवस्था में नई जान डाली जा सकती है. इसके नियमों को आज के हिसाब से ढालकर समान विचारधारा वाले साझीदारों के बीच वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को सुरक्षित बनाया जा सकता है और वैश्विक व्यापार प्रशासन को उसके असल मक़सद के लिए तैयार किया जा सकता है.
जहां तक लेन-देन का रिश्ता बनाम मूल्यों से जुड़ी चिंता की बात है, तो ज़रूरी नहीं है कि अन्य ताक़तें भी अमेरिका की राह पर ही चलें. ख़ास तौर से यूरोपीय संघ (EU) इस मामले में अलग राह पर चल सकता है और समान विचारधारा वाले साझीदारों के साथ मिलकर मूल्यों को बढ़ाने में अपनी ताक़त लगा सकता है. मिसाल के तौर पर लाइफस्टाइल फॉर द एनवायरमेंट (LiFE) की परिकल्पना (जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने G20 की अध्यक्षता के दौरान आगे बढ़ाया था) के साथ मिलती जुलती परिकल्पनाओं के बीच तालमेल बिठाकर यूरोपीय संघ, भारत और अन्य देश विकास के चीन के मॉडल ही नहीं, अमेरिकी मॉडल का विकल्प भी दुनिया के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं. ऐसे विकल्प टिकाऊ विकास से जुड़ी चुनौतियों से निपटने को लेकर ज़बानी जमाख़र्च से काम नहीं चलाएंगे, बल्कि ऐसे नए नैरेटिव और नीतियों का निर्माण करेंगे, जो जैव विविधता, जीवों की प्रजातियों के बीच आपस में न्यायोचित संबंध और कुछ ख़ास व्यक्तियों के बजाय मानवता को बचाने में अपनी ताक़त लगाएंगे. ऐसे विकल्प पर काम करना धरती के लिए भी अच्छा होगा और, ऐसे नई नई सोच उपलब्ध कराना वाले देशों और उनके नेतृत्व के लिए भी फ़ायदेमंद होगा. जब बात पुरानी सभ्यता वाली ताक़त भारत जैसे देशों के साथ गहरे संबंधों पर ज़ोर देने की आएगी, तो ऐसे ‘क्रांतिकारी’ विचारों के अलावा भी लोकतंत्र के मूल्यों पर ज़ोर देने के काफ़ी ठोस सामरिक कारण भी हैं. राष्ट्रपति बाइडेन अपने लोकतंत्र के शिखर सम्मेलन के ज़रिए इस संबंध का लाभ उठाने में सफल रहे थे; यहां तक कि ट्रंप प्रशासन के लिए भी इसका लाभ उठाने के दरवाज़े खुले हैं. भले ही वो सिर्फ़ इस हाथ ले उस हाथ दे की नीति के लिए ही क्यों न हो. ट्रंप, लोकतंत्र और अन्य वैचारिक कारणों के नाम पर भारत के साथ अमेरिका के रिश्ते प्रगाढ़ बनाने पर ज़ोर दे सकते हैं.
ट्रंप की कैबिनेट में मज़बूत भारत समर्थक तबक़े की मौजूदगी से अमेरिका, पाकिस्तान और चीन से निपटने के दौरान कड़ा रुख़ अपना सकता है, जो इससे पहले की अमेरिकी सरकारों के दौरान मुमकिन नहीं था.
दूसरा, यूरोपीय और अन्य देशों की ये चिंता बिल्कुल जायज़ है कि ट्रंप के सत्ता में आने से यूक्रेन और हां नैटो को भी अमेरिकी मदद में कटौती हो सकती है. लेकिन, ऐसी कटौती की आशंकाएं तो लंबे समय से जताई जा रही थीं और अब बिल्कुल सही वक़्त आ गया है जब यूरोप और अमेरिका के दूसरे सहयोगी अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाना सीखें (और संभवत: क्वाड जैसे समूहों के ज़रिए अन्य दोस्तों से तालमेल बढ़ाएं और ऐसे समूहों में नई ऊर्जा डालें). और, ट्रंप द्वारा चुनाव के दौरान यूक्रेन युद्ध ख़त्म करने का वादा, भारत और ग्लोबल साउथ के शांति समर्थक अन्य देशों के रुख़ से मेल खाता है. रूस को इज़्ज़त बचाने का मौक़ा देने से उसको चीन के और क़रीब जाने देने से रोका जा सकेगा. बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि अमेरिका की मध्यस्थता से होने वाले शांति समझौते का ज़मीन पर क्या असर होगा. यूरोपीय देशों (और ख़ुद यूक्रेन) की चिंता ये है कि ट्रंप उन्हें रूस के आगे झुकने को मजबूर कर देंगे. ऐसे में एक ऐसा समझौता करा पाने में भारत की भूमिका अहम हो जाती है, जो दोनों ही पक्षों को स्वीकार्य हो.
तीसरा, बहुत से अंतरराष्ट्रीय संगठनों की संगठनात्मक निष्क्रियता को देखते हुए, इस बात की गंभीर आशंका है कि विश्व व्यापार संगठन (WTO) शायद ट्रंप के तूफ़ान का सामना न कर सके. ऐसे में नई परिस्थितियों से निपटने की योजनाएं भी तैयार रखनी चाहिए. इनमें न केवल पारंपरिक व्यापार समझौते (जिन्हें भारत जैसे कुछ साझीदारों के साथ कर पाना हमेशा मुश्किल रहा है) शामिल हों, बल्कि, यूरोपीय संघ (EU) भारत और अन्य लोकतांत्रिक देशों को आपस में जोड़ने वाले कनेक्टिविटी के प्रोजेक्ट भी हों. ग्लोबल साउथ में इन मामलों पर नए नए विचार सामने रखे जा रहे हैं. ऐसे में 2025 में अपनी दसवीं सालगिरह मनाने जा रहा रायसीना डायलॉग तवज्जो देने की एक अच्छी जगह हो सकता है. [i]
आलोचक शायद सही हैं: ट्रंप का दूसरा कार्यकाल शायद क़यामत का संदेश लेकर आया है. या शायद यहां जो तर्क पेश किए गए हैं, वो ही सही हों: दुनिया के लिए ट्रंप का दूसरा कार्यकाल वो कड़वी दवा भी साबित हो सकता है, जिसकी सलाह जानकार लंबे समय से देते आ रहे हैं.
[i] Full disclosure: the author has been associated with ORF – the host organization of Raisina Dialogue – since 2020, and now works with this organization fulltime.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Dr. Amrita Narlikar’s research expertise lies in the areas of international negotiation, World Trade Organization, multilateralism, and India’s foreign policy & strategic thought. Amrita is Distinguished ...
Read More +