Published on Nov 27, 2020 Updated 0 Hours ago

वैसे तो पूरी दुनिया में महिलाएं और बच्चे ज़ुल्म के शिकार हो रहे हैं. लेकिन, इसकी सबसे ज़्यादा मार ऐसे शरणार्थियों पर पड़ी है, जिनका अपना कोई देश नहीं और जो अपने देश से दर-बदर कहीं और पड़े हुए हैं.

कोविड-19 की आड़ में रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों पर एक और महामारी का पड़ता साया

जैसे-जैसे कोविड-19 की महामारी से निपटने को लेकर दुनिया भर में गंभीरता अपने शिखर पर पहुंच रही है, वैसे-वैसे महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाली हिंसा की सार्वभौमिक समस्या की रफ़्तार भी तेज़ हो गई है. कई देशों ने कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन जैसे प्रतिबंध लगाए, वो महिलाओं और बच्चों के लिए और भी घातक साबित हुए हैं. वैसे तो पूरी दुनिया में महिलाएं और बच्चे ज़ुल्म के शिकार हो रहे हैं. लेकिन, इसकी सबसे ज़्यादा मार ऐसे शरणार्थियों पर पड़ी है, जिनका अपना कोई देश नहीं और जो अपने देश से दर-बदर कहीं और पड़े हुए हैं.

पूरी दुनिया में शरणार्थियों और पनाह मांगने वालों के साथ यौन हिंसा का स्तर इतना व्यापक है  कि एक अनुमान के मुताबिक़, दुनिया भर में क़रीब 21.4 प्रतिशत शरणार्थी इसके शिकार होते हैं. इस आंकड़े से इस तथ्य की ओर इशारा मिलता है कि हर पांच या छह शरणार्थी महिलाओं या लड़कियों में से एक को अपने से शक्तिशाली लोगों के हाथों यौन उत्पीड़न झेलना पड़ता है. ये उस महिला या युवती के पति हो सकते हैं, भाई या पिता भी हो सकते हैं.

एक अनुमान के मुताबिक़, दुनिया भर में क़रीब 21.4 प्रतिशत शरणार्थी इसके शिकार होते हैं. इस आंकड़े से इस तथ्य की ओर इशारा मिलता है कि हर पांच या छह शरणार्थी महिलाओं या लड़कियों में से एक को अपने से शक्तिशाली लोगों के हाथों यौन उत्पीड़न झेलना पड़ता है. 

वैसे तो इस बारे में किए गए तमाम सर्वेक्षण टेलीफ़ोन पर बातचीत पर ही आधारित होते हैं. मगर, ऐसे सर्वेक्षणों के दायरों से वो लोग बाहर ही रह जाते हैं, जिन्हें कोई तकनीकी या व्यक्तिगत स्वतंत्रता हासिल नहीं होती. अपने वतन से बेघर, बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थी भी ऐसा ही एक वर्ग है. ऐसे में ये बात समझनी बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है कि इस समय शरणार्थी शिविरों में रहने वाली महिलाओं और लड़कियों पर इस महामारी का साया कितना बुरा साबित हो रहा है.

बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार में कोविड-19 की महामारी की आमद और उसके बाद शरणार्थी शिविरों वाले इलाक़े में लगाए गए लॉकडाउन के कारण इन शरणार्थियों की मुश्किल और बढ़ गई. इसकी बड़ी वजह ये है कि इन शरणार्थियों को पहले ही बहुत मामूली बुनियादी सुविधाएं ही हासिल थीं, जो लॉकडाउन के कारण और भी कम हो गईं.

लॉकडाउन लगने के बाद से रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों तक मानवीय मदद पहुंचने का सिलसिला बेहद कम हो गया है. कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों में, क़रीब एक वर्ग किलोमीटर के दायरे में चालीस हज़ार लोग रहते हैं. ये लोग बांस और प्लास्टिक से बने अस्थायी ढांचों में एक दूसरे के बेहद पास-पास रहते हैं. ऐसे में इन शरणार्थियों के लिए लॉकडाउन के नियमों का पालन करना, साफ सफाई और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करके अपनी सेहत का ख़याल रख पाना बेहद मुश्किल हो जाता है. कहा जाता है कि इन शरणार्थी शिविरों की कुल आबादी में से 21 प्रतिशत हिस्सा महिलाओं और लड़कियों का है. ये शरणार्थी न केवल अपनी सेहत का जोख़िम उठाते हैं, बल्कि उनके साथ यौन आधारित हिंसा (GBV) का ख़तरा भी अधिक रहता है. अब इसे छुपी हुई महामारी कहा जा रहा है, जो लगातार बढ़ रही है.

सत्ता के ढांचे का असंतुलन

हाल में आई रिपोर्टों और प्रकाशित हुए इंटरव्यूज को देखें, तो ये बात बेहद चौंकाने वाली लगती है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के शिविरों के अंदर, महिलाओं के साथ हिंसा की लगभग 81 प्रतिशत वारदातों के पीछे उन लोगों का हाथ होता है, जो पीड़िता के क़रीबी होते हैं. इसे आम तौर पर बेहद नज़दीकी साझीदार द्वारा की गई हिंसा (IPV) कहा जाता है. ऐसी हिंसा केवल शारीरिक या यौन शोषण तक सीमित नहीं होती, बल्कि इसमें जज़्बाती हिंसा, उपेक्षा और संसाधनों से महरूम रखने जैसे ज़ुल्म भी शामिल होते हैं.

अगर सच कहा जाए तो महिलाएं, कोविड-19 की महामारी के दौरान अपनी ज़िंदगी को चलाने के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण निर्णय भी नहीं ले पा रही हैं. 

अधिकतर बेघर महिलाएं, जो क़रीबी साथी के हाथों सितम (IPV) की शिकार होती हैं, वो यौन आधारित हिंसा की भी शिकार (GBV) बनती हैं. हालांकि, हिंसा की शिकार बहुसंख्यक महिलाएं एक ख़ास तरह के शारीरिक हमलों की पीड़ा सहती हैं. इन महिलाओं के साथ हो रही हिंसा रोहिंग्या समुदाय के बीच गहरे पैठ बनाने वाली पुरुष सत्तावादी सोच के ख़तरों को उजागर करती है.

रोहिंग्या समुदाय के बीच महिलाएं आम तौर पर पर्दे में रहती हैं. न तो उन्हें कुछ बोलने का हक़ होता है और न ही वो परिवार से जुड़े बड़े फ़ैसलों में कोई ख़ास भूमिका निभा पाती हैं. महामारी के दौरान लैंगिक भेदभाव के इस समीकरण में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है.

आज भी फ़ैसले लेने के अधिकार पर पूरी तरह से पुरुषों का दबदबा और नियंत्रण है. इससे महिलाओं और लड़कियों को अपनी सेहत या दूसरी ज़रूरत की चीज़ें हासिल करने के अधिकार सीमित हो जाते हैं. ऐसे में अगर सच कहा जाए तो महिलाएं, कोविड-19 की महामारी के दौरान अपनी ज़िंदगी को चलाने के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण निर्णय भी नहीं ले पा रही हैं.

महिलाओं और पुरुषों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में घरेलू हिंसा धीरे-धीरे एक सामान्य बात बनती जाती है. आमदनी का कोई नियमित ज़रिया न होने के कारण, अपने देश को वापसी के प्रयास नाकाम रहने, भविष्य को लेकर अनिश्चितता के कारण पुरुष बाहर जो खीझ और नाकामी झेलते हैं, वो उस खीझ और असफलता को घर आकर अपनी बीवियों और बच्चों पर निकालते हैं. कोविड-19 की महामारी ने महिलाओं और बच्चों के साथ हिंसा की इस समस्या को और बढ़ा दिया है. काम न होने के कारण पुरुष अक्सर घर पर ही रहते हैं और महिलाओं से ये अपेक्षा की जाती है कि वो बीवियां होने के कारण मर्दों का आदर सम्मान करें और बिना कोई सवाल किए या इनकार किए उनका हुक्म मानें. यहां ये भी देखा गया है कि बाल विवाह की समस्या, लड़कियों की पढ़ाई रोक कर उन्हें रोज़ी-रोटी की सेवाओं में लगाने की समस्या भी बढ़ रही है.

किसी भी अन्य समुदाय की तरह, रोहिंग्या समुदाय के बीच भी महिलाओं को बचपन से ही ये समझा दिया जाता है कि उनके साथ होने वाली किसी भी तरह की हिंसा, ख़ास तौर से जो वो अपने घर में झेलती हैं, वो एक ‘छुपाने वाली बात’ है. इसका नतीजा ये होता है कि महिलाएं न तो अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार पर सवाल उठाती हैं और न ही इसके ख़िलाफ़ कुछ कह पाती हैं. महिलाओं को अपने साथ होने वाले बुरे बर्ताव का आदी बना दिए जाने के कारण, वो खुलकर अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में कुछ कह नहीं पातीं. न ही वो उस हिंसा के ख़िलाफ़ शिकायत कर पाती हैं, जिसकी वो शिकार बनती हैं. हालांकि, ऐसे बहुत से संगठन हैं जो रोहिंग्या महिलाओं और बच्चों की मदद के लिए काम कर रहे हैं, उनसे हमदर्दी रखते हैं और शरणार्थी शिविरों के भीतर रहकर उन शरणार्थियों की मदद की कोशिश करते हैं.

अब समय आ गया है कि महिलाओं और लड़कियों की मदद के लिए चलाए जा रहे ये कार्यक्रम फिर से शुरु किए जाएं. इसके साथ साथ माझियों के साथ संवाद बढ़ाने की भी ज़रूरत है, जिससे कि बुरे बर्ताव को चुनौती दी जा सके और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार व चोट पहुंचाने की गतिविधियों की रोकथाम की जा सके.

शरणार्थियों ने इन मददगारों के साथ रहना और अपने अनुभव साझा करना सीख लिया है. उन्हें इन संगठनों से अपने अधिकारों और अपनी समस्याओं का निदान प्राप्त होता है. फिर भी इस महामारी के कारण मददगार संगठनों ने अपने दफ़्तर बंद कर दिए हैं. इसी वजह से हिंसा और दुर्व्यवहार की शिकार होने वाली महिलाओं की मनोवैज्ञानिक और सामाजिक ज़रूरतें फिलहाल पूरी नहीं हो पा रही हैं.

इसके अतिरिक्त, रोहिंग्या समुदाय के बीच शक्ति संतुलन के मौजूदा ढांचे में जहां पुरुषों का प्रभुत्व है, वहां महिलाओं के लिए अपनी इन समस्याओं का निदान तलाश पाना बेहद मुश्किल है. रोहिंग्याओं के बीच, सामुदायिक स्तर पर सत्ता के शीर्ष पर जो लोग बैठे हैं, उन्हें माझी कहा जाता है. अक्सर ये सामुदायिक प्रमुख पुरुष ही होते हैं. ये पुरुष अपने लोगों के बीच बड़ा सम्मान पाने वाले होते हैं, जो कई तरह के फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं. इनमें किसी की निजी समस्या का समाधान करने लेकर अपने समाज के विवादों का समाधान और अन्य सामुदायिक मसलों को हल करने जैसे निर्णय शामिल हैं. इन पुरुषों को पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं का वाहक माना जाता है, और महामारी के प्रकोप के बावजूद ये पुरुषों के वर्चस्व को आगे बढ़ाने का सिलसिला जारी रखे हुए हैं.

बाहरी किरदारों की बढ़ती हुई भूमिका

बांग्लादेश की सरकार, मानवीय सहायता संगठनों के साथ मिलकर ये कोशिश कर रही है कि रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों में रह रही महिलाओं और लड़कियों से संवाद स्थापित करें और उनकी मदद के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम उन तक पहुंचाएं. पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए लैंगिक समानता पर ज़ोर को काफ़ी प्राथमिकता दी जा रही है. यौन उत्पीड़न और शोषण की रोकथाम के लिए बना नेटवर्क (PSEA) लगातार शरणार्थी शिविरों के अंदर अलग अलग क्षेत्रों में सक्रियता से काम कर रहा है, जिससे कि महिलाओं को सुरक्षित रहते हुए और आगे चल कर हिंसा से बचते हुए अपनी शिकायत अधिकारियों को पहुंचाने के अवसर मिल सकें.

ऐसा करने के लिए नए-नए तरीक़े अपनाए जा रहे हैं, जिससे महिलाओं और लड़कियों को मनोवैज्ञानिक सहयोग और जीवन जीने के हुनर सिखाए जा रहे हैं. ये प्रयास कोविड-19 से मुक़ाबले के व्यापक अभियान का ही हिस्सा हैं. महामारी के दौरान, प्रशिक्षित महिलाओं और किशोर वयस्क लड़कियों को अपने कौशल विकास को बनाए रखने में आसानी हो रही है. अभी ये महिलाएं और लड़कियां अपने समुदायों और परिवारों के लिए मास्क सीने का काम कर रही हैं.

वैसे तो ऐसे प्रयासों ने बहुत सी महिलाओं को सशक्त करने का काम किया है. लेकिन आवाजाही में प्रतिबंध अभी भी लागू ही हैं. सरकार द्वारा चलाई जा रही सेवाओं की उपलब्धता, जैसे कि अस्पताल सेवा पर आधारित वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर, महिलाओं के लिए पुलिस हेल्प डेस्क और महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा से जुड़ी सेवाओं के एंट्री प्वाइंट जैसी सेवाओं के बावजूद, महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल बनाने और लैंगिकता पर आधारित हिंसा से उनका बचाव कर पाने के प्रयासों में अभी भी बहुत सी ऐसी कमियां हैं, जिन्हें दूर किया जाना बाक़ी है. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि कोविड-19 के कारण ऐसी सेवाओं के कर्मचारियों की कमी हो गई है. इससे भी इतर बात ये है कि, कर्मचारियों का प्रशिक्षण भी एक महत्वपूर्ण आयाम है, क्योंकि हिंसा की शिकायत से जुड़े मामलों में ऐसा देखा गया है कि अक्सर इससे जुड़ी जानकारियां किसी तीसरे पक्ष को दे दी गईं. ऐसी घटनाओं से महिलाओं और लड़कियों के घरों में और अधिक हिंसा का शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है.

इस समय रोहिंग्या समुदाय के शरणार्थी शिविरों में आवश्यक गतिविधियों का संचालन सुनिश्चित करने के लिए कम से कम 6.4 करोड़ डॉलर की ज़रूरत है.

इसके अतिरिक्त, कोविड-19 का प्रकोप फैलने के बाद, सामुदायिक स्तर पर लैंगिकता पर आधारित हिंसा की रोकथाम और पीड़ितों की मदद व जागरूकता फैलाने के कार्यक्रमों पर महामारी से निपटने के अभियान को तरज़ीह दे दी गई थी. अब समय आ गया है कि महिलाओं और लड़कियों की मदद के लिए चलाए जा रहे ये कार्यक्रम फिर से शुरु किए जाएं. इसके साथ साथ माझियों के साथ संवाद बढ़ाने की भी ज़रूरत है, जिससे कि बुरे बर्ताव को चुनौती दी जा सके और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार व चोट पहुंचाने की गतिविधियों की रोकथाम की जा सके.

विचार के लिए कुछ विषय

अधिकारियों के लिए ज़रूरी है कि वो लगातार स्वयं को याद दिलाते रहें कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और यौन शोषण की शिकायतों में कमी का अर्थ ये नहीं है कि इससे लैंगिकता पर आधारित  हिंसक घटनाओं में कमी आ गई है. महिलाओं को अपने आपको बचाते हुए, अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार की शिकायत करने के सुरक्षित मौक़े मिल सकें, इसके लिए नए तरह के प्रयास करने की ज़रूरत है. इस मामले में और सक्रियता दिखाने के लिए वित्तीय मदद की व्यवस्था करना भी बहुत आवश्यक है. इस समय रोहिंग्या समुदाय के शरणार्थी शिविरों में आवश्यक गतिविधियों का संचालन सुनिश्चित करने के लिए कम से कम 6.4 करोड़ डॉलर की ज़रूरत है.

वहीं, राष्ट्रीय स्तर पर यौन हिंसा की शिकार महिलाएं जिन्हें बदनामी भी झेलनी पड़ती है, उन्हें किसी तरह का इंसाफ़ पाने की राह में तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करते ही रहना पड़ेगा, क्योंकि राज्य स्तर की क़ानूनी व्यवस्था अपने घर से बेघर लोगों के प्रति वो हमदर्दी का भाव नहीं रखती, जिसकी ज़रूरत है. सरकार की तरफ़ से ऐसी न्यायिक व्यवस्था का निर्माण करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निवेश की ज़रूरत होगी जिससे कि मौजूदा न्यायिक व्यवस्था पर पड़ने वाला दबाव कम हो और लंबित मामलों में कमी लायी जा सके.

हाल ही में हुई घटनाओं के संदर्भ ये आवश्यक है कि सरकार, मानवतावादी संगठनों की मदद से महिलाओं के साथ हिंसा की बढ़ती घटनाओं पर लगाम लगाने की कोशिश करें, क्योंकि इस मसले को अक्सर हाशिए पर धकेल दिया जाता है. अपने घर से बेघर हुए लोगों की संस्कृति और परंपराओं के प्रति संवेदनशील रहते हुए, इन संगठनों की ज़िम्मेदारी ये है कि वो महिलाओं की शिकायतों को गंभीरता से लें, न कि लैंगिक असमानता और पुरुषों के प्रभुत्व को बढ़ावा देने का काम करें. शरणार्थी शिविरों में सक्रिय इन संस्थाओं को चाहिए कि वो महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने को अपनी बुनियादी सेवा का हिस्सा बना लें. इस छायावादी महामारी की रोकथाम के लिए दी जाने वाली सेवाएं ज़रूरी हैं और उन्हें पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए. कोविड-19 की महामारी से निपटने की रणनीति में महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा और यौन शोषण को रोकने को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए. इसके लिए उचित योजना और प्रतिक्रिया देने वाली व्यवस्था के निर्माण की आवश्यकता है.

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