दुनिया भर के कई देशों में, लोकतंत्र और राजनीतिक हिंसा एक-दूसरे का अभिन्न हिस्सा हो सकते हैं. यहां तक कि दुनिया के सबसे आधुनिक लोकतंत्र भी इस बुराई से बचे नहीं हैं. भारत जैसे युवा लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक हिंसा आमतौर पर चुनावी राजनीति से जुड़ी होती है, और कई मौक़ों पर यह कई चरणों में घटित होती है. उदाहरण के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और केरल जैसे राज्यों में चुनावों के दौरान राजनीतिक हिंसा का बहुत लंबा इतिहास है. पश्चिम बंगाल की तो तस्वीर ही अलग है. लंबे समय से उग्रवाद, सामाजिक उथल-पुथल, बड़े पैमाने पर पलायन और राजनीतिक नियंत्रण के लिए हिंसक भीड़ के इस्तेमाल जैसी घटनाओं से घिरे इस पूर्वी राज्य में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में कहीं अधिक स्थानिक लगती है. यह लेख बंगाल में राजनीतिक हिंसा की अनूठी प्रकृति को समझने और उसके स्थायित्व के कारणों को समझने का प्रयास करता है, साथ ही राज्य में लोकतंत्र की गुणवत्ता पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभावों की जांच करता है.
एट्रीब्यूशन: अंबर कुमार घोष और निरंजन साहू, “बंगाल की राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन चुके, वहाँ की ‘राजनीतिक हिंसा’ की अनूठी प्रकृति को समझने का प्रयास,” ओआरएफ़ समसामयिक पेपर नंबर 351, मार्च 2022, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.
प्रस्तावना
भारत के राजनीतिक परिदृश्य में कई स्तरों पर कई तरह के संघर्ष मौजूद हैं, जो, कभी कभी हिंसा की घटनाओं के रूप में उभर कर सामने आते हैं. भारत के पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल की जनसंख्या लगभग 10 करोड़ है[1], यहां राजनीतिक हिंसा का लंबा इतिहास है, जो कई दशकों से चला आ रहा है और जिस ने राज्य की राजनीति पर जटिल और गहरा प्रभाव डाला है. भारत की आज़ादी के बाद से इस राज्य में अलग-अलग राजनीतिक दलों ने अपनी सरकारें बनाई हैं, जिस में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) दो दशकों से भी ज़्यादा समय तक सत्ता में रही है. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट) के नेतृत्व में वाम धड़े ने लगभग तीन दशकों तक अपनी सरकार बनाई और वहीं मौजूदा दौर में ऑल इंडिया तृणुमूल कांग्रेस (टीएमसी) सत्ता पर काबिज़ है. अलग अलग दलों के शासन कालों में, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पों की संस्कृति, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, केवल पिछले कुछ सालों में फली-फूली है. इस के चलते पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की घटनाओं ने इसे भारत में सार्वजनिक नीति के लिहाज़ से सबसे अधिक चर्चित मुद्दा बना दिया है.
भारत के पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल की जनसंख्या लगभग 10 करोड़ है , यहां राजनीतिक हिंसा का लंबा इतिहास है, जो कई दशकों से चला आ रहा है और जिस ने राज्य की राजनीति पर जटिल और गहरा प्रभाव डाला है.
यह लेख पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा के इतिहास और उसकी प्रकृति को समझने का एक प्रयास है, जहां हम इस राज्य में राजनीतिक हिंसा की विलक्षण प्रकृति और दूसरे भारतीय राज्यों में होने वाली हिंसा से यह किस मायने में अलग है इस बात को ले कर विचार करेंगे. इस लेख को कई अलग अलग भागों में बांटा गया है: (i) लोकतांत्रिक राजनीति और हिंसा का संक्षिप्त विवरण; (ii) विभिन्न राजनीतिक दलों के शासन में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की ऐतिहासिक विवेचना (iii) हिंसा की संस्कृति को स्थापित करने वाले प्रमुख कारक (iv) अन्य राज्यों की तुलना में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की विशिष्ट प्रकृति और राज्य के लोकतांत्रिक ढांचे पर इसका प्रभाव.
राजनीतिक हिंसा और लोकतंत्र
लोकतंत्र और हिंसा के बीच एक सहजीवी संबंध है, और यहां तक कि दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्र भी इसे पूरी तरह से ख़त्म करने में असमर्थ रहे हैं. उदाहरण के लिए, 1980 के दशक के अंत से लेकर 2000 के दशक के बीच, पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड, इटली और जर्मनी में वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों चरमपंथी समूहों द्वारा राजनीतिक हिंसा की गतिविधियों को अंजाम दिया गया.[2] हाल के सालों में, दुनिया ने देखा कि किस तरह से यूनाइटेड किंगडम (यूके) में ब्रेक्सिट के मुद्दे,[3] संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) में ब्लैक लाइव्स मैटर[4] आंदोलन और 2020 में अमेरिकी चुनावों[5] को लेकर राजनीतिक हिंसा के वातावरण ने जन्म लिया. हालांकि ये कहा जा सकता है कि अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों में राजनीतिक हिंसा कहीं अधिक स्थानिक यानी किसी एक जगह तक सीमित है.[6] कई मायनें में विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहे और लोकतंत्र को अपनाने के क्रम में आगे बढ़ रहे रहे देश ऐसे हैं, जहां राजनीतिक हिंसा की संस्कृति काफ़ी उग्र और स्थानिक क़िस्म की है, जिस के पीछे राजनीतिक दलों की आपसी प्रतिद्वंदिता, कमज़ोर क़ानूनी संस्थान, क़ानून की मनमानी, और अन्य व्यवस्थात्मक कारक ज़िम्मेदार हैं.[7] चुनावी लाभ हासिल करने के लिए, राजनीतिक प्रभुत्व बनाए रखने के लिए, राज्य के दुर्लभ संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए और लोकतांत्रिक मंचों पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया गया है. ऐसा प्रतीत होता है कि कई लोकतांत्रिक देशों में हिंसा राजनीति में शामिल होने की एक शर्त बन गई है.[8]
“कोई भी समूह हथियार क्यों उठाता है या ऐसा करने वालों का कोई क्यों समर्थन करता है, जबकि उनके पास नागरिक समाज में और संसद में अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अन्याय पर सवाल उठाने और न्याय पर फिर से बातचीत करने का लोकतांत्रिक अधिकार है?”
आदर्श रूप में कहें तो लोकतंत्र को हिंसा को सीमित करने के एक उपकरण के रूप में काम करना चाहिए. जैसा कि राजनीतिक रणनीतिकार नीरा चंडोक का कहना है, “कोई भी समूह हथियार क्यों उठाता है या ऐसा करने वालों का कोई क्यों समर्थन करता है, जबकि उनके पास नागरिक समाज में और संसद में अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अन्याय पर सवाल उठाने और न्याय पर फिर से बातचीत करने का लोकतांत्रिक अधिकार है?” [9] लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे कई मंच होते हैं, जिसके माध्यम से व्यक्ति और समूह अपनी शिकायतों और चिंताओं को व्यक्त कर सकते हैं.[10] जैसा कि हन्ना अरेंड्ट अपनी किताब “ऑन वॉयलेंस” में कहती हैं, लोकतंत्र शासन पद्धति में हिंसा का सहारा लेने का विरोध करता है.[11] अरेंड्ट के लिए, लोकतंत्र में शक्ति संचालन का स्रोत लोगों के एक साथ आना, अपने मुद्दों पर बात करना और साझा लक्ष्यों के प्रति काम करना, और उन लक्ष्यों को पाने के लिए एक-दूसरे को नियमों और प्रक्रियाओं को अपनाने के लिए मनाना. संक्षेप में कहें तो लोकतांत्रिक राजनीति का उद्देश्य लोक व्यवहार के सहयोगी और सहकारी तरीकों को अपनाकर “हिंसा का बहिष्कार” करना है.
हालांकि, वास्तव में, हिंसा लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग हो सकती है. जैसा कि राजनीतिक सिद्धांतकार जॉन श्वार्ज़मेंटल कहते हैं, “अगर हिंसा को राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त करने के उपकरण यानी शारीरिक चोट पहुंचाने या उसका डर दिखाने के तौर पर परिभाषित किया जाता है, तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक क्षेत्र में हिंसक साधनों के प्रयोग (हकीकत में या डर दिखाकर) से विभक्त नहीं किया जा सकता. राज्य और उसके अभिकर्ता कानून तोड़ने वालों पर शारीरिक बल प्रयोग करते हैं; गैर-राज्य समूहों को जब लगता है कि उनके पास बहस और चर्चा के शांतिपूर्ण साधनों के माध्यम से अपने लक्ष्यों को पाने का कोई रास्ता नहीं बचा है, तब वे हिंसा का सहारा लेते हैं.”[12] मुख्य सवाल तो ये है कि क्या हम किसी ऐसे राजनीतिक परिदृश्य की कल्पना कर सकते हैं, जहां राजनीतिक जीवन में हिंसा का कोई स्थान न हो?
ये बहुत दुष्कर जान पड़ता है. पहली बात, राज्य चाहे लोकतांत्रिक हो या अन्य किसी राजनीतिक व्यवस्था पर आधारित हो, वह अक्सर “वैध” तरीकों से हिंसा पर एकाधिकार जमाने की कोशिश करता है. राज्य एक इकाई के रूप में हिंसा के उपयोग पर एकाधिकार प्राप्त करना चाहता है ताकि जनता को एक सीमा तक सुरक्षा मुहैया कराया जा सके (जीवन की सुरक्षा, निजी संपत्ति का अधिकार, जैसा कि हॉब्स की ‘राज्य की प्रकृति’ में वर्णित है). इस प्रक्रिया में, राज्य स्वयं हिंसा का प्रतिनिधि बन जाता है. सत्रहवीं सदी के राजनीतिक दार्शनिक जॉन लॉक ने इसे इस प्रकार वर्णित किया था: राज्य के जिन प्रतिनिधियों को हिंसा को कम और नियंत्रित की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है, वही अक्सर उन लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा का सहारा लेते हैं, जिन्हें वे व्यवस्था का विरोधी समझते हैं. राज्य-आधारित हिंसा का उदाहरण लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के कई देशों में देखने को मिलता है, जहां लोकतंत्र और सामाजिक बदलाव की मांग करने वाले लोकप्रिय एवं क्रांतिकारी जन-आंदोलनों को राज्य की ताकतें बेरहमी से कुचल डालती हैं. अक्सर इसके लिए उन्हें मौजूदा कानूनों से छूट भी मिल जाती है. साथ ही, हिंसक गतिविधियों को दबाने के लिए राज्य हिंसा का इस्तेमाल करता है. लोकतांत्रिक समाजों में भी, सत्ता में बैठे प्रतिनिधि कभी-कभी उन लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा का इस्तेमाल करते हैं, जो लोग सत्ता संरचना को और भी ज़्यादा समावेशी बनाने का प्रयास करते हैं. ऐसा अक्सर वहां देखा जाता है, जहां सैन्य तख्तापलट के बाद या फिर लोकतांत्रिक रास्ते से सत्ता में तानाशाही/फासीवादी ताकतें बैठ जाती हैं.[13]
राजनीतिक हिंसा को आपराधिक हिंसा से अलग परिभाषित किया जाता है, क्योंकि यह व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जाता है. राजनीतिक हिंसा को यहां विशिष्ट नीतियों को चुनौती देने या उनका बचाव करने के रूप में देखा जाता है या फिर अधिकांशतः शारीरिक बल या उसके प्रयोग की धमकी के माध्यम से मौजूदा राजनीतिक शासन को चुनौती दी जाती है
राजनीतिक हिंसा क्या है और यह हिंसा के अन्य रूपों से अलग कैसे है? राजनीतिक वैज्ञानिकों ने राजनीतिक हिंसा को समय, उद्देश्यों, अभिकर्ताओं और गतिविधियों [14] को देखते हुए और उसे हिंसा के अन्य रूपों (जैसे आपराधिक हिंसा) से अलग करते हुए परिभाषित किया है. इसके अलावा, राजनीतिक हिंसा के भी अलग-अलग प्रकार हैं, जैसे चुनाव से पहले या उसके बाद होने वाली हिंसा.[14] राजनीतिक सिद्धांतवादी जॉन श्वार्ज़मैंटेल निम्नलिखित शब्दों में राजनीतिक हिंसा को परिभाषित करते हैं:
“राजनीतिक हितों को प्राप्त करने के लिए शारीरिक बल या उसकी धमकी देने का प्रयोग करना. चाहे राज्य के प्रतिनिधि हों या राज्य का विरोध करने वाले गैर-राज्य अभिकर्ता हों, हिंसा या हिंसा की धमकी देने वाले जाने पहचाने ताकतवर लोग होते हैं. राजनीतिक हिंसा को हम यहां राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति में बदलाव लाने के लिए या अपने मौजूदा स्वरूप में बनाए रखने के लिए (जब राज्य के प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है) शारीरिक बल के प्रयोग (वास्तविक या धमकी) के रूप में समझते हैं. इस प्रकार राजनीतिक हिंसा को आपराधिक हिंसा से अलग परिभाषित किया जाता है, क्योंकि यह व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जाता है. राजनीतिक हिंसा को यहां विशिष्ट नीतियों को चुनौती देने या उनका बचाव करने के रूप में देखा जाता है या फिर अधिकांशतः शारीरिक बल या उसके प्रयोग की धमकी के माध्यम से मौजूदा राजनीतिक शासन को चुनौती दी जाती है.”[15]
हालांकि यह परिभाषा थोड़ी संकीर्ण है, क्योंकि यह अपनी परिभाषा में राजनीतिक हिंसा के अन्य प्रकारों, ख़ासकर व्यवस्थाजन्य हिंसा को शामिल नहीं करती (जैसे कि किसी विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में निहित हिंसा). इस परिभाषा से पता चलता है कि राज्य (विशेष अभिकर्ताओं के माध्यम से काम करना) भी हिंसक हो सकते हैं; हिंसा केवल राज्य-विरोधी या गैर-राज्य अभिनेताओं और आंदोलनों का संरक्षक नहीं होता. इसलिए, राजनीतिक हिंसा केवल उदार लोकतंत्रों की संस्थाओं और प्रक्रियाओं के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं जनतंत्रीकरण की प्रक्रियाओं के लिए भी एक चुनौती प्रस्तुत करती है.[16]
भारत के संदर्भ में राजनीतिक हिंसा
जबकि अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों में राजनीतिक हिंसा पर काफ़ी सारा साहित्य और रिसर्च मौजूद है,[17] लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. हालिया दिनों में, भारत में राजनीतिक हिंसा से संबंधित ज़्यादातर शोध सांप्रदायिक दंगों, जातीय संघर्षों और विद्रोहों पर किया गया है.[18] इसके बावजूद कि चुनावी झड़प और दूसरी तरह की हिंसाओं का भारत में लंबा इतिहास रहा है. हिंसा की ऐसी बड़ी घटनाएं बिहार, गुजरात, उत्तर प्रदेश, केरल, झारखंड और पश्चिम बंगाल में हुई हैं.
उत्तर प्रदेश और बिहार ऐसे राज्य हैं, जहां के जिलों पर आपराधिक माफियाओं का नियंत्रण है, और दूसरे राजनीतिक दलों के प्रतिद्वंदियों, या यहां तक कि अपने ही दल के प्रतिद्वंदियों को ख़त्म करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जाता है. गुजरात, उत्तर प्रदेश, और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा की भी कई घटनाएं हुई हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि इनके पीछे राजनीतिक ताकतें थीं.[19] कई राज्यों, ख़ासकर राजस्थान, उत्तर प्रदेश, और बिहार में अक्सर ही जातीय हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं. भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, जम्मू और कश्मीर और पंजाब राज्यों में हिंसक जातीय, धार्मिक और वैचारिक विद्रोही आंदोलनों के अलावा और पूर्वी और मध्य भारत के कुछ राज्यों में माओवादी विद्रोह होते रहे हैं.[20]
इस अध्ययन के अनुसार राज्य में हिंसा की मौजूदा प्रकृति को पूरी तरह से ‘राजनीतिक’ कहा जा सकता है, क्योंकि हिंसा का इस्तेमाल मुख्य रूप से राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा जमाने और उस पर अपनी पकड़ बनाए रखने किया गया है. यह भारत के अन्य राज्यों में हिंसा से अलग है, जिसमें सामाजिक-सांस्कृतिक, वैचारिक या आर्थिक कारक बड़े पैमाने पर राजनीतिक ध्रुवीकरण के कारण हैं.
भारत की विविधता को देखते हुए इस लेख के संदर्भ में ‘राजनीतिक हिंसा’ शब्द को परिभाषित करना महत्वपूर्ण है, जहां सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों की मिली-जुली परिस्थितियों के कारण हिंसक संघर्षों की ज़मीन तैयार होती है, जिसे बदले में राज्य और उसके संस्थानों द्वारा और ज़्यादा मजबूती प्रदान की जाती है. जैसा कि पहले कहा जा चुका है, राजनीतिक हिंसा एक ऐसी अवधारणा है, जिसे समय, प्रयोजन, अभिकर्ताओं और गतिविधियों के आधार पर देखा जाना चाहिए. इसके अलावा भारत में राजनीतिक हिंसा की प्रकृति और उसके आयामों को सीमित खांचों में बांटना बहुत मुश्किल है. अलग-अलग रूपों में ही सही लेकिन चाहे किसी भी प्रकार की हिंसा हो (जातीय हिंसा, चरमपंथ, सांप्रदायिकता, तस्करी, या आर्थिक अपराध), सभी प्रकार की हिंसा राजनीतिक कारकों से प्रभावित होती हैं. राजनीतिक हिंसा अन्य प्रकार की हिंसात्मक गतिविधियों से गहरा संबंध रखती है,[21] जैसा कि पश्चिम बंगाल के मामले में है.
बहरहाल, पश्चिम बंगाल के संदर्भ में हिंसा राज्य के राजनीतिक इतिहास और राजनीतिक संस्कृति से भी जुड़ी हुई है. इस अध्ययन के अनुसार राज्य में हिंसा की मौजूदा प्रकृति को पूरी तरह से ‘राजनीतिक’ कहा जा सकता है,[22] क्योंकि हिंसा का इस्तेमाल मुख्य रूप से राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा जमाने और उस पर अपनी पकड़ बनाए रखने किया गया है. यह भारत के अन्य राज्यों में हिंसा से अलग है, जिसमें सामाजिक-सांस्कृतिक, वैचारिक या आर्थिक कारक बड़े पैमाने पर राजनीतिक ध्रुवीकरण के कारण हैं.[23] हिंसा का यह रूप पश्चिम बंगाल को देश के अन्य राज्यों से स्पष्ट रूप से अलग करता है. इस बात की पुष्टि के लिए यह लेख न केवल उन घटनाओं, जहां लोगों की मौत हुई या वे घायल हुए और उनकी संपत्ति नष्ट हुई, बल्कि राज्य के राजनीतिक गुर्गों द्वारा की गई हिंसा और अन्य गतिविधियों का भी संज्ञान लेगा. यहां राजनीतिक हिंसा में मतदाताओं और चुनाव अधिकारियों को चुनावों में हेरफेर करने के लिए डराने-धमकाने, बाहुबल से चुनावी बूथ पर कब्ज़ा करने, प्रतिद्वंद्वी पार्टियों का समर्थन करने वाले मतदाताओं को वोट देने से रोकने, या चुनावी परिणामों को प्रभावित करने के लिए मतदाताओं को ख़ास चुनाव चिन्ह के पक्ष में जबरन प्रॉक्सी वोट डालने जैसी कार्रवाईयां शामिल हैं.[24] इस लेख में दृश्य और अदृश्य, दोनों ही क़िस्म की संरचनात्मक हिंसा पर बातचीत की जाएगी, जैसा कि जोहान गाल्टुंग द्वारा प्रतिपादित किया गया था.[25]
ख़ासकर जब राजनीतिक हिंसा को परिभाषा में नीयत और समय दोनों मायने रखते हैं, ऐसे में यह लेख हिंसा को इससे आगे बढ़ते हुए उसकी बारंबारता और उसकी तीव्रता को देखते हुए विभाजित करेगा. बड़े पैमाने पर सुनियोजित ढंग से होने वाली हिंसात्मक गतिविधियों, जहां मरने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा होती है, जैसे दंगों को कभी-कभार होने वाली हिंसा के रूप में देखा जाता है. इन घटनाओं पर अधिकांश लोगों की नज़र होती है. वहीं दूसरी ओर, स्थानीय स्तर पर होने वाली घटनाएं, जहां मरने वालों या घायलों की संख्या कम होने के कारण लोग उसे “रोजमर्रा” की हिंसात्मक घटनाओं के रूप में देखते हैं.[26] बंगाल में प्रतिद्वंदी दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा की जाने वाली राजनीतिक हिंसा को दूसरी श्रेणी में रखा जा सकता है, जहां पिछले पांच दशकों से ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर हत्या, उत्पीड़न और धमकियां दी जा रही हैं, और उन्हें उन्हें ‘रोजमर्रा की हिंसा’ के रूप में सामान्य कर दिया गया है.
हिंसा के स्तर की पहचान
भारत में राजनीतिक हिंसा के सभी मामलों का लेखाजोखा रखना और उसकी सटीक जानकारी रखना एक कठिन चुनौती है. पुलिस प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज कराने से जुड़ी हिचक को देखते हुए कहा जा सकता है कि हिंसात्मक गतिविधियों के असल आंकड़े आधिकारिक आंकड़ों की तुलना में काफ़ी अधिक होंगे.[27] राजनीतिक प्रभाव पुलिस को ऐसे मामले दर्ज करने से रोकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के डेटा संग्रह में भी गंभीर कमियां हैं.[28] अक्सर यह देखा जाता है कि सत्ताधारी ताकतों और विपक्षियों द्वारा हिंसा की घटनाओं को लेकर अलग-अलग जानकारियां दी जाती हैं. फिर भी, एनसीआरबी के तहत “राजनीतिक कारणों से हुई हत्याएं” की श्रेणी में दर्ज आंकड़ों से हम विभिन्न राज्यों में राजनीतिक हिंसा के स्तर का अनुमान लगा सकते हैं.
स्वतंत्रता के बाद, 1967 में नक्सलबाड़ी विद्रोह हुआ, जो राज्य प्रशासन को उखाड़ फेंकने के लिए कट्टरपंथी कम्युनिस्ट ताकतों द्वारा किया गया एक प्रयास था, और जिसमें विद्रोहियों द्वारा की गई हिंसा और पुलिस द्वारा अपनाई गई दमनात्मक कार्रवाईयों के कारण कई लोगों की जानें गईं.
2021 की नवीनतम एनसीआरबी रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में देश में सबसे अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं और केरल, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में हिंसात्मक गतिविधियों के दरें उल्लेखनीय हैं. संख्या के आधार पर देखें तो सबसे ज़्यादा हत्याएं उत्तर प्रदेश और बिहार में हुई हैं. राजनीतिक हिंसा पर टाइम्स ऑफ इंडिया की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन दशकों में केरल में 200 से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं, जिसके पीछे वाम दलों और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच पितृ संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बीच प्रतिद्वंद्विता है.[29], [30]
तालिका 1. सबसे अधिक राजनीतिक हत्याओं वाले राज्य (2010-2019)
पश्चिम बंगाल में लंबे समय से दलगत विचारधाराओं के आधार पर उच्च स्तर की हिंसात्मक घटनाएं होती रही हैं. एनसीआरबी के अनुसार 1999 से 2016 के बीच पश्चिम बंगाल में हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. राज्य में हिंसा के नवीनतम दौर के पीछे वर्तमान में सत्तारूढ़ दल टीएमसी और मुख्य विपक्षी दल, भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच का संघर्ष है.[31] एनसीआरबी के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से टीएमसी और भाजपा कार्यकर्ताओं को मिलाकर कुल 47 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं, जिनमें से 38 दक्षिण बंगाल में हुई हैं.[32] कई विश्लेषकों का मानना है कि मौजूदा समय में राजनीतिक हिंसा में हुई वृद्धि का कारण भाजपा का सत्तारूढ़ टीएमसी को सत्ता से बेदखल करने के लिए आक्रामक दबाव है.[33]
राज्य में 2021 के विधानसभा चुनावों के दौरान दोनों दलों के शीर्ष नेता भी इससे अप्रभावित नहीं रहे.[34] हर पार्टी ने अपने नेताओं पर कथित हमलों के लिए दूसरे को दोषी ठहराया, और दोनों ही मामलों में, अपने ऊपर लगे आरोपों को दूसरे पक्ष द्वारा राजनीतिक नौटंकी कहकर खारिज कर दिया गया. 2 मई 2021 को विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद से राज्य में कई जगहों पर हिंसा भड़क गई. इस बार भी, टीएमसी और बीजेपी ने एक-दूसरे पर आरोप लगाए. टीएमसी ने तीसरी बार ये चुनाव जीता, वहीं बीजेपी विधानसभा में अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने में तो सफ़ल रही लेकिन टीएमसी को सत्ता से बेदखल करने में असफ़ल रही.
हालांकि, पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा चुनाव से पहले या चुनाव के बाद की हिंसा तक सीमित नहीं है. यह रोज होने वाली हिंसा या हिंसा की धमकियों की घटनाएं हैं, और कई मामलों में राज्य की मूक सहमति या सहभागिता भी शामिल है. राजनीतिक हिंसा की यह संस्कृति अपनी प्रकृति में विशिष्ट है.
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का संक्षिप्त इतिहास
बंगाल में राजनीतिक हिंसा की ऐतिहासिक विरासत है. विश्लेषकों का मानना है कि इस हिंसा की शुरुआत स्वतंत्रता-पूर्व राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, ख़ासकर 1905 में अंग्रेजों द्वारा बंगाल विभाजन के फैसले के परिणामस्वरूप लोगों की प्रतिक्रिया से हुई.[35] इस विभाजन के कारण 20वीं सदी की शुरुआत में राज्य में एक क्रांतिकारी आंदोलन का जन्म हुआ. अनुशीलन समिति और जुगांतर जैसी गुप्त संस्थाओं ने औपनिवेशिक शासकों के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह शुरू किया. राज्य में सांप्रदायिक दंगे भी हुए, जैसे कि 1946 का कलकत्ता दंगा, और 1946-1947 का तेभागा आंदोलन, जो एक हिंसक किसान विद्रोह था.[36] स्वतंत्रता के बाद, 1967[37] में नक्सलबाड़ी विद्रोह हुआ, जो राज्य प्रशासन को उखाड़ फेंकने के लिए कट्टरपंथी कम्युनिस्ट ताकतों द्वारा किया गया एक प्रयास था, और जिसमें विद्रोहियों द्वारा की गई हिंसा और पुलिस द्वारा अपनाई गई दमनात्मक कार्रवाईयों के कारण कई लोगों की जानें गईं.[38]
कांग्रेस बनाम वामपंथी: ‘आए दिन होने वाली हिंसा’ को संस्थागत स्वरूप देना
1960 के दशक के अंत में पश्चिम बंगाल की राजनीति में वाम मोर्चा (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी के नेतृत्व में पार्टियों का गठबंधन) के एक ताकतवर दल के रूप में उभरा, जिसके कारण राजनीतिक हिंसा की संस्कृति स्थापित हुई. वाम मोर्चे ने जैसे-जैसे कांग्रेस के प्रभुत्व को चुनौती देना शुरू किया, दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें रोजमर्रा की घटनाएं बन गईं. लोगों के जेहन में 17 मार्च 1970 को पूर्व बर्धमान जिले में हुए सैनबाड़ी नरसंहार, जहां कांग्रेस कार्यकर्ताओं की हत्या की गई, और 27 फरवरी 1971 को कोलकाता में ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के अध्यक्ष हेमंत बसु की हत्या से जुड़ी यादें आज भी ताजा हैं.[39] इन घटनाओं ने ‘बंदूक संस्कृति’ की नींव रखी.[40]
वाम मोर्चा सरकार के शासनकाल में सार्वजनिक वितरण प्रणाली बड़ी तेजी से दल आधारित सेवा में तब्दील हो गई. सरकारी सहायता कार्यक्रमों के दौरान और वित्तीय अनुदान देते समय सीपीआई (एम) के जनाधार वाले गांवों को अब प्राथमिकता दी जाती थी.
1972 के विधानसभा चुनावों में, दो विपक्षी पार्टियों के गठबंधन वाली सरकार, जिसमें वाम मोर्चा दल भी शामिल थे, के संक्षिप्त शासनकाल के बाद दोबारा सत्ता लौट आई.[41] उसके बाद से कांग्रेस पर ताकत के ज़ोर पर चुनाव जीतने, विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं को चुनावी क्षेत्रों से बेदखल करने, पुलिस और सरकारी संस्थाओं की सहायता से भय का माहौल खड़ा करने और व्यापक पैमाने पर चुनावी धांधलियां करने का आरोप लगाया जाने लगा.[42] 1972 और 1977 के बीच, राज्य राजनीतिक हिंसा से जुड़ी हर गतिविधियों से मुक्त रहा लेकिन सत्तारूढ़ कांग्रेस ने किसी भी राजनीतिक विपक्ष को स्वतंत्र रूप से कार्य करने नहीं दिया.[43]
सीपीआई (एम) का उदय और राजनीतिक उपकरण के रूप में राजनीतिक हिंसा का उपयोग
1977 के विधानसभा चुनावों के बाद जब सीपीआई (एम) सत्ता में आई, तब उसने हिंसा के संबंध में कांग्रेस के पदचिन्हों पर चलने का रास्ता अपनाया. वास्तव में, ग्रामीण क्षेत्रों में ‘मुक्ति’ सुधार उपायों को लागू करने के अलावा, इस सरकार ने कांग्रेस की तुलना में और भी अधिक संगठित तरीके से विपक्ष का दमन किया.[44] इतना ही नहीं इसने ग्रामीण क्षेत्रों में सुधार की एक श्रृंखला की शुरुआत की, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासी निकायों, पंचायतों को सशक्त बनाने और उन्हें पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराना शामिल था.[45] जल्द ही पंचायतें प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा का अहम हिस्सा बन गईं,[46] जहां पंचायतों की प्रशासनिक और आर्थिक ताकत उनके राजनीतिक प्रभुत्व का स्रोत बन गईं. सीपीआई (एम), जो काफ़ी संगठित और संरचना-आधारित राजनीतिक दल था, उसने अपने दलगत ढांचे का इस्तेमाल पंचायतों पर कब्ज़ा जमाने के लिए किया. इसने ग्रामीण मतदाताओं पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली.[47] इसके कारण किसी भी राजनीतिक दल के लिए राज्य में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए पंचायतों पर नियंत्रण स्थापित करना सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बन गया.
वाम सरकार ने “ऑपरेशन बरगा” नामक एक भूमि सुधार अभियान भी शुरू किया जिसमें आधिकारिक तौर पर भूमि अभिलेखों में बटाईदारों को पंजीकृत करना (केवल जमींदारों को पहले पंजीकृत किया गया था) और भूमिहीनों के बीच भूमि के कुछ हिस्से का वितरण करना शामिल था.[48] इससे वामपंथी सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में निम्न वर्गीय आबादी (जिनमें 1980 के दशक में राज्य की 67 प्रतिशत से अधिक आबादी थी) के बीच अपना जनाधार मज़बूत करने में मदद मिली.[49]
आगे चलकर जब, जनसंख्या में तेज़ी से हो रही वृद्धि के कारण आर्थिक और भूमि संसाधनों पर बोझ बढ़ने लगा, कृषि ढांचे में बदलाव आया और इसके साथ ही पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थियों की संख्या बढ़ने लगी,[50] वैसे-वैसे ग्रामीण क्षेत्रों की सरकार द्वारा दी जाने वाली सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं पर निर्भरता और ज़्यादा बढ़ गई. वाम मोर्चा सरकार के शासनकाल में सार्वजनिक वितरण प्रणाली बड़ी तेजी से दल आधारित सेवा में तब्दील हो गई. सरकारी सहायता कार्यक्रमों के दौरान और वित्तीय अनुदान देते समय सीपीआई (एम) के जनाधार वाले गांवों को अब प्राथमिकता दी जाती थी. राजनीति विज्ञानी पार्थ सारथी बनर्जी का कहना है कि “सरकारी सुधार कार्यक्रमों को पार्टी-कार्यक्रमों के रूप में पेश किया जा रहा था, जिसका लक्ष्य केवल पार्टी से जुड़े लोगों को ही लाभ पहुंचाना था. पार्टी संगठन को मज़बूत करने के लिए पंचायतों की पूंजी का भी इस्तेमाल किया गया.”[51]
बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक दलों के केंद्रीकृत प्रभुत्व को देखते हुए एक दूसरे बड़े राजनीति विज्ञानी द्वैपायन भट्टाचार्य ने बंगाली समाज के पूर्ण राजनीतिकरण की प्रक्रिया को समझाने के लिए “दलगत समाज (पार्टी सोसायटी)” नामक एक नया शब्द ईजाद किया.
राजनीति विज्ञानी पार्थ चटर्जी का कहना है कि सीपीआई (एम) (या उसका कोई सहयोगी दल) पश्चिम बंगाल में ग्रामीण समाज की व्यापक पहचान बन गया था. वह कहते हैं, “हर कोई जानता है कि भारत में लोकतंत्र की अपनी कुछ सामान्य विशेषताएं होने के बावजूद, क्षेत्र एवं राज्य-विशेष में लोकतांत्रिक राजनीति की अपनी विशिष्ट प्रथाएं और आचरण हैं. पश्चिम बंगाल में ‘पार्टी’ से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं है. वास्तव में राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में न परिवार, न जाति, न नातेदारी, न धर्म, न बाज़ार बल्कि ‘पार्टी’ प्राथमिक संस्था है. यह वह संस्था है, जो अपवादों को छोड़कर, हर तरह की सामाजिक गतिविधियों पर अपना नियंत्रण रखती है. यह पुराने और नए जमाने के बीच का सबसे बड़ा फ़र्क है. हर दूसरी सामाजिक संस्थाओं जैसे कि जमींदार का घर, जाति परिषद, धार्मिक सभा, क्षेत्रीय संस्थाएं, स्कूल, खेल समूह, व्यापारी संघ आदि को या तो समाप्त कर दिया गया है या फिर पार्टी के अधीनस्थ कर दिया गया है. बिना किसी राजनीतिक दल के ग्रामीण जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती.” बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक दलों के केंद्रीकृत प्रभुत्व को देखते हुए एक दूसरे बड़े राजनीति विज्ञानी द्वैपायन भट्टाचार्य ने बंगाली समाज के पूर्ण राजनीतिकरण की प्रक्रिया को समझाने के लिए “दलगत समाज (पार्टी सोसायटी)” नामक एक नया शब्द ईजाद किया.[52]
जैसे-जैसे सीपीआई(एम) की पश्चिम बंगाल की राजनीति पर पकड़ मज़बूत होती गई, और राज्य और पार्टी के बीच का फ़र्क धूमिल होने लगा, वैसे-वैसे असहमति की आवाज़ों या विरोध को हिंसा और हिंसा की धमकियों के ज़रिए दबाया जाने लगा, और यह हिंसात्मक गतिविधियां रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा हो गईं. सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं द्वारा विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को अक्सर परेशान किया जाता था, उनके घरों को जला दिया जाता था, या फिर उनकी हत्या कर दी जाती थी. यहां तक कि सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल दलों के कार्यकर्ताओं के बीच भी झड़पें हुईं, क्योंकि सीपीआई(एम) न केवल विपक्षी दलों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी बल्कि रिवॉल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) जैसे छोटे दलों पर भी अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करना चाहती थी.
सीपीआई (एम) इतनी ज़्यादा शक्तिशाली हो गई थी कि पार्टी हर स्तर पर भ्रष्टाचार में संलिप्त हो गई थी, और इसी तरह पंचायत नेतृत्व भी भ्रष्टाचार का शिकार हो गया. धीरे-धीरे निम्न वर्गीय ग्रामीण समाज के एक हिस्से का पार्टी के प्रति मोहभंग होने लगा. जबकि सरकारी योजनाओं के लाभार्थी पार्टी का मज़बूत आधार थे, और उनके ज़रिए विपक्षी पार्टियों को दबाया जाता था लेकिन जो लोग इन योजनाओं के दायरे से बाहर थे या छूट गए थे, उन्होंने अपना हिस्सा पाने के लिए दूसरी पार्टियों का सहारा लिया.[53] तीन दशकों तक इस नीति को अपनाकर वाम मोर्चे ने दलगत राजनीति के अनुसार पश्चिम बंगाल के ग्रामीण समाज का ध्रुवीकरण किया. यहां तक कि राजनीतिक रूप से विरोधी परिवारों के बीच वैवाहिक संबंधों के उदाहरण भी बड़ी मुश्किल से दिखाई पड़ते थे.[54]
राज्य पुलिस भी, अक्सर विपक्षी दलों को दबाने और सत्तारूढ़ वाम मोर्चे की ज्यादतियों को हरी झंडी देने में भागीदार थी. कांग्रेस की युवा शाखा, यूथ कांग्रेस, ने 21 जुलाई 1993 को कोलकाता के एस्पलेनेड में विरोध प्रदर्शन किया, जिस पुलिस ने गोलियां चला दीं, जिसमें 13 लोगों की मौत हो गई. वाम शासन के दौरान हुई हिंसा के अन्य उदाहरणों में निम्न घटनाएं भी शामिल हैं: 1979 के जनवरी महीने की आख़िर में हुआ मारीचझापी नरसंहार मामला,[55] पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों, जो एक वन अभ्यारण्य में बने शिविर में ठहरे हुए थे, पर पुलिस ने हमला किया और कई लोग मारे गए;[56],[57] एक हिंदू पंथ आनंद मार्ग के अनुयायी 17 संन्यासियों को कोलकाता में 30 अप्रैल 1982 को कथित तौर पर माकपा कार्यकर्ताओं ने मौत के घाट उतार दिया;[58] और एक बार फिर से 27 जुलाई 2000 को माकपा कार्यकर्ताओं द्वारा बीरभूमि जिले के सुचपुर गांव के 11 भूमिहीन मुस्लिम मजदूरों का कत्ल कर दिया गया.
चुनावी परिणाम आने के बाद राज्य में एक बार फिर से हिंसा भड़क गई. हालांकि बीजेपी ने दावा किया कि टीएमसी द्वारा किए गए हमलों में उसके 14 कार्यकर्ता मारे गए, वहीं टीएमसी का कहना था कि बीजेपी ने उसके 3 कार्यकर्ताओं की हत्या की.
वाम मोर्चे के शासनकाल में हिंसा की सबसे बड़ी घटना पुरबा मेदिनीपुर जिला के नंदीग्राम गांव में हुई. औद्योगिक लाभों को मद्देनजर रखते हुए भूमि अधिग्रहण के सरकारी फैसले को लेकर असंतोष के वातावरण ने जन्म लिया, जहां 2007-08 में माकपा कार्यकर्ताओं और टीएमसी के समर्थन वाले भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के बीच हुई झड़प और पुलिस की गोलियों के कारण 50 से ज़्यादा लोगों की जानें चली गईं.[59][60] यह घटना राज्य की राजनीति में एक निर्याणक मोड़ साबित हुई, और इसके कारण वाम मोर्चे की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट आई. आखिरकार 2011 के विधानसभा चुनावों में टीएमसी ने वाम मोर्चे को पटखनी दे दी.
तृणमूल कांग्रेस और लगातार जारी राजनीतिक हिंसा
राज्य की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली टीएमसी पिछले तीन दशकों से सत्ता पर काबिज़ वाम मोर्चा सरकार को 2011 के विधानसभा चुनावों में हरा कर सत्ता से उखाड़ फेंका. अपने चुनाव अभियान में, टीएमसी ने इस बात पर जोर दिया था कि वह वामपंथियों द्वारा प्रचलित “प्रतिशोध की राजनीति” को जारी नहीं रखेगी. हालांकि, टीएमसी ने सत्ता आने के बाद पूर्ववर्ती सरकारों की ही तरह हिंसक तरीके अपनाए, विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं पर हमला करवाया और उनकी हत्याएं कराईं.[61] 2011 के विधानसभा चुनावों के केवल नौ महीनों के भीतर सीपीआई (एम) के 56 सदस्य मारे गए, जिनके ऊपर कथित तौर पर टीएमसी कार्यकर्ताओं ने जानलेवा हमला किया था.[62]
टीएमसी शासन के दौरान 2018 में जब पंचायत चुनाव हुए तो उसमें भी मतदान के दिन व्यापक हिंसा देखी गई, जिसमें 10 लोग मारे गए. स्थानीय मीडिया के अनुसार पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी में धोखाधड़ी, बूथ कैप्चरिंग और मतपत्रों को जलाने जैसी गतिविधियां होती रहीं, मगर पुलिस अधिकारियों ने उन्हें रोका नहीं. टीएमसी ने क़रीब 34 सीटों पर निर्विरोध जीत हासिल की, क्योंकि उन सीटों पर विपक्षी दलों के उम्मीदवारों को कथित तौर पर नामांकन दाखिल करने से रोका गया था. चुनाव के बाद भी, भाजपा ने आरोप लगाया है कि उसके कई कार्यकर्ताओं को टीएमसी कार्यकर्ताओं ने मार डाला है.[63]
अगले साल (2019) राज्य में लोकसभा चुनाव के दौरान एक बार फिर हिंसा हुई. चुनावी अभियान के दौरान जो घटना सबसे ज़्यादा चर्चा में रही, वो थी: 19वीं सदी में बंगाल के समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्या सागर की एक मूर्ति के साथ कथित रूप से भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा की गई तोड़फोड़. इसके कारण टीएमसी और बीजेपी के कार्यकर्ताओं के बीच झड़पें शुरू हो गईं.[64] 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों ने ये दिखाया कि जहां वाम मोर्चा का पतन लगातार जारी था, वहीं भाजपा राज्य में टीएमसी सरकार के विरुद्ध मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी. पश्चिम बंगाल की कुल 42 लोकसभा सीटों में से जहां बीजेपी को 18 सीटें हासिल हुईं, वहीं टीएमसी 22 सीटें जीतने में सफ़ल रहा. हालांकि, इस बढ़त ने राज्य की राजनीति में हिंसा के स्तर को भी बढ़ावा दिया.[65] केवल 2019 में ही टीएमसी और भाजपा कार्यकर्ताओं की राजनीतिक हत्याओं से संबंधित 12 घटनाएं हुईं.[66] फरवरी 2021 में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दावा किया कि टीएमसी के हमलों में भाजपा से जुड़े 130 लोग मारे गए थे.[67]
राज्य में राजनीतिक पक्षधरता ने वर्ग चेतना का रूप ले लिया, जहां कांग्रेस पार्टी को भू-स्वामियों की पार्टी के तौर पर पहचाना गया और वहीं कृषक समुदाय ने वाम दल का समर्थन किया. 1977 में सीपीआई(एम) के सत्ता में आने के बाद, उसका समर्थन कर रहे कृषक मध्य वर्ग ग्रामीण बंगाल का सर्वेसर्वा बन गया, जो उसके पहले जमींदारों के अधीन था.
मार्च से लेकर अप्रैल 2021 के बीच पिछले विधानसभा चुनाव आठ चरणों में हुए थे, जिसमें भाजपा द्वारा कड़ी चुनौती दिए जाने के बावजूद टीएमसी को फिर से निर्णायक जीत मिली. जैसी कि उम्मीद थी, चुनावी परिणाम आने के बाद राज्य में एक बार फिर से हिंसा भड़क गई. हालांकि बीजेपी ने दावा किया कि टीएमसी द्वारा किए गए हमलों में उसके 14 कार्यकर्ता मारे गए, वहीं टीएमसी का कहना था कि बीजेपी ने उसके 3 कार्यकर्ताओं की हत्या की.[68] इसके बाद से राज्य में बीजेपी और टीएमसी के बीच राजनीतिक ध्रुवीकरण और भी ज़्यादा मज़बूत हुआ है, जिसमें से एक केंद्र में सत्तारूढ़ है, और दूसरी राज्य में सत्तासीन है. चुनाव के बाद हुए हमलों के विरुद्ध बीजेपी ने कलकत्ता हाई कोर्ट में टीएमसी के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला दायर कराया है.[69]
बंगाल में राजनीतिक हिंसा के कारक
बंगाल में रोजाना की राजनीतिक हिंसा की गतिविधियों के पीछे राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, संसाधनों और लोकतांत्रिक संस्थानों पर नियंत्रण स्थापित करने की चाह आदि मौजूदा संघर्ष के लिए ज़िम्मेदार सबसे प्रमुख कारण हैं. लेकिन इसके अलावा भी कुछ अन्य गहरे कारण भी हैं.
पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में कृषि संघर्ष का इतिहास
ऐतिहासिक रूप से, पश्चिम बंगाल में भूमि संबंध जमींदारी व्यवस्था पर आधारित सामंती और शोषक रहे हैं. कृषि संकट, और उसकी प्रतिक्रियास्वरूप में किसानों के संघर्ष का बहुत पुराना इतिहास है, जो मुग़ल काल से चला आ रहा है.[70] राज्य में कई हिंसक किसान विद्रोह हुए हैं.[71] इस प्रकार जमींदारों और गरीब किसानों के बीच असंतोष की एक गहरी खाई रही है. जब भारत आज़ाद हुआ, और राज्य में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी. चूंकि कांग्रेस सरकार को जमींदारों का भारी समर्थन हासिल था, इसलिए उसने किसानों के हित के प्रति बहुत कम ध्यान दिया.[72] बंगाल में वामपंथ का उदय के पीछे निचली जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों से ताल्लुक रखने वाले मध्य और निम्न वर्ग के किसानों की राजनीतिक एकजुटता ज़िम्मेदार थी.[73]
इसलिए, राज्य में राजनीतिक पक्षधरता ने वर्ग चेतना का रूप ले लिया, जहां कांग्रेस पार्टी को भू-स्वामियों की पार्टी के तौर पर पहचाना गया और वहीं कृषक समुदाय ने वाम दल का समर्थन किया.[74] 1977 में सीपीआई(एम) के सत्ता में आने के बाद, उसका समर्थन कर रहे कृषक मध्य वर्ग ग्रामीण बंगाल का सर्वेसर्वा बन गया, जो उसके पहले जमींदारों के अधीन था. हालांकि, निम्न वर्ग के भूमिहीन किसानों ने भी सीपीआई(एम) का समर्थन किया था, लेकिन सिवाय कुछ आंशिक लाभों के, वे सत्ता से बाहर रहे.
1980 के दशक के दौरान, वामपंथी शासन के आगमन के बाद से अपना दबदबा खो चुके जमींदारों ने वाम मोर्चे के प्रति एक नया रवैया अपनाया, और बदले में अमीर मध्य किसानों के साथ सत्ता संरचना में शामिल होने में सफ़ल रहे. मामूली सरकारी लाभों को छोड़ दें, तो निम्न वर्ग की हालत दयनीय ही रही. वाम मोर्चे के शासन के आखिरी सालों में,[75] उनकी भूमि अधिग्रहण नीतियों के चलते निम्न वर्ग की वफादारी एक नई राजनीतिक ताकत, टीएमसी, के साथ जुड़ गई. कांग्रेस के एक टूटे हुए धड़े से बनी टीएमसी की पहचान शुरुआत में जमींदारों की पार्टी के रूप में थी, लेकिन धीरे-धीरे उसकी ये पहचान बदलती गई.[76]
राजनीतिक दल अक्सर दूसरे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर हमला करने और डराने के लिए बेरोज़गार युवाओं का इस्तेमाल करते हैं. अपनी सुरक्षा और भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए राजनीतिक दलों के ग्रामीण कार्यकर्ताओं को प्रतिद्वंदी दल के कार्यकर्ता को दबाना पड़ता है, जिसके लिए वे अक्सर हिंसा का सहारा लेते हैं
हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनावों से पता चला कि निम्न वर्ग के हिंदू किसानों यानी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समूहों ने सत्तारूढ़ टीएमसी का साथ छोड़कर भाजपा का समर्थन किया.[77] इस प्रकार पश्चिम बंगाल की कृषि अर्थव्यवस्था के भीतर विभिन्न वर्गों के अपने वर्ग हितों और उससे जुड़ी शिकायतों को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि इन सबके कारण बंगाल के भीतरी इलाकों में पार्टी आधारित हिंसा काफ़ी बढ़ गई है.
वर्चस्व की लड़ाई में चुनावी सफ़लता: पंचायत बने शक्ति केंद्र
एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता पर वर्चस्व की लड़ाई में जहां राजनीतिक दलों के संगठन को मज़बूत बनाना, चुनाव जीतना और ज़मीनी स्तर पर अपनी पकड़ बनाए रखना बहुत ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है, वहां राजनीतिक दल हिंसा का सहारा लेने से चूकते नहीं हैं. 1980-1990 के दशक में पंचायतों को और अधिक शक्तिशाली और संसाधन संपन्न बनाए जाने के कारण, वे राजनीतिक दलों के लिए युद्ध का मैदान बन गए हैं. पश्चिम बंगाल में, पंचायतें राजनीतिक दलों को ग्रामीण समाज के लगभग हर पहलू पर अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करती हैं.[78] पंचायतों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके राजनीतिक दल ज़मीनी स्तर पर अपने राजनीतिक प्रभाव का विस्तार करते हैं. यह उन्हें राजनीतिक सत्ता हासिल करने के क्रम में अपने संगठनात्मक ढांचे को मज़बूत बनाने की सुविधा प्रदान करता है.[79]
किसी सत्ताधारी दल के लिए, चाहे वो सीपीआई(एम) हो या टीएमसी, जब उसका राज्य की सत्ता, विशेष रूप से पुलिस बल पर नियंत्रण होता है तो उसके लिए हिंसा या हिंसा की धमकियों के सहारे पंचायतों पर कब्ज़ा जमाना आसान हो जाता है. सारणी 2 पिछले कुछ सालों में पंचायत चुनावों में निर्विरोध रूप से जीती गई सीटों की संख्या को दर्शाती है. ये वही सीटें हैं, जिस पर सत्तारूढ़ दल ने विपक्षी दलों को अपना उम्मीदवार खड़ा करने से रोक दिया. या तो हिंसा के ज़रिए या डरा-धमकाकर सत्तारूढ़ दल ने इन सीटों पर जीत हासिल की. पिछले दो चुनावों में, ऐसी सीटों की संख्या में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है. 2018 के पंचायत चुनाव में कम से कम 34 प्रतिशत सीटें निर्विरोध रहीं, जिसमें बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और इन सीटों पर टीएमसी ने जीत हासिल की.[80]
तालिका 2: निर्विरोध जीत वाले सीटों की संख्या, पंचायत चुनाव (1978-2018)
संसाधनों पर नियंत्रण और ‘वसूली’ की राजनीति
जैसा कि पहले कहा गया है, वाम मोर्चे के शासन के दौरान, सत्तारूढ़ दल के समर्थक परिवारों को सरकारी सहायता कार्यक्रमों का ज़्यादा से ज़्यादा लाभ मिला.[83] ग्रामीण इलाके के निम्न वर्गीय परिवार अपने अस्तित्व और आजीविका के लिए इन कार्यक्रमों पर निर्भर थे;[84] और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के लिए उन कार्यक्रमों तक उनकी पहुंच होनी बहुत ज़्यादा ज़रूरी थी.[85] ग्रामीण स्तर पर पार्टी के कार्यकर्ता इन संसाधनों पर अपना मज़बूत नियंत्रण रखते थे, ग़रीबी और बेरोजगारी से जूझ रहे इन क्षेत्रों में इन संसाधनों को लेकर होने वाले प्रतिस्पर्धात्मक संघर्षों के कारण भी हिंसा का प्रसार अनवरत जारी रहा.[86]
पार्टी की गतिविधियों के लिए धन जुटाने और व्यक्तिगत लाभ के लिए सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा ‘वसूली’ करने जैसी बुराईयां भी बंगाल के ग्रामीण इलाकों में बहुत ज़्यादा व्याप्त हैं. इसके कई रूप हैं. उदाहरण के लिए, बिना दादा (स्थानीय नेता) की अनुमति के किसी भी खरीदी हुई संपत्ति पर कब्ज़ा जमाना काफ़ी मुश्किल है. एक मकान बनाने के लिए उसकी सामग्री को भी अनिवार्य रूप से स्थानीय ‘माफ़िया’ के ज़रिए खरीदना ज़रूरी है. (यह बात कई अन्य राज्यों के लिए भी सत्य हैं, ख़ासकर केरल राज्य में. लेकिन पश्चिम बंगाल में इसकी जड़ें सबसे ज़्यादा मज़बूत हैं). इस तरह से वसूली की संस्कृति वाम मोर्चे के शासन के दौरान विकसित हुई और टीएमसी सरकार ने इसे और भी ज़्यादा मज़बूत बना दिया.[87] इन सबके कारण प्रतिस्पर्धी समूहों के बीच हिंसा की कार्रवाईयों को बढ़ावा मिलता है.
हिंसा के उपकरण के रूप में ‘भय की राजनीति’
पश्चिम बंगाल की तरह की किसी राजव्यवस्था में, जहां का समाज दलगत राजनीति के आधार पर बंटा हुआ हो, वहां हर दल एक-दूसरे को ‘दूसरा/बाहरी/दुश्मन’ की तरह देखते हैं. हर दल में इस बात का स्पष्ट रुप से डर है[88] कि यदि प्रतिद्वंद्वी पार्टी सत्ता में आती है, तो उसके कार्यकर्ता उन पर हिंसा करेंगे, साथ ही वसूली से मिलने वाले मौजूदा लाभों को छीन लेंगे. इसके अलावा, राजनीतिक दल अक्सर दूसरे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर हमला करने और डराने के लिए बेरोज़गार युवाओं का इस्तेमाल करते हैं.[89] अपनी सुरक्षा और भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए राजनीतिक दलों के ग्रामीण कार्यकर्ताओं को प्रतिद्वंदी दल के कार्यकर्ता को दबाना पड़ता है, जिसके लिए वे अक्सर हिंसा का सहारा लेते हैं. चूंकि राजनीतिक दलों के प्रति निष्ठा अभी तक सबसे प्रमुख सामाजिक पहचान है, अन्य सभी सामाजिक विभाजन जैसे कि जातिगत पूर्वाग्रह, वर्ग संघर्ष और सांप्रदायिक कट्टरता आदि को दलों की आंतरिक लड़ाईयों की भाषा में व्यक्त किया जाता है.[90]
भाजपा के उदय और टीएमसी के कथित रूप से मुस्लिम तुष्टिकरण पर लगातार शोर मचाए जाने के कारण दोनों दलों के बीच संघर्षों, ख़ासकर हिंदू त्यौहार रामनवमी और मुस्लिम त्यौहार मुहर्रम पर होने वाली हिंसक घटनाओं पर सांप्रदायिक रंग चढ़ा दिया गया.
इसलिए, शुरुआती सालों में कांग्रेस और सीपीआई(एम) के बीच की प्रतिद्वंदिता किसान और जमींदारों के बीच मौजूदा वर्ग संघर्ष की स्थिति को भी समेटे हुए थी. वर्तमान में टीएमसी और बीजेपी के संघर्ष के पीछे हिंदू-मुस्लिम तनाव एक घटक के रूप में मौजूद है. यही कारण है कि टीएमसी के ख़िलाफ़ भाजपा द्वारा लगाए गए मुस्लिम ‘तुष्टिकरण’ के आरोप ने उसे 2019 के लोकसभा चुनावों में हिंदुओं का समर्थन हासिल करने में काफ़ी मदद की.[91]
अंततः राज्य की ‘भय और क्रोध की राजनीति’[92] में बदले या प्रतिशोध की भावना का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. हारे हुए राजनीतिक दल को ‘सबक’ सिखाने के लिए हत्याएं करवाई जाती हैं, ख़ासकर हर चुनाव के बाद ऐसी घटनाएं बहुत ज़्यादा बढ़ जाती हैं. कभी-कभी पारिवारिक दुश्मनी और उससे जुड़ी हिंसा भी राजनीतिक निष्ठा और ध्रुवीकरण के रूप में व्यक्त होती है.[93] दलों की व्यापक स्तर पर मौजूदगी, विशेष रूप से ग्रामीण बंगाल के निम्न वर्गीय समाजों में उनकी उपस्थिति, न केवल राजनीतिक दलों के लिए बल्कि उसके समर्थकों के लिए भी राजनीतिक प्रभुत्व के मुद्दे बहुत ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बना देती है, जहां उनकी शारीरिक सुरक्षा और रोज़गार के अवसरों की उपलब्धता का प्रश्न उस राजनीतिक दल के प्रभुत्व से जुड़ा हुआ है, जिसका वे समर्थन करते हैं.
बीजेपी का उदय और पारस्परिक हिंसात्मक घटनाओं में वृद्धि
2011 में जब टीएमसी सीपीआई(एम) को अपदस्थ करके सत्ता में आई, तो उसके कार्यकर्ताओं ने सीपीआई(एम) के कार्यकर्ताओं पर हमला करके, उन्हें डरा-धमकाकर पूर्ववर्ती दल की राजनीतिक परंपरा का ही पालन किया.[94] इसके बाद, हालांकि टीएमसी ने 2018 के पंचायत चुनाव में भारी बहुमत से जीत हासिल की, लेकिन चुनाव अभियान के दौरान विपक्षी पार्टी के कार्यकर्ताओं, ख़ासकर सीपीआई(एम) पर किए गए हमलों के कारण[95] ने कई इलाकों में टीएमसी के विपरीत माहौल तैयार हुआ.[96] उसके अलावा, सीपीआई(एम) के समर्थकों को एहसास हुआ कि उनका दल अब राजनीतिक रूप से इतना कमज़ोर हो चुका है कि वह उन्हें टीएमसी कार्यकर्ताओं से बचाव के लिए आवश्यक शारीरिक सुरक्षा देने में सक्षम नहीं था.[97] सीपीआई(एम) के जनाधार के एक बड़े हिस्से ने 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा का समर्थन किया. सीपीआई(एम) के कार्यकर्ताओं ने महसूस किया कि भाजपा के पास टीएमसी के प्रभुत्व को चुनौती देने और उनकी रक्षा करने के लिए पर्याप्त संसाधन थे.[98]
केंद्र में भाजपा शासित सरकार होने और राज्य में अन्य दक्षिणपंथी दलों द्वारा समर्थित होने के कारण, वह टीएमसी की हिंसा का बेहतर ढंग से सामना कर सकती थी. इसके कारण दोनों पक्षों की ओर हिंसा की घटनाओं को बढ़ावा मिला. भाजपा के उदय और टीएमसी के कथित रूप से मुस्लिम तुष्टिकरण[99] पर लगातार शोर मचाए जाने के कारण दोनों दलों के बीच संघर्षों, ख़ासकर हिंदू त्यौहार रामनवमी और मुस्लिम त्यौहार मुहर्रम पर होने वाली हिंसक घटनाओं पर सांप्रदायिक रंग चढ़ा दिया गया.[100],[101] यहां तक कि जब टीएमसी ने 2021 के विधानसभा चुनावों में स्पष्ट बहुमत के साथ जीत हासिल की, चुनाव परिणामों के बाद भड़की हिंसा ने डर और घृणा का माहौल को और बढ़ावा दिया, जहां कथित तौर पर टीएमसी कार्यकर्ताओं द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वियों पर हमला किया गया.[102]
सत्तारूढ़ टीएमसी के अलावा, बंगाल में मुख्य विपक्षी दल के रूप में, भाजपा को भी हिंसा भड़काते हुए पाया गया है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां पार्टी राजनीतिक रूप से मज़बूत है.[103] 2019 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2021 के चुनावों तक टीएमसी कार्यकर्ताओं को डराने-धमकाने की खबरें आती रही हैं. चुनावों के दौरान, टीएमसी और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच भिड़ंत और हत्याओं की रोजाना ख़बरें आती रहीं. बंगाल की राजनीति में अपेक्षाकृत नई ताकत होने के बावजूद, बीजेपी को टीएमसी के ख़िलाफ़ हिंसा का मुकाबला करने में सक्षम पाया गया है.
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की प्रकृति ‘रोजम़र्रा’ होने वाली हिंसक वारदातों की है. राजनीतिक दल और समाज का गठजोड़ ऐसी हिंसा का वातावरण तैयार करता है; जिसका प्रमाण राज्य में रोजाना घटती हिंसक वारदातें हैं. रोजम़र्रा की हिंसक गतिविधियों को व्यवस्थित ढंग से अंजाम दिया जाता है, जिसमें राज्य संस्थानों की मौन सहभागिता और राजनीतिक संगठनों की सक्रिय भागीदारी होती है.
इसके पीछे प्रमुख रूप से दो कारण हैं: पहला, बीजेपी के कार्यकर्ताओं समेत उसके कई बड़े नेता टीएमसी और सीपीआई(एम) को छोड़कर पार्टी में शामिल हुए हैं, और इसीलिए राज्य में हिंसा की मौजूदा संस्कृति से अच्छी तरह वाकिफ हैं. सत्तारूढ़ टीएमसी से उनका मोहभंग हो गया है और उस पर पलटवार करने के लिए वे आतुर हैं, और इन्हीं कारणों से वे भाजपा में आए हैं. दूसरा, भाजपा देश की सबसे मज़बूत राजनीतिक ताकत है और राष्ट्रीय स्तर पर सत्ताधारी पार्टी है, इसलिए उसके पास टीएमसी की हिंसा का मुकाबला करने, और समान रणनीतियां लागू करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं. 2021 के विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य सरकार की सहमति लिए बिना अप्रैल 2021 में कूचबिहार जिले के सीतलकुची[104] में केंद्रीय बलों द्वारा की गई गोलीबारी की गई, जिसने पश्चिम बंगाल की राजनीतिक हिंसा की संस्कृति में केंद्र-नियंत्रित संस्थानों की प्रत्यक्ष भागीदारी[105] का खुलासा किया.[106],[107]
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की अनूठी प्रकृति
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की प्रकृति और शक्ति संबंधों को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि यह अन्य राज्यों की तुलना में अलग है. बंगाल की ये ‘विशिष्टता’ निम्नलिखित कारणों पर आधारित है:
1) बंगाल में होने वाली हिंसक घटनाएं दलगत हितों से प्रेरित हैं, जो राज्य की सत्ता पर कब्ज़ा जमाने और विरोधियों पर पूर्ण राजनीतिक अधिपत्य स्थापित करने के मकसद से अंजाम दी जाती हैं. जीतने लंबे समय से यह संस्कृति कायम रही है, उसकी मिसाल भारत में कहीं और नहीं मिलती. इसकी शुरुआत आज़ादी से पहले से हुई और तब से लेकर अब तक पिछले सात दशकों से यह संस्कृति अस्तित्व में है.
2) हिंसा की वैचारिकी के संदर्भ में यह अन्य राज्यों से बिल्कुल अलग है. केरल में, आरएसएस या बीजेपी और वामपंथ के बीच राजनीतिक संघर्ष बड़े पैमाने पर राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित है. राज्य में भाजपा का प्रभाव काफी सीमित होने के बावजूद यह कई दशकों से जारी है. जबकि पश्चिम बंगाल में हालात इसके ठीक उलट हैं.[108] इस राज्य में, विचारधारा के स्तर पर गतिशीलता दिखाई देती है, क्योंकि सीपीआई(एम) का एक बहुत बड़ा धड़ा टीएमसी और अंत में बीजेपी में शामिल हुआ है. यहां तक कि टीएमसी के बड़े नेताओं का बीजेपी में जाना, और हाल ही में बीजेपी नेताओं का टीएमसी में शामिल होना, बंगाल की राजनीति की वैचारिक गतिशीलता को प्रकट करता है.
3) यूपी, बिहार, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में स्थानीय सामाजिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों और सांप्रदायिक तनावों के कारण राजनीतिक हिंसा होती है.[109] जबकि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति ने जन्म लिया है, जिसके आगे सामाजिक-सांस्कृतिक, वैचारिक और आर्थिक कारक जैसे मुद्दे द्वितीयक रह जाते हैं. राजनीतिक हिंसा की संस्कृति राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा या वैमनस्यता से संचालित होती है. इस प्रकार की हिंसा बंगाल को अन्य राज्यों से अलग कतार में लाकर खड़ा कर देती है.
4) राजनीतिक हिंसा राज्य की राजनीतिक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं. यह अब केवल चुनावी खींचतान और दबावों तक सीमित नहीं है. जबकि अन्य राज्यों में हिंसा की छिटपुट या फिर किसी विशेष समयावधि के दौरान वारदातें होती हैं; वहीं पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की प्रकृति ‘रोजम़र्रा’ होने वाली हिंसक वारदातों की है. राजनीतिक दल और समाज का गठजोड़ ऐसी हिंसा का वातावरण तैयार करता है; जिसका प्रमाण राज्य में रोजाना घटती हिंसक वारदातें हैं. रोजम़र्रा की हिंसक गतिविधियों को व्यवस्थित ढंग से अंजाम दिया जाता है, जिसमें राज्य संस्थानों की मौन सहभागिता और राजनीतिक संगठनों की सक्रिय भागीदारी होती है. राज्य में रोजम़र्रा की हिंसक गतिविधियां और सत्तारूढ़ दल का विरोध करने वालों का व्यवस्थित बहिष्कार पश्चिम बंगाल को जोहान गाल्टुंग द्वारा प्रतिपादित किए गए ‘संरचनात्मक हिंसा’ के विमर्श के उदाहरण के तौर पर सामने रखता है.[110]
इसलिए बंगाल में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को असाधारण कहा जा सकता है. राज्य में हिंसा के स्वरूप और उसकी तीव्रता की पूरे भारत में दूसरी कोई मिसाल दिखाई नहीं देती. इस तरह की स्थानिक हिंसा का राज्य की अर्थव्यवस्था, समावेशिता और संसाधनों के पुनर्वितरण से जुड़ी नीतियों, शासन प्रणालियों और कानून के शासन पर व्यापक रूप से प्रभाव दिखाई पड़ता है.[111]
राजनीतिक हिंसा के इस सर्वव्यापी और व्यवस्थात्मक स्वरूप ने राजनीतिक भागीदारी और राजनीतिक समानता जैसी लोकतांत्रिक गतिविधियों के आगे बाधाएं खड़ी की हैं. बंगाल में राजनीतिक हिंसा के मौजूदा स्तर और उसके स्वरूप में सुधार लाने के लिए संस्थागत सुरक्षा उपायों, कानूनी सुरक्षा, चुनावी व्यवहार और राजनीतिक संस्कृति में किस तरह के बदलावों की आवश्यकता है, इस पर बहस की ज़रूरत है.
Ambar Kumar Ghosh is Junior Fellow at ORF, Kolkata. Niranjan Sahoo is Senior Fellow at ORF.
[5] Lisa Mascaro, Eric Tucker, Mary Clare Jalonick and Andrew Taylor, “Pro-Trump mob storms US Capitol in bid to overturn election”, AP, January 6 , 2021, https://apnews.com/article/congress-confirm-joe-biden-78104aea082995bbd7412a6e6cd13818
[6] Francis Stewart, ‘Root causes of violent conflict in developing countries’, British Medical Journal, Volume 324, 2002. https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC1122271/pdf/342.pdf
[7] Francis Stewart, ‘Root causes of violent conflict in developing countries”
[8] For literature on political violence, see Avram Bornstein, Political Violence, Encyclopedia of Social Measurement, 2005, https://www.sciencedirect
[12] See John Schwarzmantel, Democracy and Political Violence, Edinburg: Edinburg University Press, 2011.
[13] John Schwarzmantel, Democracy and Political Violence.
[14] See K. Höglund, Electoral Violence in Conflict-Ridden Societies: Concepts, Causes, and Consequences. Terrorism and Political Violence 21 (3): 412–427, 2009.
[15] See John Schwarzmantel (2010), Democracy and Violence: A Theoretical Overview, Democratization, 17:2, 217-234, DOI: 10.1080/13510341003588641
[16] John Schwarzmantel, “Democracy and Violence: A Theoretical Overview, Democratization”.
[17] Francis Stewart, “Root causes of violent conflict in developing countries”.
[18] It is mostly covered by seminal works of Ashutosh Varshney (2002) and Steven Wilkinson (2004); Paul Staniland (2014).
[19] See Neera Chandhoke, Violence in our Bones: Mapping the Deadly Fault Lines within Indian Society, Aleph:New Delhi, 2021
[20] Neera Chandhoke, Violence in our Bones: Mapping the Deadly Fault Lines within Indian Society
[21] Avram Bornstein, Political Violence, Encyclopedia of Social Measurement, 2005. https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/B0123693985003121
[23] This is not to argue that other socio-economic factors are not present in the dynamics of political violence in Bengal. Rather those factors have supported and augmented the overarching political motive behind the violence.
Paul Staniland, “Violence and Democracy”, Comparative Politics , October 2014, Vol. 47, No. 1 (October 2014), pp. 99-118
Ashutosh Varshney, Ethnic Conflict and Civic Life: Hindus and Muslims in India, Yale University Press, 2002
Steven Wilkinson, Votes and Violence: Electoral Competition and Ethnic Riots in India, Cambridge University Press, 2004
[25] Structural violence is a form of violence where social structures or state institutions cause harm by preventing people from meeting/accessing their basic needs or rights. While structural violence may be invisible, it is perhaps the most serious form of violence. Not only is it the deadliest violence, greater in scope and in implication than any other type of v iolence, it grows exponentially as unequal power differentials are used to create more unequal structures. See Johan Galtung, ‘Violence, Peace and Peace Research’, Journal of Peace Research, Vol.6, 1969.
[26] Anasua Basu Ray Chaudhury, “Nostalgia of ‘Desh’, Memories of Partition”, Economic and Political Weekly, Dec. 25-31, 2004, Vol. 39, No. 52 (Dec. 25-31, 2004), pp. 5653-5660
Veena Das, Life and Words: Violence and the Descent into the Ordinary, University of California Press, 2007
[33] Pronab Mondal, “Decoding Political Killings in West Bengal”
[34] During the 2021 assembly election campaign in West Bengal, there were alleged attacks on the convoy of. J.P. Nadda, BJP President, and Mamata Banerjee, Chief Minister of West Bengal, during her Nandigram visit.
[36] During the Tebhaga Movement, sharecroppers refused to pay half their harvest as tax to the landlord, as they used to before, and insisted instead on paying only one third.
Francis Stewart, “Root causes of violent conflict in developing countries”,
Stephen. G. Brush, “Dynamics of Theory Change in the Social Sciences: Relative Deprivation and Collective Violence”, The Journal of Conflict Resolution , Dec., 1996, Vol. 40, No. 4 (Dec., 1996), pp. 523-545
Ted Robert Gurr, Why Men Rebel, New Jersey: Princeton University Press, 1971
Lorenzo Bosi, Chares Demetriou & Stefan Malthaner (eds), Dynamics of Political Violence: A Process Oriented Perspective on Radicalisation and the Escalation of Political Conflict, Surrey:Ashgate, 2014
Itty Abraham, Edward Newman and Meredith L. Weiss (eds), Political violence in South and
Southeast Asia: Critical perspectives, Tokyo: United Nations University Press, 2010
[37] It is here where the contemporary term ‘Naxalite’ is rooted.
[38] See Dipankar Basu, ‘Political Economy of ‘Middleness’: Behind Violence in Rural West Bengal’, Economic and Political Weekly, Vol. 36, No. 16 (Apr. 21-27, 2001), pp. 1333-1344
[40] Bangla Congress was a party formed by Ajoy Mukherkjee who broke away from the Indian National Congress and floated his own party in the state in 1966.
[41] They were short-lived coalition governments consisting of CPI(M) and the Bangla Congress.
[42] Shikha Mukherjee, “In Bengal Politics, Violence Begets Violence. But Does it Always Deliver the Goods?”, The Wire, July 15, 2020.https://thewire.in/politics/bengal-polls-bjp-mla-killed-violence
[43] Partha Sarathi Banerjee, “Party, Power and Political Violence in West Bengal Author”, Economic and Political Weekly, February 5-11, 2011, Vol. 46, No. 6 (February 5-11, 2011), pp. 16-18
[44] Partha Sarathi Banerjee, “Party, Power and Political Violence in West Bengal Author”,
[45] Poromesh Acharya, “Panchayats and Left Politics in West Bengal”, Economic and Political Weekly, Vol. 28, Issue 22, 29 May, 1993. https://www.epw.in/journal/1993/22/commentary/panchayats-and-left-politics-west-bengal.html
[46] Dwaipayan Bhattacharya, Government as Practise: Democratic left in Transforming India, New Delhi: Cambridge University Press, 2016
[47] Dipankar Basu, “Political Economy of ‘Middleness’: Behind Violence in Rural West Bengal”, Economic and Political Weekly, Vol. 36, No. 16 (Apr. 21-27, 2001), pp. 1333-1344
[48] Dwaipayan Bhattacharya, Government as Practise: Democratic left in Transforming India
[49] Partha Nath Mukherjee, “Panchayat Elections and Democratic
[50] What was then East Pakistan is modern-day Bangladesh.
[51] Partha Sarathi Banerjee, “Party, Power and Political Violence in West Bengal Author”
[55] In January 1979, the Bengal Police wrote a dark chapter in history by open-firing on Bengali Dalit refugees at Marichjhapi in the Sunderbans, killing, according to unofficial accounts, more than a hundred men, women and children. It was not the age of live television, but the world still got wind of it. Media teams and parliamentary delegations were stopped from entering the region after the massacre. The refugees were brought to India from East Pakistan (now Bangladesh) in the 1950s and given shelter at Dankaranya, a forest land with no civic amenities spread across four states in central India. They migrated to West Bengal at the behest of some Marxist leaders who were apparently eyeing the vote bank.
[57] Tanmay Chatterjee, “Political violence that rocks Bengal manifested itself 50 years ago”
[58] The monks were burned alive due to a rumour that they were child lifters.
[59] As many as 14 residents of Nandigram in East Midnapore were shot dead by police when they set up a blockade against land acquisition.
[60] Sanchita Das, “Nandigram protests: 14 killed as violence spills over to Kolkata”, Live Mint, March 15, 2007, https://www.livemint.com/Politics/CAZYvJRNWnxOsvFMoYcFHI/Nandigram-protests-14-killed-as-violence-spills-over-to-Kol.html
[61] In February 2012, former CPI(M) MLA Pradip Tah and Burdwan district leader Kamal Gayen were bludgeoned to death allegedly by TMC workers.
[65] Ahana Chatterjee, “BJP creates history in Bengal”, Live Mint, May 24, 2019. https://www.livemint.com/elections/lok-sabha-elections/west-bengal-results-2019-live-updates-mamata-banerjee-tmc-narendra-modi-bjp-1558573084174.html
[68] “14 BJP workers killed in Bengal post-poll violence, nearly a lakh fled home: Nadda”, Economic Times, May 5, 2021, https://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/14-bjp-workers-killed-in-bengal-post-poll-violence-nearly-a-lakh-fled-home-nadda/articleshow/82407542.cms?from=mdr
[69] “Calcutta high court severely indicts West Bengal govt in post-poll violence case”, Times of India, August 19, 2021, https://timesofindia.indiatimes.com/india/calcutta-high-court-severely-indicts-west-bengal-govt-in-post-poll-violence-case/articleshow/85454050.cms
[70] Suman Kumar Bhaumik, “Peasant Uprisings in Bengal: A Case for Preference Falsification”, Economic and Political Weekly, 37, No. 47 (Nov. 23-29, 2002), pp. 4741-4746
[71] Suman Kumar Bhaumik, “Peasant Uprisings in Bengal: A Case for Preference Falsification”, Economic and Political Weekly, Nov. 23-29, 2002, Vol. 37, No. 47 (Nov. 23-29, 2002), pp. 4741-4746
[72] Raghav Bandyopadhyay, “Agrarian backdrop of Bengal violence”, Economic and Political Weekly, February 3-10, 2001
[73] Dwaipayan Bhattacharya, Government as Practise: Democratic left in Transforming India
[74] The violent ‘Naxalite’ movement led by the Communist Party of India (Marxist-Leninist) that began in late 1960s, and which saw armed attacks on landlords and sought to bring about a violent revolution, also drew its support from the poorer peasantry.
[75] See Jyotiprasad Chatterjee and Supriyo Basu, Left Front and After: Understanding the dynamics of Poriborton in West Bengal, Sage: New Delhi, 2020
[76] Deepankar Basu, “Political Economy of ‘Middleness’: Behind Violence in Rural West Bengal”, Economic and Political Weekly, Vol. 36, No. 16 April 22, 2001.
[78] Dwaipayan Bhattacharya and Kumar Rana, “West Bengal Panchayat Elections What Does It Mean for the Left?”, Economic and Political Weekly, September 14, 2013, Vol. 48, No. 37 (September 14, 2013), pp. 10-13
Shikha Mukherjee, “The long trail of political violence in West Bengal”, India Today, December 11, 2020 ,https://www.indiatoday.in/news-analysis/story/deep-dive-the-long-trail-of-political-violence-in-west-bengal-1748852-2020-12-
Adil Hossain, “Bengal Polls: Will Violence ‘Help’ Mamata Regime Retain Power”, The Quint, 16 Decembehttps://www.thequint.com/voices/opinion/mamata-banerjee-tmc-violence-polarisation-bengal-politics-2021-state-elections-bjp-hindutva-party-society
[86] Partha Sarathi Banerjee, Party, “Power and Political Violence in West Bengal”
[87] Subir Roy, “Development + Violence: The Bengal Model”, Hindu BusinessLine, September 16, 2020, https://www.thehindubusinessline.com/opinion/columns/development-plus-violence-the-west-bengal-model/article32622751.ece
[88] For detailed understanding the concept of ‘politics of fear’ see Christophe Jaffrelot, Modi’s India: Hindu Nationalism and the Rise of Ethnic Democracy, Princeton University Press, 2021
[91] Sajjan Kumar, “The ground is shifting below Trinamool Congress’s feet”, The Hindu, December 24, 2020, https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/the-ground-is-shifting-below-tmcs-feet/article33405253.ece
[92] Christophe Jaffrelot, Modi’s India: Hindu Nationalism and the Rise of Ethnic Democracy, Princeton University Press, 2021, 74-89
[93] Shoaib Daniyal, “What makes the politics of West Bengal so violent”
[94] Ishan Mukherjee, “Bengal woke up and chose violence at birth. TMC is no exception to that norm”, The Print, May 11, 2021, https://theprint.in/opinion/bengal-woke-up-and-chose-violence-at-birth-tmc-is-no-exception-to-that-norm/655968/
[95] Shoaib Daniyal, “Not Hindutva, not cut money: Biggest reason for BJP’s rise in Bengal might be rigged panchayat polls”, Scroll.in, April 17, 2021, https://scroll.in/article/992160/not-hindutva-not-cut-money-biggest-reason-for-bjps-rise-in-bengal-might-be-rigged-panchayat-polls
[96] Suvojit Bagchi, “Bengal Through the Decades: The More things Change, they have stayed the same?”ORF Occasional Paper, April, 2021. https://www.orfonline.org/research/bengal-through-the-decades/
[100] “Communal Polarisation In West Bengal Reflects The Many Failures Of Identity Politics”, The Wire, August 10, 2017, https://thewire.in/politics/communal-polarisation-west-bengal-identity-politics
Aniruddha Ghosal, “Homes ransacked in communal violence in Bengal, people flee”, Indian Express, October 17, 2016, https://indianexpress.com/article/india/india-news-india/communal-clash-bengal-hazinagar-district-3086824/
[104] Four people were killed in firing by CISF personnel after mob allegedly stormed the polling station in the Cooch Behar district where polling was taking place in the fourth phase of the Vidhan Sabha election 2021.
[106] “Bengal post-poll violence: Court issues contempt notice to Kolkata DCP for not protecting NHRC team”, Scroll.in, July 2, 2021,https://scroll.in/latest/999110/bengal-post-poll-violence-calcutta-hc-directs-police-to-file-cases-on-nhrc-recommendations
[107] Rajiv Bhattacharya, “Bengal on edge: Four killed in CISF firing after mob storms polling booth”, Indian Express, April 11, 2021, https://indianexpress.com/article/india/bengal-on-edge-four-killed-in-cisf-firing-after-mob-storms-polling-booth-7268280/
[108] Dilip M. Menon, “A Prehistory of Violence? Revolution and Martyrs
in the Making of a Political Tradition in Kerala, Journal of South Asian Studies, 201 VOL. 39, NO. 3, 662_677
Ruchi Chaturvedi, “North Kerala and Democracy’s Violent Demands”, Economic and Political Weekly October 20, 2012, Vol. 47, No. 42, pp. 21-24
Ullekh NP, “Political killings in Kerala: The violence between the Left and the Right began over 70 years ago”, Scroll in, June 18, 2021,
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Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...
Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...