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नेपाल में राजनीतिक संकट उस समय शीर्ष पर पहुंच रहा है, जब देश के मौजूदा संघीय गणतांत्रिक ढांचे से नेपाल की जनता का मोह भंग होने लगा है.
किसी भी राजनीतिक पंडित को ये विश्वास नहीं रहा होगा कि नेपाल की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी (NCP) जिसका गठन, केपी शर्मा ओली की अध्यक्षता वाली नेपाल की मार्क्सवादी-लेनिनवादी एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी (CPN-UML) और पुष्प कमल दहल के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिस्ट (माओवादी-केंद्रवादी) पार्टी के विलय से हुआ था, वो अपने विलय के तीन वर्ष के अंदर ही टूट जाएगी. दोनों पार्टियों का एकीकरण 2018 में होने जा रहे चुनावों से ठीक पहले हुआ था. लेकिन, ये आशंका तब सच्चाई में तब्दील हो गई, जब नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने, 20 दिसंबर 2020 को केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली संघीय सरकार के सुझाव पर, नेपाल की संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा (HoR) को भंग कर दिया. इसके साथ साथ राष्ट्रपति ने 30 अप्रैल और 10 मई 2021 को प्रतिनिधि सभा के नए चुनाव कराने की घोषणा भी कर दी.
हालांकि, राष्ट्रपति द्वारा प्रतिनिधि सभा को भंग करने के फ़ैसले को नेपाल के सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. इसके ख़िलाफ़ 12 याचिकाएं दाखिल करके, राष्ट्रपति के फ़ैसले को ख़ारिज करने की अपील सुप्रीम कोर्ट से की गई है. इसके अलावा, संसद के निचले सदन को भंग करने के फ़ैसले का नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का एक धड़ा भी विरोध कर रहा है. इसकी अगुवाई पुष्प कमल दहल कर रहे हैं. कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा नेपाली कांग्रेस और जनता समाजवादी पार्टी भी नेपाल के अलग अलग क्षेत्रों में राष्ट्रपति के इस निर्णय के प्रति अपना विरोध जता रहे हैं. महत्वपूर्ण बात ये भी है कि केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाले कम्युनिस्ट पार्टी के धड़े ने पुष्प कमल दहल को पार्टी की अनुशासनात्मक कार्रवाई इकाई के ज़रिए निष्कासित भी कर दिया है; इसके जवाब में पुष्प कमल दहल के नेतृत्व वाले धड़े ने केपी शर्मा ओली को भी पार्टी से निकाल बाहर किया है. इसके साथ-साथ दल के नेतृत्व वाले धड़े ने पूर्व प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल को नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का अध्यक्ष भी घोषित कर दिया है. इसके अलावा, पुष्प कमल दहल को प्रतिनिधि सभा में कम्युनिस्ट पार्टी के संसदीय दल का नेता भी घोषित कर दिया गया है. पार्टी का हर गुट ख़ुद के वास्तविक कम्युनिस्ट पार्टी होने का दावा कर रहा है. इसके लिए दोनों ही धड़ों ने चुनाव आयोग से अपील की है कि वो पार्टी की संरचना में किए गए इन बदलावों को दर्ज करे. इन दोनों धड़ों की खींच-तान के बीच, ये फ़ैसला करना चुनाव आयोग के हाथ में है कि वास्तविक नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी कौन है. नेपाल का राजनीतिक दल क़ानून कहता है कि किसी भी पार्टी का कोई भी गुट अपने आप को नए दल के रूप में पंजीकृत कर सकता है. इसकी शर्त यही है कि पार्टी की केंद्रीय समिति के कम से कम 40 प्रतिशत और संसदीय दल के भी कम से कम 40 फ़ीसद सदस्य इस धड़े के साथ होने चाहिए.
नेपाल का राजनीतिक दल क़ानून कहता है कि किसी भी पार्टी का कोई भी गुट अपने आप को नए दल के रूप में पंजीकृत कर सकता है. इसकी शर्त यही है कि पार्टी की केंद्रीय समिति के कम से कम 40 प्रतिशत और संसदीय दल के भी कम से कम 40 फ़ीसद सदस्य इस धड़े के साथ होने चाहिए.
हाल ही में केपी शर्मा ओली और माधव कुमार नेपाल-पुष्प कमल दहल की अगुवाई वाले धड़ों ने राजधानी काठमांडू में केंद्रीय समिति की अलग अलग बैठकें अलग अलग ठिकानों पर की थीं. इनमें से हर धड़े का दावा यही है कि उसके साथ केंद्रीय समिति के सदस्यों का बहुमत है. केपी शर्मा ओली के लिए अब ये बात साबित करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. क्योंकि, दहल-नेपाल धड़े के पास ऑल पार्टी समितियों और सचिवालय, पार्टी की स्टैंडिंग कमेटी और केंद्रीय समिति में बहुमत है. ओली और दहल गुटों के बीच टकराव की इस स्थिति से पहले ही, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी टूट के मुहाने पर खड़ी थी. लेकिन, माना जाता है कि नेपाल में चीन की राजदूत होऊ यांक्ची, दोनों नेताओं के बीच मध्यस्थता करके, पार्टी मे इस टूट को टालने में सफल रही थीं. 2018 में एकीकरण के बावजूद, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के दो अध्यक्षों केपी शर्मा ओली और पुष्प कमल दहल के संबंध कभी भी अच्छे नहीं रहे थे. पार्टी के दो कद्दावर नेताओं के बीच सत्ता संघर्ष ने प्रशासन के हर स्तर पर असर डाला, और कामकाज का माहौल ख़राब कर दिया.
शुरुआत में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (NCP) के दोनों चेयरमैन इस बात पर राज़ी हुए थे कि पांच साल के कार्यकाल में वो दोनों ढाई-ढाई वर्ष तक देश के प्रधानमंत्री रहेंगे. दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के विलय के चलते, 2018 के चुनाव में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिनिधि सभा में तो दो तिहाई बहुमत मिला ही था, वो देश के सात में से छह सूबों में भी सरकार बनाने में सफल रही थी. नेपाल की ज़्यादातर स्थानीय इकाइयों (जैसे कि नगर निगम और ग्रामीण परिषद) पर भी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी का ही क़ब्ज़ा हो गया था. प्रचंड बहुमत के बावजूद, कम्युनिस्ट पार्टी, नेपाल के आर्थिक विकास में कोई ख़ास योगदान नहीं दे सकी. प्रशासन के हर स्तर पर भ्रष्टाचार का ही बोलबाला था. नेपाल की सरकार अपने यहां कोविड-19 का प्रसार रोकने में भी बुरी तरह नाकाम रही. यही नहीं, इस दौरान अपने पारंपरिक पड़ोसी देश भारत से भी नेपाल के संबंध बेहद ख़राब हो गए. नेपाल की अर्थव्यवस्था पहले ही बुरे दौर से गुज़र रही है. ऐसे अराजक माहौल में मध्यावधि चुनाव होने से अर्थव्यवस्था पर और बुरा असर पड़ने की आशंका है.
नेपाल की अर्थव्यवस्था पहले ही बुरे दौर से गुज़र रही है. ऐसे अराजक माहौल में मध्यावधि चुनाव होने से अर्थव्यवस्था पर और बुरा असर पड़ने की आशंका है.
वर्ष 2018 में संसदीय और प्रांतीय चुनाव कराने में लगभग 8 अरब नेपाली रुपए ख़र्च किए गए थे. लेकिन, इस बार चुनाव का व्यय 30 अरब नेपाली रूपयों तक जा सकता है. चूंकि, आगामी चुनाव अचानक आ गए हैं और वर्ष 2020-21 के बजट में इसके लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया था. ऐसे में नेपाल के विकास संबंधी बजट में कटौती करके ही चुनाव कराना संभव होगा. नेपाल की राजनीतिक उठा-पटक पर उसके पड़ोसी देशों ने ठोस प्रतिक्रिया देने से परहेज़ किया है. हालांकि, मीडिया में आई ख़बरों पर यक़ीन करें, तो भारत की नज़र में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी में ये फूट उसका अंदरूनी मामला है; वहीं, ऐसा लगता है कि नेपाल का उत्तरी पड़ोसी चीन, वहां के राजनीतिक गतिरोध से चिंतित है.
ऐसा लगता है कि जिस तरह नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ी और चुनाव की नई तारीख़ों का एलान हुआ, उससे चीन बहुत सहज नहीं महसूस कर रहा है. केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत माओवादी-लेनिनवादी) और पुष्प कमल दहल की अगुवाई वाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी-केंद्रवादी) को एकजुट करके, नेपाल में अपने हित साधने की चीन की कोशिशों को झटका लगा है. चीन की कोशिश थी कि नेपाल की दोनों वामपंथी पार्टियों को साथ लाकर वो अपने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और दूसरे माध्यमों से नेपाल पर अपना प्रभाव बढ़ा सकेगा. लेकिन, अगर अप्रैल-मई में प्रतिनिधि सभा के चुनाव होते हैं, तो चीन की इन कोशिशों को झटका लगेगा ही. इसकी वजह ये है कि नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों धड़े एक साथ नहीं बल्कि एक दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ेंगे. इससे हो सकता है कि दोनों ही चुनाव हार जाएं. हालांकि, इन दोनों गुटों में से केपी शर्मा ओली वाले धड़े को चुनाव में शायद दहल-नेपाल के गुट की तुलना में कम नुक़सान हो क्योंकि ओली गुट को सत्ता में रहने का लाभ मिलने की संभावना है.
नेपाल में उठे इस राजनीतिक तूफ़ान को विश्लेषक अक्सर चीन और भारत की प्रतिद्वंदता का नतीजा मानते हैं. ये इत्तेफ़ाक ही कहा जाएगा कि भारत के उच्च अधिकारियों के नेपाल दौरे के कुछ दिनों बाद ही नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ गई थी. अक्टूबर-नवंबर 2020 में पांच हफ़्तों के भीतर, भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के प्रमुख सामंत गोययल, भारत के थलसेना अध्यक्ष जनरल एम एम नरवणे, और विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने नेपाल के दौरे किए थे.
नेपाल में उठे इस राजनीतिक तूफ़ान को विश्लेषक अक्सर चीन और भारत की प्रतिद्वंदता का नतीजा मानते हैं
भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला का नेपाल दौरा 26 नवंबर 2020 को समाप्त हुआ था. इसके दो दिन बाद ही 28 नवंबर 2020 को चीन के रक्षा मंत्री वेई फेंघे काठमांडू पहुंच गए थे. इसके बाद, नेपाल में चीन की राजदूत होऊ यांक्ची ने नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी और अन्य प्रभावशाली नेताओं के साथ अपनी बातचीत तेज़ कर दी थी. नेपाल की दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को साथ लाने में भी यांक्ची ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इसी दौरान चीन ने अपनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंतरराष्ट्रीय विभाग के उप मंत्री गुओ येझोऊ को भी काठमांडू भेजा ताकि वो नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों धड़ों के नेताओं और राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से मिल सकें. इस दौरे में गुओ येझोऊ ने नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा से भी मुलाक़ात की थी.
नेपाल में राजनीतिक संकट उस समय शीर्ष पर पहुंच रहा है, जब देश के मौजूदा संघीय गणतांत्रिक ढांचे से नेपाल की जनता का मोह भंग हो रहा है. काफ़ी समय से नेपाल के अलग अलग हिस्सों में ये मांग उठ रही है कि नेपाल को दोबारा हिंदू राष्ट्र घोषित करके वहां राजशाही को बहाल कर दिया जाए. अगर, नेपाल के संघीय ढांचे में परिवर्तन किया जाता है. देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करके राजशाही को बहाल किया जाता है, तो इसके लिए 2015 में बने नेपाल के संविधान को भी बदलना होगा.
नेपाल के मौजूदा राजनीतिक संकट का समाधान जल्द होने की उम्मीद न के बराबर है. क्योंकि, केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली सरकार, अप्रैल-मई में प्रतिनिधि सभा का चुनाव कराने को लेकर अड़ी हुई है. वहीं, दहल-नेपाल के नेतृत्व वाला कम्युनिस्ट पार्टी के धड़े के साथ, नेपाली कांग्रेस और तराई में प्रभाव वाली जनता समाजवादी पार्टी सरकार पर दबाव बना रही है कि वो संसद भंग करने का अपना फ़ैसला वापस ले. लेकिन, ऐसा लगता नहीं कि नेपाल की भंग संसद को बहाल किया जाएगा. हालांकि, ऐसा करने के साथ-साथ नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों धड़ों को दोबारा साथ लाने की कोशिशें भी जारी हैं. ऐसे हालात में ये नेपाल के हर राजनीतिक दल की ज़िम्मेदारी है कि वो सामने खड़ी चुनौती का सामना करे और प्रतिनिधि सभा के मध्यावधि चुनावों के माध्यम से जनता की राय को स्वीकार करे. इससे नेपाल को नई दिशा मिल सकेगी.
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Hari Bansh Jha was a Visiting Fellow at ORF. Formerly a professor of economics at Nepal's Tribhuvan University, Hari Bansh’s areas of interest include, Nepal-China-India strategic ...
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