Author : Charmi Mehta

Published on Feb 22, 2022 Updated 0 Hours ago

बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में लंबे समय से बनी हुई रुकावटों का समाधान करने से पूंजीगत खर्च में हुई बढ़ोतरी का पूरा फ़ायदा उठाने में मदद मिलेगी. 

बजट की बुनियाद पर देश के लिये मज़बूत इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने की कोशिश?

कोविड-19 महामारी की वजह से दुनिया भर में लगातार आर्थिक झटकों और अनिश्चितता के बीच केंद्र सरकार के बजट 2022-23 ने लगातार दूसरे साल राजकोषीय मज़बूती के बदले विकास को प्राथमिकता देना जारी रखा. 1 अप्रैल से लागू होने वाले केंद्रीय बजट में विशेष तौर पर बुनियादी ढांचे पर खर्च को बढ़ाया गया और इस क्षेत्र में जान डाली गई. पिछले वर्ष के केंद्रीय बजट में भी राष्ट्रीय इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन का ऐलान किया गया जिसमें 110 लाख करोड़ रुपये के निवेश का वादा किया गया. इसमें केंद्र, राज्यों और प्राइवेट सेक्टर के बीच निवेश का अनुपात 39:39:22 था. 

वित्तीय वर्ष 2022-23 का बजट इंफ्रास्ट्रक्चर के हर सेक्टर, ख़ास तौर पर परिवहन, की गहराई तक जाता है. बजट में राष्ट्रीय राजमार्ग का विस्तार और उसके लिए आवंटन में बढ़ोतरी, 500 नई वंदे भारत ट्रेन, स्थानीय कारोबार को समर्थन देने में रेलवे स्टेशन के लिए ‘एक स्टेशन-एक उत्पाद’, देसी सुरक्षा तकनीक ‘कवच’ के तहत 2,000 किलोमीटर रेल नेटवर्क को लाये जाने का एलान किया गया है. बजट के प्रावधानों में मेट्रो रेल के लिए ढांचे की प्रक्रिया में बदलाव, 2030 तक 280 गीगावॉट की स्थापित सौर ऊर्जा क्षमता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए उच्च कार्यक्षमता वाले मॉड्यूल के घरेलू उत्पादन में पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) योजना के तहत 19,500 करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन और आने वाले वर्ष में आठ रोपवे प्रोजेक्ट का विकास शामिल हैं. हरित बुनियादी ढांचे के लिए संसाधन जुटाने के उद्देश्य से सॉवरेन ग्रीन बॉन्ड का भी प्रस्ताव रखा गया है. 

बजट में एनएचएआई और बीएसएनएल पर खर्च से इन संस्थाओं की वित्तीय सेहत तो सुधरेगी लेकिन इससे विकास की संभावनाओं में ज़्यादा सुधार नहीं होगा. अर्थव्यवस्था पर महामारी के विनाशकारी असर के बावजूद भारत का राजकोषीय प्रोत्साहन (स्टिमुलस) लगातार दूसरे साल कम रहा

बजट के प्रावधानों पर क़रीब से नज़र डालने पर पता चलता है कि वास्तव में पूंजीगत खर्च में 35 प्रतिशत की बढ़ोतरी ग़लतफहमी पैदा करने वाली है क्योंकि एनएचएआई (भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण) और बीएसएनएल (भारत संचार निगम लिमिटेड) पर इस बजट में सरकारी ख़ज़ाने से ज़्यादा खर्च किया गया है जबकि अतीत में इन्होंने बाज़ार से भी काफ़ी मात्रा में कर्ज़ लिया था. बजट में एनएचएआई और बीएसएनएल पर खर्च से इन संस्थाओं की वित्तीय सेहत तो सुधरेगी लेकिन इससे विकास की संभावनाओं में ज़्यादा सुधार नहीं होगा. अर्थव्यवस्था पर महामारी के विनाशकारी असर के बावजूद भारत का राजकोषीय प्रोत्साहन (स्टिमुलस) लगातार दूसरे साल कम रहा: विकसित देशों में जीडीपी के औसतन 8.5 प्रतिशत और विकासशील देशों में जीडीपी के औसतन 4.7 प्रतिशत के मुक़ाबले भारत में जीडीपी का सिर्फ़ 2.2 प्रतिशत. बजट में दूसरे बड़े विकास से जुड़े निवेश या नीतिगत सुधार की कमी निराशाजनक रही. पर्यटन, निर्यात, एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग) जैसे काफ़ी ज़्यादा प्रभावित कई सेक्टर को पूंजीगत खर्च पर आधारित राजकोषीय प्रोत्साहन के रूप में पर्याप्त जगह नहीं मिली.  

इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश जटिल है और किसी परियोजना का खाका खींचने से लेकर उसका डिज़ाइन तैयार करने, निर्माण और फिर काम-काज शुरू करना एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें अनगिनत रुकावटें हैं. योजना की कमी और ख़राब शासन व्यवस्था एक बड़ा कारण है जो इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को समय से पूरा होने से रोकता है. 

क्या बजट में इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज़्यादा खर्च विकास में जान फूंकने के लिए वाकई में रामबाण है? 

2021-22 के बजट का काफ़ी इंतज़ार था. उम्मीद लगाई गई थी कि डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) में बढ़ोतरी होगी. लेकिन इस उम्मीद के उलट भारत के विकास में जान फूंकने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज़ोर दिया गया. इसके बावजूद पिछले एक वर्ष में हम देख रहे हैं कि ज़्यादा कुछ नहीं बदला. वास्तव में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास का स्वभाव और संभावना को देखते हुए ये बहुत ज़्यादा हैरान करने वाला नहीं है. इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश जटिल है और किसी परियोजना का खाका खींचने से लेकर उसका डिज़ाइन तैयार करने, निर्माण और फिर काम-काज शुरू करना एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें अनगिनत रुकावटें हैं. योजना की कमी और ख़राब शासन व्यवस्था एक बड़ा कारण है जो इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को समय से पूरा होने से रोकता है. इस वजह से प्रोजेक्ट की लागत काफ़ी ज़्यादा बढ़ जाती है और उसको तैयार करने का उद्देश्य भी पूरा नहीं होता है. ये दलील भी दी जाती है कि इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च की वजह से उम्मीद के मुताबिक़ जीडीपी में बढ़ोतरी वाला असर तभी आ सकता है जब पहले से मौजूद संस्थागत और प्रक्रियागत मजबूरियों को दूर किया जाए. ऐसा करने पर ही कोई भी प्रोजेक्ट समय पर पूरा किया जा सकेगा. सरकारी पूंजी हर हाल में पर्याप्त रूप से उत्पादक हो ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि उम्मीद के मुताबिक़ राजकोषीय लाभ अंतत: मिल सके. महामारी की वजह से आई जिस मंदी के दौर से भारत गुज़र रहा है, उसमें ये एक चुनौती है. इंफ्रास्ट्रक्चर में पूंजी लगाने को अक्सर सरकारों के द्वारा विदेशी निवेशकों के लिए निवेश का ठिकाना मुहैया कराने के साथ-साथ विकास बढ़ाने, रोज़गार और सेवा पहुंचाने के तरीक़े के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. तो भारत के लिए ये रणनीति कैसे काम कर रही है? 

  • आर्थिक विकास अलग-अलग तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर की ज़रूरत और उसको बनाने के लिए संसाधन- दोनों मुहैया कराते हैं और इसके बदले में इंफ्रास्ट्रक्चर और ज़्यादा विकास को बढ़ावा देते हैं. लेकिन इससे फ़ायदा लंबे वक़्त में मिलता है और ये विकास के लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक जोखिम भरा दांव है. मिसाल के तौर पर, एक सड़क का निर्माण दो बढ़ते हुए आर्थिक क्षेत्रों को जोड़ने के लिए किया जाता है और वहां रहने वाले लोग सड़क के इस्तेमाल के बदले टोल का भुगतान करते हैं. इस विकास पर बाहरी कारणों से या सिर्फ़ उसकी संभावना को लेकर ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीद से असर पड़ता है. ऐसी स्थिति में रोड पर टोल वसूलने वाली कंपनी अपने निवेश की भरपाई करने में नाकाम रहती है. इस तरह कंपनी को कर्ज़ देने वाले बैंक के लिए ये एक नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) बन जाता है या ऐसा कर्ज जिसकी वसूली नहीं की जा सकती है. 
  • राजमार्ग, औद्योगिक गलियारे, इत्यादि जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट निर्माण शुरू होने से पहले कई तरह की मंज़ूरियों, ज़मीन अधिग्रहण, परियोजना नियोजन और इसी तरह की दूसरी प्रक्रियाओं में फंसे होते हैं. इसकी वजह से निर्माण की तारीख़ आगे बढ़ जाती है. ज़्यादातर मज़दूरों को रोज़गार तब मिलता है जब कंस्ट्रक्शन का काम शुरू होता है. अक्सर परियोजनाओं का काम शुरू होने में काफ़ी देरी होती है. इंफ्रास्ट्रक्चर के ज़रिए रोज़गार तभी मिल सकता है जब पहले संस्थागत और प्रक्रियागत रुकावटों को दूर किया जाए और इसका सही तरीक़ा ढूंढ़ा जाए. 
  • सरकार की उम्मीदें एसेट मोनेटाइज़ेशन स्कीम यानी सरकारी संपत्तियों से आमदनी की योजना से हैं. इस योजना का उद्देश्य विदेशी संस्थागत निवेशकों को देश भर में ब्राउनफील्ड एसेट (जिन संपत्तियों का फिर से निर्माण किया जा सके) में निवेश के लिए आकर्षित करना है. लेकिन उम्मीद के विपरीत इस योजना की शुरुआत अच्छी तरह नहीं हो सकी. ये राष्ट्रीय राजमार्ग से एचएचएआई के अनुभव से स्पष्ट है. 
  • जब प्रोजेक्ट पर काम शुरू होने और उसके पूरा होने में काफ़ी ज़्यादा अंतर होता है तो उसका इस्तेमाल करने वाले लोगों (नागरिकों) को परेशानी होती है. इस अंतर की वजह से प्रोजेक्ट की लागत काफ़ी बढ़ जाती है और ये खर्च भी टैक्स देने वाले लोगों के पैसे से होता है. अगर ये दिक़्क़त नहीं हो तो लोगों के इस पैसे का कहीं और इस्तेमाल किया जा सकता है. 

इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश को चुकता करना 

सब लोग ये मानते हैं कि इंफ्रास्ट्रक्चर विकास का एक इंजन, रोज़गार पैदा करने का एक औज़ार और निवेश का एक आकर्षक ठिकाना है जो आधुनिकीकरण के लिए प्रेरित करता है और इसकी वजह से सेवाओं में सुधार आता है. लेकिन जैसा कि ऊपर के हिस्से में बताया गया है, भारत के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर ये बात हमेशा सही नहीं रही है. भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर को अनगिनत कारणों से उसकी पूरी संभावना तक पहुंचने से रोका जाता है. इन कारणों को संक्षेप में यहां बताया गया है: 

  • सार्वजनिक-निजी क्षेत्र का सबसे ज़्यादा आमना-सामना सरकारी ठेके की वजह से होता है, ख़ास तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में जहां सरकारी ठेके बड़ी संख्या में होते हैं (टॉप 10 ठेका देने वालों में से छह इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में हैं). वर्तमान में सरकारी संपत्तियों में प्राइवेट सेक्टर की दिलचस्पी कम है. इसकी वजह भुगतान में देरी, नौकरशाही की प्रक्रियाएं और परियोजनाओं के कार्यान्वयन में बड़ा अंतर है. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) के द्वारा किए गए 1,009 सड़क परियोजनाओं के सर्वे में सिर्फ़ 136 प्रोजेक्ट सही दिशा में पाए गए. सरकारी ठेकों में वास्तविक सुधार की ज़रूरत है जो इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर के भीतर काम-काज की स्थिति को बेहतर करेगा.  
  • सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) को इस तरह विकसित किया गया कि वित्तीय जोखिम को प्राइवेट सेक्टर की तरफ़ ले जाया जाए जिनसे देश के निर्माण में साझेदार बनने की उम्मीद की गई थी. लेकिन दशक भर सफलतापूर्वक चलने के बाद पीपीपी की लड़खड़ाती स्थिति ने इस तरह के प्रोजेक्ट में शामिल होने को लेकर प्राइवेट सेक्टर को आशंकाओं से भर दिया है. बिजली, दूरसंचार और परिवहन सेक्टर में मजबूरियों के समाधान के लिए पीपीपी को फिर से ज़िंदा करना महत्वपूर्ण है. 
  • पीपीपी के व्यावहारिक नहीं होने की वजह से पिछले सात-आठ वर्षों में उनके नुक़सान की आशंका बढ़ गई है. जिन बैंकों ने राजमार्ग की परियोजनाओं में ज़्यादा पैसा लगाया था, वो अब कर्ज़ देने से हिचक रहे हैं. इसके अलावा एनएचएआई जैसी संस्थाओं ने पिछले चार वर्षों में काफ़ी ज़्यादा कर्ज़ लिया है. इसके परिणामस्वरूप उनका कर्ज़ बढ़कर 3 लाख करोड़ से ज़्यादा हो गया है. इस स्थिति में वित्त मंत्रालय ने इस वित्तीय वर्ष में एनएचएआई को कर्ज़ लेने से रोक दिया है. मौजूदा हालात में इनोवेटिव लेकिन सचमुच में व्यावहारिक वित्तीय व्यवस्था की ज़रूरत है. छोटे स्तर पर संपत्तियों से आमदनी जुटाना एक विकल्प है. ये विकल्प ऑस्ट्रेलिया के सड़क और बंदरगाह सेक्टर में सफल रहा था
  • वर्तमान में सरकार जिन मुक़दमों में शामिल है उनमें से ज़्यादातर मुक़दमे इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े हे हैं. एनएचएआई के बकाया दावे भी उसके ऊपर विशाल कर्ज़ में योगदान कर रहे हैं. मुक़दमों में फंसने की ज़्यादा आशंका सरकार के साथ कारोबार करने की कुल लागत में इज़ाफ़ा करती है. इसकी वजह से देरी और लागत में बढ़ोतरी भी होती है. 

इंफ्रास्ट्रक्चर से प्रेरित विकास के साकार होने का समय लंबा होता है जिस पर महत्वपूर्ण पूंजी की ज़रूरत होती है. बजट की मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए ये अनिवार्य है कि परियोजना की सफलता दर में सुधार करने और सरकारी संपत्ति में निवेश की तरफ़ प्राइवेट सेक्टर की सोच बदलने के लिए सुधारात्मक क़दम उठाया जाए

सरकार के बजट से लगता है कि आपूर्ति अपनी मांग ख़ुद बना लेती है. लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है. रोज़गार और आजीविका से जुड़ी अस्थिरता में बढ़ोतरी ने ज़्यादा बचत करने की ज़रूरत को बढ़ाया है. सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए ज़्यादा फंड का आवंटन कर सकती है लेकिन ऐसा करने से गहराई से समाई संस्थागत और प्रक्रियागत रुकावटों का समाधान नहीं होगा. पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में की गई घोषणाओं, जैसे कि वित्तीय इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए राष्ट्रीय बैंक (एनएबीएफआईडी) का शुरू होना अभी भी बाक़ी है. इंफ्रास्ट्रक्चर से प्रेरित विकास के साकार होने का समय लंबा होता है जिस पर महत्वपूर्ण पूंजी की ज़रूरत होती है. बजट की मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए ये अनिवार्य है कि परियोजना की सफलता दर में सुधार करने और सरकारी संपत्ति में निवेश की तरफ़ प्राइवेट सेक्टर की सोच बदलने के लिए सुधारात्मक क़दम उठाया जाए. शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसे सामाजिक सूचकों पर इंफ्रास्ट्रक्चर का जो सकारात्मक असर हो सकता है, वो सतत विकास लक्ष्य 2030 को हासिल करने के लिए इसे प्रगति का प्रमुख स्तंभ बनाता है.

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