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AI की दुनिया भर में जो तेजी आई है, उसकी ताकत ग्लोबल साउथ के गरीब देशों के मजदूरों और ज़मीन से मिलती है लेकिन कॉर्पोरेट लालच और ताकत की इस दौड़ में इन गरीब देशों की ज़रूरतें और प्राथमिकताएं किनारे कर दी गई हैं.
Image Source: Getty Images
मगर इस शानदार तरक्की की एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है. यह कीमत सिर्फ इस बात से नहीं जुड़ी है कि कोई मॉडल कुछ लोगों को शामिल करता है या बाहर रखता है बल्कि यह कीमत बढ़ते बुनियादी ढांचे पर होने वाले ख़र्च से भी जुड़ी है. पूरी दुनिया में डाटा सेंटरों की बाढ़ आ गई है और इसकी वजह से वहां के स्थानीय लोग बड़े पैमाने पर विरोध कर रहे हैं और नाराज़ हैं. इतना ही नहीं AI मॉडल बनाने के लिए ज़रूरी डाटा लेबलिंग जैसे मज़दूरी वाले काम ने इसमें लगे लोगों पर गहरा मानसिक असर डाला है. ये बातें यह साबित करती हैं कि AI के इस दौर में हमें विकास के तरीके को फिर से नए सिरे से सोचना होगा. जब दुनिया की बड़ी ताकतें आपस में मुकाबला करने में व्यस्त हैं तो यह और भी ज़रूरी हो जाता हैं कि दुनिया भर की प्राथमिकताओं को तय करने में ग्लोबल साउथ के गरीब देशों की भागीदारी और उनके विकास की ज़रूरतों को बराबर का महत्व दिया जाए.
बड़ी-बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों की AI डाटा सेंटरों की मांग बहुत तेज़ी से बढ़ रही है. ज़ाहिर है, इसके लिए उन्हें ज़मीन, बिजली और पानी की भी भारी ज़रूरत है. इसी वजह से वे ग्लोबल साउथ के देशों में अपने डाटा सेंटर बना रहे हैं. 2023 में, उरुग्वे में गूगल (Google) के डाटा सेंटर बनाने की योजना का वहां के लोगों ने कड़ा विरोध किया. इसकी बड़ी वजह यह थी कि यह देश 70 से ज़्यादा सालों से सबसे भयंकर सूखे से गुज़र रहा था और लोगों के एक छोटे से हिस्से को ही साफ़ पानी मिल रहा था और इस शुद्ध जल का एक बड़ा हिस्सा इस डाटा सेंटर को दिए जाने का ख़तरा था.
पूरी दुनिया में डाटा सेंटरों की बाढ़ आ गई है और इसकी वजह से वहां के स्थानीय लोग बड़े पैमाने पर विरोध कर रहे हैं और नाराज़ हैं.
चिली में 22 डाटा सेंटर हैं जिनमें से 16 सैंटियागो में हैं. इससे देश के पानी और पर्यावरण पर बहुत अधिक दबाव पड़ रहा है. गूगल के दूसरे डाटा सेंटर की योजना को 2019 में सरकारी मंजूरी मिल गई थी, लेकिन स्थानीय प्रदर्शनों के चलते 2024 में उसे रोक दिया गया. अमेज़न (Amazon) और माइक्रोसॉफ्ट (Microsoft) जैसी दूसरी कंपनियों को भी विरोध झेलना पड़ा है. ब्राजील में भी कुछ ऐसा ही स्थिति है, जहां 22 प्रस्तावित डाटा सेंटरों में से 5 जिनमें चीन की बड़ी कंपनी बाइटडांस (ByteDance) के भी डाटा सेंटर ऐसे शहरों में हैं जहां पानी की भीषण कमी है.
इतना ही नहीं, डाटा सेंटरों के फ़ैलने से होने वाला नुकसान अब सिर्फ गरीब देशों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह बड़ी ताकतों वाले देशों में भी फ़ैल गया है. डाटा सेंटर वॉच की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में घरेलू विरोध के कारण करीब $64 बिलियन की डाटा सेंटर परियोजनाओं को रोक दिया गया है या उनमें देरी हुई है. xAI की मेम्फिस फैसिलिटी जैसे मौजूदा डाटा सेंटरों को भी बॉक्स्टाउन जैसे इलाकों में बढ़ते हुए वायु प्रदूषण के आरोपों के कारण विरोध का सामना करना पड़ रहा है. लंदन के 'ग्रीन बेल्ट' इलाके में यूरोप के सबसे बड़े AI डाटा सेंटर को बनाने की एक योजना को भी स्थानीय समुदाय से इसी तरह का विरोध मिल रहा है.
AI मॉडल को सटीक बनाने और अवांछित चीजें जैसे हिंसा, यौन शोषण को कंटेंट में से हटाने के लिए डेटा लेबलिंग की ज़रूरत होती है. ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए, बड़ी टेक कंपनियां ये काम सस्ते श्रम वाले ग्लोबल साउथ के देशों को आउटसोर्स करती हैं जहां मज़दूरों का शोषण होता है. जैसे कि ChatGPT और OpenAI ने हानिकारक चीजें हटाने के लिए केन्याई मज़दूरों को लगाया था, जिन्हें हर घंटे $2 से भी कम मिलते थे. यह काम उसका आउटसोर्सिंग पार्टनर सामा (Sama) करवाता था. कम पैसे के अलावा, इस काम की वजह से कई केन्याई मज़दूरों पर बुरा मनोवैज्ञानिक असर पड़ा, जिसके चलते सामा को OpenAI के लिए अपना काम तय समय से आठ महीने पहले ही बंद करना पड़ा था. 2024 में, लगभग सौ केन्याई AI मज़दूरों ने अमेरिकी राष्ट्रपति को एक खुला पत्र लिखकर कहा, "हमारे काम करने की शर्तें आधुनिक गुलामी के जैसी ही है."
2024 में, लगभग सौ केन्याई AI मज़दूरों ने अमेरिकी राष्ट्रपति को एक खुला पत्र लिखकर कहा, "हमारे काम करने की शर्तें आधुनिक गुलामी के जैसी ही है."
इसी तरह, वेनेज़ुएला के मौजूदा संकट के कारण यह देश डाटा लेबलिंग की आउटसोर्सिंग का एक बड़ा अड्डा बन गया है. कंपनियां यहां के मज़दूरों की आर्थिक मजबूरी का फ़ायदा उठाती हैं, और उनके वेतन को लगातार कम करती रहती हैं, साथ ही उनके अकाउंट भी सस्पेंड कर देते हैं.
ग्लोबल साउथ के सभी देशों में यही हाल है और मज़दूरों का शोषण होता है, उन्हें कम पैसे दिए जाते हैं, ख़तरनाक माहौल में उनसे काम करवाया जाता है और यह सब कुछ छिपकर किया जाता है. यहां तक कि लेबलिंग देने वाले लोग अपनी बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए बच्चों से भी काम करवाने लगते हैं. भारत, जहां दुनिया में सबसे ज़्यादा ऑनलाइन फ्रीलांस मज़दूर हैं, इन कंपनियों के लिए आसान निशाना है.
समस्या कितनी भी उलझी हुई क्यों न हो, हल हमेशा मुमकिन होते हैं. इसमें डीपसीक जैसे नए तरीके शामिल हैं जो कम्प्यूटर की कार्य क्षमता को ज़्यादा अहमियत देते हैं. इस बात से यह सिद्ध होता है कि अगर हम कार्यक्षमता और ओपन वेट्स पर ध्यान दें तो AI मॉडल के भविष्य के लिए यह एक अच्छा रास्ता हो सकता है. इसके अलावा, स्मॉल लैंग्वेज मॉडल्स जैसे विकल्प भी उम्मीद जगाते हैं. ये कई चिंताओं को कम कर सकते हैं, ख़ासकर इसलिए क्योंकि कुछ मामलों में ये ऑफलाइन भी काम कर सकते हैं, जिससे क्लाउड कंप्यूटिंग के बड़े ढांचे पर निर्भरता ख़त्म हो जाती है. लेकिन, इन समाधानों पर ज़रूरी ध्यान नहीं दिया गया है. OpenAI, माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां अपने ज़्यादातर पैसे ग्लोबल AI विस्तार के लिए ज़रूरी विशाल बुनियादी ढांचा खड़ा करने पर लगा रही हैं.
भारत इस गंभीर मुद्दे पर नेतृत्व कर सकता है और ग्लोबल साउथ के देशों को जो इन बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों की शोषण तंत्र के पकड़ में फंसा हुए हैं उनको AI की दौड़ में बिगड़ी हुई शक्ति संतुलन का शिकार होने से बचा सकता है.
AI की वजह से हो रहे वैश्विक विकास में सही तरीके से शामिल होने के लिए ग्लोबल साउथ को ये काम करने होंगे कि अपने देश के बने मॉडल और अपने हितों के हिसाब से ज़्यादा असरदार विकल्प तैयार करने पर ध्यान दें. उन्हें मज़दूरों के कानूनों को मज़बूत करना होगा और AI सप्लाई चेन में ज़्यादा पारदर्शिता लानी होगी. AI के विकास के फ़ायदे ज़रूर हैं लेकिन इसे इंसान की इज़्ज़त और तरक्की की कीमत पर नहीं होना चाहिए. 2026 में नई दिल्ली में होने वाला AI इम्पैक्ट समिट भारत के लिए एक बड़ा मौका है. भारत इस गंभीर मुद्दे पर नेतृत्व कर सकता है और ग्लोबल साउथ के देशों को जो इन बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों की शोषण तंत्र के पकड़ में फंसा हुए हैं उनको AI की दौड़ में बिगड़ी हुई शक्ति संतुलन का शिकार होने से बचा सकता है. भारत इस मुद्दे पर मज़बूती से अपनी बात रखकर, समान सोच वाले देशों में वैचारिक और आर्थिक एकता बढ़ाकर और ग्लोबल साउथ के हितों को आगे बढ़ाकर उसे हासिल कर सकता है.
प्रतीक त्रिपाठी ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रेटेजी एंड टेक्नोलॉजी (CSST) में जूनियर फेलो हैं.
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Prateek Tripathi is a Junior Fellow at the Centre for Security, Strategy and Technology. His work focuses on emerging technologies and deep tech including quantum technology ...
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