Author : Kabir Taneja

Published on Sep 08, 2021 Updated 0 Hours ago

भले ही अभी आईएसकेपी ज़्यादा ताक़तवर नहीं है लेकिन अमेरिका की वापसी के बाद अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण से उसकी ताक़त बढ़ने की आशंका है.

अफ़ग़ानिस्तान: तालिबान और इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रोविंस के बीच सामरिक और सुनियोजित युद्ध

अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी मौजदूगी के आख़िरी कुछ घंटे उथल-पुथल भरे रहे. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के 20 साल का युद्ध उस वक़्त ख़त्म हुआ जब 82वीं एयरबोर्न डिविज़न के कमांडिंग जनरल, मेजर जनरल क्रिस डोनाहू अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन से जाने वाले अमेरिका के आख़िरी सैनिक बने. लेकिन लापरवाह तरीक़े से अमेरिका की वापसी ने अफ़ग़ानिस्तान में अनिश्चितता को बढ़ा दिया है. तालिबान 3.5 करोड़ की आबादी वाले देश में शासन व्यवस्था चलाने के चुनौतीपूर्ण काम के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा है.

26 अगस्त की शाम को काबुल हवाई अड्डे पर आतंकी हमला, जिसमें 150 से ज़्यादा लोगों की जान गई, उस आने वाले वक़्त का संकेत है जिससे अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान शासन में अपने पुनर्निर्माण के दौरान निश्चित रूप से निपटना होगा. इस हमले की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रोविंस ने ली जो अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट का कथित हिस्सा है. ये हमला तालिबान के नेतृत्व वाले प्रशासन के सामने बड़ी चुनौतियों में से एक है यानी उसे दशकों पुराने बग़ावत से हटकर अच्छा प्रशासन, अच्छी पुलिस व्यवस्था मुहैया करानी होगी और आईएसकेपी जैसे अपने दुश्मनों को पीछे धकेलना होगा.

तालिबान के ख़िलाफ़ आईएसकेपी का वैचारिक और सैन्य युद्ध नया नहीं है. ये विडंबना है कि तालिबान ने पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की सरकार को अमेरिका के द्वारा स्थापित शासन के रूप में देखा. तालिबान के मुताबिक़ ग़नी की सरकार अमेरिका की कठपुतली थी जो न तो अफ़ग़ान लोगों की नुमाइंदगी करती थी, न इस्लाम की. अब तालिबान की सरकार को लेकर आईएसकेपी का भी यही नज़रिया है. तालिबान की जीत और सत्ता पर कब्ज़े को आईएसकेपी अमेरिका और पश्चिमी देशों के समर्थन का नतीजा मानता है. अफ़ग़ानिस्तान में आईएसकेपी को बहुत ज़्यादा मज़बूत नहीं माना जाता है. अमेरिकी सेना के सेंट्रल कमांड के अनुमानों के मुताबिक आईएसकेपी के आतंकियों की संख्या क़रीब 2,000 है. आईएसकेपी की ऑनलाइन प्रोपेगैंडा मशीनरी तालिबान, पाकिस्तान और अमेरिका के ख़िलाफ़ कई महीनों से दुष्प्रचार कर रही है. वो तालिबान, पाकिस्तान और अमेरिका को इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िश बता रही है. आईएसकेपी कहता है कि तालिबान की पहली पीढ़ी, 90 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ लड़ने वाले मुजाहिदीन, की विचारधारा सही थी लेकिन उसके बाद की पीढ़ी पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (आईएसआई) के नेतृत्व में अपने विचारों से भटक गई.

26 अगस्त की शाम को काबुल हवाई अड्डे पर आतंकी हमला, जिसमें 150 से ज़्यादा लोगों की जान गई, उस आने वाले वक़्त का संकेत है जिससे अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान शासन में अपने पुनर्निर्माण के दौरान निश्चित रूप से निपटना होगा.   

जुलाई 2021 में आईएसआईएस समर्थित प्रकाशन, सॉत-अल-हिंद में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है, “पाकिस्तान सरकार के द्वारा तालिबान और अमेरिका के बीच कराए गए कथित शांति समझौते के बाद तालिबान ने लगातार इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी की. अफ़ग़ानिस्तान पर जिस किसी की नज़र है, उसके लिए अब हैरानी की कोई बात नहीं है क्योंकि “अच्छे लोग ख़राब लोगों से अलग हो गए हैं और जैसे ही कथित शांति वार्ता चली वैसे ही तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी को प्राथमिकता देना शुरू किया.”

तालिबान का स्वीकार्य संस्करण

तालिबान और आईएसकेपी- दोनों के लिए सामरिक और सुनियोजित रस्साकशी के दिन आने वाले हैं. ऊपरी तौर पर देखें तो तालिबान ने न सिर्फ़ अमेरिका की वापसी के लिए समझौते के दौरान वैचारिक रियायत दी बल्कि ख़ुद को पुराने तालिबान के स्वीकार्य संस्करण के तौर पर भी पेश किया. वो पुराना तालिबान जो अभी भी मार्च 2001 में बामियान के बुद्ध को उड़ाने वाले के रूप में याद किया जाता है, जिसने 1996 से 2001 के दौरान दुनिया से कटी हुई, अलग-थलग इस्लामिक सरकार चलाई और जिसने अल-क़ायदा को पनाह दिया. रणनीतिक तौर पर एक वैचारिक नज़रिए से तालिबान के लिए अगले कुछ महीने महत्वपूर्ण हैं. तालिबान को अपने दो रूपों के बीच एक संतुलन कायम करना होगा. एक तरफ़ तो तालिबान का 90 के दशक वाला रूप है, जिसकी चर्चा अभी भी दुनिया भर में होती है, और दूसरी तरफ़ तालिबान का वो रूप है जिसमें अभी वो ख़ुद को पेश कर रहा है. लेकिन इस मामले में तालिबान के पास सीमित गुंजाइश है. किसी एक विचारधारा की तरफ़ बहुत ज़्यादा झुकना उसके समर्थकों के एक बड़े वर्ग को दूर कर सकता है. उसके समर्थकों में दोनों विचारधारा के लोग हैं. एक तरफ़ वो समर्थक हैं जो वर्षों से तालिबान के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ़ पहली पीढ़ी के तालिब हैं जिनकी उम्र 20 वर्ष के आसपास है और जो इस्लाम को सिर्फ़ एक तरीक़े से जानते हैं और वो तरीक़ा है विदेशी शक्ति के ख़िलाफ़ लड़ाई ताकि दुनिया को लेकर विदेशी शक्तियों के नज़रिए को नामंज़ूर किया जा सके.

तालिबान को अपने दो रूपों के बीच एक संतुलन कायम करना होगा. एक तरफ़ तो तालिबान का 90 के दशक वाला रूप है, जिसकी चर्चा अभी भी दुनिया भर में होती है, और दूसरी तरफ़ तालिबान का वो रूप है जिसमें अभी वो ख़ुद को पेश कर रहा है. 

अब जब तालिबान ने सोवियत संघ के बाद एक और महाशक्ति के ख़िलाफ़ सैन्य जीत हासिल कर ली है तो तालिबान के लिए सामरिक रियायत का विचारधारा से नेतृत्व करना होगा. दुनिया भर में स्वीकृति और पहुंच हासिल करने, और सबसे बढ़कर वैश्विक अर्थव्यवस्था, के लिए तालिबान  इस्लाम के ‘उदारवादी’ दृष्टिकोण को मज़बूत करने की कोशिश करेगा और ऐसा करते हुए शरिया को लागू करेगा. लेकिन तालिबान इस रूप को अपने कट्टर समूहों, जो कई हैं, के सामने कैसे पेश करता है, इस बात से दुनिया तक उसकी पहुंच की कामयाबी तय होगी. इस वक़्त ‘नये’ तालिबान की विचारधारा की ज़्यादातर कहानियां काबुल के साथ-साथ दोहा बातचीत से जुड़े तालिबान के प्रवक्ताओं और हक़्क़ानी नेटवर्क से आ रही हैं. लेकिन काबुल के बाहर महिलाओं के अधिकार, कला, शिक्षा और इसी तरह के कई मुद्दों पर विचारधारा की मज़बूती अभी भी नहीं है. इस बीच दुनिया के सामने तालिबान के प्रमुख हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा और तालिबान के संस्थापक रहे मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला याक़ूब की तरफ़ से कोई बयान नहीं आया है. इन दोनों को तालिबान का आध्यात्मिक और वैचारिक चेहरा माना जाता है.

आईएसकेपी फिलहाल इस स्थिति में है कि वो और ज़्यादा लोगों को अपनी तरफ़ आकर्षित कर सके. उदाहरण के लिए, ऐसे लोग जो इस बात से ख़ुश नहीं है कि तालिबान पश्चिमी देशों को ख़ुश करने के लिए अपनी विचारधारा में नरमी लाने के लिए तैयार हो गया है. 

दूसरी तरफ़ आईएसकेपी है जिसकी ताक़त भले ही कम हो लेकिन निश्चित रूप से ज़्यादा कट्टर है. बग़ावत वाले क्षेत्र में घुसने के मामले में और काबुल जैसी जगहों में आतंकी हमले करने का उसे ज़्यादा तजुर्बा है. इस तरह की चीज़ों पर एक ज़माने में तालिबान की मज़बूत पकड़ थी. अमेरिका की तरफ़ से पक्की खुफ़िया जानकारी के बावजूद काबुल हवाई अड्डे पर हमले ने आईएसकेपी को फिर से सुर्ख़ियों में ला दिया है. अभी तक आईएसकेपी काफ़ी हद तक नंगरहार और कुनार जैसे प्रांतों तक सीमित था. आईएसकेपी के ख़िलाफ़ अमेरिकी हवाई हमलों, अमेरिका की मदद के लिए अफ़ग़ान सेना के अभियानों और तालिबान द्वारा आईएसकेपी को पीछे धकेलने की वजह से इसकी क्षमता काफ़ी कम हो गई थी. लेकिन इसके बावजूद समय-समय पर आईएसकेपी बड़े हमलों को अंजाम देने में कामयाब होता रहा जैसे कि मार्च 2020 में काबुल के बीचो-बीच एक सिख गुरुद्वारे पर हमला जिसमें 25 लोगों की मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए.

आईएसकेपी की उन्नत वैचारिक प्रतिबद्धता

आईएसकेपी के बारे में एक महत्वपूर्ण बात जो याद रखने लायक है, वो ये है कि आईएसकेपी ख़ासतौर से एक अफ़ग़ान समूह बना हुआ है. इस्लामिक उम्मा (एक समान इस्लामिक पहचान) और ख़िलाफ़त की स्थापना के लिए लड़ाई की बात भी नई नहीं है और ये तालिबान की विचारधारा से मिलती है. शुरुआती दौर में आईएसकेपी से जुड़े लोग मूल रूप से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), तालिबान, अल-क़ायदा और दूसरे छोटे जिहादी समूहों के पुराने लड़ाके थे. 2015 में वो एक ऐसे समूह से जुड़े जो इराक़ और सीरिया में पहले ही बड़ा नाम बन चुका था. इस वजह से आईएसकेपी को अमेरिकी और नाटो की सेना के साथ-साथ तालिबान से भी तुरंत पहचान मिल गई. आईएसकेपी के मौजूदा सीमित आकार के बावजूद मज़बूत संकल्प और शहरी इलाक़ों में युद्ध की तरफ़ बढ़ना सरकार विहीन अफ़ग़ानिस्तान को नुक़सान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है. कम-से-कम अगले कुछ दिनों तक शासन व्यवस्था मौजूद रहने की उम्मीद नहीं है. ऐसे में लोग सुरक्षा के लिए जातीय बंटवारे, जनजातियों और सिपहसालारों की छत्रछाया में हैं. आईएसकेपी फिलहाल इस स्थिति में है कि वो और ज़्यादा लोगों को अपनी तरफ़ आकर्षित कर सके. उदाहरण के लिए, ऐसे लोग जो इस बात से ख़ुश नहीं है कि तालिबान पश्चिमी देशों को ख़ुश करने के लिए अपनी विचारधारा में नरमी लाने के लिए तैयार हो गया है. साथ ही वैसे लोग भी जो काबुल में नई राजनीतिक व्यवस्था में जगह नहीं मिलने से ख़ुश हैं. विश्लेषक अब्दुल सैय्यद कहते हैं: “आईएसकेपी ने नेताओं को ऊंची जगह देकर और काबुल जैसे शहरों से लड़ाकों, जिनमें युद्ध का अनुभव रखने वाले शिक्षित और सलाफ़ी विचारधारा को मानने वाले कट्टर लोग शामिल हैं, की भर्ती कर शहरी नेटवर्क बनाना शुरू किया. इस काम के लिए उसने अफ़ग़ान उग्रवादी समूह के कुछ पुराने लड़ाकों को भी भर्ती किया. आईएसकेपी के काबुल नेटवर्क में तालिबान के कट्टर हक़्क़ानी नेटवर्क से अलग होने वालों और  भगोड़ों को भी शामिल किया गया.”

 दूसरी तरफ़ आईएसकेपी है जिसकी ताक़त भले ही कम हो लेकिन निश्चित रूप से ज़्यादा कट्टर है. बग़ावत वाले क्षेत्र में घुसने के मामले में और काबुल जैसी जगहों में आतंकी हमले करने का उसे ज़्यादा तजुर्बा है. 

सामरिक तौर पर तालिबान ने भले ही अफ़ग़ानिस्तान की जंग जीत ली है लेकिन वैचारिक तौर पर ऊंचे स्थान पर रखने के अलावा ख़ुद को न सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक दरार के भीतर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भी मुख्यधारा में लाने की तालिबान की कोशिश का आईएसकेपी फ़ायदा उठाने की कोशिश करेगा. वैसे तो आईएसकेपी छोटा समूह बना हुआ है लेकिन वैचारिक प्रतिबद्धता के मामले में वो तालिबान से आगे है. इस वजह से तालिबान की राजनीतिक प्रणाली की परतें खुलने के बाद जब सत्ता के बंटवारे में युद्ध का तजुर्बा रखने वाले लोगों को उचित जगह नहीं मिलेगी तो कुछ प्रभावशाली लोगों को आईएसकेपी आकर्षित कर सकता है. आतंकवाद निरोधी मुद्दों पर तालिबान और अमेरिका के बीच संभावित सहयोग की ख़बरें भी वैचारिक बंटवारे को तेज़ कर सकती है.

आईएसकेपी इस्लाम के बेहद नैतिकतावादी नज़रिए का प्रचार करके भी अफ़ग़ानिस्तान के कुछ लोगों का समर्थन हासिल करके फ़ायदा उठा सकता है. 

तालिबान का रणनीतिक खेल उसे अल-क़ायदा के साथ संबंध मज़बूत करने की तरफ़ धकेल सकता है, वो अल-क़ायदा जो आईएसकेपी का ज़्यादा व्यावहारिक और राजनीतिक रूप से चतुर रूप है. आईएसकेपी इस्लाम के बेहद नैतिकतावादी नज़रिए का प्रचार करके भी अफ़ग़ानिस्तान के कुछ लोगों का समर्थन हासिल करके फ़ायदा उठा सकता है. ये ऐसे अफ़ग़ानी हैं जिन्होंने हमेशा तालिबान का समर्थन ये जानकार किया कि वो उस विचारधारा के ख़िलाफ़ है जिसको आज वो शासन व्यवस्था की वजह से अपनाने के लिए तैयार है.

“नये” अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान-आईएसकेपी के बीच का संबंध सिर्फ़ आतंकी हमलों और ख़ुद को श्रेष्ठ बताने से बढ़कर सामने आ सकता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.