Author : Kabir Taneja

Published on May 30, 2022 Updated 16 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान की अंदरुनी दुश्वारियों के अलावा तालिबान के सामने कुछ नई सामरिक चुनौतियां भी खड़ी हो गई हैं.

अफ़ग़ानिस्तान: वैश्विक अस्तित्व के इर्द-गिर्द मंडराते सामरिक चुनौतियों से जूझता ‘तालिबान-प्रशासन’

डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला द्वारा काबुल से दिल्ली का ताज़ा दौरा किए जाने से तालिबान और भारत के बीच एक स्तर पर पनपता संपर्क सुर्ख़ियों में आ गया है. हालांकि, इस सिलसिले में कुछ और मिसालें भी हैं. मसलन भारत ने मदद के तौर पर अफ़ग़ानिस्तान को गेहूं की सप्लाई की और जलालाबाद में इसका भारतीय और तालिबानी झंडों के साथ स्वागत किया गया. हाल के समय में ऐसी ख़बरें भी आई हैं कि भारत सहायता प्रक्रिया और भविष्य में काउंसलर सेवाओं को सुविधानजनक बनाने के लिए काबुल में सीमित तौर पर अपना मिशन दोबारा चालू करने पर विचार कर सकता है. दरअसल, दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और फ़ारस की खाड़ी के आसपास की तमाम क्षेत्रीय ताक़तें तालिबानी क़ब्ज़े वाले अफ़ग़ानिस्तान को लेकर एहतियात के साथ अपनी नीतिगत क़वायदें तय करने लगी हैं. भारत द्वारा उठाए जा रहे क़दमों को भी इन्हीं घटनाक्रमों के मद्देनज़र देखने की ज़रूरत है.

दरअसल, दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और फ़ारस की खाड़ी के आसपास की तमाम क्षेत्रीय ताक़तें तालिबानी क़ब्ज़े वाले अफ़ग़ानिस्तान को लेकर एहतियात के साथ अपनी नीतिगत क़वायदें तय करने लगी हैं. 

तालिबानी हुकूमत को सत्ता पर क़ाबिज़ हुए 9 महीने से भी ज़्यादा वक़्त हो चुका है. बहरहाल, घरेलू और क्षेत्रीय नज़रिए से जुड़ावों का बुनियादी स्तर हासिल करने में उसे अब भी काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ रही है. हाल ही में पाकिस्तान-समर्थित हक़्क़ानी नेटवर्क के सिराजुद्दीन हक़्क़ानी ने आपस में उलझे क़बीलाई गुटों के बीच वार्ताओं के ज़रिए सुलह की अपील की है. इसमें उसके अपने परिवार और सोरी खैल क़बीले के बीच 60 साल पुराना आंतरिक टकराव भी शामिल है. हालांकि, लड़कियों की शिक्षा जैसे अंदरुनी तक़रारों वाले तमाम मसलों से इस्लामी आंदोलन की वैचारिक सत्ता के गलियारों के मतभेद बेपर्दा हो गए हैं. इलाक़ाई तौर पर तालिबान को ईरान और पाकिस्तान के साथ छोटे-छोटे सरहदी टकरावों से दो-चार होना पड़ रहा है. साथ ही वो इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान प्रोविंस (ISKP) के ख़तरों से भी निपट रहा है. ख़बरों के मुताबिक हाल ही में ISKP ने अफ़ग़ानिस्तान की उत्तरी सरहदों पर उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान में रॉकेट दागे थे. दरअसल, अफ़ग़ानिस्तान का क़िस्सा इस मायने में अजीब है कि राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ लड़कर सत्ता में आने वाले आतंकी गुट (यानी तालिबान) के सामने अब ISKP और अन्य आतंकी संगठनों के ख़िलाफ़ आतंकवाद-विरोधी कार्रवाई करने की चुनौती आ गई है. इस मुहिम में तालिबान को उन्हीं लड़ाकों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है जिनके पास बुनियादी रूप से वैसे ही किरदार निभाने का तजुर्बा है जिनकी नुमाइंदगी आज ISKP कर रहा है.

कंधार और हक्कानी ‘गुट’

हालांकि, तालिबान और उसके सरपरस्त पाकिस्तान के बीच हालिया टकरावों की वारदात तमाम दूसरे मसलों पर भारी हैं. आज तालिबान के सामने यही सबसे अहम सामरिक पहेली है. बेशक़ तालिबान का आला नेतृत्व अब भी मज़बूत है. तालिबानी सुप्रीम लीडर हिबतुल्लाह अख़ुंदज़ादा और कार्यवाहक प्रधानमंत्री मोहम्मद हसन अख़ुंद- दोनों ही ‘कंधार’ गुट से ताल्लुक़ रखते हैं. इस गुट के ज़्यादातर लोग तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर के साथ सीधे तौर पर या उसके मातहत काम कर चुके हैं. ग़ौरतलब है कि इस सिलसिले में ‘अन्य’ की भूमिका में हक़्क़ानी हैं, जो पाकिस्तानी राज्यसत्ता के क़रीब है. पिछले दिनों हक़्क़ानियों ने ‘आशावादियों’ जैसा दांव चलकर लड़कियों की शिक्षा का समर्थन करते हुए मजहबी जानकारों को इसके समर्थन में एकजुट करने का प्रयास किया है. हाल ही में CNN को दिए एक दुर्लभ साक्षात्कार में सिराजुद्दीन हक़्क़ानी ने कहा है कि ‘लड़कियों की शिक्षा पर ख़ुशख़बरी सुनने को मिलेगी.’   

तालिबानी सुप्रीम लीडर हिबतुल्लाह अख़ुंदज़ादा और कार्यवाहक प्रधानमंत्री मोहम्मद हसन अख़ुंद- दोनों ही ‘कंधार’ गुट से ताल्लुक़ रखते हैं. इस गुट के ज़्यादातर लोग तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर के साथ सीधे तौर पर या उसके मातहत काम कर चुके हैं. ग़ौरतलब है कि इस सिलसिले में ‘अन्य’ की भूमिका में हक़्क़ानी हैं, जो पाकिस्तानी राज्यसत्ता के क़रीब है.

बहरहाल, तालिबानी नेतृत्व अब भी अल-क़ायदा जैसे आतंकी संगठनों का बचाव कर रहा है. इनमें पाकिस्तान के लिहाज़ से ज़्यादा अहमियत रखने वाला तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) भी शामिल है. पाकिस्तान में TTP, ISKP और इस्लामिक स्टेट पाकिस्तान (ISPP) की ओर से आतंकी गतिविधियों में उछाल देखने को मिला है. इससे ख़ुद तालिबान पर भी चोट पड़ रही है. ख़बरों के मुताबिक पाकिस्तान ने आतंकी गुटों को निशाना बनाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के कुनार और ख़ोश्त प्रांतों के भीतर हवाई हमलों को अंजाम दिया है. ग़ौरतलब है कि हालिया वक़्त में इन आतंकी संगठनों ने पाकिस्तानी सशस्त्र बलों पर कई बार हमले किए हैं.  

इस सिलसिले में तालिबान दो प्रमुख सामरिक चुनौतियों में संतुलन साधने में लगा है. पहली चुनौती आंतरिक एकजुटता को लेकर है. तालिबान को क़बीले के भीतर के मतभेदों से पार पाना है. उसे अपने उत्तरी और उत्तर-पूर्वी प्रांतों (जहां 1980 के दशक में सलफ़ीवाद ने जड़ें जमा ली थीं) में ISKP के संभावित उभार से निपटना है. साथ ही युद्ध वाली अर्थव्यवस्था के बचे-खुचे हिस्सों पर क़ाबू पाना है. तालिबान की ओर से सार्वजनिक तौर पर यही क़िस्सागोई करने की कोशिश हुई है कि वो अफ़ीम की खेती जैसे तमाम मसलों पर शिकंजा कस रहा है. इसके बावजूद ये मसले उसकी आर्थिक योजना में एक विकल्प के तौर पर (प्लान बी) बरक़रार हैं. पंजशीर जैसे इलाक़ों में प्रतिरोध में संभावित उछाल से उन प्रांतों में तालिबानी फ़ौज के लिए धीरे-धीरे दबाव बढ़ता जा रहा है. छोटे-छोटे गुट पूर्व कमांडरों और अफ़ग़ानी क़बीलाई पस-मंज़र के लड़ाकों के प्रति वफ़ादारी जता रहे हैं. अतीत में ये तमाम लोग तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ाइयां लड़ चुके हैं. सत्ता के गलियारों में कानाफ़ूसी हो रही है कि अमेरिका ने गुपचुप तरीक़े से क्षेत्रीय राज्यसत्ताओं को तालिबान के ख़िलाफ़ किसी तरह के संगठित प्रतिरोध की फ़िलहाल हिमायत नहीं करने को कहा है. इसके बावजूद तालिबान को ऊपर बताई गई तमाम मुश्किलों से दो-चार होना पड़ रहा है. 

तालिबान के लिए भारत और ईरान से लेकर पाकिस्तान और चीन तक की सुरक्षा चिंताओं को शांत करने की क़वायद के लिए माहिर कूटनीति की दरकार है. इसके अलावा आतंक-निरोधी गतिविधियों जैसे मुद्दों पर नतीजे देने की क़ाबिलियत भी बेहद अहम है.

दूसरी चुनौती पश्चिमी जगत द्वारा अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा से जुड़ी क़वायदों को लेकर है. पश्चिम ने अपनी सहूलियत से अफ़ग़ानी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी (और इसके साथ क्षेत्रीय सुरक्षा की भी) इलाक़ाई ताक़तों को सौंप दी है. हालांकि, इन क्षेत्रीय ताक़तों के बीच आपस में जोड़ने वाला कोई बड़ा हित नहीं है, जिसकी बदौलत वो दीर्घकालिक नज़रिए से एकजुट होकर काम करते हुए तालिबान के इर्द गिर्द एक “समावेशी” सियासी बुनियादी ढांचा खड़ा कर सकें. तालिबान के लिए भारत और ईरान से लेकर पाकिस्तान और चीन तक की सुरक्षा चिंताओं को शांत करने की क़वायद के लिए माहिर कूटनीति की दरकार है. इसके अलावा आतंक-निरोधी गतिविधियों जैसे मुद्दों पर नतीजे देने की क़ाबिलियत भी बेहद अहम है. ख़ासतौर से अपनी सरज़मीं से आतंकी गुटों के ख़ात्मे के मसले पर तालिबान को अभी अपनी गतिविधियों के ठोस प्रमाण देने हैं. हालांकि, उसने किसी भी आतंकी गुट को दूसरे देशों को निशाना बनाने के लिए अपनी ज़मीन का इस्तेमाल न करने देने की नीति का दावा किया है. वैसे इस प्रकार की दलील में ये नहीं कहा गया है कि तालिबान किसी आतंकी गुट की मेज़बानी नहीं करेगा. ज़ाहिर है ये एक अस्पष्ट और धुंधला दावा बनकर रह गया है जिसकी तस्दीक़ करने का कोई जुगाड़ नहीं है.

तालिबान के सामने भू-राजनीतिक चुनौती

पिछले कुछ महीनों में अल-क़ायदा प्रमुख अयमान अल ज़वाहिरी एक बार फिर दुष्प्रचार सामग्रियों और तक़रीरों को सक्रिय रूप से जारी करता दिखाई देने लगा है. पिछले साल उसकी मौत को लेकर ज़ोरशोर से कयास लगाए जा रहे थे. ज़वाहिरी की “वापसी” अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी की वापसी से मेल खाती है. अमेरिकी अधिकारियों के ताज़ा आकलनों से पता चलता है कि तालिबानी प्रशासन अल-क़ायदा पर लगी पाबंदियों में ढिलाई दे सकता है. दोहा वार्ताओं के दौरान और आगे चलकर राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की सरकार के धराशायी होने के बाद उसने अल-क़ायदा पर पाबंदियां लगाई थीं. अगर सचमुच ऐसा होता है तो अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिम की अगुवाई और ‘ऊपर से निगरानी’ रखने वाली आतंक-निरोधी नीतियों के ख़ुलासे की क़वायद तेज़ी से साकार हो सकती है. अभी तो ये अधर में लटका दिख रहा है.

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी हुकूमत का भविष्य वॉशिंगटन डीसी के साथ उसके रिश्तों की तस्वीर के आसरे न होकर इस बात पर निर्भर होगा कि वो क्षेत्रीय राज्यसत्ताओं की सियासी और सुरक्षा हितों को कैसे शांत करता है. 

फ़िलहाल दुनिया का ज़्यादातर ध्यान (वाजिब रूप से) अफ़ग़ानिस्तान की घरेलू दुश्वारियों पर है. इनमें मानवतावादी संकट से लेकर लड़कियों की शिक्षा, महिलाओं के अधिकार और एक पूरी आबादी के लिए बुनियादी सुविधाओं के अभाव जैसे मसले शामिल हैं. ऐसे में ख़ुद तालिबान के लिए भू-राजनीतिक चुनौतियां काफ़ी हद तक आधी-अधूरी क़वायदों वाला मसला बनकर रह गया है. हो सकता है कि दोहा प्रक्रिया में तालिबान की “जीत” से पूरे कुनबे को क्षेत्रीय और वैश्विक दरारों से पार पाने की अपनी क़ाबिलियत को लेकर ग़लतफ़हमी हो गई हो. बहरहाल, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी हुकूमत का भविष्य वॉशिंगटन डीसी के साथ उसके रिश्तों की तस्वीर के आसरे न होकर इस बात पर निर्भर होगा कि वो क्षेत्रीय राज्यसत्ताओं की सियासी और सुरक्षा हितों को कैसे शांत करता है. इत्तेफ़ाक़ से तालिबान के सामने खड़ा ये पूरा भू-राजनीतिक फ़साद उसकी ख़ुद की कारस्तानियों का नतीजा है. 

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