Published on Sep 07, 2021 Updated 0 Hours ago

तालिबान के हाथों काबुल का धराशायी होना समसामयिक इतिहास में आमूल-चूल बदलाव लाने वाली घटना है.दो दशकों तक अमेरिका के नेतृत्व में चले ‘आतंक के ख़िलाफ़ जंग’ के भविष्य और भावी संभावनाओं पर इसका असर पड़ना तय है. दक्षिण एशिया में सुरक्षा से जुड़े समूचे हालात पर भी इसका प्रभाव देखने को मिलेगा.

अफ़ग़ानिस्तान — दी काबुल डॉज़ियर

प्रस्तावना

तालिबान के हाथों काबुल का धराशायी होना समसामयिक इतिहास में आमूल-चूल बदलाव लाने वाली घटना है.दो दशकों तक अमेरिका के नेतृत्व में चले ‘आतंक के ख़िलाफ़ जंग’ के भविष्य और भावी संभावनाओं पर इसका असर पड़ना तय है. दक्षिण एशिया में सुरक्षा से जुड़े समूचे हालात पर भी इसका प्रभाव देखने को मिलेगा. 26 अगस्त को काबुल के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हुए हमले में आने वाले बुरे दौर की झलक देखी जा सकती है. धमाकों के बाद इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान प्रोविंस (आईएसकेपी) ने इस हमले में अपना हाथ होने का दावा किया है.

उस वक़्त काबुल एयरपोर्ट का इस्तेमाल अमेरिकी फ़ौज द्वारा अमेरिकियों को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकालने के लिए किया जा रहा था. साथ ही मुल्क से बाहर निकलने की आस लगाए अफ़ग़ानी नागरिक भी हवाई अड्डे के चारों तरफ़ फैले हुए थे. बम धमाके में इन्हीं में से 170 अफ़ग़ानी और 13 अमेरिकी सैनिक मारे गए. जवाब में अमेरिका ने एक दिन बाद आईएसकेपी के दबदबे वाले प्रांत नंगरहार में ड्रोन से हमला किया. बहरहाल, अमेरिका को शायद अब तालिबान के साथ तालमेल बिठाते हुए अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा से जुड़े मसलों का निपटारा करना होगा. ये हालात ‘आतंक के ख़िलाफ़ जंग’ को लेकर अमेरिकी रिवायतों और अफ़सानों को सिर के बल पलट देते हैं. इतना ही नहीं इससे तालिबान के साथ-साथ पाकिस्तान के लिए भी एक ही वक़्त पर मज़बूत और कमज़ोर दोनों तरह के हालात पैदा हो रहे हैं. तालिबान के ख़ैरख़्वाहों- चाहे वो पाकिस्तान के विभिन्न इलाक़ों में स्थित संगठन से जुड़े उसके शूरा[a] हों या पाकिस्तानी फ़ौज और वहां की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के भीतर के लोग- सबको काफ़ी पसीना बहाना होगा.

अमेरिका को शायद अब तालिबान के साथ तालमेल बिठाते हुए अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा से जुड़े मसलों का निपटारा करना होगा. ये हालात ‘आतंक के ख़िलाफ़ जंग’ को लेकर अमेरिकी रिवायतों और अफ़सानों को सिर के बल पलट देते हैं 

आगे तालिबान की ज़िम्मेदारी एक ऐसे देश का राजकाज चलाने की होगी, जहां की कुल 3.5 करोड़ की आबादी में से तक़रीबन आधे लोग ग़रीबी में गुज़र बसर कर रहे हैं. इस ज़िम्मेदारी के साथ-साथ तालिबान को दोहा में किए गए वादे भी पूरे करने होंगे. इस वादे के मुताबिक तालिबान आतंकी संगठनों को अफ़ग़ानी सरज़मीन का इस्तेमाल कर अमेरिकी लोगों, हितों और उसके मित्र देशों को निशाना बनाने की कतई इजाज़त नहीं देगा. आख़िरकार इसी सौदे की बदौलत तालिबान को पहले अमेरिका की वापसी और उसके बाद अफ़ग़ानी सत्ता हासिल हुई है.

बहरहाल तालिबान का अगला क़दम अनेक कारकों पर निर्भर करेगा. इनमें अलग-अलग गुटों के बीच की रस्साकशी, नस्ली और क़बीलाई मसले और तालिबानी नेतृत्व को लेकर पाकिस्तानी मांगें शामिल हैं. अपने लड़ाका और जंगी ख़ूबियों के लिए जाने जाने वाले हक़्क़ानी नेटवर्क के प्रमुख चेहरे पहले से ही काबुल में सरेआम नज़र आने लगे हैं. हक़्क़ानियों को तालिबान की फ़ौजी बाज़ू के तौर पर जाना जाता है. तालिबानी अगुवाई वाली अगली अफ़ग़ानी सरकार का नेतृत्व करने वाले मुल्ला बरादर जैसे नेताओं को हक़्क़ानियों ने पहले से ही ऐसे इशारे कर दिए हैं कि तालिबान के भीतर अपनी ताक़त को एकजुट करने के लिए वो अपने हिसाब से चालें चलेंगे. तालिबान ने दुनिया के सामने यही दिखाने की कोशिश की है कि वो एकजुट है, वो धड़ों में बंटा नहीं है. बहरहाल तालिबान के भीतर सत्ता को लेकर मची गुटबाज़ी से उसके दावों की हवा निकलने के आसार हैं.

इस रिपोर्ट में फ़ौरी तौर पर अफ़ग़ानिस्तान के निकट भविष्य में मुख्य भूमिका निभाने वाले कुछ प्रमुख किरदारों का ब्योरा दिया गया है. इस दस्तावेज़ में ओआरएफ़ ने उन 22 शख़्सियतों की पड़ताल की है जो काबुल में नई सत्ता का ढांचा खड़ा करने में अहम रोल निभा सकते हैं.

इसमें कोई शक़ नहीं है कि काबुल पर क़ब्ज़ा करने के पहले ही तालिबान ने नस्ली, क़बीलाई और राजनीतिक मोर्चों पर तमाम ज़रूरी सौदेबाज़ियां और समझौते कर डाले थे. लिहाज़ा तालिबान की ज़्यादातर कोशिश न सिर्फ़ अफ़ग़ानी नागरिकों बल्कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को ये समझाने की होगी कि वो अफ़ग़ानिस्तान का राजकाज भी अच्छे से चला सकते हैं. दोहा वार्ताओं के समय वो ऐसा कर भी चुका है. तब उसने खुद को “बदला” हुआ और “पहले से अलग” दिखाने और इससे जुड़े संदेश देने की भरपूर कोशिशें की थीं. बहरहाल, आज विश्व बिरादरी जो कुछ देख रही है वो शर्तों में लिपटी किस्सेबाज़ी है. शरिया के पालन करने की दुहाई देते हुए दबे-ढके अंदाज़ में इससे जुड़ी दलीलें पेश की गई हैं.[b] हालांकि, अगस्त का अंत होते-होते ऐसा लगने लगा है कि महिलाओं के अधिकारों और सशक्तीकरण को लेकर पहले किए अपने वादों से तालिबान मुकरने लगा है. वैसे तो मीडिया में तालिबान ने अपना दूसरा ही चेहरा दिखाने की पूरी कोशिशें की हैं और इस बारे में तरह तरह के शिगूफ़े छोड़ता रहा है.

आज विश्व बिरादरी जो कुछ देख रही है वो शर्तों में लिपटी किस्सेबाज़ी है. शरिया के पालन करने की दुहाई देते हुए दबे-ढके अंदाज़ में इससे जुड़ी दलीलें पेश की गई हैं. हालांकि, अगस्त का अंत होते-होते ऐसा लगने लगा है कि महिलाओं के अधिकारों और सशक्तीकरण को लेकर पहले किए अपने वादों से तालिबान मुकरने लगा है. 

इस दस्तावेज़ में जिन किरदारों का ब्योरा है वही आगे चलकर तालिबान की अगुवाई में बनने वाली अफ़ग़ानिस्तान की नई सत्ता द्वारा बिछाई जाने वाली नई शतरंज के बादशाह, वज़ीर, किश्ती और मौलवी होंगे.

  1. हिबतुल्लाह अख़ुदज़ादा: 2016 में हिबतुल्लाह अख़ुदज़ादा तालिबान का सुप्रीम कमांडर बना था. तालिबान के पूर्व सरबराह मुल्ला मंसूर के अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे जाने के बाद अख़ुदज़ादा को ये ओहदा हासिल हुआ था.[1] वो नूरज़ई क़बीले से ताल्लुक़ रखता है और कंधार का जाना-माना इस्लामिक स्कॉलर है. ग़ौरतलब है कि कंधार को अक्सर अफ़ग़ानिस्तान की मजहबी राजधानी के तौर पर देखा जाता है. उम्र के सातवें दशक में पहुंचे इस पश्तून नेता ने 1980 के दशक में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ लड़ाइयां लड़ी थीं. तालिबान के ज़्यादातर नेता इस जंग में हिस्सा ले चुके हैं.[2] 1990 के दशक के अंत में तालिबान के पहले शासन काल में वो शरिया अदालतों का मुखिया रह चुका था.  2017 में उसने अपने बेटे अब्दुर रहमान को आत्मघाती बम हमलावर के तौर पर तैयार करने के लिए उसकी भर्ती की थी. इसके बाद से उसने एक वफ़ादार और सुपुर्द जिहादी के तौर पर अपनी जगह पुख़्ता कर ली. अफ़ग़ानिस्तान के नए निज़ाम में अख़ुंदज़ादा के रुहानी और मजहबी सत्ता के केंद्र के तौर पर उभरने के पूरे आसार हैं.[3]  काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े से लेकर इस लेख के लिखे जाने तक हिबतुल्ला एक बार भी सार्वजनिक तौर पर दिखाई नहीं दिया है.
  1. मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर: मुल्ला बरादर ने 1994 में मुल्ला उमर के साथ तालिबान की नींव रखी थी. मुल्ला उमर की अब मौत हो चुकी है. 2001 में अमेरिकी सुरक्षा बलों द्वारा तालिबान को सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद तालिबानी विद्रोह का वो सबसे अहम चेहरा बनकर उभरा था. माना जाता है कि बरादर एक अमीर और रसूख़दार ख़ानदान से आता है. वो पोपलज़ई दुर्रानी क़बीले से ताल्लुक़ रखता है. ये एक पश्तून क़बीला है. फ़रवरी 2010 में कराची में एक पाकिस्तानी ख़ुफ़िया कार्रवाई में उसे धर लिया गया था. दरअसल ये गिरफ़्तारी एक बड़े ख़ुलासे के बाद हुई थी. पता चला था कि मुल्ला बरादर ने अफ़ग़ानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति हामिद करज़ई के साथ संपर्क का नया ज़रिया कायम किया है.बहरहाल, 2018 में अमेरिका के दबाव के बाद उसे रिहा कर दिया गया था. दरअसल अमेरिका को दोहा में तालिबान के साथ होने वाली वार्ताओं के लिए उसकी मदद की दरकार थी.  2019 के बाद से ही बरादर क़तर में मौजूद तालिबान के सियासी दफ़्तर का सदर बना हुआ है. सबसे अहम बात ये है कि मार्च 2020 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ उसकी फ़ोन पर बात भी हुई थी. अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ सीधे तौर पर संपर्क स्थापित करने वाला वो पहला तालिबानी नेता था.[4] उसको तालिबान के अहम सियासी किरदार के तौर पर जाना जाता है. दोहा समझौते पर तालिबान की ओर से उसी ने दस्तख़त किए थे. तालिबान के मुखिया के तौर पर उसके अफ़ग़ानिस्तान का अगला सियासी लीडर बनने के पूरे आसार हैं.[5]
  2. सिराजुद्दीन हक़्क़ानी (उर्फ़ ख़लीफ़ा): सिराजुद्दीन हक़्क़ानी हक़्क़ानी नेटवर्क का मुखिया है.  तालिबान के भीतर  के इस जमावड़े को काफ़ी हद तक एक ख़ुदमुख़्तार धड़े के तौर पर देखा जाता है. इसकी वजह इनकी माली और जंगी ताक़त है. इसके साथ ही इन्हें अपने बेरहम बर्ताव के लिए भी जाना जाता है.[6] इस नेटवर्क की नींव 1980 के दशक में सोवियत संघ के साथ चली लड़ाई के दौरान सिराजुद्दीन के पिता जलालुद्दीन हक़्क़ानी ने रखी थी. उसने 1995 में तालिबान की ओर अपनी वफ़ादारी दिखाने का वादा किया था. हक़्क़ानी अफ़ग़ानिस्तान के ज़ादरान पश्तून क़बीले से ताल्लुक़ रखते हैं. ये अफ़ग़ानिस्तान के पकटिया प्रांत के रहने वाले हैं. पाकिस्तान के वज़ीरिस्तान इलाक़े में इनकी मज़बूत पैठ है. वहां इनका जाल फैला हुआ है. सिराजुद्दीन 2018 में अपने पिता की मौत के बाद हक़्क़ानी नेटवर्क का मुखिया बन गया. फिलहाल वो एफ़बीआई की ‘मोस्ट वांटेड’ लिस्ट में शामिल है.[7] हक़्क़ानी नेटवर्क पाकिस्तान की सरहद के साथ लगे अपने अड्डों में तालिबान के फ़ौजी जायदाद और रसद संभालता है. अभी ये पक्के तौर पर साफ़ नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान के नए निज़ाम में सिराजुद्दीन का क्या रोल होगा. हालांकि तालिबान के सियासी मंसूबों में हक़्क़ानी नेटवर्क के एक गंभीर किरदार के तौर पर उभरने के पूरे आसार हैं. ख़बरों की मानें तो काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से ही हक़्क़ानियों ने काबुल की सुरक्षा का जिम्मा संभाल रखा है. [8]
  3. सिराजुद्दीन 2018 में अपने पिता की मौत के बाद हक़्क़ानी नेटवर्क का मुखिया बन गया. फिलहाल वो एफ़बीआई की ‘मोस्ट वांटेड’ लिस्ट में शामिल है
  1. ज़बीउल्लाह मुजाहिद: ज़बीउल्लाह मुजाहिद एक लंबे समय से तालिबान के आधिकारिक प्रवक्ता की ज़िम्मेदारी संभालता रहा है. मुजाहिद का दावा है कि वो अफ़ग़ानिस्तान के पकटिया प्रांत का रहने वाला है. उसने पाकिस्तान के दारुल उलूम हक़्क़ानिया मदरसा से तालीम हासिल की.[9]पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया पर उसके फॉलोअर्स की भारी-भरकम तादाद जमा हो चुकी है. हालांकि काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद ही मुजाहिद ने सार्वजनिक तौर पर ख़ुद को दुनिया के सामने पेश किया. माना जाता है कि उसने तालिबान की ओर से जन संपर्क को लेकर एक बड़ी कार्यवाही की अगुवाई की है. इसमें प्रेस रिलीज़, इंटरव्यू और पत्रकारों के साथ राब्ता कायम करने जैसे काम शामिल है. माना जाता है कि मुजाहिद और उसकी टीम ने व्हाट्सऐप ग्रुप से जुड़े नेटवर्कों का कामकाज बेहद असरदार तरीक़े से संभाला है. इसके तहत उसने मीडिया को सीधे और तत्काल नई ख़बरें और जानकारियां मुहैया करवाने का इंतज़ाम किया. तालिबान की हालिया आक्रामक कार्रवाइयों के चंद आख़िरी दिनों में मुजाहिद ट्विटर पर बेहद एक्टिव था. दरअसल वही ये एलान करता था कि तालिबान ने कब कौन से शहर पर अपना क़ब्ज़ा कायम किया. लिहाज़ा अफ़ग़ानिस्तान के सूचना और संस्कृति मंत्री के तौर पर उसके नाम का एलान किए जाने के आसार हैं.[10]
  2. गुलबुद्दीन हिकमतयार: गुलबुद्दीन हिकमतयार एक पूर्व मुजाहिदीन नेता है. उसने हिज़्ब-ए-इस्लामी नाम के लड़ाका संगठन का आग़ाज़ किया था. 1990 के दशक में उसे अफ़ग़ानिस्तान का प्रधानमंत्री बनाया गया था. वो ग़ाज़ी पश्तून इलाक़े के खरोटी क़बीले से ताल्लुक रखता है. जिन दिनों अफ़ग़ानिस्तान के तख़्त पर कब्ज़ा जमाने के लिए कई सूरमा ज़ोर आज़माइश कर रहे थे उन्हीं दिनों उसने काबुल पर क़ब्ज़ा जमा लिया था. इसके बाद ही उसे “काबुल का कसाई” के नाम से जाना जाने लगा.[11]वो अफ़ग़ानिस्तान के सबसे कुख्यात जिहादी संगठनों में से एक की अगुवाई करता है. उसने अमेरिका द्वारा मार गिराए गए अल-क़ायदा के पूर्व प्रमुख ओसामा बिन लादेन के प्रति अपने समर्थन का भी एलान किया था. माना जाता है कि उसने आत्मघाती बम हमलों की हिमायत की थी. 2017 तक वो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा तैयार की जाने वाली आतंकियों की सूची में शामिल रहा था.[12]माना जाता है कि 9/11 के बाद हिकमतयार ने ईरान और पाकिस्तान में पनाह ली थी. 2017 में अफ़ग़ान सरकार के साथ शांति समझौते पर दस्तख़त करने और अपनी सुरक्षा का आश्वासन हासिल करने के बाद वो काबुल लौट आया था. सितंबर 2020 में उसने एक बार फिर तालिबान के साथ सीधी बातचीत करने की इच्छा ज़ाहिर की ताकि वो उसके साथ साझेदारी और सहयोग का रिश्ता बना सके. अफ़ग़ानिस्तान में आगे चलकर तालिबान की अगुवाई में बनने वाले नए सियासी इंतज़ाम में हिकमतयार के एक अहम रोल निभाने की उम्मीद है.[13]
  3. अब्दुल्ला अब्दुल्ला: डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला ताजिक-पश्तून राजनेता हैं. उन्हें 2014 में अफ़ग़ानिस्तान का चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिवऑफ़िसर नियुक्त किया गया था. मई 2020 में उन्हें राष्ट्रीय मेल मिलाप और सद्भावना उच्च परिषद का अध्यक्ष मनोनीत किया गया. 1990 के दशक में तालिबान-विरोधी समूह नॉर्दर्न अलायंस के मशहूर पूर्व नेता अहमद शाह मसूद के साथ अपनी क़रीबी के चलते डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला को काफ़ी शोहरत हासिल हुई थी. 2009 के राष्ट्रपति चुनाव में वो हामिद करज़ई के सबसे नज़दीकी प्रतिस्पर्धी के तौर पर उभरे थे. 2014 में भी अशरफ़ ग़नी ने काफ़ी क़रीबी मुक़ाबले में जैसे-तैसे उनको हराकर राष्ट्रपति की कुर्सी हासिल की थी. ग़ौरतलब है कि अमेरिका ने दखल देकर उनके और ग़नी के बीच सत्ता के बंटवारे को लेकर समझौता करवाया था. 1996 में तालिबान द्वारा सत्ता हथिया लेने के पहले नॉर्दर्न अलायंस की अगुवाई वाले निज़ाम में उन्होंने विदेश मंत्री के तौर पर काम संभाल रखा था. इतना ही नहीं पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई के प्रशासन में भी 2006 तक वही विदेश मंत्री के तौर पर काम कर रहे थे. 2006 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. [14] मुल्क पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से ही अब्दुल्ला काबुल में जमे हुए हैं. हामिद करज़ई के साथ मिलकर वो तालिबान के साथ वार्ताओं को आगे बढ़ा रहे हैं.
  4. 1990 के दशक में तालिबान-विरोधी समूह नॉर्दर्न अलायंस के मशहूर पूर्व नेता अहमद शाह मसूद के साथ अपनी क़रीबी के चलते डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला को काफ़ी शोहरत हासिल हुई थी. 2009 के राष्ट्रपति चुनाव में वो हामिद करज़ई के सबसे नज़दीकी प्रतिस्पर्धी के तौर पर उभरे थे.

  5. मोहम्मद याक़ूब: 31 साल का मोहम्मद याक़ूब उर्फ़ मुल्ला याक़ूब तालिबान के सह-संस्थापक और विचारक मुल्ला उमर का बेटा है. याक़ूब होटक क़बीले से ताल्लुक़ रखता है. ये क़बीला ग़िलज़ई ख़ानदान का ही एक हिस्सा है. तालिबान के ‘पश्चिमी ज़ोन’ के तहत आने वाले 13 प्रांतों में चल रही फ़ौजी कार्रवाइयों का वो डिप्टी लीडर बन गया. माना जाता है कि तालिबान की सामरिक कार्रवाइयों को अंजाम देने वाले फ़ौजी आयोग से जुड़े जंगी कमांडरों और तथाकथित शैडो गवर्नरों के विशाल नेटवर्क की निगरानी का जिम्मा भी उसी ने संभाल रखा था.[15] नई सत्ता में उसकी ठीक-ठीक भूमिका को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि वो मुख्य तौर पर एक मजहबी नेता का रोल निभाएगा जबकि कुछ दूसरे लोगों का विचार है कि तालिबान की रुहानी अगुवाई के नज़रिए से हिबतुल्लाह अख़ुदज़ादा के बाद मोहम्मद याक़ूब का ही नंबर आता है. ग़ौरतलब है कि 2015 में अपने पिता के वारिस के तौर पर मुल्ला मंसूर को बहाल किए जाने के फ़ैसले पर याक़ूब ने कड़ा विरोध जताया था.[16]
  6. शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनिकज़ई: शेर मोहम्मद “शेरू” स्टेनिकज़ई तालिबान के सबसे ताक़तवर चेहरों में से एक है. 1980 के शुरुआती दौर में वो उत्तराखंड के देहरादन में स्थित मशहूर इंडियन मिलिट्री एकेडमीका कैडेट रह चुका है. 2020 में पहले उसे अफ़ग़ान सरकार के साथ शांति कायम करने को लेकर होने वाली वार्ताओं से जुड़ी टीम का अगुवा बनाया गया था. हालांकि बाद में ये एलान किया गया कि वो अब्दुल हकीम के सहायक के तौर पर काम करेगा. [17] वो अफ़ग़ान सेना के साथ काम कर चुका है. 1996 में तालिबान से जुड़ने से पहले वो अफ़ग़ानी सैनिक के तौर पर सोवियत-अफ़ग़ान जंग में भी हिस्सा ले चुका है. 1996 से 2001 के बीच तालिबान के पहले शासन काल में वो शुरुआत में विदेश मामलों के उपमंत्री और आगे चलकर स्वास्थ्य उपमंत्री के तौर पर काम कर चुका है. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के प्रशासन से तालिबान को कूटनीतिक मान्यता देने की गुहार लगाने के लिए उसने 1996 में वॉशिंगटन डीसी का दौरा भी किया था. बाद के वर्षों में वो तालिबान का सबसे अहम वार्ताकार बन गया. [18] स्टैनिकज़ई ने 2012 से दोहा में मौजूद तालिबान के सियासी दफ़्तर का कामकाज संभाल रखा है. 2019 में अब्दुल ग़नी बरादर की वापसी से पहले तक तालिबान की ओर से वार्ताओं की अगुवाई वही करता आ रहा था.
  7. मौलवी मेहदी: मौलवी मेहदी एक शिया धर्मगुरु और लड़ाका नेता है. अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यक शिया हज़ारा समुदाय से ताल्लुक रखने वाला मेहदी पहला शख़्स था जिसे तालिबान ने शैडो गवर्नर का नाम और ओहदा दे रखा था. आगे चलकर उसे उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के शेर-ए-पुल प्रांत के बल्ख़ाब ज़िले का गवर्नर भी बनाया गया. इस नियुक्ति को बेहद अहम समझा जा रहा है. इसकी वजह ये है कि क़ुदरती तौर पर तालिबानी आंदोलन शिया-विरोधी है. इस विद्रोही मुहिम में शायद ही कभी शिया हज़ारा समुदाय से जुड़े लोगों को कोई जगह दी गई है. दरअसल शिया हज़ारा बिरादरी को राष्ट्र-व्यापी रसूख़ हासिल करने के तालिबानी मंसूबों के रास्ते की रुकावट के तौर पर देखा जाता है. [19] ख़बरों के मुताबिक अफ़ग़ान सरकार की फ़ौज पर हुए कई हमलों के पीछे मेहदी का ही हाथ बताया जाता है. इसके साथ ही अपहरण और जबरन वसूली से जुड़े कई मामलों के लिए भी उसे ही ज़िम्मेदार बताया जाता है. वो आपराधिक इल्ज़ामों में 6 साल जेल की सज़ा काट चुका है. 2018 में जेल से रिहाई के बाद उसे अफ़ग़ान राजनेता मोहम्मद मोहक़ेक़ ने अपना ‘वायसरॉय’ बनाकर बल्ख़ाब भेजा था. आगे चलकर उसने ख़ुद को उस इलाक़े के जंगी मुखिया के तौर पर स्थापित कर लिया.[20]
  8. अनस हक़्क़ानी: अनस हक़्क़ानी जलालुद्दीन हक़्क़ानी का सबसे छोटा बेटा और सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का छोटा भाई है. वो हक़्क़ानी नेटवर्क का एक अहम हिस्सा है. 2016 में अफ़ग़ानिस्तान की एक अदालत ने उसे मौत की सज़ा तक सुना दी थी. हालांकि 2019 में तालिबान सरकार द्वारा पश्चिमी देशों के कई बंधकों की रिहाई के बदले अफ़ग़ान सरकार ने उसे जेल से आज़ाद कर दिया था. [21] अफ़ग़ान सरकार के पतन के बाद फिलहाल काबुल में नई सरकार के गठन से जुड़े प्रयासों में अनस अपनी भूमिका निभा रहा है. वो तालिबान के मुख्य वार्ताकारों में से एक है. इस नाते वो कई गुटों और नेताओं से मुलाक़ात कर चुका है. इनमें पूर्व अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करज़ई, पूर्व शांति वार्ताकार अब्दुल्ला अब्दुल्ला, पूर्व मुजाहिदीन कमांडर गुलबुद्दीन हिकमतयार और यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान क्रिकेट बोर्ड भी शामिल है.[22]
  9. अहमद मसूद: अहमद मसूद अहमद शाह मसूद का बेटा है. अहमद शाह मसूद ने पंजशीर घाटी में स्थित अपने गढ़ से तालिबान के ख़िलाफ़ प्रतिरोधी मुहिम की अगुवाई की थी. उसने 1990 के दशक में अब्दुल रशीद दोस्तम के साथ नॉर्दर्न अलायंस की नींव रखी थी. अहमद मसूद ने ब्रिटेन के सैंडहर्स्ट स्थित रॉयल मिलिट्री कॉलेज और किंग्स कॉलेज लंदन से शिक्षा प्राप्त की है. 2016 में अफ़ग़ानिस्तान लौटने के पहले उसने वॉर स्टडीज़ में डिग्री भी हासिल की थी. अहमद मसूद आज नेशनल रेज़िस्टेंस फ़्रंट ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान की अगुवाई कर रहा है.  वो पंजशीर घाटी में लड़ाका समूह का कमांडर है.[23]18 अगस्त 2021 को द वॉशिंगटन पोस्ट में छपे वैचारिक लेख में उसने लिखा था कि उसके मुजाहिदीन लड़ाके एक बार फिर तालिबान के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार हैं. ग़ौरतलब है कि उसके पिता ने भी तालिबान के साथ इसी तरह की लड़ाई लड़ी थी. मसूद ने अपने लेख में लिखा है कि तालिबान के ख़िलाफ़ ताक़तों को एकजुट करने के लिए पश्चिमी जगत को उसकी मदद करनी चाहिए. मीडिया की ख़बरों से ये भी पता चला है कि मसूद पंजशीर के मजहबी नेताओं के ज़रिए तालिबान के साथ भी संपर्क में है ताकि कोई बीच का रास्ता निकल सके.[24]
  10. अनस हक़्क़ानी जलालुद्दीन हक़्क़ानी का सबसे छोटा बेटा और सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का छोटा भाई है. वो हक़्क़ानी नेटवर्क का एक अहम हिस्सा है. 2016 में अफ़ग़ानिस्तान की एक अदालत ने उसे मौत की सज़ा तक सुना दी थी. 
  11. हामिद करज़ई: 2001 में तालिबान को सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद बनी पहली अफ़ग़ान सरकार की अगुवाई हामिद करज़ई ने की थी. वो 2014 तक अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रहे. मुल्ला बरादर की ही तरह करज़ई भी पोपलज़ई पश्तून कबीले से ताल्लुक रखते हैं. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा काबुल में हासिल की. उसके बाद 1980 के दशक में उन्होंने शिमला स्थित हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की. 9/11 के बाद अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिका द्वारा चढ़ाई किए जाने से पहले ही करज़ई वहां की राजनीति में लंबा वक़्त बिता चुके थे. वो वहां कई अलग-अलग गुटों से जुड़े रहे और परस्पर विरोधी अफ़ग़ानी धड़ों के बीच मध्यस्थता कराने की कोशिशें करते रहे थे. उन्होंने सोवियत संघ के ख़िलाफ़ लड़ाई में भी हिस्सा लिया था. 1990 के दशक की शुरुआत में वो उप विदेश मंत्री थे. 1996 में तालिबान ने उन्हें अपना राजदूत बनाने का प्रस्ताव दिया था. हालांकि करज़ई ने तब इस पेशकश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. [25] तालिबान द्वारा काबुल पर कब्ज़ा जमाने के बाद से ही करज़ई सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण को लेकर हो रहे प्रयासों की अगुवाई कर रहे हैं. कहीसुनी जानकारियों और मौजूद सबूतों के आधार पर बताया जाता है कि पहले भी उन्होंने शांति और मेलमिलाप से जुड़ी वार्ताओं के लिए मुल्ला बरादर से संपर्क किया था. हालांकि इसका अंजाम पाकिस्तान में बरादर की गिरफ़्तारी के तौर पर सामने आया था. 1999 में पाकिस्तान के क्वेटा में एक मस्जिद के बाहर हामिद करज़ई के पिता अब्दुल अहद करज़ई की तालिबान के दो बंदूकधारियों ने हत्या कर दी थी.[26]
  12. अमरुल्लाह सालेह: अमरुल्लाह सालेह को 2019 में अफ़ग़ानिस्तान का पहला उपराष्ट्रपति चुना गया था. अशरफ़ ग़नी के देश छोड़कर भाग जाने के बाद उन्होंने ख़ुद को ‘कार्यवाहक राष्ट्रपति’ घोषित कर दिया. सालेह ताजिक-बहुल पंजशीर घाटी से ताल्लुक़ रखते हैं. 1990 के दशक में चले गृह युद्ध के दौरान वो तालिबान-विरोधी नॉर्दर्न अलायंस के सदस्य थे.[27] 1997 में नॉर्दर्न अलायंस के मुखिया अहमद शाह मसूद ने सालेह को ताजिकिस्तान के दुशांबे में स्थित अफ़ग़ान दूतावास में यूनाइटेड फ़्रंट के इंटरनेशनल लायज़न ऑफ़िस का मुखिया नियुक्त किया था. अफ़ग़ानी सियासत में उनका प्रवेश 2004 में हुआ था. उस वक़्त उन्हें ताज़ा बने अफ़ग़ानिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी द नेशनल डायरेक्टोरेट ऑफ़ सिक्योरिटी (एनडीएस) का चीफ़ बनाया गया था. 2010 में काबुल शांति सम्मेलन में हुए हमले के बाद उन्होंने ख़ुफ़िया प्रमुख के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. 2014 में अशरफ़ ग़नी के राष्ट्रपति नियुक्त होने के बाद सालेह ने आंतरिक मामलों के मंत्री की ज़िम्मेदारी निभाई. 2019 के सितंबर में हुए चुनावों में हिस्सा लेने के लिए उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. [28] भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान में उनके द्वारा एक अहम रोल निभाए जाने के पूरे आसार हैं. ख़बरों के मुताबिक उन्होंने पंजशीर में अहमद मसूद के साथ हाथ मिला लिया है. तालिबान से एक बार फिर लोहा लेने के लिए वो एक विरोधी मोर्चा खड़ा करने की जुगत में लगे हैं.[29]
  13. शेख़ अब्दुल हकीम: अब्दुल हकीम एक कट्टरतावादी धर्मगुरु है. हाल तक वो क्वेटा में एक इस्लामिक मदरसा चलाया करता था. वहीं से वो तालिबानी अदालतों की अगुवाई करता था. वो तालिबान के धर्मगुरुओं की एक ताक़तवर परिषद की अगुवाई करता था. इन्हीं के ज़िम्मे मजहबी फ़तवे जारी करने की ज़िम्मेदारी थी. [30] मजहबी रसूख़ के चलते हक़ीम को ख़ासी इज़्ज़त हासिल है. उसे भी मुल्ला के बराबर का ही दर्जा हासिल है. तालिबान के सबसे वरिष्ठ मजहबी नेता के तौर पर उसकी गिनती की जाती है. कई सालों तक बिना शोर-शराबे के चुपचाप अपना काम करते रहने के बाद 2020 में उसे क़तर में होने वाली शांति वार्ताओं के लिए तालिबान का मुख्य वार्ताकार नियुक्त किया गया था.[31]
  14. फ़ाज़िल अख़ुंद: अमेरिकी ख़ुफ़िया रिपोर्टों के मुताबिक फ़ाज़िल अख़ुंद का जन्म अफ़ग़ानिस्तान के चर्चनो में 1967 में हुआ था. 1990 के दशक में तालिबानी राज में वो रक्षा उपमंत्री का जिम्मा निभा चुका है. ख़बरों के अनुसार 1996 से 2001 के अंत तक उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में कई शियाओं और ताजिक सुन्नियों के क़त्लेआम का वो ज़िम्मेदार रहा है. 11 जनवरी 2002 को उसे ग्वांतानामो बे डिटेंशन कैंप भेज दिया गया था. 31 मई 2014 कोअमेरिकी सैनिक बोवे बेर्गडेल की रिहाई के बदले फ़ाज़िल के साथ चार और सदस्यों को वहां से आज़ाद करदिया गया था. इन पांचों लोगों को तथाकथित रूप से “तालिबान फ़ाइव” का नाम दिया गया. [32]
  15. क़ारी फ़सीहुद्दीन: क़ारी फ़सीहुद्दीन एक ताजिक लड़ाका है. उसने तालिबान के भीतर तेज़ी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़ी है. पहले उसे बदख़्शां प्रांत के शैडो गवर्नर के तौर पर जाना जाता था. इस प्रांत की सीमाएं ताजिकिस्तान और चीन, दोनों के साथ मिलती हैं. कई बार उसे “उत्तर का विजेता” के नाम से भी जाना गया है. फ़सीहुद्दीन को पंजशीर में तालिबान के सैन्य कमांडर के तौर पर जिम्मा दिया गया था. पंजशीर प्रांत अमरुल्ला सालेह और अहमद मसूद की अगुवाई में आज भी तालिबान का प्रतिरोध कर रहा है. उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की कामयाबी पिछले कुछ महीनों में सामरिक मोर्चे पर उसकी सबसे बड़ी सफलता रही है.
  16. हाजी यूसुफ़ वाफ़ा: बताया जाता है किहाजी यूसुफ़ वाफ़ा कंधार में तालिबान का नया कमांडर है. कंधार तालिबानी मुहिम का मजहबी और रुहानी ठिकाना है. दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की कामयाबियों में हाजी का अहम रोल रहा है. माना जाता है कि वाफ़ा की देखरेख में ही तालिबान के ओहदेदार नेताओं के बेटे अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिणी प्रांतों के जंगी मैदानों में सक्रिय रहे हैं.
  17. मुफ़्ती नूर वली महसूद: मुफ़्ती नूर वली महसूद तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का मौजूदा नेता है. उत्तरी वज़ीरिस्तान में अमेरिकी ड्रोन हमले में पूर्व नेता मौलाना फज़लुल्लाह की मौत के बाद जून 2018 में महसूद को इस ओहदे पर तैनात किया गया था. पाकिस्तानी फ़ौज की कार्रवाइयों और आंतरिक सियासी रस्साकशियों के चलते कुछ सालों तक टीटीपी शांत बैठा रहा. 2020 में ऐसे संकेत मिलने लगे थे कि महसूद के नेतृत्व में टीटीपी के अलग-अलग गुट फिर से इकट्ठा होने लगे हैं. तब से लेकर अब तक इस संगठन ने पाकिस्तान में चीन की परियोजनाओं और जायदादों केख़िलाफ़ कई हिंसक कार्रवाइयों और हमलों को अंजाम दिया है. इतना ही नहीं इसने क्वेटा के होटल में बम हमला भी किया. इस हमले का निशाना पाकिस्तान में तैनात चीन के राजदूत थे. [33] महसूद को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने काली सूची में डालकर उसपर पाबंदियां लगा रखी हैं. अल-क़ायदा से जुड़े संगठनों के साथ “साठगांठ करके या उनके नाम पर या उनके बदले या समर्थन में रकम जुटाने, उनके लिए साज़िशें रचने और उनको तमाम तरह की सहूलियतें पहुंचाने और आतंकी करतूतों या गतिविधियों को अंजाम देने” के लिए ये पाबंदी लगाई गई है. [34] महसूद ने ‘इंक़लाब महसूद’ के नाम से एक क़िताब भी लिखी है. इस क़िताब में उसने उपनिवेशवादियों के ख़िलाफ़ महसूद क़बीले के कथित ‘जिहाद’ का ब्योरा दिया है. उसने काबुल पर क़ब्ज़ा करने के लिए अफ़ग़ान तालिबान को मुबारक़बाद देते हुए हिबतुल्लाह अख़ुंदज़ादा से किया अपना वादा दोहराया है.
  18. हाफ़िज़ गुल बहादुर: हाफ़िज़ गुल बहादुर टीटीपी का नेता है. वो उत्तरी वज़ीरिस्तान में टीटीपी लड़ाकों का कमांडर है. वो इससे पहले टीटीपी के संस्थापक बैतुल्लाह महसूद के मातहत पहले डिप्टी की ज़िम्मेदारी निभा चुका है. 2006 और 2008 में टीटीपी और पाकिस्तानी सरकार के बीच वार्ताओं का माहौल बनाने में बहादुर ने अहम रोल निभाया था. लिहाज़ा ऐसा माना जाता रहा है कि वो पाकिस्तानी सरकार का समर्थक है. शायद यही वजह है कि पाकिस्तानी फ़ौज और तालिबानी नेता आज भी उसे अपने पाले में लाने की कोशिशों में लगे हैं.[35]उसको उत्तरी वज़ीरिस्तान में उथमनज़ई वज़ीर और दाउर क़बीलों के बीच एकता कायम करने का श्रेय दिया जाता है. इसी एकता की वजह से उत्तरी वज़ीरिस्तान में संगठन का एकजुट चेहरा सामने आया. वहीं दक्षिणी वज़ीरिस्तान में तालिबानी संगठन अलग-अलग क़बीलों के हिसाब से बंटे हुए हैं. उत्तरी वज़ीरिस्तान के नेता के तौर पर हासिल अपने रसूख़ की बदौलत ही हाफ़िज़ गुल महसूद के नेतृत्व को चुनौती दे सका. दरअसल अफ़ग़ान तालिबान के तत्कालीन नेता मुल्ला उमर ने टीटीपी को पाकिस्तान की बजाए अफ़ग़ानिस्तान पर अपने संसाधन लगाने की नसीहत दी थी. उस वक़्त बहादुर ने इस जमावड़े से ख़ुद को दूर कर लिया था. बाद में मुल्ला उमर का फ़रमान पाकर अफ़ग़ानिस्तान में अपनी गतिविधियों को एकजुट करने के लिए वो फिर से महसूद के साथ जुड़ गया. [36] पाकिस्तानी फ़ौज ने 2014 में उत्तरी वज़ीरिस्तान इलाक़े में उग्रवादी संगठनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू की थी. इसे ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब का नाम दिया गया था. इसके तहत आने वाले वर्षों में पाकिस्तान सुरक्षा बलों ने गुल बहादुर की कमान में लड़ने वाले लड़ाकों को अपना निशाना बनाया. क़बीलाई इलाक़ों में इनकी ताक़त और अफ़ग़ान तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क से उनके जुड़ावों के चलते पाकिस्तानी फ़ौज ने उन्हें निशाना बनाया था.
  19. फ़सीहुद्दीन को पंजशीर में तालिबान के सैन्य कमांडर के तौर पर जिम्मा दिया गया था. पंजशीर प्रांत अमरुल्ला सालेह और अहमद मसूद की अगुवाई में आज भी तालिबान का प्रतिरोध कर रहा है. 
  20. मौलवी फ़कीर मोहम्मद: मौलवी फ़क़ीर मोहम्मद टीटीपी का एक वरिष्ठ नेता है. वो पाकिस्तान के कबीलाई इलाक़ों में अल-क़ायदा का जाना-माना गुर्गा और मददगार है. वो पाकिस्तान के बाजौर इलाक़े में टीटीपी की अगुवाई कर चुका है. इसी इलाक़े में पाकिस्तानी फ़ौज के साथ टीटीपी की सबसे तगड़ी भिड़ंत हुई थी. उस वक़्त पाकिस्तानी सेना ने यहां ऑपरेशन शेरदिल लॉन्च कर रखा था. 1993 में इसने और इसके परिवारवालों ने मिलकर तहरीक-ए-निफ़ाज़-ए-शरीयत मोहम्मदी का आग़ाज़ किया. इस मुहिम का मकसद पाकिस्तान के क़बीलाई इलाक़ों में शरिया क़ानून लागू करना था. उस वक़्त फ़क़ीर तालिबानियों के लिए जंग लड़ रहा था. क़बीलाई इलाक़ों के बारे में उसकी जानकारी कमाल की थी. उस इलाक़े में उसका काफ़ी असर भी था. इस्लामिक उग्रवाद के प्रति उसके तथाकथित समर्पण ने उसे 2001 में तालिबान के पतन के बाद अल-क़ायदा के लिए बेशक़ीमती बना दिया. [37]  अफ़ग़ानिस्तान के नेशनल डायरेक्टोरेट ऑफ़ सिक्योरिटी ने 2013 में उसे गिरफ़्तार करने में कामयाबी पाई थी. अभी पिछले महीने 17 अगस्त 2021 को तालिबान ने उसे जेल से आज़ाद करा दिया. [38]
  21. जनरल क़मर जावेद बाजवा: जनरल बाजवा पाकिस्तानी फ़ौज के मौजूदा प्रमुख हैं. जनरल रहील शरीफ़ के रिटायर होने के बाद उन्हें नवंबर 2016 में इस पद पर नियुक्त किया गया था. सेना प्रमुख बनने से पहले बाजवा पाकिस्तानी फ़ौज के मुख्यालय GHQ में इंस्पेक्टर जनरल फ़ॉर ट्रेनिंग एंड इवैल्यूशन थे. वहां उन्होंने अपने पूर्ववर्ती फ़ौजी जनरल रहील शरीफ़ के प्रिंसिपल स्टाफ़ ऑफ़िसर के तौर पर काम किया था. वो रावलपिंडी में 10वीं कोर के कमांडर भी रह चुके हैं. पाकिस्तानी फ़ौज की इसी कोर पर कश्मीर मामलों की ज़िम्मेदारी है.[39] फ़रवरी 2017 में उनकी देखरेख में पाकिस्तानी फ़ौज ने आतंकवाद-विरोधी अभियान राद-उल-फ़साद की शुरुआत की थी. जनरल बाजवा का कार्यकाल बढ़ाने को लेकर पाकिस्तानी सरकार और वहां की सुप्रीम कोर्ट के बीच थोड़ी बहुत रस्साकशी भी देखने को मिली थी. सुप्रीम कोर्ट ने जनरल बाजवा का कार्यकाल बढ़ाने के सरकार के फ़ैसले को मुल्तवी कर दिया था. हालांकि पाकिस्तान की नेशनल असेंबली द्वारा इससे जुड़ा क़ानून पास कर देने के बाद पाकिस्तान की सरकार ने बाजवा का कार्यकाल तीन सालों के लिए बढ़ा दिया. नतीजतन अब जनरल बाजवा नवंबर 2022 तक पाकिस्तानी फ़ौज के मुखिया बने रहेंगे.
  22. ले. जनरल फ़ैज़ हमीद:  ले. जनरल हमीद को जून 2019 में पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का सरबराह बनाया गया था. 10वीं कोर में साथ काम करने के चलते हमीद और बाजवा के बीच बेहद क़रीबी ताल्लुक़ात रहे हैं. पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी के मुखिया के तौर पर उनकी नियुक्ति से कई लोगों को ताज्जुब भी हुआ था. उन्होंने ले. जनरल आसिम मुनीर की जगह ली थी. आसिम मुनीर ने ये ज़िम्मेदारी 8 महीने की छोटे सी मियाद तक ही निभाई.[40] बताया जाता है कि 2018 में हुए पाकिस्तानी आम चुनावों में हुई घपलेबाज़ियों में हमीद का बड़ा अहम रोल रहा था. ग़ौरतलब है कि उसी चुनाव में नवाज़ शरीफ़ के ख़िलाफ़ इमरान ख़ान की पीटीआई पार्टी को जीत हासिल हुई थी.


Endnotes

[a] Shuras are consultative councils that decide the Taliban’s course of action. The Quran encourages Muslims to decide their affairs in consultation with each other. The Rahbari Shura, also known as the Quetta Shura, situated in Quetta, Pakistan, is seen as the Taliban’s ideological and political think tank.

[b] Sharia is Islam’s legal system. It is derived from the Quran, Islam’s holy book.

[1] “Afghanistan: Who’s Who in the Leadership”,  BBC, August 18, 2021.

[2] “Who’s Mullah Baradar, Likely to Be Next Afghan President: 5 Points”, NDTV, August 18, 2021.

[3] “The Haqqani Network: Afghanistan’s most feared militants”, The Economic Times, August 21, 2021.

[4] Tom Wheeldon, “Who are the Taliban leaders ruling Afghanistan”, France 24, August 19, 2021.

[5] “What is the role of Haqqani Network: Afghanistan’s most feared militants in the new Taliban regime” Hindustan Times August 21, 2021.

[6] Matthieu Aikins and Jim Huylebroek, “The Taliban wants to forget the past, a leader tells the Times, but there will be some restrictions”, The New York Times, August 25, 2021.

[7] “For years Taliban Spokesman Operated from Shadows, Now He is in Spotlight”, NDTV, August 25, 2021.

[8] “Profile: New Taliban Chief Mawlawi Hibatullah Akhundzada”, BBC, May 26, 2016.

[9] “Hibatullah Akhundzada to Mullah Baradar: Who’s Who of the Taliban Leadership”, Outlook India, August 20, 2021.

[10] Srinivasan Ramani, “Hibatullah Akhundzada: The Mullah Who took the Reins of Afghanistan”, The Hindu, August 21, 2021.

[11] “Afghan Warlord Gulbuddin Hekmatyar’s grandson moves on from family’s bitter past”, The Economic Times, July 07, 2021

[12] Shadi Khan Saif, “Afghanistan: Hekmatyar ready to join hands with Taliban” Anadolu Agency, September 19, 2020.

[13] “Afghanistan: Hekmatyar ready to joins hands with Taliban”.

[14] ‘Who is Abdullah Abdullah? Afghanistan’s three-times Presidential Contender BBC, September 27, 2019.

[15] Ron Synovitz, “Will the Taliban Stay United to Govern, Or Splinter into Regional Fiefdoms?, Gandhara, August 25, 2021 and Tenzin Zompa, “Akhundzada, Haqqani , Mullah Yaqoob, “The Taliban’s key leaders who could lead Afghanistan”, The Print, August 17, 2021.

[16] “Afghanistan Crisis: Who’s Who Behind The Taliban Leadership”, Livemint, August 15, 2021.

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Authors

Kabir Taneja

Kabir Taneja

Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...

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Kriti M. Shah

Kriti M. Shah

Kriti M. Shah was Associate Fellow with the Strategic Studies Programme at ORF. Her research primarily focusses on Afghanistan and Pakistan where she studies their ...

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Sushant Sareen

Sushant Sareen

Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador   ...

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Saaransh Mishra

Saaransh Mishra

Saaransh Mishra was a Research Assistant with the ORFs Strategic Studies Programme. His research focuses on Russia and Eurasia.

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