Published on Mar 12, 2021 Updated 0 Hours ago

भ्रष्टाचार और कमज़ोर संस्थान अफ़ग़ानिस्तान में विकास के रास्ते में बड़े झटके साबित हुए हैं.

अफ़ग़ानिस्तान: गंभीर मानवीय संकट के पीछे रहीं अनगिनत वजहें

अफ़ग़ानिस्तान पिछले कई दशकों से कभी न ख़त्म होने वाले संघर्ष से जूझ रहा है. संघर्ष का नुक़सानदेह असर हाल में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2020 में दिख रहा है. ये रिपोर्ट याद दिलाती है कि अफ़ग़ानिस्तान का संघर्ष के आघात से उबरना अभी बाक़ी है और ये अभी भी दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से एक बना हुआ है जहां 2017 में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय 560 डॉलर थी. यहां की श्रम शक्ति का क़रीब 24 प्रतिशत हिस्सा बेरोज़गार है. युवा महिलाओं में बेरोज़गारी की दर तो 47 प्रतिशत से ज़्यादा है.

2002 से देश काफ़ी आगे बढ़ गया है लेकिन नीतिगत स्तर पर मानवीय विकास को लेकर चर्चा नहीं होती. भ्रष्टाचार और कमज़ोर संस्थान अफ़ग़ानिस्तान में विकास के लिए बड़े झटके रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान जिस मानवीय संकट का सामना कर रहा है, उसे समझने के लिए ये महत्वपूर्ण है कि ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट को मापने के लिए जिन मानदंडों का इस्तेमाल किया गया है उनमें से कुछ की चर्चा की जाए.

आर्थिक और स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर

कोविड-19 महामारी ने अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित किया है और पाबंदियों एवं व्यापार की रुकावटों के कारण कम आर्थिक गतिविधियों की वजह से सरकार के राजस्व संग्रह में नियमित कमी आई है. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि ग़रीबी में गुज़र-बसर करने वाले अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की संख्या 2017 के 55 प्रतिशत के मुक़ाबले 2020 में 72 प्रतिशत हो सकती है. महामारी के दौरान लोगों की आमदनी कम हो गई है और कम आपूर्ति की वजह से खाद्यान्न की क़ीमत में बढ़ोतरी के कारण हालात और बिगड़ गए हैं. महामारी ने सीमित आर्थिक विविधता की बड़ी समस्या भी खड़ी कर दी है. अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से लगी तोरखम बॉर्डर क्रॉसिंग पर काफ़ी हद तक निर्भर है और महामारी की वजह से इस पर काफ़ी ख़राब असर पड़ा है.

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि ग़रीबी में गुज़र-बसर करने वाले अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की संख्या 2017 के 55 प्रतिशत के मुक़ाबले 2020 में 72 प्रतिशत हो सकती है

अफ़ग़ानिस्तान की स्वास्थ्य व्यवस्था दुनिया की सबसे ख़राब स्वास्थ्य व्यवस्था में से एक मानी जाती है. तालिबान शासन के बाद यहां की हुकूमत ने विदेशी मदद से ज़्यादातर स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर को फिर से बनाने की कोशिश की है. स्वास्थ्य देखभाल के केंद्रों की संख्या 2003 के लगभग 500 से बढ़कर 2018 में 2500 हो गई है. यहां स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में भी महत्वपूर्ण बढ़ोतरी हुई है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर में काफ़ी कमी आई है.

लेकिन तब भी तालिबान की विचारधारा की वजह से शांति समझौते और इस बात को लेकर चिंताएं हैं कि स्वास्थ्य प्रणाली कैसे काम करेगी. पिछले कुछ महीनों के दौरान जानबूझकर स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले किए गए और महामारी के शुरुआती दो महीनों में इस तरह के 12 हमले दर्ज किए गए हैं. काबुल के दश्त-ए-बारची अस्पताल पर हमले में 24 लोगों की मौत हुई जिनमें दो नवजात भी शामिल हैं. इस हमले के कारण जून से अस्पताल को अपना काम बंद करना पड़ा.

स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ 55 हज़ार से ज़्यादा कोविड पॉज़िटिव मामले सामने आ चुके हैं और 2,400 से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है लेकिन यहां टेस्टिंग की क्षमता बेहद सीमित है. स्वास्थ्य अधिकारी दावा करते हैं कि मरने वालों की संख्या जितनी बताई जा रही है, उससे ज़्यादा हो सकती है और 32 प्रतिशत आबादी पहले ही वायरस से संक्रमित हो चुकी है. लॉकडाउन लागू करने के बावजूद वायरस को फैलने से रोकने में मदद नहीं मिली क्योंकि एक समय के बाद लोगों को अपने गुज़र के लिए काम करना ही पड़ा.

शिक्षा का संकट

अफ़ग़ानिस्तान की शिक्षा प्रणाली पर पिछले तीन दशकों के संघर्ष का काफ़ी ख़राब असर पड़ा है. शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक़ स्कूल जाने के योग्य एक करोड़ 20 लाख बच्चों में से 50 लाख से ज़्यादा बच्चे फिलहाल स्कूल के बाहर हैं और इनमें से ज़्यादातर लड़कियां हैं. लड़कियों के कम दाखिले और प्राथमिक शिक्षा तक समान पहुंच की कमी की वजह इस तथ्य से जानी जा सकती है कि अफ़ग़ानिस्तान के सिर्फ़ 16 प्रतिशत स्कूल केवल लड़कियों के लिए हैं और इनमें से कई स्कूल में बुनियादी साफ़-सफ़ाई और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी है. स्वास्थ्य मंत्रालय ने ये भी माना कि 6,000 स्कूलों के पास कोई इमारत है ही नहीं और 17,000 से ज़्यादा स्कूलों में पर्याप्त सुविधाओं की कमी है. कई स्कूलों तक हर मौसम में पहुंचने के रास्ते भी नहीं हैं और इन स्कूलों में छात्र अच्छी शिक्षा हासिल नहीं करते. अफ़ग़ानिस्तान में सामाजिक-सांस्कृतिक कारण भी पहले से कमज़ोर शिक्षा व्यवस्था पर असर डालते हैं.

कोविड-19 की अवधि के दौरान ज़्यादातर छात्रों की शिक्षा पर असर पड़ा क्योंकि कई महीनों तक स्कूल बंद रहे. काफ़ी संख्या में छात्रों को मज़बूर होकर अपने माता-पिता के काम में हाथ बंटाना पड़ा और इस बात की संभावना नहीं है कि ये छात्र कभी फिर से स्कूल की तरफ़ लौटेंगे. सरकार ने रेडियो और टेलीविज़न के ज़रिए डिस्टेंस लर्निंग को बढ़ावा दिया लेकिन यहां भी दिक़्क़त ये है कि क़रीब 70 प्रतिशत आबादी के पास बिजली का कनेक्शन भी नहीं है.

अफ़ग़ानिस्तान की शिक्षा प्रणाली पर पिछले तीन दशकों के संघर्ष का काफ़ी ख़राब असर पड़ा है. शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक़ स्कूल जाने के योग्य एक करोड़ 20 लाख बच्चों में से 50 लाख से ज़्यादा बच्चे फिलहाल स्कूल के बाहर हैं और इनमें से ज़्यादातर लड़कियां हैं. 

आमने-सामने की क्लास के लिए स्कूल सितंबर में खोले गए लेकिन नवंबर में सर्दियों की छुट्टी की वजह से स्कूल फिर बंद हो गए. इस तरह महामारी की वजह से पढ़ाई का पूरा एक साल बर्बाद हो गया. शिक्षा की क्वालिटी तभी सुधर सकती है जब सरकार शिक्षा पर ज़्यादा ख़र्च करे और निजी संगठनों के साथ साझेदारी करे. एक लड़की के शिक्षा के अधिकार को न सिर्फ़ सबको शामिल करने को बढ़ावा देने के तरीक़े की तरह समझा जाना चाहिए बल्कि एक आर्थिक ज़रूरत के तौर पर भी. शिक्षा व्यवस्था को छात्रों के दाखिले के साथ-साथ उनकी शिक्षा लगातार जारी रखने पर भी ग़ौर करना चाहिए.

लैंगिक असमानता

महिलाओं की स्थिति, ख़ास तौर से शहरी क्षेत्रों में रहने वाली, में 2001 के बाद महत्वपूर्ण सुधार आया लेकिन ख़राब अफ़ग़ान शांति समझौते की वजह से उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ है. तालिबान ने महिलाओं पर कठोर सामाजिक और राजनीतिक पाबंदियां लगाई थीं जिनमें अनिवार्य रूप से चेहरे को ढंकना और शिक्षा, स्वास्थ्य एवं नौकरी तक उनकी पहुंच पर प्रतिबंध शामिल हैं. महिलाओं को उनके परिवार के किसी पुरुष सदस्य की उपस्थिति के बिना सार्वजनिक जगहों पर मौजूद रहने की इजाज़त नहीं दी गई थी.

2003 में 10 प्रतिशत से कम लड़कियां प्राथमिक स्कूलों में पढ़ती थीं लेकिन 2017 के ख़त्म होते-होते ये आंकड़ा 33 प्रतिशत पर पहुंच गया. इसी तरह सेकेंडरी शिक्षा में भी लड़कियों के दाखिले की दर तेज़ी से बढ़कर 33 प्रतिशत पर पहुंच गई. फिलहाल सिविल सेवा में 21 प्रतिशत और संसद सदस्यों में 27 प्रतिशत महिलाएं हैं.

शहरी क्षेत्रों में मंत्रालय का काम संभालने वाली ज़्यादातर महिलाएं शिक्षित हैं और वो पहले भी सिविल सोसायटी का हिस्सा रही हैं. लेकिन ग्रामीण इलाक़ों, जहां 76 प्रतिशत अफ़ग़ान आबादी रहती है, में ऐसी स्थिति नहीं है. ज़्यादातर ग्रामीण इलाक़ों पर तालिबान का कब्ज़ा है और उग्रवादियों और सुरक्षा बलों में लगातार लड़ाई जारी रहती है. कई महिलाओं ने अपने पति और भाइयों को इस युद्ध में गंवाया है और काम नहीं करने की वजह से वो ख़राब आर्थिक हालत में रहती हैं.

महामारी ने महिलाओं के लिए हालात को बदतर बना दिया है और उन्हें स्वास्थ्य देखभाल के उनके बुनियादी अधिकार से वंचित कर दिया है. घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी हुई है और आर्थिक असमानता बढ़ी है. अफ़ग़ानिस्तान शांति समझौते पर बातचीत को देखते हुए  भविष्य भी निराशाजनक लगता है. अफ़ग़ानिस्तान सरकार द्वारा बातचीत के लिए नियुक्त 21 सदस्यों में से सिर्फ़ पांच महिलाएं हैं.

तालिबान की तरफ़ से नियुक्त बातचीत की टीम में तो एक भी महिला नहीं है और तालिबान ने सरकारी संस्थानों में महिलाओं को शामिल करने पर बयान देने से इनकार कर दिया है. तालिबान ने महिलाओं को लगातार हाशिये पर रखने की अपनी पूर्व की स्थिति पर भी कोई बयान नहीं दिया है. अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस लेने का ऐलान कर चुके अमेरिका को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाओं की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए मज़बूत नीति हो और अगर इनका उल्लंघन होता है तो विदेशी सहायता पर वो पाबंदी लगाए.

हिंसा में बढ़ोतरी

सितंबर में शुरू अफ़ग़ान शांति वार्ता के बावजूद पिछले कुछ महीनों में हिंसा में बढ़ोतरी हुई है. तालिबान के उग्रवादी सरकारी अधिकारियों, पत्रकारों और अफ़ग़ान बलों पर हमले कर रहे हैं. 2020 में 3,378 सुरक्षा बलों के जवानों और 1,468 नागरिकों की मौत हिंसा में हुई. अफ़ग़ान सरकार के साथ-साथ अमेरिका ने भी तत्काल युद्धविराम की मांग की है.

ग्लोबल टेररिज़्म इंडेक्स पर ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में आतंकवाद से जितने लोगों की मौत होती है, उसमें 41 प्रतिशत हिस्सा अकेले अफ़ग़ानिस्तान का है. इन मौतों में से 87 प्रतिशत के लिए तालिबान ज़िम्मेदार है और अफ़ग़ानिस्तान के आधे क्षेत्रफल पर फिलहाल तालिबान का कब्ज़ा है. 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिका के आक्रमण के वक़्त से मरने वालों की संख्या और तालिबान के कब्ज़े वाले इलाक़े के मामले में ये सबसे ज़्यादा है. पिछले कुछ वर्षों में आम नागरिकों की हत्या में भी बढ़ोतरी हुई है. आम नागरिकों की हत्या में बढ़ोतरी की वजह अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा हवाई हमले हैं. 2019 में कुल मिलाकर 700 आम नागरिकों की हत्या हुई.

अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस लेने का ऐलान कर चुके अमेरिका को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाओं की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए मज़बूत नीति हो और अगर इनका उल्लंघन होता है तो विदेशी सहायता पर वो पाबंदी लगाए.

अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान के हाथ में छोड़कर जा रहा है. शांति समझौते में उसने अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त अफ़ग़ान सरकार को भी मान्यता नहीं दी. तालिबान ने ये वादा तो किया कि वो अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले के लिए अफ़ग़ानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल नहीं करेगा लेकिन पाकिस्तान में अपनी मौजूदगी या अल क़ायदा से अपने संबंधों को तोड़ने को लेकर उसने कुछ भी नहीं कहा. इस तरह का दोषपूर्ण समझौता अफ़ग़ानिस्तान में वो शांति नहीं लाएगा जिसकी उसको इस वक़्त सख़्त ज़रूरत है.

आगे का रास्ता

कोविड-19 की वजह से अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यव्स्था 2020 में 5.5-7.4 प्रतिशत तक गिरने की आशंका है. इससे ग़रीबी में बढ़ोतरी होगी और सरकार की आय में काफ़ी कमी आएगी. इन आंकड़ों की वजह से अफ़ग़ानिस्तान को उबरने में कई साल लग जाएंगे और इसके लिए उसे विदेशी सहायता की मदद की ज़रूरत पड़ेगी.

शांति वार्ता में हाल की कामयाबी से अगले दौर की बातचीत के लिए कुछ उम्मीद तो जगी है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों को ये सुनिश्चित करने के लिए अभी भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की ज़रूरत है कि दशकों पुराने संघर्ष में स्थायी शांति हासिल की जा सके. यूएनडीपी की ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट देश में समृद्ध खनिज संपदा की मौजूदगी का ज़िक्र करती है जिनका अभी तक बहुत ज़्यादा खनन नहीं हुआ है और इनका ज़्यादातर व्यापार अनौपचारिक और ग़ैर-क़ानूनी है. अफ़ग़ानिस्तान अपनी आर्थिक ख़ुशहाली के लिए अपने खनिज स्रोतों का इस्तेमाल कर सकता है.

सरकार के लिए ये ज़रूरी है कि वो विदेशी सहायता में कटौती के बीच ज़्यादा राजस्व जुटाने के लिए नीतियों को विकसित करे. लगातार हिंसा, महामारी की दूसरी लहर की आशंका और शांति वार्ता में मंडराती अनिश्चितता को देखते हुए सरकार को संस्थानों को मज़बूत करने की ज़रूरत है ताकि निवेश और निजी क्षेत्रों को आकर्षित करके आर्थिक बदहाली से बाहर निकला जा सके.


ये लेख मूल रूप से साउथ एशिया वीकली में प्रकाशित हुआ. लेखक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं.

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